Class 11 Hindi Antra Chapter 6 Summary – Khanabadosh Summary Vyakhya

खानाबदोश Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 6 Summary

खानाबदोश – ओमप्रकाश वाल्मीकि – कवि परिचय

जीवन-परिचय : ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म बरला, जिला मुजफ्फरनगर (उ०प्र०) में हुआ। उनका बचपन सामाजिक एवं आर्थिक कठिनाइयों से गुजरा। शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें अनेक आर्थिक, सामाजिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े। उन्होंने हिन्दी में एम०ए० की डिग्री प्राप्त की।

वाल्मीकि जी कुछ समय तक महाराष्ट्र में रहे। वहौं वे दलित लेखकों के सम्पर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ० भीमराव अम्बेडकर की रचनाओं का अध्ययन एवं चिंतन-मनन किया। इससे उनकी रचना दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन हुआ। आजकल वे देहरादून की आर्डिनेंस फैक्ट्ररी में अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।

साहित्यिक-परिचय : हिन्दी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने अपने लेखन में जातीय अपमान और उत्पीड़न का वर्णन किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने रखा है। वे मानते हैं कि दलित ही दलित की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझ सकता है तथा वही उस अनुभव की प्रामाणिकता अभिव्यक्ति कर सकता है। उन्होंने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है। भाषा उनकी सहज, तथ्यपरक और आवेगमयी है। व्यंग्य का गहरा पुट भी उसमें देखा जा सकता है। नाटकों में अभिनय और निर्देशन में भी उनकी रुचि है। अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ के कारण उन्हें हिन्दी साहित्य में पहचान और प्रतिष्ठा मिली। वाल्मीकि जी को डॉ० अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार (1993) और परिवेश सम्मान (1995) से सम्मनित किया जा चुका है।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘सदियों का संताप’, ‘बस! बहुत हो चुका’ (कविता संग्रह), सलाम (कहानी संग्रह), जूठन (आत्मकथा)।

प्रस्तुत पाठ उनकी आत्मकथा जूठन से लिए गए दो अंशों पर आधारित है। प्रथम अंश में उन्होंने अपने अध्ययन काल के अनुभवों तथा जातिसूचक अपमान की असह्य पीड़ा का मार्मिक वर्णन किया है। दूसरे अंश में समाज में हो रहे सकारात्मक परिवर्तनों का ज़िक्र है, जहाँ जातीय दंश उतरोत्तर कम होता गया। इस अंश में उनके हिन्दी साहित्य के अध्ययन तथा साहित्य सृजन की ओर प्रवृत्त होने का भी उल्लेख है।

Khanabadosh Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत कहानी ‘खानाबदोश’ ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित है। इस कहानी में मजदूरों की जिन्दगी का यधार्थ चित्रण किया गया है। रोजगार के कारण आज शहरों का विस्तार होता जा रहा है। रोजगार की तलाश में मजदूर छोटे नगरों, कस्बों और गाँचों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। मजदूरों का एक सपना होता है कि किसी तरह से अपने लिए एक टूटी-फूटी झोपड़ी का निर्माण करना। परन्तु उनका यह ख्वाब, ख्वाब बनकर रह जाता है, मजदूरों के परिश्रम के बल पर धनवान लोग और अधिक धनवान होकर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ खड़ी कर लेते हैं। मजदूरों को शोषण और अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। सूबे सिंह जैसे समृद्ध व ताकतवर लोग मजदूरों को जीने नहीं देते। यह कहानी इन्हीं बिन्दुओं को छूती हुई आगे बढ़ती है। इस कहानी को पढ़कर अमानवीय समाज के प्रति मन में आक्रोश उत्पन्न होता है। इस कहानी में यह भी बताया गया है कि शोषण पर आधारित विकास का कोई अर्थ नहीं है।

कहानी का सार :

