Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary – Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Summary Vyakhya

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 10 Summary

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय

जीवन-परिचय : भक्तिकालीन निर्रुण भक्ति काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीरदास जी का जन्म सन् 1398 में काशी में हुआ था। एक किंवदंती के अनुसार उनकी माता एक विधवा ब्राह्मणी थी, जो लोक लज्जा और सामाजिक भय के कारण लहरतारा नामक स्थान पर अपने पुत्र को छोड़ आई थी। नीरू-नीमा नामक जुलाहा दंपति वहौं से उन्हें ले आए और उनका पालन-पोषण किया। बड़े होने पर कबीर ने जुलाहा का व्यवसाय अपनाया। उनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ। कमाल और कमाली नाम की उनकी दो संतान थीं। रामानंद स्वामी को उन्होंने अपना गुरु बनाया। कबीरदास अनपढ़ थे किन्तु साधु-संगति और अपने अनुभव से जीवन तथा जगत का प्रचुर ज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया था। 97 वर्ष की आयु में सन् 1495 में मगहर नामक स्थान पर कबीरदास जी का स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक-परिचयः कबीरदास जी की वाणी का मुख्य सन्देश निर्गुण ईश्वर की उपासना का सन्देश देना है। उनका आगमन ऐसे समय में हुआ जब भारतीय समाज परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था। उन्होंने सूफियों की प्रेम-साधना, दृढ़योग और तंत्र के साथ वैष्गव भाव का समन्वय करके अपनी सहज साधना विकसित की। समाज में व्याप्त धार्मिक आडम्बरों और आचारों का खण्डन करके समाज में प्रेम से रहने का एक सन्देश प्रसारित किया। काशी में रहने के कारण पण्डितों और मुसलमान परिवारों में पालन-पोषण के कारण, मुसलमानों की कमज़ोरियों से परिचित थे । युगप्रवर्त्तक की दृढ़ता उनमें विद्यमान थी। प्रेम के क्षेत्र में ऊँच-नीच, जाति-पाँति, गरीब-अमीर का भेदभाव स्वीकार नहीं करते थे। उनका मत था कि ‘सहज-समाधि’ सहज प्रेम से ही प्राप्त हो सकती है। वह ‘आँखिन देखी’ में विश्वास करते थे ‘कानन सुनी’ में नहीं।

रचनाएँ : ‘बीजक’ कबीरदास जी की प्रामाणिक रचना है। इसके तीन नाम हैं-(i) साखी (ii) सबद (iii) रमैनी। ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से इनकी सम्पादित रचनाओं का परिचय मिलता है। सन्त परम्परा में दोहों को साखी, पदों को सबद और दोहा-चौपाई शैली को रमैनी कहा जाता है।

भाषा-शैली : कबीरदास जी की भाषा को पं० रामचन्द्रशुक्ल ने ‘सधुक्कड़ी’ कहा है। वास्तव में उसमें साधुओं का फक्कड़पन है। कबीर प्रान्त-प्रान्त में घूमने वाले साधु थे, अतः उनकी भाषा में प्रादेशिक प्रयोगों के कारण विभिन्न छवियाँ समाविष्ट हो गई हैं। उनमें राजस्थानी, पंजाबी, ब्रजभाषा के साथ-साथ पूर्वी हिन्दी का भी मनोरम प्रयोग हुआ है। जहाँ तक सम्प्रेषणीयता का प्रश्न है-अपने भावों और विचारों को दूसरों तक पहुँचाने में वे बेजोड़ हैं। अलंकारों का प्रयोग अनायास ही उनकी कृतियों में आ गया है। अनेकों रचनाओं में लाक्षणिक प्रयोगों में तो वे छायावादी कवियों को भी मात दे देते हैं।

मान सरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुक्तांफल मुक्ता चुगंग, अब उड़ि अनत न जाँहि।

अन्योक्ति लिखने में तो वे सिद्धहस्त हैं। सरलता, सहजता और अभिव्यक्ति की प्रभावपूर्णता कबीर की भाषा के महत्त्वपर्ण गण हैं

