Class 11 Hindi Antra Chapter 7 Summary – Naye Ki Janam Kundali Ek Summary Vyakhya

नए की जन्म कुंडली : एक Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 7 Summary

नए की जन्म कुंडली : एक – ओमप्रकाश वाल्मीकि – कवि परिचय

जीवन-परिचय : गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को ग्वालियर के श्योपुर कस्बे में एक कुलकर्णी ब्राह्मण के घर हुआ। इनके पिता पुलिस में सब-इंस्पेक्टर थे। ‘मुक्तिबोध’ बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। वे जिन संस्कारों में पले, उन्हीं का डटकर विरोध किया। साहित्यिक दृष्टि से उनका काव्य साम्यवाद के प्रति प्रतिबद्ध रहा। उन्होंने जीवन में कठोर संघर्ष सहे। संघर्षों, भटकनों और दु:साहसपूर्ण कार्यों ने उनके व्यक्तित्व को रूक्ष, कटु और तिक्त बना डाला। उन्होंने सन् 1935 में लिखना आरंभ किया। ‘कर्मवीर पत्रिका’ में उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ छपीं। सनू 1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम०ए० किया और 1958 में राजनाद गाँव में दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए तभी उनके जीवन में कुछ शान्ति आई। उन्हें तारसप्तक के कवियों में स्थान मिला। वे अनेक साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े रहे। 11 सितम्बर, 1964 को दिल्ली के एक अस्पताल में उनका देहान्त हो गया।

साहित्यिक-परिचय : मुक्तिबोध ने विविध दार्शनिक विचारधाराओं का गम्भीर अध्ययन किया। उनकी प्रतिभा का सर्वप्रथम परिचय तारसप्तक (1943) में मिला। मुक्तिबोध की रचनाओं में जटिल बिंब और प्रतीक, विलक्षण बौद्धिकता, गहरी अन्तर्दृष्टि और व्यापक संवेदना रहती है। उनकी अनेक लम्बी कविताओं में विराट रचनाधर्मिता पाई जाती है तथा उनका कवि-व्यक्तित्व, वैचारिक, चिन्तन, विस्तृत ज्ञान एवं संवेदना से भरा है। उनकी कविता आधुनिक जागरूक व्यक्तित्व के आत्मसंघर्ष की कविता है तथा उसमें सम्पूर्ण परिवेश के बीच अपने आपको खोज पाने के साथ-साथ अपने आपको बदलने की प्रक्रिया का भी चित्रण मिलता है। उन्होंने अपनी संवेदना और ज्ञान के अनुसार एक विशिष्ट काव्य-शिल्प का निर्माण किया। फैन्टेसी का सार्थक उपयोग उनकी कविता में देखने को मिलता है। मुक्तिबोध के वैविध्यपूर्ण जीवन विकासक्रम को देखने के लिए काव्य के भिन्न-भिन्न रूपों को यहाँ तक कि नाट्य तत्त्व को भी, वे कविता में स्थान देने के हिमायती हैं।

रचनाएँ : ‘चाँद का मुंह टेढ़ा’ और ‘भूरी-भूरी खाक-धूल’ उनके दो काव्य संग्रह हैं। दो कहानी संग्रह, ‘विपात्र’ उपन्यास। ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ तथा ‘एक साहित्यिक की डायरी’ आदि उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। मुक्तिबोध का सम्पूर्ण साहित्य ‘मुक्तिबोध-रचनावली’ नाम से छह खंडों में प्रकाशित हो चुका है।

भाषा-शैली : मुक्तिबोध का भाषा पर असाधारण अधिकार है। इनकी भाषा मौलिक है। उन्होंने अपनी भाषा में हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, मराठी आदि भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति के लिए अवसरानुकूल प्रयोग किया है। वे भावाभिव्यक्ति के लिए व्याकरण को तिलांजलि देने में भी नहीं चूके हैं। उन्होंने शब्दों को कई स्थानों पर तोड़ा-मरोड़ा भी है। ध्वनि बिम्ब प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी भाषा में अलंकारों और प्रतीकों का भी उचित मात्रा में प्रयोग हुआ है। उन्होंने अनेक नए उपमान और प्रतीकों का प्रयोग भी अपने काव्य में किया है।

