Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary – Bharatvarsh Ki Unnati Kaise Ho Sakti Hai Summary Vyakhya

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय

जीवन-परिचय : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी के एक वैष्गव परिवार में भाद्रपद शुक्ला की पाँचवीं तिथि संवत् 1907 (सितम्बर-1950) को हुआ था। इनके पिता का नाम गोपाल चन्द्र था जो बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। इनकी शिक्षा कुछ कारणों से न चल सकी। जब ये नौ वर्ष के थे तभी इनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। भारतेन्दु जी को उच्च शिक्षा नहीं मिली परन्तु इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा से ज्ञान राशि को अर्जित कर लिया। ये 22 भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे।

इतने उदार विद्या-प्रेमी और विनोद-प्रिय व्यक्ति का पारिवारिक जीवन संतोषप्रद नहीं था। इनकी उदारता एवं परोपकारिता के कारण इनका सम्पूर्ण धन नष्ट हो गया। केवल 35 वर्ष की आयु में 6 जनवरी सन् 1985 को इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक-परिचय : भारतेन्दु अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा को लेकर हिन्दी के शैशव काल में अवतीर्ण हुए। वे प्राचीन एवं नवीन युग की कड़ी थे। उन्होंने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल पर नाटक उपन्यास, निबन्ध, कहानी, इतिहास, कविता आदि प्रत्येक क्षेत्र में अपनी ‘लेखनी’ की प्रतिभा का लोहा मनवाया। प्राचीन धाराओं को नवीनता में परिणत करके उन्होंने प्रगतिशील दृष्टिकोण को अपनाया। उन्होंने रीतिकालीन रूप श्रृंगार को हटाकर देश-प्रेम और जाति–्रेम को अपने साहित्य का आधार बनाया। भारतेन्दु के कारण हिन्दी नई चाल में ढली। यह चाल शिल्प और संवेदना की दृष्टि से नहीं थी।

रचनाएँ : भारतेन्दु जी ने अल्पकाल में ही जिस साहित्य की रचना की वह अपने में अनूठा है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

नाटक : विद्या सुन्दर, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधमू, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, चन्द्रावती, भारत दुर्दशा, भारत जननी, नील देवी, सती प्रताप, अंधेर नगरी, पाखण्ड विडम्बना, मुद्रा राक्षस, कर्पूर मंजरी, दुर्लभ बंधु।
कहानी एवं उपन्यास : रामलीला, हम्मीर हठ, राजसिंह, सुलोचना, शीलवती, सावित्री-चरित्र।
समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ : ‘कवि वचन सुधा’ हरिश्चन्द्र मैगजीन, बाला बोधनी, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका।

भाषा-शैली : भाषा शैली की दृष्टि से भारतेन्दु जी की रचनाओं में अनेक शैलियाँ मिलती हैं जिनमें प्रमुख है विवेचनात्मक शैली, वर्णनात्मक शैली, भावात्मक शैली, विश्लेषणात्मक शैली, व्यंग्यात्मक शैली। भारतेन्दुं की भाषा में संस्कृत शब्दों की प्रमुखता के साथ-साथ अरबी, फारसी के प्रचलित शब्दों का सहज प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा पर ब्रज भाषा का प्रभाव भी परिलक्षित होता है इनकी भाषा व्यावहारिक, सुव्यवस्थित एवं प्रवाहमय है। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा सशक्त हुई है।

Bharatvarsh Ki Unnati Kaise Ho Sakti Hai Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत पाठ ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा बलिया (उत्तर प्रदेश) नगर में दिया गया एक भाषण है। इसमें एक ओर ब्रिटिश शासन की मनमानी पर व्यंग्य किया गया है वहीं दूसरी ओर भारतीयों के काहिलाना रवैये पर भी प्रहार है। उन्होंने अंग्रेजों को एक परिश्रमी जाति के रूप में दिखाया है तथा उनसे प्रेरणा लेने की बात कही है। लेखक ने भारत के हिन्दू एवं मुसलमानों को आपसी मतभेद भुलाकर एक साथ चलने को कहा है जिससे भारत की उन्नति हो सके। भारतेन्दु जी ने भारतवर्ष की उन्नति के लिए जनसंख्या नियंत्रण, परिश्रम, त्याग की भावना एवं आत्मबल को आवश्यक माना है। उन्होंने अपनी बातों को दृष्टांतों के माध्यम से बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

कहानी का सार :