Are In Dohun Rah Na Pai, Balam Aavo Hamare Geh Re Class 11 Hindi Summary

यहाँ कबीर के दो पद दिए गए हैं। पहले पद में कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही फटकार लगाई है। कबीर ने उनके धर्माचरण पर प्रहार करते हुए धर्म के अन्दर व्याप्त बाह्याडंबर को उजागर किया है। कबीर ने दोनों के धर्मों में फैल रही कुरीतियों को उजागर किया है। जिस राह पर ये दोनों चल रहे हैं वह पतन की ओर ले जाती है।

दूसरे पद में कबीरदास जी ने ब्रह्म को स्वामी और आत्मा को स्वामिनी के रूप में प्रस्तुत किया है। कवि ने यहाँ प्रेम और भक्ति के मार्ग को श्रेष्ठ बताया है। मनुष्य को जब तक ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक उसका कल्याण नहीं है। कवि का कहना है कि जिस प्रकार प्यासे की प्यास पानी से, भूखे की भूख भोजन से बुझती है और पत्नी को पति से मिलने पर ही चैन मिलता है इसी प्रकार जीव को भी परमात्मा के मिलन पर ही सन्तोष होता है।

अरे इन दोहुन राह न पाई बालम; आवो हमारे गेह रे सप्रसंग व्याख्या

1. अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-त्तर सोवै यह देखो हिन्दुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैरीं घर-भर करे बड़ाई।
हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह है जाई ॥

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ

  • दोहुन – दोनों को
  • गागर – घड़ा
  • छुवन न देई – छूने नहीं देता
  • पायन तर – पैरों की ओर
  • पीर – आध्यात्मिक गुरु, अल्लाह का पैगम्बर
  • औलिया – भक्त
  • खाला – मौसी, माँ की बहिन
  • केरी – साथ
  • जेवन – जीमना, भोजन करना
  • तुरकन – तुर्क, मुसलमान

प्रसंग : प्रस्तुत पद कबीरदास द्वारा रचित है। इस पद में कवि ने हिन्दुओं और, मुसलमानों के धर्मों में व्याप्त बाह्याडंबरों पर कटाक्ष किया है। कवि ने यहाँ दोनों ही धर्मावलंबियों को लताड़ा है।

ब्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि इन दोनों अर्थात् हिन्दुओं और मुसलमानों को अब तक बुद्धि नहीं आई। हिन्दू अपने धर्म की बड़ाई करता है। वह अपने को बहुत पवित्र समझता है। वह अपने पानी के बर्तन को भी किसी को छूने नहीं देता। उसे यह डर रहता है कि यह पात्र छूने से अपवित्र हो जायेगा। अपने को पवित्र समझने वाला यह हिन्दू वेश्या के पैरों में सोता है। वहाँ इसकी पवित्रता नष्ट नहीं होती। तब इसका हिन्दू धर्म कहाँ चला जाता है। मुसलमानों का हाल भी कम नहीं है उनके पीर अर्थात् धर्म गुरु और औलिया अर्थात् भक्त मुर्गी और मुर्गें का माँस खाते हैं दूसरे जीवों की हत्या करते हुए इनको पाप नहीं लगता। ये अपनी बेटी की शादी मौसेरे भाई के साथ ही कर देते हैं। इनके सगाई-विवाह आदि घर-घर में ही हो जाते हैं। ये बाहर से एक मुर्दा अर्थात् मरा हुआ बकरा आदि लाते हैं। उसे ये धोकर पकाते हैं और फिर सब सखियाँ इकट्बा होकर उसे खाती हैं। पूरा घर बड़ाई करने लगता है कि देखो कितना स्वादिष्ट बना है। कबीरदास जी कहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक दूसरे से बढ़कर हैं किसी को भी कम नहीं माना जा सकता। इनका कुछ पता नहीं ये किस राह पर जाएंगे। इनका उद्धार होना मुश्किल है।

