पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध – Dependence Essay In Hindi

Dependence Essay In Hindi

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध – Essay On Dependence In Hindi

अन्य सम्बन्धित शीर्षक, परतन्त्रता अथवा दासता, पराधीनता मृत्यु है, स्वाधीनता का महत्त्व, पराधीनता एक अभिशाप है। “क्या मैं अपने देश ही में गुलामी करने के लिए जिन्दा रहूँ? नहीं, ऐसी जिन्दगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।”

–मुंशी प्रेमचन्द

रूपरेखा–

  • पराधीन का अर्थ,
  • पराधीनता और भय,
  • स्वाधीनता का तात्पर्य,
  • स्वाधीनता की आवश्यकता,
  • पराधीनता के दुष्परिणाम,
  • पराधीनता मृत्युसमान है,
  • उपसंहार।

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध – Paraadheen Sapanehun Sukh Naaheen Par Nibandh

पराधीन का अर्थ–
‘पराधीन’ शब्द दो शब्दों के योग से बना है–’पर + अधीन’, अर्थात् दूसरे के नियन्त्रण या बन्धन में रहना। इसलिए जब कभी एक शक्तिशाली राष्ट्र किसी निर्बल देश को अपने अधिकार में कर लेता है तो अधिकार में आए देश को हम पराधीन देश कहते हैं। इसी प्रकार जब हमारे स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र व्यवसाय पर बन्धन लगा दिया जाता है तो हम पराधीनता की श्रेणी में आ जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पराधीन व्यक्ति न तो अपने मन के अनुसार कुछ काम कर सकता है और न स्वतन्त्र रूप में कुछ सोच सकता है।

पराधीनता और भय–
पराधीनता भय की जननी है। पराधीन व्यक्ति के मन में सदैव भय व्याप्त रहता है, इस भय के कारण वह कुछ भी नहीं कर पाता है और न अपने देश अथवा समाज के हित की बात सोच पाता है।

स्वाधीनता का तात्पर्य–
स्वाधीनता का तात्पर्य है–“जो अपने ही अधीन हो”; इसलिए स्वाधीनता का अर्थ हुआ–स्वतन्त्रता। जो व्यक्ति किसी नियन्त्रण अथवा बन्धन के बिना अपनी इच्छा के अनुसार काम करने का अधिकार रखता है, उसे हम स्वतन्त्र या स्वाधीन कहते हैं, किन्तु इस स्वतन्त्रता या स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं है कि हम समाज और देश द्वारा बनाए गए नियमों का भी उल्लंघन करें। प्रत्येक समाज के कुछ–न–कुछ नियम होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति समाज के इन नियमों से बँधा होता है। समाज के नियम व्यक्ति ने स्वयं बनाए हैं।

यदि कोई व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह अराजकता को जन्म देता है। सड़क पर प्रत्येक व्यक्ति को चलने का अधिकार है, किन्तु सड़क पर चलने के कुछ पूर्वनिर्धारित नियम हैं। यदि कोई व्यक्ति इन नियमों का उल्लंघन करता है तो वह अपने प्राणों को तो संकट में डालता ही है, अन्य व्यक्तियों के लिए भी खतरा उत्पन्न कर देता है। इसलिए समाज के नियमों का पालन करना पराधीनता नहीं है।

स्वाधीनता की आवश्यकता–
व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाधीनता परम आवश्यक है। स्वतन्त्रता अथवा स्वाधीनता के अभाव में कोई भी व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता। जब व्यक्ति की उन्नति नहीं होगी तो देश की उन्नति भी सम्भव नहीं है। इसलिए देश की आजादी की लड़ाई में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि “स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूँगा।”

पराधीनता के दुष्परिणाम–
दासता, चाहे मानसिक हो अथवा शारीरिक, एक अभिशाप है। पराधीन व्यक्ति का सुख समाप्त हो जाता है, उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है और चिन्तन रुक जाता है। पराधीनता से राष्ट्र की संस्कृति नष्ट हो जाती है, धर्म मिट जाता है तथा नैतिक दृष्टि से देशवासियों का पतन होने लगता है।

पराधीनता मृत्युसमान है–
पराधीनता साक्षात् मृत्यु है। पराधीन व्यक्ति को कितनी ही भौतिक सुविधाएँ ” किन्न स्वतन्त्रता में कष्ट उठाते हुए भी जो आनन्द मिलता है, वह पराधीनता में कहाँ। वास्तव में पराधीनता ता, अवसाद, खीझ एवं निराशा को जन्म देती है। पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। पराधीन व्यक्ति स्वयं से घृणा करने लगता है।

वह अपने जीवन में जो भी कार्य करता है, उसे निराशा ही मिलती है। नवीन आविष्कार के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। परतन्त्र व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकता, वह पराश्रित हो जाता है। इस प्रकार पराधीनता व्यक्ति और समाज के लिए घातक विष के समान है।

उपसंहार–
प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता के वातावरण में साँस लेना चाहता है। पराधीनता प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए अभिशाप है। पराधीनता में मिलनेवाला सुख वास्तविक नहीं होता। वास्तव में वह सुख होता ही नहीं है, वह तो दुःखों का आरम्भ होता है। पराधीनता मानव–जीवन के लिए एक ऐसी जंजीर है, जिसमें बँधकर व्यक्ति मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।

इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की यह उक्ति–’पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ नितान्त सत्य है और मानव–जीवन की वास्तविकता को प्रकट करती है। स्वतन्त्रता हमारी अमूल्य निधि है और अपने प्राणों की आहुति देकर भी हमें अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखना होगा।

यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो हिंदी निबंध – If I were the Prime Minister Essay in Hindi

If I were the Prime Minister Essay in Hindi

यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो हिंदी निबंध – Essay on If I were the Prime Minister in Hindi

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. देश के शासन में प्रधानमन्त्री का महत्त्व,
  3. प्रधानमन्त्री के रूप में मैं क्या करता–
    • (क) राजनैतिक स्थिरता,
    • (ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में,
    • (ग) राष्ट्रीय सुरक्षा और मेरी नीति,
    • (घ) देश के लिए उचित शिक्षा–नीति,
    • (ङ) आर्थिक सुधार और मेरी नीतियाँ,
    • (च) बेरोजगारी की समस्या का समाधान,
    • (छ) खाद्य समस्या का निदान,
    • (ज) सामाजिक सुधार,
  4. उपसंहार!

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

प्रस्तावना–
मैं स्वतन्त्र भारत का नागरिक हूँ और मेरे देश की शासन–व्यवस्था का स्वरूप जनतन्त्रीय है। यहाँ का प्रत्येक नागरिक, संविधान के नियमों के अनुसार, देश की सर्वोच्च सत्ता को सँभालने का अधिकारी है। मानव–मन स्वभाव से ही महत्त्वाकांक्षी है। मेरे मन में भी एक महत्त्वाकांक्षा है और उसकी पूर्ति के लिए मैं निरन्तर प्रयासरत भी हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं भारतीय गणराज्य का प्रधानमन्त्री बनें।

देश के शासन में प्रधानमन्त्री का महत्त्व–
मैं इस बात को भली प्रकार जानता हूँ कि संसदात्मक शासन–व्यवस्था में, जहाँ वास्तविक कार्यकारी शक्ति मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है, देश के शासन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व प्रधानमन्त्री पर ही होता है। वह केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष और नेता होता है। वह मा परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता तथा उसकी कार्यवाही का संचालन करता है। मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णय उसको इच्छा से प्रभावित होते हैं। अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति तथा उनके विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री की इच्छा के अनुसार ही किया जाता है। मन्त्रिपरिषद् यदि देश की नौका है तो प्रधानमन्त्री इसका नाविक।

प्रधानमन्त्री के रूप में मैं क्या करता?–
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि प्रधानमन्त्री बनने के बाद तुम क्या करोगे? मैं यही कहना चाहूँगा कि प्रधानमन्त्री बनने के बाद मैं राष्ट्र के विकास के लिए निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करूँगा-

(क) राजनैतिक स्थिरता–आज सारा देश विभिन्न आन्दोलनों से घिरा है। जिधर देखिए, उधर आन्दोलन हो रहे हैं। कभी असम का आन्दोलन तो कभी पंजाब में अकालियों का आन्दोलन। कभी हिन्दी–विरोधी आन्दोलन तो कभी वेतन–वृद्धि के लिए आन्दोलन। ऐसा लगता है कि अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रत्येक दल और प्रत्येक वर्ग आन्दोलन का मार्ग अपनाए हुए है।

विरोधी दल सत्तारूढ़ दल पर पक्षपात का आरोप लगाता है तो सत्तारूढ़ दल विरोधी दलों पर तोड़–फोड़ का आरोप लगाता रहता है। मैं विरोधी दलों के महत्त्वपूर्ण नेताओं से बातचीत करके उनकी उचित माँगों को मानकर देश में राजनैतिक स्थिरता स्थापित करने का प्रयास करूँगा। मैं प्रेम और नैतिकता पर आधारित आचरण करते हुए राजनीति.को स्थिर बनाऊँगा।

(ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में हमारा देश शान्तिप्रिय देश है–हमने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया पर किसी भी आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब अवश्य दिया है। चीन और पाकिस्तान हमारे पड़ोसी देश हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों ही देश पारस्परिक सम्बन्धों में निरन्तर विष घोलते रहते हैं। अपनी परराष्ट्र नीति की प्राचीन परम्परा को निभाते हुए मैं इस बात का प्रयास करूँगा कि पड़ोसी देशों से हमारे सम्बन्ध निरन्तर मधुर बने रहें।

हम पूज्य महात्मा गांधी और पं० जवाहरलाल नेहरू के बताए मार्ग पर चलते रहेंगे, किन्तु यदि किसी देश ने हमें अहिंसक समझकर हम पर आक्रमण किया तो हम उसका मुँहतोड़ जवाब देंगे। ‘गीता’ ने भी हमें यही शिक्षा दी है–’हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्।’

(ग) राष्ट्रीय सुरक्षा और मेरी नीति–देश की सुरक्षा दो स्तरों पर करनी पड़ती है–देश की सीमाओं की सुरक्षा; अर्थात् बाह्य आक्रमण से सुरक्षा तथा आन्तरिक सुरक्षा। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए प्रत्येक स्तर पर आवश्यक प्रबन्ध करता है। प्रधानमन्त्री के महत्त्वपूर्ण पद पर रहते हुए मैं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सदैव प्रयत्नशील रहूँगा और देश पर किसी भी प्रकार की आँच न आने दूंगा।

बाह्य सुरक्षा के लिए मैं अपने देश की सैनिक–
शक्ति को सुदृढ़ बनाने का पूरा प्रयत्न करूँगा तथा आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस एवं गुप्तचर विभाग को प्रभावशाली बनाऊँगा। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम का कड़ाई से पालन किया जाएगा और ऐसे व्यक्तियों को कड़ी सजा दी जाएगी, जो राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा को खण्डित करने का दुष्प्रयास करेंगे।

(घ) देश के लिए उचित शिक्षा–नीति–मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि शिक्षा ही हमारे उत्थान का सही मार्ग बता सकती है। दुर्भाग्य से हमारे राष्ट्रीय–नेताओं ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। मैं इस प्रकार की शिक्षा–नीति बनाऊँगा; जो विद्यार्थियों को चरित्रवान्, कर्त्तव्यनिष्ठ और कुशल नागरिक बनाने में सहायता प्रदान करे तथा उन्हें श्रम की महत्ता का बोध कराए। इस प्रकार हमारे देश में देशभक्त नागरिकों का निर्माण होगा और देश से बेरोजगारी के अभिशाप को भी मिटाया जा सकेगा। मैं शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करके गुरु–शिष्य–परम्परा की प्राचीन परिपाटी को पुनः प्रारम्भ करूँगा।