Naye Ki Janam Kundali Ek Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत रचना ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक मुक्तिबोध की डायरी का एक अंश है। इस रचना में समाज के बाहरी और आन्तरिक दोनों स्वरूपों को बदलने की बात कही गई है। लेखक का मानना है कि सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवर्तन के फलस्वरूप प्राप्त यथार्थ की वैज्ञानिक मानसिक चेतना को ही ‘नया’ मानना चाहिए। लेखक का कहना है कि हम पुरानों को तो छोड़ते चले जाते हैं परन्तु ‘नए’ को ठीक से अपना नहीं पाते। लेखक का मानना है कि जीवन में सुख-सुविधाओं को अपनाने वालों ने संघर्ष करने वाले व्यक्ति को नगण्य बनाकर रख दिया है। लेखक ने सुविधा भोगी और संघर्ष करने वाले व्यक्ति दोनों की यहाँ तुलना की है। यह रचना विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। वे समाज में छल कपट को पहचान कर बुराइयों के प्रति सजग रहेंगे।

कहानी का सार :

लेखक के एक बहुत पुराने परिचित हैं जिनको वे बहुत बुद्धिमान समझते थे। लेखक को उनसे बहुत आशाएँ थीं कि वह आगे चलकर बहुत कुछ करेगा। वह अपने विचारों को धूप और हवा की तरह महत्त देता है। उसकी जिन्दगी एकदम यथार्थ थी। वह छोटी-से छोटी बात को भी बड़े सूक्ष्म तरीके से समझता था। लेखक अब अपने को अधिक बुद्धिमान मानने लगा था। लेखक की बारह वर्षों के बाद उससे पुनः मुलाकात हुई। इस दौरान लेखक एवं उस व्यक्ति के बीच काफी फासला आ गया था। उस व्यक्ति के बाल सफेद हो गए थे। उसके माथे पर लकीरें पड़ चुकी थीं। लेखक उसके चेहरे की तुलना खूबसूरत कागज पर लिखे सुन्दर एवं रहस्यमय वचनों से करता है। लेखक आपस में बढ़ गई इस दूरी को अच्छी भी मानता है और बुरी भी।

अच्छी इसलिए कि इससे इस बात का पता चलता है कि हम कितनी गति से आगे बढ़ रहे हैं और बुरी इसलिए कि दो मित्रों के बीच की यह दूरी खटकती है। लेखक उस व्यक्ति से काफी आगे निकल चुका था। लेखक यदि उसके साथ रहता तो उसके प्रभाव में दब जाता क्योंकि वह व्यक्ति असामान्य था। उसके अन्दर अपनी बात पर अडिग रहने की शक्ति थी उसके लिए वह स्वयं को या और किसी का भी बलिदान कर सकता था। जब वह राजनीति में आया तो लेखक ने उसका विरोध किया। राजनीति के साथ जब वह साहित्य के क्षेत्र में उतरा तो लेखक को अच्छा लगा। लेकिन अब तक उसकी हालत बिगड़ चुकी थी। वह बहुत जिद्दी हो गया था।

लेखक अब सोचता है कि जीवन में सांसारिक समझौते करना सबसे विनाशकारक है। जीवन में महत्त्वपूर्ण कार्य करते समय अपने और पराए दोनों ही आड़े आते हैं। उनके कारण जितनी बाधा पैदा होती है लड़ाई भी उतनी कड़ी होती है। जीवन में संघर्ष करते हुए उस व्यक्ति की स्थिति भी कुछ विचित्र हो गई थी। लेखक कहता है कि वह व्यक्ति मेरे भीतर के असामान्य को उकसा देता था जिसके कारण वह अपने को हीन अनुभव करने लगता था। लेखक कोई भी काम इसलिए करता है क्योंकि उनके कार्यों से लोग खुश होते हैं परन्तु वह जंब किसी कार्य को करता था तो इसलिए कि उसको पूरी निष्ठा से निभाना है चाहे कोई खुश हो या दुःखी हो। लेखक और वह व्यक्ति दो ध्रुवों के समान थे। समाज में लेखक ने मान-सम्मान कमाया परन्तु उसे अपनी हालत की कोई परवाह नहीं थी।