काव्य सौन्दर्य : कबीर ने हिन्दू और मुसलिम दोनों ही धर्मों के बाह्याडम्बरों पर तीव्र प्रहार किया है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही किसी से कम नहीं ये बातें बड़ी-बड़ी करते हैं पर उनको अपने आचरण में नहीं उतारते। इनका आचरण धर्म विरुद्ध होता है। जीव हत्या की कोई भी धर्म अनुमति नहीं देता।

ब्रज भाषा का सुन्दर प्रयोग किया है। उद्बोधन शैली का प्रयोग है। ‘मुर्गी मुर्गा’ ‘धोय-धाय, ‘सब सखियाँ’ में अनुप्रास है ‘घर-घर में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

2. बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिनको है बालम प्यारा, ज्यों प्सासेको नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • बालम – प्रियतम, ईश्वर
  • गेह – घर
  • देह – शरीर
  • धीर – धैर्य
  • कामिन – स्ती
  • पिवसों – पिया से/प्रियतम से/ईश्वर से
  • बेहाल – जिसका हाल खराब हो
  • भयो – हो गयो
  • जिव – आत्मा

प्रसंग : प्रस्तुत पद ‘कबीरदास’ द्वारा रचित है। इस पद में कवि ने ईश्वर को प्रियतम और स्वयं को प्रियतमा मानते हुए ईंश्वर का आह्वान किया है कि वह आए और उनके हुदय को शान्त करे। वे ईश्वर से मिले बिना बेहाल हो चुके हैं।

व्याख्या : कबीरदास स्वयं को प्रियतमा और ईश्वर को अपना प्रियतम मानते हुए उनका आह्वान कर रहे हैं कि वे उनके घर आकर उनकी मनोकामना पूरी करें। कबीरदास की कामना यही है कि उसके प्रियतम उसको आकर अपने हृदय से लगा लें। बिना प्रियतम के उनका शरीर बहुत कष्ट-झेल रहा है। कवि कहते हैं कि सभी लोग मुझे तुम्हारी नारी कहते हैं। जब मैं तुम्हारी नारी हूँ तो फिर मेरे पास तुम्हें होना ही चाहिए। बिना प्रियतम के प्रियतमा का होना या न होना बराबर है।

लोग मुझे तुम्हारी नारी बताते हैं लोगों के कहने से मुझे लज्जा का अनुभव होता है। तुम्हारा मुझ पर स्नेह तभी माना जाएगा जब तुम मुझे आकर दिल से लगाओगे। कबीरदास जी कहते हैं कि तुम्हारे बिना मुझको न तो अन्न अच्छा लगता है, न मुझे नींद आती है, न घर में चैन है, न वन में चैन है। मेरा मन अधीर हो रहा है। प्रियतमा को अपना प्रियतम उसी प्रकार प्यारा होता है जैसे प्यासे को पानी प्यारा होता है। प्यासे के प्राण पानी पीने के लिए तड़फते हैं उसी प्रकार प्रियतमा अपने प्रियतम के लिए तड़फती है। कवि आगे कहता है कि कौन ऐसा उपकारी है जो मेरी व्यथा को मेंरे प्रियतम से जाकर बताए। कबीरदास जी कहते हैं कि बिना प्रियतम अर्थात् ईश्वर के प्रियतमा अर्थात् आत्मा बेहाल हो गई है। आत्मा-परमात्मा से मिलने के लिए तड़फ रही है।

काव्य सौन्दर्य : इस पद में कबीर की रहस्यवादी भावना प्रकट हुई है। कबीर ने ईश्वर को बालम स्वयं को उसकी प्रेमिका कहा है। इस पद में ब्रह्म से मिलने की व्यंजना प्रकट हो रही है।

ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है। भाषा में लाक्षणिकता का प्रभाव दृष्टि गोचर हो रहा है। प्रत्येक पंक्ति में ‘रे’ की पुनरावृत्ति से भाषा अत्यन्त प्रभावशाली हो गई है। ‘कोई कहै’ ‘लगत लाज’ पर-उपकारी ‘पिवसो’ में अनुप्रास अलंकार है एवं ‘कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे’ पंक्ति में उत्प्रेक्षा अलंकार है। माधुर्य गुण एवं शृंगार रस है।

Hindi Antra Class 11 Summary