(ङ) आर्थिक सुधार और मेरी नीतियाँ–हमारे देश में अथाह प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से हम इनका भरपूर उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसीलिए सम्पन्न देशों की तुलना में हम एक निर्धन देश के वासी कहलाते हैं। मैं इस प्रकार का प्रयास करूंगा कि हमारे देश की प्राकृतिक सम्पदा का अधिक–से–अधिक और सही उपयोग किया जा सके।

कृषि के क्षेत्र में अधिक उत्पादन हेतु वैज्ञानिक तकनीकें प्रयुक्त की जाएंगी। मैं किसानों को पर्याप्त आर्थिक सुविधाएँ प्रदान करूँगा तथा उत्पादन, उपभोग और विनिमय में सन्तुलन स्थापित करूँगा। बैंकिंग प्रणाली को अधिक उदार और सक्षम बनाने का प्रयास करूँगा, जिससे जरूरतमन्द लोगों को समय पर आर्थिक सहायता प्राप्त हो सके।

कृषि के विकास के साथ–
साथ मैं देश के औद्योगीकरण का भी पूरा प्रयास करूँगा, जिससे प्रगति की दौड़ में मेर देश किसी से भी पीछे न रह जाए। नए–नए उद्योग स्थापित करके देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना भी मे : आर्थिक नीति का प्रमुख उद्देश्य होगा।

(च) बेरोजगारी की समस्या का समाधान देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। सर्वप्रथम मैं लोगों को जनसंख्या नियोजन के लिए प्रेरित करूँगा।

मेरे शासन में देश का कोई नवयुवक बेरोजगार नहीं घूमेगा। शिक्षित युवकों को उनकी योग्यता के अनुरूप कार्य दिलाना मेरी सरकार का दायित्व होगा। साथ–साथ नवयुवकों को स्व–रोजगार के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाएगी। भिक्षावृत्ति पर पूरी तरह रोक लगा दी जाएगी।

(छ) खाद्य–समस्या का निदान–हमारा देश कृषिप्रधान है। इस देश की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि–कार्य पर निर्भर है; फिर भी यहाँ खाद्य–समस्या निरन्तर अपना मुँह खोले खड़ी रहती है और हमें विदेशों से खाद्य–सामग्री मँगानी पड़ती है। इस समस्या के निदान के लिए मैं वैज्ञानिक खेती की ओर विशेष ध्यान दूँगा।

नवीन कृषि–यन्त्रों और रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाएगा तथा सिंचाई के आधुनिक साधनों का जाल बिछा दिया जाएगा, जिससे देश की थोड़ी–सी भूमि भी बंजर या सूखी न पड़ी रहे। किसानों के लिए उत्तम और अधिक उपज देने वाले बीजों की व्यवस्था की जाएगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात होगी–कृषि–उत्पादन का सही वितरण और संचयन। इसके लिए सहकारी संस्थाएँ और समितियाँ किसानों की भरपूर सहायता करेंगी।

(ज) सामाजिक सुधार–किसी भी देश की वास्तविक प्रगति उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक उसके नागरिक चरित्रवान्, ईमानदार और राष्ट्रभक्त न हों। हमारा देश इस समय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक आदि विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त है। यहाँ मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी, जमाखोरी तथा भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी जम चुकी हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए मैं स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर दूंगा।

मेरे शासन में प्रत्येक वस्तु का मूल्य निर्धारित कर दिया जाएगा। सहकारी बाजारों की स्थापना की जाएगी, जिससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी की समस्या दूर हो सके। मुनाफाखोर बिचौलियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा।

रिश्वत का कीड़ा हमारे देश की नींव को निरन्तर खोखला कर रहा है। रिश्वतखोरों को इतनी कड़ी सजा दी जाएगी कि वे भविष्य में इस विषय में सोच भी न सकेंगे। इसके लिए न्याय और दण्ड–प्रक्रिया में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए जाएंगे।

उपसंहार–
मैं केवल स्वप्न ही नहीं देखता, वरन् संकल्प और विश्वास के बल पर अपने देश को पूर्ण कल्याणकारी गणराज्य बनाने की योग्यता भी रखता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे देश के कमजोर, निर्धन, पीड़ित, शोषित और असहाय वर्ग के लोग चैन की साँस ले सकें और सुख की नींद सो सकें।

मेरे शासन में प्रत्येक व्यक्ति के पास रहने को मकान, करने को काम, पेट के लिए रोटी और पहनने के लिए वस्त्रों की व्यवस्था होगी। इस रूप में हमारा देश सही अर्थों में महान् और विकसित बन सकेगा।

पढ़ें बेटियाँ, बढ़ें बेटियाँ योजना यूपी में लागू निबंध – Read Daughters, Grow Daughters Essay In Hindi

Read Daughters, Grow Daughters Essay In Hindi

पढ़ें बेटियाँ, बढ़ें बेटियाँ योजना यूपी में लागू निबंध – Essay On Read Daughters, Grow Daughters In Hindi

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. योजना के उद्देश्य
  3. ‘बढ़ें बेटियाँ’ से आशय,
  4. बेटियों को आगे बढ़ाने के उपाय–
    • (क) पढ़ें बेटियाँ,
    • (ख) सामाजिक सुरक्षा,
    • (ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता,
  5. उपसंहार।

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

पढ़ें बेटियाँ, बढ़ें बेटियाँ योजना यूपी में लागू निबंध – Padhen Betiyaan, Badhen Betiyaan Yojana Yoopee Mein Laagoo Nibandh

प्रस्तावना–
कहते हैं कि सुघड़, सुशील और सुशिक्षित स्त्री दो कुलों का उद्धार करती है। विवाहपर्यन्त वह अपने मातृकुल को सुधारती है और विवाहोपरान्त अपने पतिकुल को। उनके इस महत्त्व को प्रत्येक देश–काल में स्वीकार किया जाता रहा है, किन्तु यह विडम्बना ही है कि उनके अस्तित्व और शिक्षा पर सदैव से संकट छाया रहा है।

विगत कुछ दशकों में यह संकट और अधिक गहरा हुआ है, जिसका परिणाम यह हुआ कि देश में बालक–बालिका लिंगानुपात सन् 1971 ई० की जनगणना के अनुसार प्रति एक हजार बालकों पर 930 बालिका था, जो सन् 1991 ई० में घटकर 927 हो गया। सन् 2011 ई० की जनगणना में यह बढ़कर 943 हो गया।

मगर इसे सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। जब तक बालक–बालिका लिंगानुपात बराबर नहीं हो जाता, तब तक किसी भी प्रगतिशील बुद्धिवादी समाज को विकसित अथवा प्रगतिशील समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती। महिला सशक्तीकरण की बात करना भी तब तक बेमानी ही है।

माननीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदीजी ने इस तथ्य के मर्म को जाना–समझा और सरकारी स्तर पर एक योजना चलाने की रूपरेखा तैयार की। इसके लिए उन्होंने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा राज्य से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की शुरूआत की।

योजना के उद्देश्य–
योजना के महत्त्व और महान् उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना की शुरूआत भारत सरकार के बाल विकास मन्त्रालय, स्वास्थ्य मन्त्रालय, परिवार कल्याण मन्त्रालय और मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की संयुक्त पहल से की गई। इस योजना के दोहरे लक्ष्य के अन्तर्गत न केवल लिंगानुपात की असमानता की दर में सन्तुलन लाना है, बल्कि कन्याओं को शिक्षा दिलाकर देश के विकास में उनकी भागेदारी को सुनिश्चित करना है।

सौ करोड़ रुपयों की शुरूआती राशि के साथ इस योजना के माध्यम से महिलाओं के लिए कल्याणकारी सेवाओं के प्रति जागरूकता फैलाने का कार्य किया जा रहा है। सरकार द्वारा लिंग समानता के कार्य को मुख्यधारा से जोड़ने के अतिरिक्त स्कूली पाठ्यक्रमों में भी लिंग समानता से जुड़ा एक अध्याय रखा जाएगा। इसके आधार पर विद्यार्थी, अध्यापक और समुदाय कन्या शिशु और महिलाओं की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनेंगे तथा समाज का सौहार्दपूर्ण विकास होगा।

‘बढ़े बेटियाँ’ से आशय–
‘बेटी बचाओ’ योजना के रूप में इसका सबसे बड़ा उद्देश्य बालिकाओं के लिंगानुपात को बालकों के बराबर लाना है। मगर यहाँ प्रश्न यह खड़ा होता है कि हम बेटियों के लिंगानुपात को बराबर करके उनकी दशा और दिशा में परिवर्तन लाकर उन्हें देश–दुनिया के विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित कर पाएँगे। यदि लिंगानुपात स्त्रियों के देश और समाज के विकास की मुख्यधारा से जुड़ने का मानक होता तो देश की संसद में स्त्रियों के 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा न खड़ा होता।

मगर पुरुषों के लगभग बराबर जनसंख्या होने के बाद भी हमारी वर्तमान 543 सदस्यीय लोकसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 66 है, जबकि लिंगानुपात के अनुसार यह स्वाभाविक रूप में पुरुषों की संख्या के लगभग आधी होनी चाहिए थी। इसलिए बेटियों को बचाकर उनकी संख्या में वृद्धि करने के साथ–साथ यह भी आवश्यक है कि वे निरन्तर आगे बढ़ें। उनकी प्रगति के मार्ग की प्रत्येक बाधा को दूर करके उन्हें उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त करें। ‘बढ़ें बेटियाँ’ नारे का उद्देश्य और आशय भी यही है।

बेटियों को आगे बढ़ाने के उपाय–हमारी बेटियाँ आगे बढ़ें और देश के विकास में अपना योगदान करें, इसके लिए अनेक उपाय किए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ मुख्य उपाय इस प्रकार हैं-

(क) पढ़ें बेटियाँ–बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण और मुख्य उपाय यही है कि हमारी बेटियाँ बिना किसी बाधा और सामाजिक बन्धनों के उच्च शिक्षा प्राप्त करें तथा स्वयं अपने भविष्य का निर्माण करने में सक्षम हों। अभी तक देश में बालिकाओं की शिक्षा की स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। शहरी क्षेत्रों में तो बालिकाओं की स्थिति कुछ ठीक भी है, किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति बड़ी दयनीय है। बालिकाओं की अशिक्षा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग उन्हें ‘पराया धन’ मानते हैं।

उनकी सोच है कि विवाहोपरान्त उसे दूसरे के घर जाकर घर–गृहस्थी का कार्य सँभालना है, इसलिए पढ़ने–लिखने के स्थान पर उसका घरेलू कार्यों में निपुण होना अनिवार्य है। उनकी यही सोच बेटियों के स्कूल जाने के मार्ग बन्द करके घर की चहारदीवारी में उन्हें कैद कर देती है। बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले समाज की इसी निकृष्ट सोच को परिवर्तित करना होगा।

(ख) सामाजिक सुरक्षा–बेटियाँ पढ़–लिखकर आत्मनिर्भर बनें और देश के विकास में अपना योगदान दें, इसके लिए सबसे आवश्यक यह है कि हम समाज में ऐसे वातावरण का निर्माण करें, जिससे घर से बाहर निकलनेवाली प्रत्येक बेटी और उसके माता–पिता का मन उनकी सुरक्षा को लेकर सशंकित न हो। आज बेटियाँ घर से बाहर जाकर सुरक्षित रहें और शाम को बिना किसी भय अथवा तनाव के घर वापस लौटें, यही सबसे बड़ी आवश्यकता है।