उत्तर प्रदेश के बलिया शहर में भारतेन्दु जी ने ‘भारत की उन्नति कैसे हो सकती है’ विषय पर भाषण दिया। उन्होंने कहा कि हम भारतीय तो रेलगाड़ी के डब्बों के समान हैं जिनको चलाने के लिए एक इंजन की आवश्यकता है। उन्होंने हिन्दुस्तानी राजे-महाराजाओं की आरामतलब जिन्दगी पर भी व्यंग्य किया कि उनके पास इस बात के लिए समय नहीं कि भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है। भारतीय लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है। आज उन्नति के इतने ताधन उपलब्ध हैं फिर भी हमारा देश उन्नति नहीं कर रहा। अंग्रेजी राज्य में उन्नति के सभी सामान उपलब्ध हैं फिर भी हमारा देश उन्नति नहीं कर रहा। लोगों के पास बहानों की कमी नहीं है। अंग्रेजों का पेट कभी खाली था। उन्होंने एक हाथ से अपना पेट भरा और दूसरे हाथ से उन्नति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर किया।

इंग्लैंड में भी किसान, गाड़ीवान, मजदूर सभी हैं। वहाँ का किसान सोचता है कि खेतों से अधिक पैदावार कैसे ली जा सकती है। उनका सिद्धान्त है कि एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गवाँना चाहिए। हमारे यहाँ जो जितना बड़ा निकम्मा होता है उसे उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है। हमारे देश की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है और रुपया कम होता जा रहा है। रुपया बिना बुद्धि के कहाँ बढ़ता है ? राजा महाराजाओं के दिन तो लद चुके। समय को व्यर्थ मत गवाँओ मौका मत चूको। मौका चूकने का अन्जाम बुरा होता है। रोजगार, धर्म, समाज, स्त्री, वृद्ध, बालक शिष्टाचार आदि सभी अवस्थाओं में उन्नति करो। रूढ़ियों को त्याग दो, देश की भक्ति से बढ़कर कोई भक्ति नहीं है। जो-जो तत्त्व देश की उन्नति में बाधक हैं उन्हें उखाड़ फेंको।

लेखक ने देश की अवनति का सबसे बड़ा कारण आलस्य, धर्मान्धता और कुरीतियों को बताया है। हमारे धार्मिक नेता वैज्ञानिक उपलब्धियों में बुराइयों के अलावा कुछ नहीं देखते। अपने लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई पर ध्यान दो। थोड़ी उम्र में उनकी शादी मत करो। धार्मिक मतभेदों को लेकर लड़ना-भिड़ना छोड़ दो। जाति से कोई भी ऊँचा या नीचा नहीं होता। किसी को छोटा समझकर उसका अपमान मत करो। संगठन में ही शक्ति होती है। सभी धर्मावलंबियों को मिलकर देश की उन्नति के ही बारे में सोचना चाहिए। कारीगरी का प्रयोग देश की उन्नति के लिए आवश्यक है। नए-नए उपकरणों का उपयोग करके हमें अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ाना चाहिए। उत्पादन बढ़ेगा तभी देश की तरक्की होगी।

हमारे देश में छोटी-से छोटी वस्तु भी बाहर से बनकर आती है। हमें अपने बच्चों को ऐसा साहित्य पढ़ने को देना चाहिए जिससे उनके चरित्र का निर्माण हो। उनको पढ़ने के लिए विलायत भेजो। रोजगार सिखलाओ हिन्दुओं को भी अपने मत-मतान्तर को भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ाना चाहिए। सभी धर्म वाले एक दूसरे का हाथ पकड़कर देश के विकास में लग जाओ। उद्योग धन्धे पैदा करो। अपने घर की लक्ष्मी को दूसरे देश में न जाने दो। अब इस नींद को छोड़कर देश की उन्नति में लग जाओ। परदेशी भाषा के भरोसे देश की उन्नति नहीं हो सकती। अपने देश की उन्नति अपनी भाषा में ही हो सकती है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • महसूल – टैक्स
  • चुंगी की कतवार – म्युनिसिपैलिटी का कचरा
  • अनुमोदन – स्वीकृति, मन्जूरी
  • अनुकूल – मुआफिक
  • मर्दुमशुम्मारी – जृनगणना
  • कंटक – काँटा
  • रसातल – पुराण के अनुसार पृथ्वी के नीचे के सात लोकों में छठा लोक
  • क्रबिस्तान – ईसाई धर्मानुयायी
  • आयुष्य – उम्र बढ़ाना
  • भई – हुई
  • वरं – फिर भी
  • मिसाल – उदाहरण
  • तिफ्ली – बचपन से सम्बन्धित

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? सप्रसंग व्याख्या

1. हमारे हिन्दुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इन्जिन ये सब नहीं चल सकर्तीं, वैसे ही हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो, तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए, “का चुप साधि रहा बलवाना” फिर देखिए कि हनुमान जी को अपना बल कैसे याद आ जाता है। सो बल कौन याद दिलावे या हिन्दुस्तानी राजे-महाराजे या नवाब रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूटी गप से छुद्धी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बॉल, घुड़दौड़, थिएटर, अखयार में समय गया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘हिन्दी गद्य विधाओं’ के प्रणेता ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ पाठ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ भारतीयों की तुलना रेल के डब्बों से की है। उनका कहना है कि हिन्दुस्तानी लोग तभी आगे बढ़ सकते हैं जब उनको कोई उनका बल याद दिलाने वाला हो।