वह व्यक्ति काफी दिनों बाद लेखक की जिन्दगी में फिर से आया लेखक ने सोचा कि यह अधिक देर टिकने वाला नहीं है। परन्तु वह कुछ निराश दिखाई दिया वह अपनी बीती जिन्दगी को भूल कर एक नक्शा मान रहा था। उसे अपने जीवन में सांस्कृतिक सफलता न मिलने का खेद था ? अब वह भी सोचने लगा था कि उसने जीवन में नाम क्यों नहीं कमाया? लेखक बड़ी सावधानी से उससे बात कर रहा था, उसको डर था कि कहीं उस व्यक्ति को उसकी किसी बात से ठेस न पहुँच जाए।

यदि कोई मतभेद व्यक्त करना होता तो मुस्कराकर बात कह देता। लेखक ने उससे पूछा की पिछले बीस वर्षों की सबसे महान घटना क्या है तो उसका जवाब था “संयुक्त परिवार का ह्रास” और इस तथ्य का साहित्य से बहुत गहरा सम्बन्ध है। लेखक ने अपने आस-पास के समाज पर दृष्टिपात किया कि इसकी बात कहाँ तक सही है। लेखक ने फिर उससे दूसरा प्रश्न किया कि इन वर्षों की सबसे बड़ी भूल क्या है, तो उसका जवाब था- “राजनीति के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम न होना।”

आजादी के बाद राजनीति में जातिवाद का उदय हुआ है। सामाजिक सुधार का कार्य अप्रत्यक्ष हाथों में सौंप देने के कारण साहित्य में भी गड़बड़ है। परिवार समाज की एक बुनियादी इकाई होती है। समाज की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ सब परिवार से ही व्यक्त होती हैं। जमाने के साथ संयुक्त सामन्ती परिवार का ह्रास हुआ। उन विचारों और संस्कारों के प्रति विद्रोहं भी किया गया जो सामन्ती परिवार में पाए जाते थे। लड़के बाहर राजनीति के मैदान में खेलते रहे। जैसा वे वहाँ सोचते थे घर में आकर भी उन्होंने वैसा ही सोचा। अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं घर के बाहर दी गई।

घर में संघर्ष करना कठिन था। उसने आगे कहा इसलिए सामंती अवशेष परिवारों में अभी-भी पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस प्रकार एक बहुत भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनाई गई। लोगों ने पुराने को तो छोड़ दिया परन्तु नए को अपनाया नहीं। वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने धर्म का स्थान नहीं लिया इसलिए हम अपनी अन्तःप्रवृत्तियों के यंत्र से चालित हो गए। नए मान-मूल्य परिभाषाहीन हो गए। वे धर्म और दर्शन का स्थान नहीं ले सके।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • मेधावी – बुद्धिमान, तेज़ बुद्धिवाला
  • विचित्र – अनोखा
  • आंतरिक – भीतरी
  • साक्षात् – प्रत्यक्ष, आँखों के सामने
  • शिकंजा – जकड़
  • मस्तिष्क-तन्तुओं – मस्तिष्क की शिराएँ
  • रोमेंटिक कल्पना – ऐसी कल्पना जिनमें प्रेम और रोमांच हो
  • ‘ओड टु बैस्ट बिण्ड’ – अंग्रेज़ी कवि शैले की रचना
  • स्क्वेअर रूट ऑफ माइनस बन – गणित का एक सूत्र
  • बावजूद – के अतिरिक्त, अलावा
  • अभिधार्थ – शब्द का वाच्यार्थ
  • ध्वन्यार्थ – वह अर्थ जिसका बोध व्यंजनावृत्ति से होता है
  • व्यंग्यार्थ – व्यंजना शब्द शक्ति से प्राप्त अर्थ, सांकेतिक अर्थ
  • आच्छन्न – छिपा हुआ, ढका हुआ
  • असाधारणता – विशेषता, जो साधारण न हो
  • आक्रोश – गुस्सा
  • क्रूरता – हुदय की कठोरता
  • निर्दयता – क्रूरता, दया का न हैंना
  • भीषण – कठिन
  • उत्तरदायित्य – ज़िम्मेदारी
  • प्रवृत्ति – स्वभाव
  • जर्जर – टूटा-फूटा
  • विनाशक – विनाश करने वाली
  • हदययभेदक प्रक्रिया – हृदय को भीतर तक प्रभावित करने वाली क्रिया
  • निजत्व – अपनापन
  • ऐंडा-वेंडा – टेढ़ा-मेढ़ा
  • इंटीग्रल (अंग्रेज़ीवाद) – अभिन्न
  • आत्मप्रकटीकरण – अपने मन की वास्तविकता प्रकट करना, मन की बात कहना
  • ध्रुव – केन्द्र, छोर
  • यशस्विता – प्रतिष्ठा, अत्यधिक यश, प्रसिद्धि
  • उत्कापिन्ड – लौहमिश्रित पत्थर के टुकड़े जो अन्तरिक्ष से पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं
  • अप्रत्याशित – अनसोचा, जिसकी आशा न हो, उम्मीद न हो
  • खरब – भारतीय गणना में सौ अरब की संख्या
  • हास – पतन
  • अनिच्छित – बिना इच्छा के, अनचाहा
  • इम्तिहान – परीक्षा
  • वस्तुस्थिति – वास्तविक स्थिति
  • अप्रत्यक्ष – जो दिखाई न दे, परोक्ष
  • जातिवाद – जाति-विशेष को श्रेष्ठ बताने या जाति-विशेष का पक्ष लेने की प्रवृत्ति
  • अवशेष – बचा हुआ
  • सप्रश्नता – प्रश्न के साथ, जिनके साथ प्रश्न जुड़ा हुआ हो
  • अवलंबन – सहारा, आश्रय
  • सर्वतोमुखी – सभी ओर से, सभी दिशाओं में