आज घर से बाहर बेटियाँ असुरक्षा का अनुभव करती हैं, वे शाम को जब तक सही–सलामत घर वापस नहीं आ जाती, उनके माता–पिता की साँसें गले में अटकी रहती हैं। उनकी यही चिन्ता बेटी को घर के भीतर कैद रखने की अवधारणा को बल प्रदान करती है। जो माता–पिता किसी प्रकार अपने दिल पर पत्थर रखकर अपनी बेटियों को पढ़ा–लिखाकर योग्य बना भी देते हैं, वे भी उन्हें रोजगार के लिए घर से दूर इसलिए नहीं भेजते कि ‘जमाना ठीक नहीं है।’ अतः बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए इस जमाने को ठीक करना आवश्यक है अर्थात् हमें बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी देनी होगी।

(ग) रोजगार के समान अवसरों की उपलब्धता–अनेक प्रयासों के बाद भी बहुत–से सरकारी एवं गैर–सरकारी क्षेत्र ऐसे हैं, जिनको महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। सैन्य–सेवा एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें महिलाओं को पुरुषों के समान रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हैं। यान्त्रिक अर्थात् टेक्नीकल क्षेत्र विशेषकर फील्ड वर्क को भी महिलाओं की सेवा के योग्य नहीं माना जाता है इसलिए इन क्षेत्रों में सेवा के लिए पुरुषों को वरीयता दी जाती है।

यदि हमें बेटियों को आगे बढ़ाना है तो उनके लिए सभी क्षेत्रों में रोजगार के समान अवसर उपलब्ध कराने होंगे। यह सन्तोष का विषय है कि अब सैन्य और यान्त्रिक आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएँ रोजगार के लिए आगे आ रही हैं और उन्हें सेवा का अवसर प्रदानकर उन्हें आगे आने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा रहा है।

उपसंहार–
बेटियाँ पढ़ें और आगे बढ़ें, इसका दायित्व केवल सरकार पर नहीं है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर इस बात का दायित्व है कि वह अपने स्तर पर वह हर सम्भव प्रयास करे, जिससे बेटियों को पढ़ने और आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिले। हम यह सुनिश्चित करें कि जब हम घर से बाहर हों तो किसी भी बेटी की सुरक्षा पर हमारे रहते कोई आँच नहीं आनी चाहिए।

यदि कोई उनके मान–सम्मान को ठेस पहुँचाने की तनिक भी चेष्टा करे तो आगे बढ़कर उसे सुरक्षा प्रदान करनी होगी और उनके मान–सम्मान से खिलवाड़ करनेवालों को विधिसम्मत दण्ड दिलाकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना होगा, जिससे हमारी बेटियाँ उन्मुक्त गगन में पंख पसारे नित नई ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकें।

राष्ट्रीय एकता पर निबंध – National Unity Essay In Hindi

National Unity Essay In Hindi

राष्ट्रीय एकता पर निबंध – Essay On National Unity In Hindi

“भारत की संस्कृति अपने जन्मकाल से ही विभिन्न जातियों के सामूहिक योगदान का परिणाम है। अपने देश की| इस संस्कृति से प्रेम न होना अथवा पारस्परिक भेदभाव रखना राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वाधिक घातक है।”

रामधारीसिंह ‘दिनकर’ रूपरेखा–

  1. राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय,
  2. राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता,
  3. राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ : कारण और निवारण–
    • (क) साम्प्रदायिकता,
    • (ख) भाषागत विवाद,
    • (ग) प्रान्तीयता या प्रादेशिकता की भावना,
  4. राष्ट्रीय एकता की दिशा में हमारे प्रयास,
  5. उपसंहार।

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

राष्ट्रीय एकता पर निबंध – Raashtreey Ekata Par Nibandh

राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय–
राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है–सम्पूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैचारिक एकता। हमारे कर्मकाण्ड, पूजा–पाठ, खान–पान, रहन–सहन और वेशभूषा में अन्तर हो सकता है, किन्तु हमारे राजनैतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में प्रत्येक दृष्टि से एकता की भावना दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है।

राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता–
राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाहरी शत्रुओं से रक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। यदि हम भारतवासी किसी कारणवश छिन्न–भिन्न हो गए तो हमारी पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे।

अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में बोलते हुए भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था–”जब–जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनैतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी। जब–जब भी विचारों में संकीर्णता आई, आपस में झगड़े हुए। जब कभी भी नए विचारों से अपना मुख मोड़ा, हानि ही हुई और हम विदेशी शासन के अधीन हो गए।”

राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ : कारण और निवारण–राष्ट्रीय एकता की भावना का अर्थ मात्र यही नहीं है कि हम एक राष्ट्र से सम्बद्ध हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए एक–दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना भी आवश्यक है। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् हमने सोचा था कि अब पारस्परिक भेदभाव की खाई पट जाएगी, किन्तु साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता, अज्ञानता और भाषागत अनेकता ने आज भी पूरे देश को आक्रान्त कर रखा है।

राष्ट्रीय एकता को छिन्न–भिन्न कर देनेवाले कारकों को जानना आवश्यक है, जिससे उनको दूर करने का प्रयास किया जा सके। इसके कारण और निवारण निम्नलिखित हैं-

(क) साम्प्रदायिकता–राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा साम्प्रदायिकता की भावना है। साम्प्रदायिकता एक ऐसी बुराई है, जो मानव–मानव में फूट डालती है, दो दोस्तों के बीच घृणा और भेद की दीवार खड़ी करती है, भाई को भाई से अलग करती है और अन्त में समाज के टुकड़े कर देती है। दुर्भाग्य से इस रोग को समाप्त करने के लिए जितना अधिक प्रयास किया गया है, यह रोग उतना ही अधिक बढ़ता गया है। स्वार्थ में लिप्त राजनीतिज्ञ सम्प्रदाय के नाम पर भोले–भाले लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहे हैं; परिणामत: देश का वातावरण विषाक्त होता जा रहा है।

यदि राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे रखना है तो साम्प्रदायिक विद्वेष, स्पर्धा, ईर्ष्या आदि राष्ट्र–विरोधी भावों को अपने मन से दूर रखना होगा और देश में साम्प्रदायिक सद्भाव जाग्रत करना होगा। साम्प्रदायिक सद्भाव से तात्पर्य यह है कि हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी मतावलम्बी भारतभूमि को अपनी मातृभूमि के रूप में सम्मान देते हुए परस्पर स्नेह और सद्भाव के साथ रहें। यह राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।

उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने धार्मिक और साम्प्रदायिक एकता की दृष्टि से अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा था-

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा॥

धार्मिक एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने धर्म–ग्रन्थों के वास्तविक सन्देश को समझें, उनके स्वार्थपूर्ण अर्थ न निकालें। विभिन्न धर्मों के आदर्श सन्देशों को संगृहीत किया जाए। प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में उनके अध्ययन की विधिवत् व्यवस्था की जाए, जिससे भावी पीढ़ी उन्हें अपने आचरण में उतार सके और संसार के समक्ष ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सके कि वह सभी धर्मों और सम्प्रदायों को महान् मानती है एवं उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती है।

(ख) भाषागत विवाद–भारत बहुभाषी राष्ट्र है। देश के विभिन्न प्रान्तों की अलग–अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा और उस भाषा पर आधारित साहित्य को ही श्रेष्ठ मानता है। इससे भाषा पर आधारित विवाद खड़े हो जाते हैं तथा राष्ट्र की अखण्डता भंग होने के खतरे बढ़ जाते हैं।

यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा के मोह के कारण दूसरी भाषा का अपमान या उसकी अवहेलना करता है तो वह राष्ट्रीय एकता पर ही प्रहार करता है। होना तो यह चाहिए कि अपनी मातृभाषा को सीखने के बाद हम संविधान में स्वीकृत अन्य प्रादेशिक भाषाओं को भी सीखें तथा राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास में सहयोग प्रदान करें।

(ग) प्रान्तीयता या प्रादेशिकता की भावना–प्रान्तीयता या प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। राष्ट्र एक सम्पूर्ण इकाई है। कभी–कभी यदि किसी अंचल –विशेष के निवासी अपने पृथक् अस्तित्व की माँग करते हैं तो राष्ट्रीयता की परिभाषा को सही रूप में न समझने के कारण ही वे ऐसा करते हैं। इस प्रकार की माँग करने से राष्ट्रीय एकता और अखण्डता का विचार ही समाप्त हो जाता है।

भारत के सभी प्रान्त राष्ट्रीयता के सूत्र में आबद्ध हैं; अत: उनमें अलगाव सम्भव नहीं है। राष्ट्रीय एकता के इस प्रमुख तत्त्व को दृष्टि से ओझल नहीं होने देना चाहिए।

राष्ट्रीय एकता की दिशा में हमारे प्रयास–
हमारे देश के विचारक, साहित्यकार, दार्शनिक एवं समाज–सुधारक अपनी–अपनी सीमाओं में निरन्तर इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि देश में भाईचारे और सद्भावना का वातावरण बने, अलगाव की भावनाएँ, पारस्परिक तनाव और विद्वेष की दीवारें समाप्त हों। फिर भी इस आग में कभी पंजाब सुलग उठता है, कभी बिहार, कभी महाराष्ट्र, कभी गुजरात तो कभी उत्तर प्रदेश।

‘अप्रिय घटनाओं की पुनरावृत्ति हमें इस बात का संकेत देती है कि हम टकराव और बिखराव पैदा करनेवाले तत्त्वों को रोक पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इन समस्याओं का समाधान केवल राष्ट्रनेताओं अथवा प्रशासनिक अधिकारियों के स्तर पर ही नहीं हो सकता, वरन् इसके लिए हम सबको मिल–जुलकर प्रयास करने होंगे।

उपसंहार–
संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि राष्ट्रीय एकता की भावना एक श्रेष्ठ भावना है और इस भावना को उत्पन्न करने के लिए हमें स्वयं को सबसे पहले मनुष्य समझना होगा। मनुष्य एवं मनुष्य में असमानता की भावना ही संसार में समस्त विद्वेष एवं विवाद का कारण है। इसलिए जब तक हममें मानवीयता की भावना का विकास नहीं होता, तब तक मात्र उपदेशों, भाषणों एवं राष्ट्र–गीत के माध्यम से ही राष्ट्रीय एकता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता।

शिक्षा में खेलकूद का स्थान निबंध – Shiksha Mein Khel Ka Mahatva Essay In Hindi

Shiksha Mein Khel Ka Mahatva Essay In Hindi

शिक्षा में खेल–कूद का स्थान निबंध – Essay On Shiksha Mein Khel Ka Mahatva In Hindi

“अपने विगत जीवन पर दृष्टि डालते हुए मुझे सोचना पड़ता है कि खेल–कूद के प्रति लापरवाही नहीं दिखानी | चाहिए थी। ऐसा करके मैंने शायद असमय प्रौढ़ता की भावना विकसित कर ली।”

–सुभाषचन्द्र बोस

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

शिक्षा में खेलकूद का स्थान निबंध – Shiksha Mein Khelakood Ka Sthaan Nibandh

रूपरेखा–

  1. जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व,
  2. शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध,
  3. शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व–
    • (क) शारीरिक विकास,
    • (ख) मानसिक विकास,
    • (ग) नैतिक विकास,
    • (घ) आध्यात्मिक विकास,
    • (ङ) शिक्षा–प्राप्ति में रुचि,
  4. उपसंहार।

जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व–
स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भली–भाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है। अतः कहा गया है–’शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’।

इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई हैं; जैसे–’पहला सुख नीरोगी काया’, ‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है’, ‘जान है तो जहान है’ आदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। भारतेन्दुजी ने कहा था

दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम।
हिम्मत से कारज करो, पूरेंगे सब राम॥

यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेल–कूद से प्राप्त होता है।

शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध–
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग है–शारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेल–कूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेल–कूद या क्रीडा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है।

अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथ–साथ खेल–कूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है।

विद्यालयों में व्यायाम शिक्षक, स्काउट मास्टर, एन०डी०एस०आई० आदि शिक्षकों की नियुक्ति इसीलिए की जाती है कि प्रत्येक बालक उनके निरीक्षण में अपनी रुचि के अनुसार खेल–कूद में भाग ले सके और अपने स्वास्थ्य को सबल एवं पुष्ट बना सके।

शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व–संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है।

सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेल–कूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेल–कूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है-

(क) शारीरिक विकास–शारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेल–कूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्राय: बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेल–कूद में ही व्यतीत होती है। खेल–कूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्त–संचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेल–कूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।

(ख) मानसिक विकास–मानसिक विकास की दृष्टि से भी खेल–कूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कि ‘तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ’ (Healthy mind in a healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।

शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़ता–लिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अत: वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेल–कूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथ–साथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।

(ग) नैतिक विकास–बालक के नैतिक विकास में भी खेल–कूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेल–कूद से शारीरिक एवं मानसिक सहन–शक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेल–भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षा–प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसते–हँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।

(घ) आध्यात्मिक विकास–खेल–कूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन–निर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुख–दुःख, हानि–लाभ अथवा जय–पराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है।

खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछ–न–कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(ङ) शिक्षा–प्राप्ति में रुचि–शिक्षा में खेल–कूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेल–पद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अत: खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है।

इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षण–पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। इसे ‘खेल पद्धति द्वारा शिक्षा’ (Education by play way) कहा जाता है; अत: यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।

उपसंहार–
व्यायाम और खेल–कूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षा–जगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटे–छोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेल–कूद की समुचित व्यवस्था की गई है। हमारी सरकार ने इस कार्य के लिए अलग से ‘खेल मन्त्रालय भी बनाया है।

फिर भी जैसी खेल–कूद और व्यायाम की व्यवस्था माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होनी चाहिए, वैसी अभी नहीं है। इस स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेल–कूद की उपेक्षा न करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।

विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध – Student And Discipline Essay In Hindi

Student And Discipline Essay In Hindi

विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध – Essay On Student And Discipline In Hindi

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. छात्र–असन्तोष के कारण–
    • (क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य,
    • (ख) दोषपूर्ण शिक्षा–प्रणाली,
    • (ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या,
    • (घ) पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव,
    • (ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण,
    • (च) दोषपूर्ण परीक्षा–प्रणाली,
    • (छ) छात्र–गुट,
    • (ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर,
    • (झ) आर्थिक समस्याएँ,
    • (ब) निर्देशन का अभाव,
  3. छात्र–असन्तोष के निराकरण के उपाय–
    • (क) शिक्षा–व्यवस्था में सुधार,
    • (ख) सीमित प्रवेश,
    • (ग) आर्थिक समस्याओं का निदान,
    • (घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य,
    • (ङ) छात्रों में जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना,
    • (च) सामाजिक स्थिति में सुधार,
  4. उपसंहार

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

विद्यार्थी और अनुशासन पर निबंध – Vidyaarthee Aur Anushaasan Par Nibandh

प्रस्तावना–
मानव–स्वभाव में विद्रोह की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है, जो आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर ज्वालामुखी के समान फूट पड़ती है।

छात्र–
असन्तोष के कारण हमारे देश में, विशेषकर युवा–पीढ़ी में प्रबल असन्तोष की भावना विद्यमान है। छात्रों में व्याप्त असन्तोष की इस प्रबल भावना के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

(क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य–आज छात्रों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में तेजी से होनेवाली वृद्धि से छात्र–असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक है। एक बार सन्त विनोबाजी से किसी विद्यार्थी ने अनुशासनहीनता की शिकायत की। विनोबाजी ने कहा, “हाँ, मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी निकम्मी शिक्षा और उस पर इतना कम असन्तोष!”

(ख) दोषपूर्ण शिक्षा–प्रणाली–हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। वह न तो अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करती है और न ही छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान देती है। परिणामतः छात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। छात्रों का उद्देश्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करके डिग्री प्राप्त करना ही रह गया है। ऐसी शिक्षा–व्यवस्था के परिणामस्वरूप असन्तोष बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जो कि इस सीमा तक पहुंच गई है कि कॉलेजों के पास कक्षाओं तक के लिए पर्याप्त स्थान नहीं रह गए हैं। अन्य साधनों; यथा–प्रयोगशाला, पुस्तकालयों आदि का तो कहना ही क्या। जब कक्षा में छात्र अधिक संख्या में रहेंगे और अध्यापक उन पर उचित रूप से ध्यान नहीं देंगे तो उनमें असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(घ) पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव–पाठ्य–सहगामी क्रियाएँ छात्रों को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करती हैं। इन कार्यों के अभाव में छात्र मनोरंजन के अप्रचलित और अनुचित साधनों को अपनाते हैं; अत: छात्र–असन्तोष का एक कारण पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव भी है।

(ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण–कुछ परिवारों में माता–पिता बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते और वे उन्हें समुचित स्नेह से वंचित भी रखते हैं, आजकल विद्यालयों में भी उनकी शिक्षा–दीक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दूषित पारिवारिक और विद्यालयीय वातावरण में बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे बच्चों में असन्तोष की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

(च) दोषपूर्ण परीक्षा–प्रणाली–हमारी परीक्षा–प्रणाली छात्र के वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं है। कुछ छात्र तो रटकर उत्तीर्ण हो जाते हैं और कुछ को उत्तीर्ण करा दिया जाता है। इससे छात्रों में असन्तोष उत्पन्न होता है।

(छ) छात्र गुट–राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण कुछ छात्रों ने अपने गुट बना लिए हैं। वे अपनी बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं को फलीभूत न होते देखकर अपने मन के आक्रोश और विद्रोह को तोड़–फोड़, चोरी, लूटमार आदि करके शान्त करते हैं।

(ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर–आज समाज में मानव–मूल्यों का ह्रास हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति मानव–आदर्शों को हेय समझता है। उनमें भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ मची है। नैतिकता और आध्यात्मिकता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में छात्रों में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है।

(झ) आर्थिक समस्याएँ–आज स्थिति यह है कि अधिकांश अभिभावकों के पास छात्रों की शिक्षा आदि पर व्यय करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। बढ़ती हुई महँगाई के कारण अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति भी उदासीन होते जा रहे हैं, परिणामस्वरूप छात्रों में असन्तोष बढ़ रहा है।

(अ) निर्देशन का अभाव–छात्रों को कुमार्ग पर जाने से रोकने के लिए समुचित निर्देशन का अभाव भी हमारे देश में व्याप्त छात्र–असन्तोष का प्रमुख कारण है। यदि छात्र कोई अनुचित कार्य करते हैं तो कहीं–कहीं उन्हें इसके लिए और बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

छात्र–असन्तोष के निराकरण के उपाय–छात्र–असन्तोष की समस्या के निदान के लिए निम्नलिखित मुख्य सुझाव दिए जा सकते हैं-

(क) शिक्षा–व्यवस्था में सुधार हमारी शिक्षा–व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो छात्रों को जीवन के लक्ष्यों को समझने और आदर्शों को पहचानने की प्रेरणा दे सके। रटकर मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने को ही छात्र अपना वास्तविक ध्येय न समझें।

(ख) सीमित प्रवेश–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निश्चित की जानी चाहिए, जिससे अध्यापक प्रत्येक छात्र के ऊपर अधिक–से–अधिक ध्यान दे सके; क्योंकि अध्यापक ही छात्रों को जीवन के सही मार्ग की ओर अग्रसर कर सकता है। ऐसा होने से छात्र–असन्तोष स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।

(ग)आर्थिक समस्याओं का निदान–छात्रों की आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए निम्नलिखित मुख्य उपाय करने चाहिए-

  • निर्धन छात्रों को ज्ञानार्जन के साथ–साथ धनार्जन के अवसर भी दिए जाएँ।
  • शिक्षण संस्थाएँ छात्रों के वित्तीय भार को कम करने में उनकी सहायता करें।
  • छात्रों को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए।
  • छात्रों को व्यावसायिक मार्गदर्शन प्रदान किया जाए।
  • शिक्षण संस्थाओं को सामाजिक केन्द्र बनाया जाए।

(घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य–छात्र–असन्तोष को दूर करने के लिए आवश्यक है कि छात्रों को उनकी रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य प्रदान किए जाएँ। किशोरावस्था में छात्रों को समय–समय पर समाज–सेवा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सामाजिक कार्यों के माध्यम से उन्हें अवकाश का सदुपयोग करना सिखाया जाए तथा उनकी अवस्था के अनुसार उन्हें रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जाना चाहिए।

(ङ) छात्रों में जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना–छात्र–असन्तोष दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों में सार्वभौम जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाए।

(च) सामाजिक स्थिति में सुधार–युवा–असन्तोष की समाप्ति के लिए सामाजिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आवश्यक हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने भौतिक स्तर को ऊँचा उठाने की आकांक्षा छोड़कर अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर अधिक ध्यान दें तथा समाज में पनप रही कुरीतियों एवं भ्रष्टाचार आदि को मिलकर समाप्त करें।

यदि पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ इन सुझावों को अपनाया जाएगा तो राष्ट्र–निर्माण की दिशा में युवा–शक्ति का सदुपयोग किया जा सकेगा।

उपसंहार–
इस प्रकार हम देखते हैं कि छात्र–असन्तोष के लिए सम्पूर्ण रूप से छात्रों को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। युवा समुदाय में इस असन्तोष को उत्पन्न करने के लिए भारतीय शिक्षा–व्यवस्था की विसंगतियाँ (अव्यवस्था) अधिक उत्तरदायी हैं; फिर भी शालीनता के साथ अपने असन्तोष को व्यक्त करने में ही सज्जनों की पहचान होती है। तोड़–फोड़ और विध्वंसकारी प्रवृत्ति किसी के लिए भी कल्याणकारी नहीं होती।

शिक्षा का गिरता स्तर पर निबंध – Falling Price Level Of Education Essay In Hindi

Falling Price Level Of Education Essay In Hindi

शिक्षा का गिरता स्तर पर निबंध – Essay On Falling Price Level Of Education In Hindi

रूपरेखा–

  1. शिक्षा का अर्थ,
  2. शिक्षा की भूमिका,
  3. शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता,
  4. शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम,
  5. शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण–
    • (क) शिक्षा का उद्देश्य,
    • (ख) मौलिकता का अभाव,
    • (ग) साहित्य और कला का अभाव,
    • (घ) आर्थिक असुरक्षा,
    • (ङ) शारीरिक श्रम का अभाव,
    • (च) नैतिक मूल्यों का अभाव,
    • (छ) शिक्षकों की भूमिका,
    • (ज) अभिभावकों की भूमिका,
    • (झ) भौतिकता का समावेश,
  6. उपसंहार।

शिक्षा का गिरता स्तर पर निबंध – Shiksha Ka Girata Star Par Nibandh

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

“तुम्हारी शिक्षा सर्वथा बेकार है, यदि उसका निर्माण सत्य एवं पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है। यदि तुम अपने जीवन की पवित्रता के बारे में सजग नहीं हुए तो सब व्यर्थ है। भले ही तुम महान् विद्वान् ही क्यों न हो जाओ।”