व्याख्या : लेखक ने यहाँ हिन्दुस्तानियों की तुलना रेल के डब्बे से की है। जिस प्रकार रेल के डब्बे बिना इन्जन के नहीं चल सकते इसी प्रकार हिन्दुस्तानी लोगों को चलाने वाला भी कोई दूसरा ही होना चाहिए। यदि हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये कुछ भी कर सकते हैं। हनुमान को उनके बल की याद दिलाने की देर है। जिस प्रकार हनुमान जी अपने बल को याद करते ही लंका पहुँच गए थे उसी प्रकार भारतीय भी कहीं से कहीं पहुँच सकते हैं, जरूरत है इनको इनका बल याद दिलाने की। परन्तु इनको बल याद दिलाने वाला भी तो कोई होना चाहिए। हिन्दुस्तानी राजे-महाराजों को तो आराम तलबी एवं झूठी गपें हाँकने से फुर्सत नहीं है और जो सरकारी अधिकारी हैं वे सदा काम में घिरे रहते हैं या उनका समय अपने खेलकूद या मनोरंजन में व्यतीत होता है।

2. हम लोग निरी चुन्गी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दीड़ हो रही है। अमेरिकन, अंग्रेज़, प्रांसीसी आदि तुरकी ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सबके जी में यही है कि पाला हमीं पहले छू लें। उस समय हिन्दू काठियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्धी खोदते हैं। इनको, औरों को जाने दीजिए, जापानी टहुओं को हॉंफते हुए दौड़ते देखकर भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा, फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। इस लूट में, इस बरसात में भी जिसके सिर पर कमबख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पद्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी गय के आदि लेखक ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा बलिया में दिए गए भाषण ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ का अंश है। लेखक ने यहाँ भारतीयों को विकास की दौड़ में शामिल होने का आहृवान किया है। उन्होंने प्रेरित करते हुए कहा है कि पूरी दुनिया के देश तरक्की कर रहे हैं, ऐसे में भला तुम क्यों पीछे हो ?

व्याख्या : लेखक का कहना है कि दुनिया में हर तरफ उन्नति हो रही है। उन्नति के लिए एक से एक उपकरण बन रहे हैं परन्तु हिन्दुस्तानी लोग इस वैज्ञानिक उन्नति से कुछ भी लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। हिन्दुस्तानी तो म्युनिसिपैलिटी की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी की तरह व्यर्थ ही घूम रहे हैं। इस समय विश्व के सभी देश उन्नति कर रहे हैं। अंग्रेज, अमेरिकन, फ्रांसीसी, तुरकी सभी उन्नति कर रहे हैं। सब में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ मची हुई है। सब एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। दुनिया कहाँ से कहाँ है परन्तु हिन्दुस्तानी काठियावाड़ में टापू की मिट्ही ही खोद रहे हैं। इन सबकी बात तो छोड़िए जापानी भी उन्नति की इस बयार में आगे निकलने को उद्यत हो रहे हैं। उनको देखकर भी हिन्दुस्तानियों की आँखें नहीं खुलतीं। यह समय ऐसा है जिसकी अब भी उन्नति के लिए आँखें नहीं खुलेंगी तो फिर कब खुलेंगी। जो उन्नति के इस माहौल में भी पीछे रह जाएगा वह कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा। ऐसे लोगों की आँखों पर तो मूर्खता की पट्टी बँधी रहे फिर तो इसको ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।

3. चारों ओर आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करनेवालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है अमीरों की मुसाहबी, दलाली या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना, इनके सिवा बतलाइए और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्रि कुट्बी इस तरह अपनी इज्ज़त को बचाता फिरता है, जैसे लाजवन्ती कुल की बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिन्दुस्तान की है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ भाषण का अंश है। यह भाषण भारतेन्दु जी ने बलिया नगर में दिया था। लेखक ने यहौँ बेरोजगारी और भारतीयों की दरिद्रता का वर्णन किया है।

