आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप निबंध – Essay On Reservation System In Hindi
रूपरेखा–
- प्रस्तावना,
- आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी मान्यताएँ–
(क) जातिगत एवं शैक्षणिक आधार,
(ख) आर्थिक आधार, - संवैधानिक आधार,
- राजनैतिक क्षेत्र में आरक्षण,
- आरक्षण के परिणाम,
- उपसंहार।
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
आरक्षण : देश के लिए वरदान या अभिशाप निबंध – Aarakshan : Desh Ke Lie Varadaan Ya Abhishaap Nibandh
प्रस्तावना–
जब किसी देश, राष्ट्र अथवा समाज में कोई वस्तु, पदों की संख्या अथवा सुख–सुविधा आदि किसी व्यक्ति तथा वर्ग–विशेष के लिए आरक्षित कर दी जाती है तो उसकी ओर सबका ध्यान आकर्षित हो जाता है। इसी कारण पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों अथवा सरकारी पदों पर आरक्षण की घोषणा ने सम्पूर्ण देश के लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
इस ‘आरक्षण नीति’ के विरोध और समर्थन में अनेक आन्दोलन हुए, जिनसे अनेक विवाद खड़े हो गए। ‘आरक्षण’ एक विशेषाधिकार है, जो दूसरों के लिए बाधक और ईर्ष्या का कारण बन जाता है। किन्तु ‘आरक्षण’ समाज में आर्थिक विषमता को दूर करने का एक साधन भी है। भारत में आरक्षण का मुख्य आधार जातिगत ही रहा है।
आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी मान्यताएँ–
देश में आरक्षण का समर्थन करनेवाले विभिन्न आधारों पर आरक्षण की माँग करते हैं। इनमें जातिगत एवं शैक्षणिक तथा आर्थिक आधार प्रमुख हैं, जो इस प्रकार हैं-
(क) जातिगत एवं शैक्षणिक आधार
पक्ष में तर्क आरक्षण का जातिगत एवं शैक्षणिक आधार स्वीकार करनेवाले अपने पक्ष के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1) भारतीय संविधान में सामाजिक (जातिगत) एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को ‘आरक्षण’ का आधार बनाया गया है, इसलिए यह विधिसम्मत है।
(2) पिछड़ेपन का वास्तविक अर्थ सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा होना है। वास्तव में पिछड़ी जाति के योग्य और सुन्दर–सम्पन्न लड़के से भी ऊँची जाति के लोग शादी नहीं करते हैं और न उनके साथ समान व्यवहार करते हैं। मन्दिर, विवाह, यज्ञ आदि में ब्राह्मण पण्डित को ही बुलाया जाता है, किसी हरिजन पण्डित को नहीं। सफाई कर्मचारी आज भी अपना सामाजिक स्तर नहीं सुधार सका, इसलिए आरक्षण का आधार जातिगत ही स्वीकार किया गया है।
(3) प्रतिभा तथा योग्यता किसी ऊँचे कुल की धरोहर नहीं है, वह तो किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। इसके सैकड़ों प्रमाण मिल जाएंगे।
(4) भारत में आर्थिक विषमता का मुख्य कारण सदियों से दलित और शोषित जातियों के उत्थान की दिशा में प्रयास न होना है। मानसिक गुलामी आर्थिक गुलामी की अपेक्षा अधिक हानिकारक होती है। पिछड़ी जाति अथवा अनुसूचित जाति के लोग मानसिक गुलामी के शिकार हैं। इसीलिए इन्हें आरक्षण की आवश्यकता है।
(5) कुछ विचारकों का मत है कि पिछड़ी जातियों एवं सवर्ण जातियों के अधिक पिछड़ेपन की कोई समाजशास्त्रीय समानता नहीं है। सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ वर्ग वास्तविक रूप से पिछड़ा हुआ है।
इस प्रकार जातिगत आधार को माननेवाले पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की माँग करते रहे हैं। विपक्ष में तर्क–जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं-
(1) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से जातिवाद और अधिक दृढ़ होता जाता है। जब तक जातिगत आधार पर आरक्षण मिलता रहेगा, तब तक जातिगत पक्षपात की भावना समाप्त नहीं होगी।
(2) जातिगत आधार पर आरक्षण दिए जाने से अयोग्य व्यक्तियों को भी महत्त्वपूर्ण पद मिल जाता है, जिससे कार्य–गति सुधरने की अपेक्षा शिथिल हो जाती है और प्रशासनिक सेवाओं का स्तर गिर जाता है।