–महात्मा गांधी : टूद स्टूडेण्टस्

शिक्षा का अर्थ–
शिक्षा का वास्तविक अर्थ है–मनुष्य का सर्वांगीण विकास। मात्र पुस्तकीय ज्ञान अथवा साक्षरता शिक्षा नहीं है। यह तो शिक्षारूपी महल तक पहुँचने का एक सोपानभर है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी के अनुसार–“शिक्षा हमारी अन्तःशक्तियों का विकास है।” स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में–”मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।”

महात्मा गांधी का विचार है–“शिक्षा से मेरा अभिप्रायः बालक या मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क या आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्तम विकास से है।” वास्तव में श्रेष्ठ शिक्षा वही है, जो मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के साथ–साथ उसमें जीवन मूल्यों की भी स्थापना करे और फिर उसका सर्वांगीण उन्नयन करे।

शिक्षा की भूमिका–शिक्षा किसी भी देश के विकास के लिए आवश्यक तत्त्वों में से एक मुख्य तत्त्व है। एक शिक्षित समाज ही देश को उन्नत और समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षाविहीन मनुष्य को साक्षात् पशु के समान बताया गया है। संस्कृत के महाकवि श्री भर्तृहरि ने कहा है–“साहित्य–संगीत–कलाविहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छ–विषाणहीनः।”

हमारे प्राचीन ऋषि–मुनियों ने भी शिक्षा की भूमिका के विषय में कहा है–“सा विद्या या विमुक्तये।’ अर्थात् विद्या (शिक्षा) वह है, जो मनुष्य को अज्ञान से मुक्त करती है। वैदिक मन्त्रों में भी शिक्षा की भूमिका को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है–”असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमया” अर्थात् विद्या या शिक्षा सत्य, ज्ञान और अमरता प्रदान करती है।

प्राचीनकाल से ही जब हमारी शिक्षा की भूमिका और उद्देश्य इतना स्पष्ट रहा है, तब क्या कारण है कि वर्तमान में शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है। आज बौद्धिक स्तर पर भले ही शैक्षिक विकास हो रहा हो, परन्तु संवेदना और जीवन–मूल्यों का हास आज की शिक्षा पद्धति में स्पष्ट लक्षित होता है।

शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता–भारतीय संस्कृति ने सदैव नैतिक मूल्यों की अवधारणा पर बल दिया है। नैतिकता के अभाव में पशुता और मनुष्यता का भेद समाप्त हो जाता है। इसलिए वेदों, उपनिषदों एवं अन्य सभी धार्मिक ग्रन्थों में शिक्षा में नैतिकता की अनिवार्यता स्वीकार की गई है। इसलिए कहा गया है-

“वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वत्ततस्तु हतो हतः।”

अर्थात् चरित्रहीन व्यक्ति मृतक समान है, इसलिए चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। अतएव शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश अवश्य होना चाहिए। अन्यत्र भी कहा गया है––

“येषां न विद्या न तपो न दानम्,
ज्ञानम् न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता।
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥”

अर्थात् जिसके पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, चरित्र जैसे गुण और धर्म नहीं हैं, वह पृथ्वी पर भार स्वरूप है और मनुष्य के रूप में पशु की भाँति विचरण करता है। शिक्षा में मूल्यों की आवश्यकता के इतने स्पष्ट दृष्टिकोण के पश्चात् भी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मूल्यगत शिक्षा की आवश्यकता नहीं समझी जा रही है। वह शिक्षा, जो आत्म–विकास एवं जीवन और समाज में सन्तुलन बनाए रखने में उपयोगी है, उसे ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया है।

शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर से यहाँ एक आशय यह भी है कि आज हमारी शिक्षा केवल सैद्धान्तिक है, व्यावहारिक नहीं। आज शिक्षा एक छात्र को केवल डिग्री प्रदान करती है, उसे सम्मानजनक रूप से आजीविका कमाने के लिए उसका कोई मार्गदर्शन नहीं करती है। अर्थात् उसके लिए उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं होता। शिक्षा के इसी मूल्यगत स्तर के कारण आज देश में बेरोजगारी और अपराधों को प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम–शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम आज समाज में चहुँ ओर देखे जा रहे हैं। देशभर में फैले भ्रष्टाचार, लूटमार, आगजनी, राहजनी, बलात्कार एवं अन्य अपराध गिरते मूल्यगत स्तर के ही परिणाम हैं। वर्तमान में जीवन–मूल्यों की बात करनेवाले उपहास का पात्र बनते हैं। हमारी वर्तमान पीढ़ी शिक्षित होते हुए भी जिस अनैतिक मार्ग पर बढ़ रही है, उसे देखते हुए भावी पीढ़ियों के स्वरूप की कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं।

शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण वर्तमान शिक्षा–प्रणाली में गिरते मूल्यगत स्तर के अनेक कारण हैं, जिनमें से मुख्य कारण इस प्रकार हैं-

(क) शिक्षा का उद्देश्य–वस्तुत: शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का चहुँमुखी विकास करना है, जो अब साक्षर बनाना मात्र रह गया है। आधुनिक शिक्षा–प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करनेवाली प्रणाली बन गई है, वह व्यक्ति को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान नहीं कराती।

(ख) मौलिकता का अभाव–आधुनिक शिक्षा प्रणाली में मौलिकता का अभाव है, जिससे उसका स्तर दिन–प्रतिदिन गिरता जा रहा है। स्वतन्त्रता के सात दशकों के पश्चात् भी कोई सरकार एक उत्तम शिक्षा नीति का निर्माण नहीं कर पाई है। शिक्षा में होते अवमूल्यन को रोकने के लिए जो परिवर्तन किए गए हैं, वह शिक्षा के स्तर को सुधारने में पर्याप्त नहीं हैं। हाँ, उसमें इतना सुधार अवश्य आ गया है कि उसमें विद्यार्थियों को अच्छे अंक प्राप्त हो रहे हैं।

(ग) साहित्य और कला का अभाव–आज तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। हम अपने साहित्य, सभ्यता और संस्कृति को भूलकर विदेशी संस्कृति और साहित्य के पीछे दौड़ रहे हैं। इससे युवाओं का बौद्धिक और अनर्गल तार्किक स्तर तो बढ़ रहा है, परन्तु जीवन–मूल्यों का स्तर दिन–प्रतिदिन गिरता जा रहा है।

(घ) आर्थिक असुरक्षा–शिक्षा के रोजगारपरक न होने के कारण समाज के आर्थिक विकास में आई गिरावट भी शिक्षा के गिरते स्तर के लिए उत्तरदायी है। आधुनिक शिक्षा–प्रणाली के चलते प्रतिवर्ष लाखों युवा हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट, बी०ए०, एम०ए, बी०एड० आदि की डिग्रियाँ लेकर स्कूल–कॉलेजों से निकलते हैं, पर इन शिक्षित युवाओं का कोई सुरक्षित भविष्य नहीं है। ये स्वायत्तशासी संस्थानों में अल्पवेतन पर अकुशल श्रमिकों के रूप में कार्य करते हुए जीवनभर कुण्ठाग्रस्त रहते हैं और कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति से किसी प्रकार की नैतिकता की आशा नहीं की जा सकती।

(ङ) शारीरिक श्रम का अभाव–आधुनिक शिक्षा–प्रणाली और बढ़ती दूरसंचार सुविधाओं ने आज के विद्यार्थी को निकम्मा और परावलम्बी बना दिया है। फलत: शिक्षित वर्ग की दशा दयनीय होती जा रही है। इस सन्दर्भ में यह व्यंग्य द्रष्टव्य है-

“न पढ़ते तो सौ तरह से खाते कमाते, मगर खो गए वह तालीम पाकर।
न जंगल में रेवड़ चराने के काबिल, न बाजार में बोझ ढोने के काबिल॥”

(च) नैतिक मूल्यों का अभाव–शिक्षा के गिरते स्तर में सुधार लाने हेतु नैतिक मूल्यों का समावेश होना अत्यावश्यक है; क्योंकि कोई भी कार्य बिना किसी सुस्पष्ट नीति के सम्भव नहीं है। नीति से ही नैतिक शब्द बना है जिसका अर्थ है सोच–समझकर बनाए गए नियम या सिद्धान्त। लेकिन आज की शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश न होने के कारण अशिष्टता, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार तथा अराजकता आदि निरन्तर बढ़ रही हैं।

(छ) शिक्षकों की भूमिका–शिक्षा में योग्य एवं समर्पित शिक्षक की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। इसीलिए शिक्षक सदैव पूजनीय रहा है, लेकिन आज शिक्षक अपनी भूमिका का उचित निर्वाह नहीं कर रहा है। वह शिक्षण को मात्र आजीविका का साधन मान रहा है। वह यह भूल बैठा है कि उसे देश के भविष्य का निर्माण करना है।

(ज) अभिभावकों की भूमिका शिक्षा के मूल्यगत गिरते स्तर में अभिभावकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। पहले अभिभावक शिक्षक को भगवान् से भी अधिक सम्मान देते थे और बच्चों को भी यही शिक्षा देते थे, लेकिन आज शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को डाँट देने पर भी अभिभावक शिक्षक के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, जिससे छात्रों में उद्दण्डता आदि अनेक दुर्गुणों का विकास अनायास ही हो जाता है।

(झ) भौतिकता का समावेश आधुनिक शिक्षा प्रणाली में भौतिकता का पूरी तरह समावेश हो गया है; फलतः शिक्षा अत्यन्त खर्चीली हो गई है। साधारण परिवार महँगी शिक्षा वहन नहीं कर पाते और छात्र कुण्ठा, हताशा, बेरोजगारी, लक्ष्यहीनता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। साधन–सम्पन्न व्यक्ति अयोग्य छात्रों को भी उच्चपदों पर नियुक्त करा देते हैं, उनका उद्देश्य केवल अर्थार्जन होता है, देश और समाज का विकास नहीं।

इस प्रकार शिक्षा का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है, जिसके लिए हम सभी को अत्यन्त सजग होने की आवश्यकता है।

उपसंहार–
इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा में मूल्यों का ह्रास होने के कारण देश–समाज में असन्तोष का वातावरण व्याप्त हो रहा है। समाज और देश के लिए ज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है; क्योंकि शिक्षित राष्ट्र ही अपने भविष्य को सँवारने में सक्षम हो सकता है। राष्ट्र की भौतिक दशा सुधारने के लिए जीवन–मूल्यों का उपयोग कर हा उन्नति की सही राह चुन सकते हैं।

इसके लिए शिक्षकों को भी अपनी भूमिका को कबीर के निम्न दोहे के अनुसार निभाना होगा, तभी शिक्षा का मूल्यगत गिरता स्तर ऊँचा उठ सकेगा-

“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है,
गढ़ि–गढ़ि काढ़े खोट,
अन्तर हाथ सहार दै,
बाहिर बाहै चोट॥”

आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप निबंध – Reservation System Essay In Hindi

Reservation System Essay In Hindi

आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप निबंध – Essay On Reservation System In Hindi

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी मान्यताएँ–
    (क) जातिगत एवं शैक्षणिक आधार,
    (ख) आर्थिक आधार,
  3. संवैधानिक आधार,
  4. राजनैतिक क्षेत्र में आरक्षण,
  5. आरक्षण के परिणाम,
  6. उपसंहार।

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप निबंध – Aarakshan : Desh Ke Lie Varadaan Ya Abhishaap Nibandh