शब्द शक्तियाँ :

अभिधा – शब्दों की वह शक्ति जिससे उनके नियत अर्थ ही निकलते हैं। कोई शब्द सुनते ही उसके अर्थ का जो बोध होता है वह इसी शक्ति के द्वारा होता है। इसे वाच्यार्थ भी कहते हैं।
लक्षणा – शब्द की वह शक्ति जो मुख्य अर्थ का बोध होने पर किसी विशेष प्रयोजन के लिए मुख्य अर्थ से सम्बद्ध किसी लक्ष्यार्थ का बोध कराती है।
व्यंजना – शब्द की वह शक्ति जिससे वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ (अर्थात् अभिधा और लक्षणा-शक्ति से निकलने वाले अर्थों) के अतिरिक्त ध्वनि के रूप में कुछ विशेष अर्थ निकलता है।
व्यंक्यार्थ – किसी शब्द या वाक्य का उसके साधारण अर्थ से भिन्न अर्थ, जो उसकी व्यंजना शक्ति से निकलता है, उसे व्यंग्यार्थ कहते हैं।

नए की जन्म कुंडली : एक सप्रसंग व्याख्या

1. मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ, जिसे (क्षमा कीजिए) में एक ज़माने में बहुत बुद्विमान समझता था। मुज़े उससे बहुत आशाएँ थीं कि वह आगे चलकर एक मेधावी, प्रतिभाशाली पुरुष निकलेगा। लोग समझते थे कि में उस व्यक्ति को अनुचित महत्त दे रहा हूँ। मुडे लगता था कि वह व्यक्ति हमारी भारतीय परम्परा का एक विचित्न परिणाम है। वह अपने विचारों को अधिक गम्भीरतापूर्वक लेता था। वे उसके लिए धूप और हवा-जैसे स्वाभाविक प्राकृतिक तत्त्व थे। शायद इससे भी अधिक। दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज़मीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे।

प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित पाठ ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से अवतरित हैं। जिसके लेखक प्रसिद्ध कवि एवं समालोचक ‘मुक्तिबोध’ जी हैं। उन्होंने यहाँ एक ऐसे व्यक्ति के बारे में वताया है जिसने कभी परिस्थितियों से समझौता नहीं किया।

ब्याख्या : लेखक के एक पूर्व परिचित व्यक्ति हैं। लेखक उनको बहुत ही बुद्धिमान समझता था। लेखक को पूर्ण विश्वास था कि यह व्यक्ति आगे चलकर बहुत ही ज्ञानवान, प्रतिभाशाली एवं महत्व का व्यक्ति सिद्ध होगा। लेखर बचपन से ही उससे बहुत प्रभावित था। लोगों की धारणा थी कि लेखक उस व्यक्ति को अनावश्यक महत्व दे रहा है परन्तु लेखक का कुछ और ही मानना था। वह तो उस व्यक्ति को भारतीय परम्परा का विचित्र परिणाम मानता था। वह व्यक्ति अपने विचारों के प्रति बहुत ही गम्भीर था। उसके लिए अपने बिचारों का उतंना ही महत्त्व था जितना धूप और हवा का। जिस प्रकार जीवन के लिए धूप और हवा आवश्यक होती हैं उसी प्रकार उसके लिए उसके विचार थे, बल्कि उनसे भी अधिक ही थे। उस व्यक्ति का पूरा भूगोल उसके विचारों में बसता था।