ब्याख्या : लेखक का कहना है कि चारों ओर अकर्मण्यता हावी हो रही है। काम करने वाला कोई नजर नहीं आता, न कोई रोजगार ही दिखाई देता है। हमारे देश में चारों और गरीबी ही गरीबी दिखाई देती है। ऐसी स्थिति में बिना परिश्रम और कर्मठता के उन्नति का स्वप्न कैसे देखा जा सकता है इसलिए हमें परिश्रमी और कर्मठ बनने की आवश्यकता है। दरिद्रता परिवार की उस बहू की तरह है जो फटे कपड़ों में अपने अंग छिपाती फिर रही है। जब तक हमारे देश में समृद्धि नहीं आएगी और हम हीन भावना से ग्रसित रहेंगे तो हम किसी के आगे गर्व से कैसे खड़े हो सकते हैं। हम सदा दूसरों के द्वारा दबाये जाते रहेंगे।

4. जो लोग अपने को देशहितिषी लगाते हों, वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उटो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़-पकड़ कर लाओ। उनको बाँध-बाँध कर केद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्यभिचार करने आवे तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारंगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे। उसी तरह इस समय जो-जो बातें तुम्हारे उन्नति-पथ में काँटा हों, उनकी जड़ खोदकर फेंक दो। कुछ मत करो। जब तक सी-दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएँगे, कैद न होंगे, वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश भी न सुधरेगा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा रचित निबंध ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ से अवतरित है। लेखक ने देश की उन्नति के लिए तरह-तरह के उदाहरणों द्वारा तर्क प्रस्तुत करके लोगों को आलस्य छोड़ने की बात कही है। उनका कहना है कि देश की उन्नति के लिए अपने सुखों का त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि जो लोग अपने को देश की उन्नति में लगाना चाहते हैं और जो देश का हित चाहते हैं उन्हें अपने निजी स्वार्थों और सुखों का त्याग करने के लिए तत्पर हो जाना चाहिए। अपने धन और मान का भी बलिदान करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। यदि तुम भी दूसरे देशों की उन्नति से प्रेरणा प्राप्त करके अपने आपको देश की उन्नति के लिए समर्पित कर दोगे तो वह दिन दूर नहीं जब भारत भी उन्नतिशील देश होगा। यह मत सोचो कि दुनिया के लोग तुम्हें किस नज़रिये से देखते हैं। तुम्हारी उन्नति क्यों नहीं हो रही उन कारणों की तह तक जाओ।

हमारी उन्नति न होने के कारणों में कहीं धर्म आड़े आता है, कहीं हमारे सुख आड़े आते हैं। जो-जो हमारी उन्नति के मार्ग में छिपे बैठे चोर हैं उनको पकड़ कर बाहर करो। उनको अपने रास्ते से हटाओ। उन्नति के मार्ग में बाधक तत्त्वों को इसी प्रकार उखाड़ फेंकने की जरूरत है जैसे किसी व्यभिचारी को अपने घर से पकड़कर उसे मारने की जरूरत होती है। जो-जो चीजें देश की उन्नति में बाधक हैं उन्हें उखाड़ फेंकने की जरूरत है। जब. तक हम देश की उन्नति के लिए अपने को पूरी तरह से निर्भय होकर देश के लिए अर्पित न कर देंगे। तब तक हमारे देश की उन्नति नहीं हो पाएगी।

5. भाइयो, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। ये सब तो समाजधर्म हैं जो देशकाल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह हुई कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप-दादों का मतलब न समझकर बहुत से नए-नए धर्म बनाकर शास्त्रों में धर दिए। बस सभी तिथि व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। सो इन बातों को अव एक बार आँख खोलकर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान कषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के जो अनुकूल और उपकारी हों, उनको ग्रहण कीजिए।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा रचित निबन्ध ‘भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ से अवतरित है। लेखक ने यहाँ समाज में फैली धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों तथा रूढ़ मान्यताओं पर करारा प्रहार करते हुए जनता को उससे होने वाली हानियों तथा देशहित में आने वाली बाधाओं से सचेत रहने की चेतावनी दी है एवं सभी धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करने पर बल दिया है।

व्याख्या : लेखक कहता है कि हमें धार्मिक अंध-विश्वास में नहीं पड़ना चाहिए। तर्क के आधार पर ही सभी बातों को परखना व मानना चाहिए। वास्तविक धर्म तो केवल प्रभु के चरणों की भक्ति है बाकी सभी कुछ तो समाज धर्म है। समाज धर्म परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। यह हमारी अज्ञानता ही है कि हमने अपने पूर्वजों ऋषियों, मुनियों की बात पर ध्यान नहीं दिया । हमने अपने-अपने अनेक धर्म खड़े कर लिए हैं। हमारे लिए सभी तिथियाँ व्रत हो गई और सभी स्थान तीर्थ हो गए। हमें अपने विवेक से सोच-समझकर ही किसी बात को मानना चाहिए। जो बातें देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उपयोगी हैं उनको ग्रहण करना चाहिए। जो चीजें अपना अर्थ खो चुकीं उनको त्यागने में ही अपना भी हित है और देश का भी।

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