प्रस्तावना–
जब किसी देश, राष्ट्र अथवा समाज में कोई वस्तु, पदों की संख्या अथवा सुख–सुविधा आदि किसी व्यक्ति तथा वर्ग–विशेष के लिए आरक्षित कर दी जाती है तो उसकी ओर सबका ध्यान आकर्षित हो जाता है। इसी कारण पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों अथवा सरकारी पदों पर आरक्षण की घोषणा ने सम्पूर्ण देश के लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

इस ‘आरक्षण नीति’ के विरोध और समर्थन में अनेक आन्दोलन हुए, जिनसे अनेक विवाद खड़े हो गए। ‘आरक्षण’ एक विशेषाधिकार है, जो दूसरों के लिए बाधक और ईर्ष्या का कारण बन जाता है। किन्तु ‘आरक्षण’ समाज में आर्थिक विषमता को दूर करने का एक साधन भी है। भारत में आरक्षण का मुख्य आधार जातिगत ही रहा है।

आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी मान्यताएँ–
देश में आरक्षण का समर्थन करनेवाले विभिन्न आधारों पर आरक्षण की माँग करते हैं। इनमें जातिगत एवं शैक्षणिक तथा आर्थिक आधार प्रमुख हैं, जो इस प्रकार हैं-

(क) जातिगत एवं शैक्षणिक आधार

पक्ष में तर्क आरक्षण का जातिगत एवं शैक्षणिक आधार स्वीकार करनेवाले अपने पक्ष के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1) भारतीय संविधान में सामाजिक (जातिगत) एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को ‘आरक्षण’ का आधार बनाया गया है, इसलिए यह विधिसम्मत है।

(2) पिछड़ेपन का वास्तविक अर्थ सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा होना है। वास्तव में पिछड़ी जाति के योग्य और सुन्दर–सम्पन्न लड़के से भी ऊँची जाति के लोग शादी नहीं करते हैं और न उनके साथ समान व्यवहार करते हैं। मन्दिर, विवाह, यज्ञ आदि में ब्राह्मण पण्डित को ही बुलाया जाता है, किसी हरिजन पण्डित को नहीं। सफाई कर्मचारी आज भी अपना सामाजिक स्तर नहीं सुधार सका, इसलिए आरक्षण का आधार जातिगत ही स्वीकार किया गया है।

(3) प्रतिभा तथा योग्यता किसी ऊँचे कुल की धरोहर नहीं है, वह तो किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। इसके सैकड़ों प्रमाण मिल जाएंगे।

(4) भारत में आर्थिक विषमता का मुख्य कारण सदियों से दलित और शोषित जातियों के उत्थान की दिशा में प्रयास न होना है। मानसिक गुलामी आर्थिक गुलामी की अपेक्षा अधिक हानिकारक होती है। पिछड़ी जाति अथवा अनुसूचित जाति के लोग मानसिक गुलामी के शिकार हैं। इसीलिए इन्हें आरक्षण की आवश्यकता है।

(5) कुछ विचारकों का मत है कि पिछड़ी जातियों एवं सवर्ण जातियों के अधिक पिछड़ेपन की कोई समाजशास्त्रीय समानता नहीं है। सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ वर्ग वास्तविक रूप से पिछड़ा हुआ है।

इस प्रकार जातिगत आधार को माननेवाले पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की माँग करते रहे हैं। विपक्ष में तर्क–जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-

(1) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से जातिवाद और अधिक दृढ़ होता जाता है। जब तक जातिगत आधार पर आरक्षण मिलता रहेगा, तब तक जातिगत पक्षपात की भावना समाप्त नहीं होगी।

(2) जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने से अयोग्य व्यक्तियों को भी महत्त्वपूर्ण पद मिल जाता है, जिससे कार्य–गति सुधरने की अपेक्षा शिथिल हो जाती है और प्रशासनिक सेवाओं का स्तर गिर जाता है।

(3) जातिगत आधार को मानकर किया गया आरक्षण इसलिए भी लाभदायक नहीं हो पाता; क्योंकि धनी और प्रभावी लोग ही इस सुविधा का लाभ उठा लेते हैं और जो इसके वास्तविक अधिकारी हैं, वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। जाति के किसी एक विशेष वर्ग या समुदाय के अधिक लाभान्वित होने के कारण समाज में धनी और निर्धन का अन्तर बढ़ता जाता है। भारत की वर्तमान स्थिति इसी का परिणाम है।

(4) समाज में कर्म की महत्ता घट जाएगी और जन्म की महत्ता स्थापित हो जाएगी। समाज में ऊँच–नीच का भेदभाव बढ़ता ही जाएगा। देश में कभी ऐसी स्थिति नहीं लाई जा सकेगी, जिसमें जातिवाद के नाम पर वोट माँगनेवालों को हतोत्साहित किया जा सके और वास्तविक जनतन्त्र की स्थापना की जा सके।

(5) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से अनेक विवाद खड़े हो जाते हैं और घृणा–द्वेष का वातावरण व्याप्त हो जाता है। इससे देश प्रगति के पथ से दूर हटता जाता है।

(ख) आर्थिक आधार

पक्ष में तर्क–
आर्थिक दशा को आरक्षण का मूल आधार माननेवाले अपने समर्थन में तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अर्थप्रधान युग में प्रतिष्ठा एवं अप्रतिष्ठा तथा विकसित एवं पिछड़ेपन का कारण धन ही है। यही कारण है कि समाज में धनी व्यक्ति ही प्रतिष्ठित होते हैं। सभी जातियों में धनी और निर्धन लोग होते हैं; इसलिए आरक्षण का सच्चा व न्यायोचित आधार ‘आर्थिक दशा’ ही होनी चाहिए।

विपक्ष में तर्क–
आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने के विपक्ष में मुख्य रूप से यह तर्क दिया जाता है कि प्रायः ऊँचे पदों पर ऊँची जाति के लोग ही नियुक्त होते हैं। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक दशा को मान लिया जाएगा तो ऊँची जाति के निर्धन लोग भी इन पदों पर पहुँच जाएंगे, फलस्वरूप सामाजिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।

इस प्रकार आरक्षण के मूलाधार के विषय में बहुत अधिक वाद–विवाद उत्पन्न हो गया है। कुछ भी हो, दोनों पक्षों के तर्कों को सरलता से अस्वीकार नहीं किया जा सकता; अत: दोनों ही पक्षों का ध्यान रखते हुए कोई मध्यम मार्ग खोजना होगा। इस दिशा में समाजशास्त्रीय तथा अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोणों में उपयुक्त समन्वय की भी आवश्यकता है।

संवैधानिक आधार–
भारत में संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकारों का विशद् रूप में उल्लेख किया गया है और संविधान की धारा 15 की उपधारा 4 में अनुसूचित एवं पिछड़े वर्ग के लिए जातिगत आधार पर कुछ विशेष सुविधाओं और अधिकारों की व्यवस्था की गई है। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों तथा लोकसभा व विधानसभाओं में निर्वाचित होने के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं।

प्रारम्भ में यह आरक्षण दस वर्षों के लिए किया गया था; पर आवश्यकतानुसार 10–10 वर्ष बढ़ाते हुए अवधि 2026 ई० तक बढ़ा दी गई। पिछड़े वर्ग के ‘आरक्षण’ की कोई व्यवस्था प्रान्तीय सरकारों ने नहीं की थी। दक्षिण भारत के कतिपय प्रान्तों में ही यह नीति लागू थी। जनता पार्टी ने अपने घोषणा–पत्र में पण्डित कालेलकर आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ी जातियों को 25% से 33% तक नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का वचन दिया था।

जनता सरकार ने बिहार में जब पहली बार इस प्रकार आरक्षण की घोषणा की तो भयंकर विवाद खड़ा हो गया। उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण की नीति अपनाई गई। सन् 1990 ई० में केन्द्र सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण की घोषणा की तो जनता ने प्रबल विरोध किया।

सन् 1992 ई० में दिए गए एक अभूतपूर्व निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने भी मण्डल आयोग की सिफारिशों को न्यूनाधिक संशोधनों के साथ लागू करने के लिए सरकार को निर्देश पारित कर दिए। अब प्रश्न यह उठता है कि स्वतन्त्रता के सात दशक व्यतीत होने के बाद भी भारत में किसी खास वर्ग जाति–विशेष के लिए आरक्षण की क्या आवश्यकता है?

राजनैतिक क्षेत्र में आरक्षण–
राजनैतिक क्षेत्र में भी आरक्षण की नीति को एक राजनैतिक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। हमारे देश में जातीयता के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप जातीयता का विष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। फिर भी हमें आरक्षण की नीति को स्वीकार करना ही पड़ेगा; क्योंकि सामाजिक–आर्थिक विषमता और मानसिक गुलामी से छुटकारा पाने का यही एकमात्र उपाय है, लेकिन आरक्षण की नीति को अधिक लम्बे समय तक नहीं अपनाया जाना चाहिए।

आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्ग के वास्तविक पात्र को ही मिलना चाहिए। सामाजिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए शिक्षा का प्रचार–प्रसार भी तीव्रगति से किया जाना चाहिए। समाज के सभी लोगों के हित को दृष्टिगत रखते हुए सरकार को अपने दुराग्रही दृष्टिकोण का त्याग करना चाहिए और सभी की उन्नति और विकास में समान रूप से सहयोग देना चाहिए।

आरक्षण के परिणाम–
दुःख का विषय है कि स्वाधीनता के पश्चात् दीर्घ अवधि व्यतीत होने के बाद भी हमारे देश की आर्थिक विषमता नहीं मिट सकी है और धनी–निर्धन के बीच की खाई निरन्तर और अधिक चौड़ी होती जा रही है। राजनैतिक कारणों से; जाति, धर्म और सम्प्रदाय अपना पूर्ववत् रूप बनाए हुए हैं। आरक्षण की नीति ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है।

प्रत्येक राजनैतिक दल बहुमत प्राप्त करने के जातिगत आधार को अभी भी स्वीकार किए हुए है, इसीलिए जातिवाद समाप्त नहीं हो सका है। यद्यपि ‘आरक्षण की नीति’ का मूल उद्देश्य वर्ग–विशेष की आर्थिक स्थिति को सुधारना और समाज में शैक्षणिक सुविधाएँ देकर सभी को समानता का स्तर प्रदान करना है, किन्तु आरक्षण की नीति का आधार जातिगत हो जाने से इस व्यापक उद्देश्य की पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो गई है।

आज वस्तुत: आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक पिछाड़ेपन दूर करना न होकर पूर्णत: राजनैतिक हो गया है। प्रायः सभी राजनैतिक दल आरक्षण के मुद्दों का अपनी सुविधा के अनुसार प्रयोग करके सत्ता हथियाना चाहते हैं।

इसके लिए वे देश में दंगे–फसाद और तोड़–फोड़ द्वारा सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने से भी नहीं हिचकते हैं। अभी हाल ही में गुजरात में पटेलों के आरक्षण तथा हरियाणा एवं राजस्थान में जाटों के आरक्षण–आन्दोलन के अन्तर्गत हुई विनाशलीला की घटनाएँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

उपसंहार–
वस्तुत: भारत में आरक्षण को जिस प्रकार का राजनैतिक स्वरूप दे दिया गया है, वह इसकी मूल कल्याणकारी भावना पर ही कुठाराघात कर रहा है। इसका उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलाकर शोषित एवं दलित वर्ग का उत्थान करना था, किन्तु यह आज जाति–भेद को प्रोत्साहन देकर जाति–विद्वेष की भावना को बढ़ावा दे रहा है।

इससे समाज के पुनः बिखर जाने का भय उत्पन्न हो गया है। अत: अब आरक्षण की नीति पर नए सिरे से और निष्पक्ष रूप से विचार करना आवश्यक हो गया है।