2. जब-जब मुड़े दूरियों का भान होता है, तब मुड़े अच्छा भी लगता है और बुरा भी। अच्छा इसलिए कि दूरी हमारी गति को एक चुनौती है और बुरा इसलिए कि मिन्नों के बीच दूरी खटकती है। हम एक ही भाषा का उपयोग तो करते हैं लेकिन अभिधार्थ एक होते हुए भी ध्वन्यार्थ और व्यंग्यार्थ अलग-अलग हो जाते हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहौं बताया है कि समय के साथ-साथ आपस की गति में बहुत अन्तर आ जाता है, कोई तो जीवन में तरक्की करके शिखर को छूने का प्रयास करता है परन्तु कोई अपने अड़ियल रवैये के कारण वहीं का वहीं पड़ा रह जाता है।

ब्याख्या : लेखक जब अपने और अपने मित्र के बीच तुलना करता है तो अपने को बहुत आगे पाता है। उसके मित्र और उसमें काफी दूरी आ गई है। इस दूरी का कारण भी गति है। लेखक तेज गति से आगे बढ़ते चले गए इससे दूरी बढ़ती चली गई। लेखक इसको अच्छा भी मानता है क्योंकि दूरी बढ़ने से ही तो किसी की गति को चुनौती दी जा सकती है और बुरा इसलिए मानता है कि दूरी बढ़ने से दो मिन्रों के बीच आई दूरी आत्मीयता को समाप्त कर देती है। जब दोनों बात करते हैं तो उनके कहने का ढंग एक जैसा होता है परन्तु उनका अर्थ अलग होता है। एक अभिधा शक्ति का प्रयोग करता है तो दूसरे के द्वारा कही बात से व्यंजना शक्ति के कारण उसका अर्थ अलग हो जाता है।

3. लेकिन आज में यह सोचता हूँ कि सांसारिक समझौते से ज़्यादा विनाशक कोई चीज़ नहीं-खासतौर पर वहाँ, जहाँ किसी अच्छी महत्त्वपूर्ण बात करने के मार्ग में अपने या अपने जैसे-लोग और पराए लोग आड़े आते हों। जितनी ज़बरदस्त उनकी बाधा होगी, उतनी ही बड़ी लड़ाई भी होगी, अथवा उतना ही निम्नतम समझौता होगा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से अवतरित है। लेखक ने यहाँ बताया है कि मनुष्य अपने जीवन की बाधाओं को दूर करने के लिए समझीते करता है। लेखक इस प्रकार से समझ्नीते करने को सबसे अधिक विनाशक मानता है।

व्याख्या : लेखक कहता है कि मनुष्य अपने जीवन को सरल एवं निष्कंटक बनाने के लिए पग-पग पर परिस्थितियों से समझौते करता रहता है। वह संघर्ष करने से बचता है। यह स्थिति बहुत ही विनाशकारक है। वह जब कोई अच्छी बात कहना या करना चाहता है तो कोई न कोई बाधा आन खड़ी होती है। यह बाधा अपने और दूसरों किसी के द्वारा भी खड़ी कर दी जाती है। जैसी बाधा होती है संघर्ष भी वैसा ही करना पड़ता है, यदि संघर्ष नहीं करेंगे तो समझौता करना पड़ेगा। समझौता भी बाधा के अनुसार ही होगा। जितनी बड़ी बाधा होगी उतना ही निम्नतम समझौता करना पड़ेगा। शक्तिशाली व्यक्ति के सामने दबाव में आकर समझौता करना पड़ेगा। इस प्रकार किया गया समझौता विनाशक सिद्ध होता है।