सुखिया अपने हाथ की पथी ईंटों को भट्टे में लगाते हुए आत्मिक सुख का अनुभव कर रहा था। असगर ठेकेदार अपनी देख-रेख में सारा काम करवा रहा था। भट्टे में इंधन भरने के बाद भट्टे की चिमनियों ने धुआँ उगलना शुरु कर दिया था। मानो और सुखिया एक महीने पहले ही इस भट्टे पर आए थे। भट्टा मालिक मुख्तार सिंह और असगर ठेकेदार साँझ होते ही शहर लौट जाते थे। भट्टे पर ही एक कतार में मजदूरों की झोपड़ियाँ बनी हुई थीं। भट्टे का काम खत्म होते ही औरतें चूल्हे का काम सम्भाल लेती थीं। खाना खाकर सभी मजदूर अपनी दबड़ानुमा झोपड़ियों में घुस जाते थे। मानो ने कितनी ही बार सुखिया से कहा है कि अपने देस की सूखी रोटी परदेस के पकवानों से अच्छी होती है।

सुखिया किसी तरह नर्क की जिन्दगी से निकलना चाहता था। इसलिए मानो को लेकर यहाँ चला आया था। मानो सुखिया से वापिस चलने के लिए कहती रहती थी परन्तु सुखिया के तर्कों के सामने मानो को चुप रह जाना पड़ता था। पहले महीने में सुखिया ने खूब रुपये बनाए। सुखिया और मानो की जिन्दगी ठीक तरह से बसर होने लगी। उसके बाद एक जसदेव नाम का मजदूर और आ गया था।

एक दिन मुख्तार सिंह की जगह उसका बेटा सूबेसिंह भट्टे पर आया। सूबे सिंह के सामने असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। एक रोज सूबे सिंह की नज़र किसनी पर पड़ी। किसनी और महेश कुछ दिन पहले ही भट्टे पर आए थे। उनकी नई-नई शादी हुई थी। सूबे सिंह ने किसनी को दफ्तर में पानी के लिए रख लिया था। इसके बाद किसनी की चाल-ढाल ही बदलने लगी। भट्टे के मजदूरों में किसनी को लेकर कानाफूसी होने लगी। वह गलत रास्ते पर चल पड़ी थी। किसनी अब सूबेसिंह के साथ शहर भी जाने लगी थी। वह कई-कई दिन बाद आती थी। किसनी का पति महेश शराब पीकर झोपड़ी में पड़ा रहता था।

उधर मानो के दिमाग में भट्टे की लाल-लाल इंटों को देखकर एक स्वप्न हिलोरें ले रहा था कि उनका भी लाल-लाल ईटों का एक मकान हो। मानो अपने पति सुखिया से जब भी इस बात को कहती तो वह कह देता कि मकान बनाना इतना आसान नहीं है। मानो और अधिक परिश्रम की बात कहती जिससे उनका यह स्वप्न पूरा हो सके। उनके सामने एक लक्ष्य था कि उन्हें भी अपना मकान बनाना है।

एक दिन सूबे सिंह ने भटृ पर आकर असगर ठेकेदार को मानो को दफ्तर में बुलाने को कहा। असगर ठेकेदार सूबे सिंह को ऐसा करने से रोकता था परन्तु सूबे सिंह के धमकाने पर असगर ठेकेदार की घिग्घी बँँध गई। वह मानो को बुलाने चला गया। असगर की यह बात सुनकर कि मालिक ने दफ्तर में बुलाया है। सुखिया इस बुलावे से हड़बड़ा गया। गुस्से और आक्रोश से उसकी नसें खिंचने लगी थीं। उधर जसदेव ने भी भाँप लिया। वह बोला चाचा तुम यही ठहरो मैं देखता हूँ क्या बात है। असगर ठेकेदार के साथ जसदेव को आते देख सूबे सिंह बिफर पड़ा।

जसदेव से उसने कहा तू यहाँ किसलिए आया है? वह बोला जो काम है मुझे बता दीजिए। उसके गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा। सूबे सिंह ने उसे पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। चीख-पुकार सुनकर मजदूर भी उधर दौड़े। सूबे सिंह अपनी जीप में बैठकर शहर चलल गया। सुखिया और मानो जसदेव को झोपड़ी में ले आए। वह दर्द से कराह रहा था। जसदेव को हल्का बुखार भी हो गया था। भट्टे पर दवा दारु का कोई इन्तजाम नहीं था। कपड़ा जलाकर जख्मों में राख भर दी गई। मानो ने चूल्हा जलाया। सुखिया ने भी अनमने मन से एक रोटी खाई।