भ्रष्टाचार : समस्या और निवारण निबंध – Corruption Problem And Solution Essay In Hindi

Corruption Problem And Solution Essay In Hindi

भ्रष्टाचार : समस्या और निवारण निबंध – Essay On zCorruption Problem And Solution In Hindi

भ्रष्टाचार अर्थ–सभ्यता का फल और बल है।

–जैनेन्द्र कुमार

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

भ्रष्टाचार : समस्या और निवारण निबंध – Bhrashtaachaar : Samasya Aur Nivaaran Nibandh

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना (भ्रष्टाचार से आशय),
  2. भ्रष्टाचार के विविध रूप–
    • (क) रिश्वत (सुविधा–शुल्क),
    • (ख) भाई–भतीजावाद,
    • (ग) कमीशन,
    • (घ) यौन शोषण,
  3. भ्रष्टाचार के कारण
    • (क) महँगी शिक्षा,
    • (ख) लचर न्याय–व्यवस्था,
    • (ग) जन–जागरण का अभाव,
    • (घ) विलासितापूर्ण आधुनिक जीवन–शैली,
    • (ङ) जीवन–मूल्यों का ह्रास और चारित्रिक पतन,
  4. भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय
    • (क) जनान्दोलन,
    • (ख) कठोर कानून,
    • (ग) नि:शुल्क उच्चशिक्षा,
    • (घ) पारदर्शिता,
    • (ङ) कार्यस्थल पर व्यक्ति की सुरक्षा और संरक्षण,
    • (च) नैतिक मूल्यों की स्थापना,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना (भ्रष्टाचार से आशय)–
भ्रष्टाचार शब्द संस्कृत के ‘भ्रष्ट’ शब्द के साथ आचार शब्द के योग से निष्पन्न हुआ है। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है–अपने स्थान से गिरा हुआ अथवा विचलित और ‘आचार’ का अर्थ है–आचरण, व्यवहार। इस प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा अपनी गरिमा से गिरकर अपने कर्तव्यों के विपरीत किया गया आचरण भ्रष्टाचार है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप–
वर्तमान में भ्रष्टाचार इतना व्यापक है कि उसके विविध रूप देखने में आते हैं, जिनमें से कुछ मुख्य प्रकार हैं–

(क) रिश्वत (सुविधा–शुल्क)–किसी कार्य को करने के लिए किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा लिया गया उपहार, सुविधा अथवा नकद धनराशि को रिश्वत कहा जाता है। इसी को साधारण भाषा में घूस और सभ्य भाषा में सुविधा–शुल्क भी कहा जाता है। अपने कार्य को समय से और बिना किसी परेशानी के कराने के लिए अथवा नियमों के विपरीत कार्य कराने के लिए आज लोग सहर्ष रिश्वत देते हैं।

(ख) भाई–भतीजावाद–किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा केवल अपने सगे–सम्बन्धियों को कोई सुविधा, लाभ अथवा पद (नौकरी) प्रदान करना ही भाई–भतीजावाद है। आज नौकरियों तथा सरकारी सुविधाओं अथवा योजनाओं के क्रियान्वयन के समय समर्थ (अधिकारी/नेता) लोग अपने बेटा–बेटी, भाई, भतीजा आदि सगे–सम्बन्धियों को लाभ पहुँचाते हैं। इसके लिए प्रायः नियमों और योग्यताओं की अनदेखी भी की जाती है। भाई–भतीजावाद के चलते योग्य और पात्र लोग नौकरियों तथा सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं।

(ग) कमीशन–किसी विशेष उत्पाद (वस्तु) अथवा सेवा के सौदों में किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा सौदे के बदले में विक्रेता अथवा सुविधा प्रदाता से कुल सौदे के मूल्य का एक निश्चित प्रतिशत प्राप्त करना कमीशन है। आज सरकारी, अर्द्ध–सरकारी और प्राइवेट क्षेत्र के अधिकांश सौदों अथवा ठेकों में कमीशनबाजी का वर्चस्व है। प्रायः बड़े सौदों और ठेकों में तो करोड़ों के कमीशन के वारे–न्यारे होते हैं।

बोफोर्स तोप घोटाला, बिहार का चारा घोटाला, टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, मुम्बई का आदर्श सोसायटी घोटाला, सेना–हेलीकॉप्टर खरीद घोटाला, कोयला घोटाला आदि कमीशनबाजी के ऐसे बड़े चर्चित मामले रहे हैं, जिन्होंने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया।

बोफोर्स तोप घोटाले में पूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी, चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री लालूप्रसाद यादव, टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले में दूरसंचार मन्त्री ए. राजा, आदर्श सोसायटी घोटाले में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमन्त्री अशोक चव्हाण को अपने मन्त्री पदों से हाथ धोना पड़ा।

(घ) यौन शोषण–यह भ्रष्टाचार का सर्वथा नवीन रूप है। इसमें प्रभावशाली व्यक्ति विपरीत लिंग के व्यक्ति को अपने प्रभाव का प्रयोग करते हुए अनुचित लाभ पहुँचाने के बदले उसका यौन–शोषण करता है। आज अनेक नेता, अभिनेता और उच्चाधिकारी इस भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हैं और अनेक जेल की सलाखों के पीछे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप कर रहे हैं।

भ्रष्टाचार के कारण–भ्रष्टाचार के यद्यपि अनेकानेक कारण हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

(क) महँगी शिक्षा–शिक्षा के व्यवसायीकरण ने उसे अत्यधिक महँगा कर दिया है। आज जब एक युवा शिक्षा पर लाखों रुपये खर्च करके किसी पद पर पहुँचता है तो उसका सबसे पहला लक्ष्य यही होता है कि उसने अपनी शिक्षा पर जो खर्च किया है, उसे किसी भी उचित–अनुचित रूप से ब्याजसहित वसूले। उसकी यही सोच उसे भ्रष्टाचार के दलदल में धकेल देती है और फिर वह चाहकर भी इससे निकल नहीं पाता।

(ख) लचर न्याय–व्यवस्था–लचर न्याय–व्यवस्था भी भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण है। प्रभावशाली लोग अपने धन और भुजबल के सहारे अरबों–खरबों के घोटाले करके साफ बच निकलते हैं, जिससे युवावर्ग इस बात के लिए प्रेरित होता है कि यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त धनबल है तो उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बस यही धारणा उसे अकूत धन प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचार की अन्धी गली में धकेल देती है, जहाँ से वह फिर कभी निकल नहीं पाता।

(ग) जन–जागरण का अभाव–हमारे देश की बहुसंख्यक जनता अपने अधिकारों से अनभिज्ञ है, जिसका लाभ उठाकर प्रभावशाली लोग उसका शोषण करते रहते हैं और जनता चुपचाप भ्रष्टाचार की चक्की में पिसती रहती है।

(घ) विलासितापूर्ण आधुनिक जीवन–शैली–पाश्चात्य सभ्यता की विलासितापूर्ण जीवन–शैली ने अपनी चकाचौंध से युवावर्ग को अत्यधिक प्रभावित किया है, जिस कारण वह शीघ्रातिशीघ्र भोग–विलास के सभी साधनों को प्राप्त करके जीवन के समस्त सुख प्राप्त करने का मोह नहीं छोड़ पाता।

शिक्षा–प्राप्ति के पश्चात् जब यही युवावर्ग कर्मक्षेत्र में उतरता है तो सभी प्रकार के उचित–अनुचित हथकण्डे अपनाकर विलासिता के समस्त साधनों को प्राप्त करने में जुट जाता है और वह अनायास ही भ्रष्टाचार को आत्मसात् कर लेता है।

(ङ) जीवन–मूल्यों का ह्रास और चारित्रिक पतन–आज व्यक्ति के जीवन से मानवीय–मूल्यों का इतना ह्रास हो गया है कि उसे उचित–अनुचित का भेद ही दिखाई नहीं देता। जीवन–मूल्यों के इसी ह्रास ने व्यक्ति का इतना चारित्रिक पतन कर दिया है कि पति–पत्नी, पिता–पुत्र, माता–पुत्र, माता–पुत्री, पिता–पुत्री, भाई–बहन तथा भाई–भाई के रिश्तों का खून आज साधारण–सी बात हो गई है।

जो व्यक्ति अपने सगे–सम्बन्धियों का खून कर सकता है, उससे अन्य लोगों के हितों की तो आशा ही नहीं की जा सकती। ऐसे संवेदन और मूल्यहीन, दुश्चरित्र व्यक्ति भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।

भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय–भ्रष्टाचार को रोकना आज यद्यपि विश्वव्यापी समस्या बन गई है और भले ही इसे समूल नष्ट न किया जा सके, तथापि कुछ कठोर कदम उठाकर इस पर अंकुश अवश्य लगाया जा सकता है।

भ्रष्टाचार को दूर करने के कुछ मुख्य उपाय इस प्रकार हैं-

(क) जनान्दोलन–भ्रष्टाचार को रोकने का सबसे मुख्य और महत्त्वपूर्ण उपाय जनान्दोलन है। जनान्दोलन के द्वारा लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान फैलाकर इस पर अंकुश लगाया जा सकता है। समाजसेवी अन्ना हजारे द्वारा चलाया गया जनान्दोलन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ है।

उनके जनान्दोलन की अपार सफलता को देखते हुए भारत सरकार भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए लोकपाल विधेयक संसद के दोनों सदनों राज्यसभा एवं लोकसभा से पारित हो चुका है। केन्द्रीय स्तर पर गठित लोकपाल की जाँच के दायरे में प्रधानमन्त्री, मन्त्री, सांसद और केन्द्र सरकार के समूह ए, बी, सी, डी के अधिकारी और कर्मचारी आएँगे, जबकि राज्यों में लोकायुक्त के दायरे में मुख्यमन्त्री, राज्य के मन्त्री, विधायक और राज्य सरकार के अधिकारी शामिल होंगे।

(ख) कठोर–कानून–कठोर कानून बनाकर ही भ्रष्टाचार पर रोक लगाई जा सकती है। यदि लोगों को पता हो कि भ्रष्टाचार करनेवाला कोई भी व्यक्ति सजा से नहीं बच सकता, भले ही वह देश का प्रधानमन्त्री अथवा राष्ट्रपति ही क्यों न हो, तो प्रत्येक व्यक्ति अनुचित कार्य करने से पहले हजार बार सोचेगा। दण्ड का यह भय जब तक नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। अब लोकपाल कानून में इसका प्रावधान कर दिया गया है।

(ग) निःशुल्क उच्चशिक्षा–भ्रष्टाचार पर पूरी तरह अंकुश तभी लगाया जा सकता है, जब देश के प्रत्येक युवा को निःशुल्क उच्चशिक्षा का अधिकार प्राप्त होगा। यद्यपि अभी ऐसा किया जाना सम्भव नहीं दिखता, तथापि 14 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करना इस दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम है।

(घ) पारदर्शिता–देश और जनहित के प्रत्येक कार्य में पारदर्शिता लाकर भी भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है; क्योंकि अधिकांश भ्रष्टाचार गोपनीयता के नाम पर ही होता है। सूचना का अधिकार यद्यपि इस दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम है, तथापि इसको और अधिक व्यापक बनाने के साथ–साथ इसका पर्याप्त प्रचार–प्रसार किया जाना भी अत्यावश्यक है। ई–गवर्नेस के माध्यम से हमारी केन्द्रीय सरकार सभी सरकारी कार्यों में पारदर्शिता लाने के लिए कटिबद्ध है।