(3) जातिगत आधार को मानकर किया गया आरक्षण इसलिए भी लाभदायक नहीं हो पाता; क्योंकि धनी और प्रभावी लोग ही इस सुविधा का लाभ उठा लेते हैं और जो इसके वास्तविक अधिकारी हैं, वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। जाति के किसी एक विशेष वर्ग या समुदाय के अधिक लाभान्वित होने के कारण समाज में धनी और निर्धन का अन्तर बढ़ता जाता है। भारत की वर्तमान स्थिति इसी का परिणाम है।
(4) समाज में कर्म की महत्ता घट जाएगी और जन्म की महत्ता स्थापित हो जाएगी। समाज में ऊँच–नीच का भेदभाव बढ़ता ही जाएगा। देश में कभी ऐसी स्थिति नहीं लाई जा सकेगी, जिसमें जातिवाद के नाम पर वोट माँगनेवालों को हतोत्साहित किया जा सके और वास्तविक जनतन्त्र की स्थापना की जा सके।
(5) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से अनेक विवाद खड़े हो जाते हैं और घृणा–द्वेष का वातावरण व्याप्त हो जाता है। इससे देश प्रगति के पथ से दूर हटता जाता है।
(ख) आर्थिक आधार
पक्ष में तर्क–
आर्थिक दशा को आरक्षण का मूल आधार माननेवाले अपने समर्थन में तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अर्थप्रधान युग में प्रतिष्ठा एवं अप्रतिष्ठा तथा विकसित एवं पिछड़ेपन का कारण धन ही है। यही कारण है कि समाज में धनी व्यक्ति ही प्रतिष्ठित होते हैं। सभी जातियों में धनी और निर्धन लोग होते हैं; इसलिए आरक्षण का सच्चा व न्यायोचित आधार ‘आर्थिक दशा’ ही होनी चाहिए।
विपक्ष में तर्क–
आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने के विपक्ष में मुख्य रूप से यह तर्क दिया जाता है कि प्रायः ऊँचे पदों पर ऊँची जाति के लोग ही नियुक्त होते हैं। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक दशा को मान लिया जाएगा तो ऊँची जाति के निर्धन लोग भी इन पदों पर पहुँच जाएंगे, फलस्वरूप सामाजिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।
इस प्रकार आरक्षण के मूलाधार के विषय में बहुत अधिक वाद–विवाद उत्पन्न हो गया है। कुछ भी हो, दोनों पक्षों के तर्कों को सरलता से अस्वीकार नहीं किया जा सकता; अत: दोनों ही पक्षों का ध्यान रखते हुए कोई मध्यम मार्ग खोजना होगा। इस दिशा में समाजशास्त्रीय तथा अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोणों में उपयुक्त समन्वय की भी आवश्यकता है।
संवैधानिक आधार–
भारत में संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में समानता के अधिकारों का विशद् रूप में उल्लेख किया गया है और संविधान की धारा 15 की उपधारा 4 में अनुसूचित एवं पिछड़े वर्ग के लिए जातिगत आधार पर कुछ विशेष सुविधाओं और अधिकारों की व्यवस्था की गई है। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए नौकरियों तथा लोकसभा व विधानसभाओं में निर्वाचित होने के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं।
प्रारम्भ में यह आरक्षण दस वर्षों के लिए किया गया था; पर आवश्यकतानुसार 10–10 वर्ष बढ़ाते हुए अवधि 2026 ई० तक बढ़ा दी गई। पिछड़े वर्ग के ‘आरक्षण’ की कोई व्यवस्था प्रान्तीय सरकारों ने नहीं की थी। दक्षिण भारत के कतिपय प्रान्तों में ही यह नीति लागू थी। जनता पार्टी ने अपने घोषणा–पत्र में पण्डित कालेलकर आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ी जातियों को 25% से 33% तक नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का वचन दिया था।
जनता सरकार ने बिहार में जब पहली बार इस प्रकार आरक्षण की घोषणा की तो भयंकर विवाद खड़ा हो गया। उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण की नीति अपनाई गई। सन् 1990 ई० में केन्द्र सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण की घोषणा की तो जनता ने प्रबल विरोध किया।
सन् 1992 ई० में दिए गए एक अभूतपूर्व निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने भी मण्डल आयोग की सिफारिशों को न्यूनाधिक संशोधनों के साथ लागू करने के लिए सरकार को निर्देश पारित कर दिए। अब प्रश्न यह उठता है कि स्वतन्त्रता के सात दशक व्यतीत होने के बाद भी भारत में किसी खास वर्ग जाति–विशेष के लिए आरक्षण की क्या आवश्यकता है?