चारों ओर सन्नाटा था। मानो रोटी लेकर जसदेव की झोपड़ी में गई। जसदेव जाति का बाह्मण था। वह भला उसके हाथ की रोटी कैसे खाता। मानो बिना कुछ खाये पिये ही आकर लेट गई। जसदेव को लेकर उसके मन में हलचल मच रही थी। जसदेव ने पूरी रात जागकर काटी। सूबेसिंह का गुस्सैल चेहरा बार-बार उसके सामने आकर दहशत पैदा कर रहा था। उसको लगा कि जैसे वह किसी षड्यंत्र में फस गया है। उसने सोचा वह किसी पचड़े में नहीं पड़ेगा।

सुबह उठकर जसदेव असगर ठेकेदार से मिला। असगर ठेकेदार ने जसदेव से कहा तुम अपने काम से काम रखो, इन नीच लोगों के चक्कर में क्यों पड़ते हो। इसके बाद जसदेव का व्यवहार बदल गया। सूबे सिंह को लगा कि मानो को फुसलाना आसान नहीं। मानो ने निश्चय कर लिया था कि वह हर हाल में सूबे सिंह का मुकाबला करेगी। उसके मन में एक ही ख्याल था कि पक्की इंटों का घर बनवाना है। सूबे सिंह उन्हें तंग करने के नित नए बहाने ढूँढ़ लेता था। सुखिया से ईंट पाथने का साँचा लेकर जसदेव को दे दिया। अब जससेव मानो पर हुक्म चलाने लगा।

मानो ने पाथी हुई इंटों की जालीदार दीवार बना दी जिससे कि वह सूख जाएँ। अगले दिन मानो सुबह जल्दी उठी। वह तेज कदमों से ईट पाथने के स्थान पर गई। उसने वहाँ जाकर देखा कि सारी ईंटें टूटी-फूटी पड़ी थीं। किसी ने बहुत ही बेदर्दी से उनको रौंद डाला था। तरह-तरह की बातें हो रही थीं। जसदेव को जैसे इंटों से कोई मतलब ही नहीं, वह निर्विकार भाव से खड़ा था। असगर ठेकेदार ने कह दिया था कि टूटी-फूटी इटें हमारे किसी काम की नहीं इनकी हम मजदूरी नहीं देंगे। असगर ठेकेदार ने उनकी रही सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। मानो ने सुखिया की ओर डबडबाई हुई आँखों से देखा। सुखिया के चेहरे पर तूफान में घर टूट जाने की पीड़ा छलछला रही थी। वहाँ रुकना उनके लिए कठिन था। उसने मानो का हाथ पकड़कर कहा कि लोग हमारा घर नहीं बनने देंगे। भट्टे के काले धुएँ ने आकाश पर काली चादर फैला दी थी। मानो और सुखिया अपने सपनों को चकनाचूर होते देखकर खानाबदोशों की तरह वहाँ से चल दिए थे एक दिशाहीन सफर की ओर।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • पाथना – साँचे की सहायता से या यों ही हाथों से थोप-पीटकर इंट या उपला तैयार करना
  • मोरी – छोटा सा झरोखा
  • मुआयना – निरीक्षण
  • प्रतिध्वनि – गूँज, किसी शब्द के उपरान्त सुनाई पड़ने वाला उसी से उत्पन्न तदनुरूप शब्द
  • दड़बा – मुगियों का घर, यहाँ पर इसका अर्थ छोटे घर से है
  • दड़बा – मुर्गी इत्यादि रखने के लिए बनाया गया छोटा घर
  • तसल्ली – ढढाँढ़स, दिलासा
  • अंटी – गाँठ
  • तगारी – मिट्टी में पानी डालकर उसे मिलाना
  • स्याहपन – कालापन
  • ज़ेहन – मन, मस्तिष्क
  • शिद्धत से – कठिनाई से, कष्ट से
  • पुख्ता – मजबूत, पक्का
  • अंज़ाम – परिणाम
  • आश्वस्त – सन्तुष्ट
  • आक्रोश – गुस्सा
  • कातरता – विवशता, विवश आँखें
  • खसम – पति
  • सूत्र – धागा
  • दहशत – भय, डर, आतंक
  • दुश्चिन्ताएँ – बुरी चिन्ताएँ, अन्तर्मन को व्यथित करने वाली चिन्ताएँ
  • खानाबदोश – जिसका कोई घर बार न हो, आज यहाँ तो कल वहाँ विचरने वाला
  • पड़ाव – वह स्थान जहाँ कुछ समय के लिए टिक कर रहा जा सकता है, डेरा