(ङ) कार्यस्थल पर व्यक्ति की सुरक्षा और संरक्षण–कार्यस्थल पर प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकार और कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे पर्याप्त सुरक्षा तथा संरक्षण प्राप्त हो, जिससे व्यक्ति निडर होकर अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी के साथ कर सके।

यदि कार्यकारी व्यक्ति को पूर्ण सुरक्षा और संरक्षण मिले तो धनबल और बाहुबल का भय दिखाकर कोई भी व्यक्ति अनुचित कार्य करने के लिए किसी को विवश नहीं कर सकता। महिलाकर्मियों के लिए तो कार्यस्थल पर सुरक्षा और संरक्षण देने हेतु कानून बनाया जा चुका है, जिससे उनका यौन–शोषण रोका जा सके। यद्यपि इस कानून को और अधिक व्यापक तथा प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।

(च) नैतिक मूल्यों की स्थापना–नैतिक मूल्यों की स्थापना करके भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके लिए समाज–सुधारकों और धर्म प्रचारकों के साथ–साथ शिक्षक वर्ग को भी आगे आना चाहिए।

उपसंहार–
हमारे संविधान के 73वें और 74वें संशोधन में शक्तियों का ही विकेन्द्रीकरण नहीं किया गया है, बल्कि धूमधाम से भ्रष्टाचार का भी विकेन्द्रीकरण कर दिया गया है। पश्चिमी देशों में किसी राजनेता का भ्रष्टाचार उजागर होने पर उसका राजनैतिक जीवन समाप्त हो जाता है, किन्तु हमारे यहाँ तो राजनीतिज्ञ के राजनैतिक जीवन की शुरूआत ही भ्रष्टाचार से होती है। जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी और अपराधी, वह उतना ही सफल राजनीतिज्ञ।

यही कारण है कि ट्रांसपैरेंसी इण्टरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2017 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 79वें स्थान पर है, जबकि वर्ष 2016 में वह 76वें स्थान पर था। भ्रष्टाचार के क्षेत्र में अपनी इन उपलब्धियों के सहारे हम विकासशील से विकसित देश का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकते। हम तभी विकसित देशों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकते हैं, जब भ्रष्टाचार के क्षेत्र में न्यायिक तराजू पर राजा और रंक एक ही पलड़े में रखे जाएँ।

शिक्षित बेरोजगारी की समस्या निबंध – Problem Of Educated Unemployment Essay In Hindi

Problem Of Educated Unemployment Essay In Hindi

शिक्षित बेरोजगारी की समस्या निबंध – Essay On Problem Of Educated Unemployment In Hindi

“बेरोजगार व्यक्ति को कष्ट तो पहुँचता ही है, साथ ही उसका नैतिक पतन भी होता है; जो साधारण रूप से समाज को ग्रस्त कर लेता है और पीढ़ी–दर–पीढ़ी बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार के असन्तुष्ट नवयुवकों का अधिक संख्या में बेकार होना देश की राजनैतिक स्थिरता के लिए भी हानिकारक और भयंकर है।”

–अज्ञात

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

शिक्षित बेरोजगारी की समस्या निबंध – Shikshit Berojagaaree Kee Samasya Nibandh

रूपरेखा–

  1. बेरोजगारी का अर्थ,
  2. बेरोजगारी : एक प्रमुख समस्या,
  3. बेरोजगारी : एक अभिशाप,
  4. बेरोजगारी के कारण–
    (क) जनसंख्या में वृद्धि,
    (ख) दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली,
    (ग) कुटीर उद्योगों की उपेक्षा,
    (घ) औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया,
    (ङ) कृषि का पिछड़ापन,
    (च) कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी,
  5. बेरोजगारी दूर करने के उपाय–
    (क) जनसंख्या–वृद्धि पर नियन्त्रण,
    (ख) शिक्षा–प्रणाली में व्यापक परिवर्तन,
    (ग) कुटीर उद्योगों का विकास,
    (घ) औद्योगीकरण,
    (ङ) सहकारी खेती,
    (च) सहायक उद्योगों का विकास,
    (छ) राष्ट्र–निर्माण सम्बन्धी विविध कार्य,
    (ज) मेक इन इण्डिया और स्टार्ट अप इण्डिया योजना,
  6. उपसंहार।

बेरोजगारी का अर्थ–
बेरोजगारी का अभिप्राय उस स्थिति से है, जब कोई योग्य तथा काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने के लिए तैयार हो और उसे काम न मिलता हो। बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम एवं अपंग व्यक्तियों को बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जो व्यक्ति काम करने के इच्छुक नहीं हैं और परजीवी हैं, वे भी बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं आते।

बेरोजगारी : एक प्रमुख समस्या–
भारत की आर्थिक समस्याओं के अन्तर्गत बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या है। वस्तुत: यह एक ऐसी बुराई है, जिसके कारण केवल उत्पादक मानव–शक्ति ही नष्ट नहीं होती, वरन् देश का भावी आर्थिक विकास भी अवरुद्ध हो जाता है। जो श्रमिक अपने कार्य द्वारा देश के आर्थिक विकास में सक्रिय सहयोग दे सकते थे, वे कार्य के अभाव में बेरोजगार रह जाते हैं। यह स्थिति हमारे आर्थिक विकास में बाधक है।

बेरोजगारी : एक अभिशाप–
बेरोजगारी किसी भी देश अथवा समाज के लिए अभिशाप होती है। इससे एक ओर निर्धनता, भुखमरी तथा मानसिक अशान्ति फैलती है तो दूसरी ओर युवकों में आक्रोश तथा अनुशासनहीनता को भी प्रोत्साहन मिलता है। चोरी, डकैती, हिंसा, अपराध–वृत्ति एवं आत्महत्या आदि समस्याओं के मूल में एक बड़ी सीमा तक बेरोजगारी ही विद्यमान है।

बेरोजगारी एक ऐसा भयंकर विष है, जो सम्पूर्ण देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन को दूषित कर देता है। अत: उसके कारणों को खोजकर उनका निराकरण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है।

बेरोजगारी के कारण हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख निम्नलिखित है-

(क)जनसंख्या में वृद्धि–बेरोजगारी का प्रमुख कारण है–जनसंख्या में तीव्रगति से वृद्धि। विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष 1.63% की वृद्धि हो जाती है। जबकि इस दर से बेकार हो रहे व्यक्तियों के लिए हमारे देश में रोजगार की व्यवस्था नहीं है।

(ख) दोषपूर्ण शिक्षा–प्रणाली–भारतीय शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है; फलतः यहाँ के स्कूल–कॉलेजों से निकलनेवाले छात्र दफ्तर के लिपिक ही बन पाते हैं। वे निजी उद्योग–धन्धे स्थापित करने योग्य नहीं बन पाते हैं।

(ग) कुटीर उद्योगों की उपेक्षा–ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योग–धन्धों का पतन हो गया; फलस्वरूप अनेक कारीगर बेकार हो गए। स्वतन्त्रता–प्राप्ति के पश्चात् भी कुटीर उद्योगों के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया; अतः बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि होती गई।

(घ) औद्योगीकरण की मन्द–प्रक्रिया–विगत पंचवर्षीय योजनाओं में देश के औद्योगिक विकास के लिए प्रशंसनीय कदम उठाए गए हैं, किन्तु समुचित रूप से देश का औद्योगीकरण नहीं किया जा सका है; अत: बेकार व्यक्तियों के लिए रोजगार नहीं जुटाए जा सके हैं।

(ङ) कृषि का पिछड़ापन–भारत की लगभग 72% जनता कृषि पर निर्भर है। कृषि के अत्यन्त पिछड़ी हुई दशा में होने के कारण कृषि बेरोजगारी की समस्या व्यापक हो गई है।

(च) कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी हमारे देश में कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी है; अत: उद्योगों के सफल संचालन के लिए विदेशों से प्रशिक्षित कर्मचारी बुलाने पड़ते हैं। इस कारण से देश के कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों के बेकार हो जाने की भी समस्या हो जाती है।

इनके अतिरिक्त मानसून की अनियमितता, भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन, मशीनीकरण के फलस्वरूप होनेवाली श्रमिकों की छंटनी, श्रम की माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन, आर्थिक साधनों की कमी आदि से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। देश को बेरोजगारी से उबारने के लिए इनका समुचित समाधान नितान्त आवश्यक है।

(क)जनसंख्या–वृद्धि पर नियन्त्रण–जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि बेरोजगारी का मूल कारण है; अत: इस पर नियन्त्रण बहुत आवश्यक है। जनता को परिवार नियोजन का महत्त्व समझाते हुए उसमें छोटे परिवार के प्रति चेतना जाग्रत करनी चाहिए।

(ख) शिक्षा–प्रणाली में व्यापक परिवर्तन शिक्षा को व्यवसायप्रधान बनाकर शारीरिक श्रम को भी उचित महत्त्व दिया जाना चाहिए।

(ग) कुटीर उद्योगों का विकास–कुटीर उद्योगों के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

(घ) औद्योगीकरण–देश में व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण किया जाना चाहिए। इसके लिए विशाल उद्योगों की अपेक्षा लघुस्तरीय उद्योगों को अधिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

(ङ) सहकारी खेती–कृषि के क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्तियों को रोजगार देने के लिए सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

(च) सहायक उद्योगों का विकास–मुख्य उद्योगों के साथ–साथ सहायक उद्योगों का भी विकास किया जाना चाहिए; जैसे–कृषि के साथ पशुपालन तथा मुर्गीपालन आदि। सहायक उद्योगों का विकास करके ग्रामीणजनों को बेरोजगारी से मुक्त किया जा सकता है।

(छ) राष्ट्र–निर्माण सम्बन्धी विविध कार्य–देश में बेरोजगारी को दूर करने के लिए राष्ट्र–निर्माण सम्बन्धी विविध कार्यों का विस्तार किया जाना चाहिए; यथा–सड़कों का निर्माण, रेल–परिवहन का विकास, पुल–निर्माण, बाँध–निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि।

(ज) मेक इन इण्डिया और स्टार्ट अप इण्डिया योजना–देश से बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए माननीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मेक इन इण्डिया और स्टार्ट अप इण्डिया योजनाएँ आरम्भ की गई हैं। इन योजनाओं के अन्तर्गत देश में उद्योग–धन्धों की स्थापना के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हेतु देश के द्वार खोल दिए गए हैं।

अनेक विदेशी कम्पनियाँ इस योजना का लाभ उठाकर यहाँ नए उद्योग स्थापित कर रही हैं, जिससे बड़ी मात्रा में देश के युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने लिए माननीय प्रधानमन्त्री ने मुद्रा–लोन की शुरूआत की है, जिसके अन्तर्गत देश के बेरोजगार युवा पचास हजार से पचास लाख तक का ऋण उद्योग–धन्धों की स्थापना के लिए बैंकों से प्राप्त कर सकते हैं।

इस योजना के अन्तर्गत स्थापित उद्योगों को अनेक टैक्सों में छूट और दूसरी रियायतें प्रदान की गई हैं। इससे निश्चय ही देश में बेरोजगारी कम होगी।

उपसंहार–
स्पष्ट ही है कि हमारी सरकार बेरोजगारी उन्मूलन के प्रति जागरूक है और इस दिशा में उसने महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाए हैं। परिवार नियोजन, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कच्चा माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की सुविधा, कृषि–भूमि की हदबन्दी, नए–नए उद्योगों की स्थापना, अप्रेण्टिस (प्रशिक्षु) योजना, प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि अनेकानेक कार्य ऐसे हैं, जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं। इनको और अधिक विस्तृत एवं प्रभावी बनाने की दिशा में भारत सरकार कटिबद्ध है।