4. इस भीषण संघर्ष की हृदय-भेदक प्रक्रिया में से गुज़रक उस व्यक्ति का निजत्व कुछ ऐंडा-चेंडा, कुछ विचित्र अवश्य हो गया था। किन्तु सबसे बड़ी बात यह थी कि उसकी बाजू सही थी। इसलिए वह असामान्य था।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि एवं समालोचक ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्परण ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ अपने उस मित्र की चर्चा की है जिसने कभी हार नहीं मानी, जो निर्तर परिस्थितियों से संघर्ष करता रहा परन्तु उसने कभी समझौता नहीं किया।

ब्याख्या : लेखक अपने मित्र के बारे में बताता है कि उसके इस मित्र ने जीवन में बहुत संघर्ष किया। वह परिस्थितियों के सामने कभी नहीं झुका। उसे चाहे कितने भी कष्ट या नुकसान उठाने पड़े हों इस संघर्षमयी हृदय-भेदक परिस्थितियों के कारण उसको अपना बहुत नुकसान उठाना पड़ा परन्तु वह विचलित नहीं हुआ। उसका जीवन जैसा होना चाहिए था नहीं हो पाया वह अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य से कहीं नीचे रह गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि इन भीषण परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी उसका उत्साह कम नहीं पड़ा। उसके बाजुओं में संघर्ष करने की शक्ति यथावत् थी। लेखक उसको असामान्य मानता है क्योंकि सामान्य व्यक्ति इतने भीषण संघर्ष को नहीं झेल सकता।

5. लेकिन मेरी गति और दृष्टि कुछ और थी। जब में कोई काम करता, तो इसलिए कि उससे लोग खुश होते हैं। वह काम करता तो सिर्फ इसलिए कि एक बार कोई काम हाय में लेने पर उसे अधिकारी ढंग से भली-भाँति कर ही डालना चाहिए। मेरी ब्यावहारिक सामान्य-बुद्धि थी। उसकी कार्य-शक्ति, आत्मप्रकटीकरण की एक निद्दुद शैली। हम दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। ज़िन्दगी में मैं सफल हुआ, वह असफल। प्रतिष्ठित, भद्र और यशस्वी में कहलाया। बह नामहीन और आकारहीन रह गया। लेकिन अपनी इस हालत की उसे कतई परवाह नहीं थी इसका मुड़े बहुत बुरा लगता, क्योंकि वस्तुतः वह मेरी यशस्विता को भी बड़ी सत्ता के रूप में स्वीकार न कर पाता।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्परण ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ बताया है कि उसके मित्र के काम करने एवं उसके स्वयं के काम करने में कितना अन्तर था। लेखक का मित्र लेखक को भी उसकी प्रतिष्ठा के अनुसार स्वीकार नहीं करता था।

ब्याख्या : लेखक अपने जीवन में जो भी काम करता था उसके पीछे उसका यह उद्देश्य अवश्य रहता था कि उसका नाम हो और लोग उसके कार्यों से खुश हों। लेखक का मित्र जब किसी कार्य को हाथ में लेता था तो उसके पीछे उसका यह लक्ष्य कभी नहीं होता था कि यह कार्य करके नाम कमाना है। वह कार्य को केवल इसलिए करता था कि जब इसको हाथ में लिया है तो पूरा करना ही है। वह प्रत्येक कार्य को अधिकारी ढंग से करता था।

लेखक की बुद्धि व्यावहारिक एवं सामान्य थी। उसकी कार्य शैली अपने आपको प्रकट करने की नहीं थी। लेखक एवं उसका मित्र दो विपरीत ध्रुवों के समान थे। लेखक जीवन में सफल हुआ, उसका मित्र असफल रहा। लेखक को अपने कार्यों से यश एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। उसके मित्र का किसी कार्य के लिए नाम न हुआ वह गुमनाम ही रह गया। लेखक का मित्र अपनी इस हालत से बिल्कुल बेखबर रहा। उसने अपनी कभी परवाह ही नहीं की। लेखक को इस बात का बुरा लगता था, परन्तु वह बिल्कुल बेखबर रहता था। इससे उसने कभी लेखक के नाम को भी महत्त्व नहीं दिया। उसकी नज़र में लेखक एक सामान्य व्यक्ति ही था।