राजनैतिक क्षेत्र में आरक्षण–
राजनैतिक क्षेत्र में भी आरक्षण की नीति को एक राजनैतिक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। हमारे देश में जातीयता के आधार पर चुनाव जीते जाते हैं, जिसके फलस्वरूप जातीयता का विष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। फिर भी हमें आरक्षण की नीति को स्वीकार करना ही पड़ेगा; क्योंकि सामाजिक–आर्थिक विषमता और मानसिक गुलामी से छुटकारा पाने का यही एकमात्र उपाय है, लेकिन आरक्षण की नीति को अधिक लम्बे समय तक नहीं अपनाया जाना चाहिए।
आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्ग के वास्तविक पात्र को ही मिलना चाहिए। सामाजिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए शिक्षा का प्रचार–प्रसार भी तीव्रगति से किया जाना चाहिए। समाज के सभी लोगों के हित को दृष्टिगत रखते हुए सरकार को अपने दुराग्रही दृष्टिकोण का त्याग करना चाहिए और सभी की उन्नति और विकास में समान रूप से सहयोग देना चाहिए।
आरक्षण के परिणाम–
दुःख का विषय है कि स्वाधीनता के पश्चात् दीर्घ अवधि व्यतीत होने के बाद भी हमारे देश की आर्थिक विषमता नहीं मिट सकी है और धनी–निर्धन के बीच की खाई निरन्तर और अधिक चौड़ी होती जा रही है। राजनैतिक कारणों से; जाति, धर्म और सम्प्रदाय अपना पूर्ववत् रूप बनाए हुए हैं। आरक्षण की नीति ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है।
प्रत्येक राजनैतिक दल बहुमत प्राप्त करने के जातिगत आधार को अभी भी स्वीकार किए हुए है, इसीलिए जातिवाद समाप्त नहीं हो सका है। यद्यपि ‘आरक्षण की नीति’ का मूल उद्देश्य वर्ग–विशेष की आर्थिक स्थिति को सुधारना और समाज में शैक्षणिक सुविधाएँ देकर सभी को समानता का स्तर प्रदान करना है, किन्तु आरक्षण की नीति का आधार जातिगत हो जाने से इस व्यापक उद्देश्य की पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो गई है।
आज वस्तुत: आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक पिछाड़ेपन दूर करना न होकर पूर्णत: राजनैतिक हो गया है। प्रायः सभी राजनैतिक दल आरक्षण के मुद्दों का अपनी सुविधा के अनुसार प्रयोग करके सत्ता हथियाना चाहते हैं।
इसके लिए वे देश में दंगे–फसाद और तोड़–फोड़ द्वारा सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने से भी नहीं हिचकते हैं। अभी हाल ही में गुजरात में पटेलों के आरक्षण तथा हरियाणा एवं राजस्थान में जाटों के आरक्षण–आन्दोलन के अन्तर्गत हुई विनाशलीला की घटनाएँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
उपसंहार–
वस्तुत: भारत में आरक्षण को जिस प्रकार का राजनैतिक स्वरूप दे दिया गया है, वह इसकी मूल कल्याणकारी भावना पर ही कुठाराघात कर रहा है। इसका उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलाकर शोषित एवं दलित वर्ग का उत्थान करना था, किन्तु यह आज जाति–भेद को प्रोत्साहन देकर जाति–विद्वेष की भावना को बढ़ावा दे रहा है।
इससे समाज के पुनः बिखर जाने का भय उत्पन्न हो गया है। अत: अब आरक्षण की नीति पर नए सिरे से और निष्पक्ष रूप से विचार करना आवश्यक हो गया है।