पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध – Essay On Dependence In Hindi
अन्य सम्बन्धित शीर्षक, परतन्त्रता अथवा दासता, पराधीनता मृत्यु है, स्वाधीनता का महत्त्व, पराधीनता एक अभिशाप है। “क्या मैं अपने देश ही में गुलामी करने के लिए जिन्दा रहूँ? नहीं, ऐसी जिन्दगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।”
–मुंशी प्रेमचन्द
रूपरेखा–
- पराधीन का अर्थ,
- पराधीनता और भय,
- स्वाधीनता का तात्पर्य,
- स्वाधीनता की आवश्यकता,
- पराधीनता के दुष्परिणाम,
- पराधीनता मृत्युसमान है,
- उपसंहार।
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध – Paraadheen Sapanehun Sukh Naaheen Par Nibandh
पराधीन का अर्थ–
‘पराधीन’ शब्द दो शब्दों के योग से बना है–’पर + अधीन’, अर्थात् दूसरे के नियन्त्रण या बन्धन में रहना। इसलिए जब कभी एक शक्तिशाली राष्ट्र किसी निर्बल देश को अपने अधिकार में कर लेता है तो अधिकार में आए देश को हम पराधीन देश कहते हैं। इसी प्रकार जब हमारे स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र व्यवसाय पर बन्धन लगा दिया जाता है तो हम पराधीनता की श्रेणी में आ जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पराधीन व्यक्ति न तो अपने मन के अनुसार कुछ काम कर सकता है और न स्वतन्त्र रूप में कुछ सोच सकता है।
पराधीनता और भय–
पराधीनता भय की जननी है। पराधीन व्यक्ति के मन में सदैव भय व्याप्त रहता है, इस भय के कारण वह कुछ भी नहीं कर पाता है और न अपने देश अथवा समाज के हित की बात सोच पाता है।
स्वाधीनता का तात्पर्य–
स्वाधीनता का तात्पर्य है–“जो अपने ही अधीन हो”; इसलिए स्वाधीनता का अर्थ हुआ–स्वतन्त्रता। जो व्यक्ति किसी नियन्त्रण अथवा बन्धन के बिना अपनी इच्छा के अनुसार काम करने का अधिकार रखता है, उसे हम स्वतन्त्र या स्वाधीन कहते हैं, किन्तु इस स्वतन्त्रता या स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं है कि हम समाज और देश द्वारा बनाए गए नियमों का भी उल्लंघन करें। प्रत्येक समाज के कुछ–न–कुछ नियम होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति समाज के इन नियमों से बँधा होता है। समाज के नियम व्यक्ति ने स्वयं बनाए हैं।
यदि कोई व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह अराजकता को जन्म देता है। सड़क पर प्रत्येक व्यक्ति को चलने का अधिकार है, किन्तु सड़क पर चलने के कुछ पूर्वनिर्धारित नियम हैं। यदि कोई व्यक्ति इन नियमों का उल्लंघन करता है तो वह अपने प्राणों को तो संकट में डालता ही है, अन्य व्यक्तियों के लिए भी खतरा उत्पन्न कर देता है। इसलिए समाज के नियमों का पालन करना पराधीनता नहीं है।
स्वाधीनता की आवश्यकता–
व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाधीनता परम आवश्यक है। स्वतन्त्रता अथवा स्वाधीनता के अभाव में कोई भी व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता। जब व्यक्ति की उन्नति नहीं होगी तो देश की उन्नति भी सम्भव नहीं है। इसलिए देश की आजादी की लड़ाई में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि “स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूँगा।”
पराधीनता के दुष्परिणाम–
दासता, चाहे मानसिक हो अथवा शारीरिक, एक अभिशाप है। पराधीन व्यक्ति का सुख समाप्त हो जाता है, उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है और चिन्तन रुक जाता है। पराधीनता से राष्ट्र की संस्कृति नष्ट हो जाती है, धर्म मिट जाता है तथा नैतिक दृष्टि से देशवासियों का पतन होने लगता है।
पराधीनता मृत्युसमान है–
पराधीनता साक्षात् मृत्यु है। पराधीन व्यक्ति को कितनी ही भौतिक सुविधाएँ ” किन्न स्वतन्त्रता में कष्ट उठाते हुए भी जो आनन्द मिलता है, वह पराधीनता में कहाँ। वास्तव में पराधीनता ता, अवसाद, खीझ एवं निराशा को जन्म देती है। पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। पराधीन व्यक्ति स्वयं से घृणा करने लगता है।
वह अपने जीवन में जो भी कार्य करता है, उसे निराशा ही मिलती है। नवीन आविष्कार के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। परतन्त्र व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकता, वह पराश्रित हो जाता है। इस प्रकार पराधीनता व्यक्ति और समाज के लिए घातक विष के समान है।
उपसंहार–
प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्रता के वातावरण में साँस लेना चाहता है। पराधीनता प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए अभिशाप है। पराधीनता में मिलनेवाला सुख वास्तविक नहीं होता। वास्तव में वह सुख होता ही नहीं है, वह तो दुःखों का आरम्भ होता है। पराधीनता मानव–जीवन के लिए एक ऐसी जंजीर है, जिसमें बँधकर व्यक्ति मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।
इसलिए गोस्वामी तुलसीदास की यह उक्ति–’पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ नितान्त सत्य है और मानव–जीवन की वास्तविकता को प्रकट करती है। स्वतन्त्रता हमारी अमूल्य निधि है और अपने प्राणों की आहुति देकर भी हमें अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखना होगा।