6. राजनीति के पास समाज-सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। साहित्य के पास सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम न होना। सबने सोचा कि हम जनरल (सामान्य) बातें करके, सिर्फ़ और एकमात्र राजनीतिक या साहित्यिक आन्दोलन के ज़रिए, वस्तुस्थिति में परिवर्तन कर सकेंगे। फलतः सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप दिया गया….।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुन्डली : एक’ से लिया गया है। लेखक ने अपने मित्र से जब यह पूछा कि गत वर्षों की सबसे बड़ी भूल क्या है तो उनका जवाब चौंकाने वाला था।

व्याख्या : लेखक का मित्र कहता है कि गत वर्षों की सबसे बड़ी भूल यह रही कि राजनीति के पास कोई भी ऐसा कार्यक्रम नहीं है जिससे समाज में कुछ सुधार हो सके। राजनीति की तो बात ही छोड़िए समाज-सुधार की सबसे अधिक जिम्मेदारी साहित्य एवं साहित्यकार की होती है समाज-सुधार के लिए भी इन्होंने कुष नहीं किया। इन सबने सोचा की हम सामान्य बातें करके राजनीतिक एवं साहित्यिक आन्दोलन के जरिए समाज में जाग्रति ला देंगे परन्तु हुआ कुछ नहीं। समाज-सुधार का कार्य किन्हीं और ही हाथों में सौपप दिया गया जहाँ यह कार्यक्रम प्रभावहीन रह गया।

7. “माज में वर्ग हैं, श्रेणियाँ हैं। श्रेणियों में परिवार हैं। समाज की एक बुनियादी इकाई परिवार भी है। समाज की अच्छाई-ुुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। मनुष्य के चरित्र का विकास परिवार में होता है। बच्चे पलते हैं, उन्हें सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है। वे अपनी सारी अच्छाइयाँ-दुराइयाँ वहौँ से लेते हैं। हमारे साहित्य तथा राजनीति के पास ऐसी कोई दृष्टि नहीं है जो परिवार को लागू हो…”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुंडलीः एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ बताया है कि समाज-सुधार की जड़ कहाँ है। समाज-सुधार कैसे हो सकता है। हम अच्छी बातें एवं बुरी बातें कहाँ से सीखते हैं। हमें उस इकाई पर ध्यान देना है।

ब्याख्या : समाज एक बहुत बड़ी इकाई है। समाज में अनेक वर्ग होते हैं, समाज अनेक छोटी-बड़ी श्रेणियों में बँटा हुआ है, फिर उन श्रेणियों में सबसे छोटी इकाई परिवार है। मनुष्य उस परिवार का एक हिस्सा है। समाज की बुनियाद परिवार में है। हम समाज में जितनी भी अच्छाइयाँ-बुाइयाँ देखते हैं वे सभी परिवार के माध्यम से ही व्यक्त होती हैं। कोई कैसा भी कार्य करने वाला हो, है तो वह किसी परिवार का ही हिस्सा। मनुष्य का चरित्र परिवार में ही विकास पाता है। बच्चे परिवार में पलकर, सांस्कृतिक शिक्षा प्राप्त करते हैं वे सभी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ वहीं से ही प्राप्त करते हैं। हमारे साहित्य और हमारी राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि उनके पास परिवार के लिए कोई दृष्टि नहीं। परिवार में सुधार होगा तो समाज स्वयंमेव सुधर जाएगा। यदि हमें समाज-सुधार करना है तो परिवार पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

8. लड़के बाहर राजनीति या साहित्य के मैदान में खेलते, और घर आकर वैसा ही सोचते या करते, जो सोचा या किया जाता रहा। समाज में, बाहर, पूँजी या धन की सत्ता से बिद्रोह की बात की गई, लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं, घर के बाहर दी गई।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुंडलीः एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ बताया है कि समाज में सुंधार क्यों नहीं हो पाया? हम बाहर तो विद्रोह करते रहे परन्तु अपने परिवार में घट रही बातों के प्रति अनभिज्ञ ही रहे।

ब्याख्या : लेखक का कहना है कि समाज का जिम्मेदार युवा वर्ग राजनीति या साहित्य के क्षेत्र में उलझा रहा। वे घर से बाहर संघर्ष करते रहे परन्तु घर में आकर वैसा नहीं किया जैसा कि वे बाहर करते रहे। घर में यदि ऐसा करते तो वह अशिष्टता मानी जाती। वह शील के बाहर की बात थी। अन्यायपूर्ण व्यवस्था को हम बाहर तो चुनौती देते रहे परन्तु अपने घर में हो रही अन्यायपूर्ण-व्यवस्था को हमने चुनीती नहीं दी। समाज सुधार तभी सम्भव था यदि हम अन्यायपूर्ण व्यवस्था को अपने घर में भी चुनौती देते, क्योंकि इस व्यवस्था की शुरुआत परिवार से ही होती है। हमने इस संघर्ष को टालकर अजीब ढंग से समझौता कर लिया।

9. “इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति इस प्रकार एक बहुत भयानक अवसखादी दृष्टि अपनाई गई है। इसीलिए सिर्फ एक सप्रश्नता है। प्रश्न है, वैज्ञानिक पद्वति का अवलंबन करके उत्तर खोज निकालने की न जल्दी है, न तबीयत है, न कुछ। में मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों की बात कर रहा हूँ।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुंडलीः एक’ से अवतरित है। लेखक ने यहाँ मध्यमवर्गीय परिवारों में सामंती अवशेषों की चर्चा की है।

व्याख्या : लेखक का मित्र कहता है कि अभी हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में सामंती विचारधारा के अवशेष विद्यमान हैं। पुराने विचारों और नए विचारों के प्रति बहुत ही अवसरवादी दृष्टि अपनाई गई। कोई भी वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार इन प्रश्नों के उत्तर खोजना नहीं चाहता। यह आज भी एक प्रश्न ही है। इसका उत्तर अभी तक नहीं खोजा गया। न किसी को खोजने की जल्दी है न किसी की नीयत ही है। आजकल मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है।

10. “जो पुराना है, अब वह लीटकर आ नहीं सकता। लेकिन नए ने पुराने का स्थान नहीं लिया। धर्म-भावना गई, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आई। धर्म ने हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष कं अनुशासित किया था। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने, वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने, धर्म का स्थान नहीं लिया इसलिए केवल हम अपनी अंतःप्रवृत्तियों के यंत्र से चालित हो उटे। उस व्यापक, उच्चतर, सर्वतोमुखी मानवीय अनुशासन की हार्दिक सिद्धि के बिना हम ‘नया-नया’ चिल्ला तो उटे, लेकिन बह-‘नया’ क्या है-हम नहीं जान सके! क्यों? मान-मूल्य, नया इंसान, परिभाषाहीन और निराकार हो गए। वे दृढ़ और नया जीवन, नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण न कर सके। वे धर्म और दर्शन का स्थान न ले सके।”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ द्वारा रचित संस्मरण ‘नए की जन्म कुंडली: एक’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ बताया है कि हम आधुनिकता की दौड़ में पुराने को तों भुला बैठे और नए को अपना नहीं पाए। हम इधर के रहे न उधर के।

व्याख्या : लेखक का कहना है कि हम पुराने को भुला बैठे पुराना चला गया वह कभी लौटकर नहीं आ सकता। सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि नया भी पुराने के स्थान को नहीं ले सका। धर्म की भावना तो चली गई परन्तु वैज्ञानिक बुद्धि भी नहीं आई जिससे हम नए को कुछ समझते। प्राचीन काल में धर्म हमारे प्रत्येक पक्ष को अनुशासित करता था चाहे वह राजनैतिक पक्ष हो या सामाजिक, वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने और दृष्टि ने धर्म का स्थान नहीं लिया इसलिए हमारी अंतः प्रवृत्तियाँ हमें जिस प्रकार चालित करती हैं हम उसी प्रकार चलते रहते हैं।

हम अपने आपको अनुशासित किए बिना नया-नया चिल्लाने लगे परन्तु बिना आत्मानुशासन के नया क्या है? यह हम नहीं जान सके आखिर ऐसा क्यों हुआ ? हमारे सभी मान मूल्यों को धर्म परिभाषित करता था। अब ये सभी मूल्य परिभाषाहीन हो गए। अब इनका कोई निश्चित स्वरूप नहीं रहा ये निराकार हो गए। वे दृढ़ और नया जीवन नए व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का रूप धारण नहीं कर सके। जिस अनुशासन की परिवार और समाज को आवश्यकता थी वह नहीं रहा। नए मान मूल्य धर्म दर्शन का स्थान नहीं ले सके।

Hindi Antra Class 11 Summary