खानाबदोश सप्रसंग व्याख्या

1. सुखिया के मन में एक बात बैठ गई थी। नर्क की ज़िंदगी से निकलना है तो कुछ छोड़ना भी पड़ेगा, मानो की हर वात का एक ही जवाब था उसके पास ‘बड़े-दूढ़े कहा करे हैं कि आदमी की औकात घर से बाहर कदम रखणे पे ही पता चले है। घर में तो घूहा भी सूरमा बणा रह। काँधे पर यो लम्बा लहु धरके चलगें वाले चौधरी सहर (शहर) में सरकारी अफ़सरों के आगे सीधे खड़े न हो सके हैं। बूढ़ी बकरियों की तरह मिमियाएँ हैं… और गाँव में किसी गरीब कू आदमी भी न समझे हैं…।’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। जिसके लेखक ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ जी हैं। लेखक ने यहाँ मजदूरों द्वारा गाँव छोड़ने की मजबूरियों का उल्लेख किया है।

व्याख्या : सुखिया ने गाँव छोड़ने का पूरी तरह मन बना लिया था। उसके मन में यह बात पूरी तरह से बैठी हुई थी कि अब इस नर्क में नहीं रहना है इसलिए, घर-बार तो छोड़ना ही पड़ेगा। मानो की हर बात का सुखिया तर्कपूर्ण जवाब देता था। वह मानो को बड़े-बूढ़ों का उदाहरण दिया करता था कि मनुष्य की क्या औकात है, उसका तभी पता चलता है जब वह घर से बाहर कदम रखता है। अपने घर में कोई भी शेर बन जाता है कँधे पर लम्बे-लम्बे लठ रखकर चलने वाले चौधरी शहर में अफसरों के सामने भीगी बिल्ली बन जाते हैं। अफसरों के सामने खड़े होने की हिम्मत उनमें नहीं होती। वे उनके सामने गिड़गिड़ाते हैं परन्तु गाँव में वे लोग गरीब आदमी को जीने नहीं देते।

2. झिंगुरों की झिन-ज्ञिन और बीच-बीच में सियारों की आवाज़ें रात के सन्नाटों में स्याहपन घोल रही थीं। थके-हारे मज़दूर नींद की गहरी खाइयों में लुढ़क गए थे। मानो के ख्यालों में अभी भी लाल-लाल ईंट घूम रही थीं। इंटों से बना हुआ एक छोटा-सा घर उसके ज़ेहन में बस गया था। यह ख्याल जिस शिद्दत से पुख्ता हुआ था, नींद उतनी ही दूर चली गई थी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘अंतरा’ में संकलित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। जिसके लेखक ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ जी हैं। लेखक ने यहाँ मानो के मन में घर बनाने का आकार ले रहे स्वप्न को उल्लिखित किया है।

ब्याख्या : रात का सन्नाटा छाया हुआ था। चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। झिंगुरों की झिन-झिन की आवाज और कभी-कभी सियारों की आवाज से सन्नाटा और भी भयावह लगने लगता था। दिन भर के थके हारे मजदूर गहरी नींद में डूबे हुए थे। थकावट के कारण उनको कुछ भी होश नहीं था परन्तु मानो को दूर-दूर तक नींद का नाम न था। उसके दिमाग में अभी भी लाल-लाल इटें घूम रही थीं। मानो बिस्तर पर पड़ी हुई अपने मकान की मधुर कल्पनाएँ कर रही थी। उसके दिमाग में ईंटों के छोटे से घर के अतिरिक्त और कुछ न था। यह ख्याल मानो पर इस तरह हावी हो रहा था कि नींद आने का कोई सवाल ही नहीं था। उसकी नींद कोसों दूर चली गई थी।

3. मानो भी गुमसुम अपने-आपसे ही लड़ रही थी। बार-बार उसे लग रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। एक सवाल उसे खाए जा रहा था- क्या औरत होने की यही सज़ा है ? वह जानती थी कि सुखिया ऐसा-वैसा कुछ नहीं होने देगा। वह महेश की तरह नहीं है। भले ही यह भट्टा छोड़ना पड़े। भङ्टा छोड़ने के ख्याल से वह सिहर उठी। नहीं… भट्टा नहीं छोड़ना है। उसने अपने आपको आश्वस्त किया, अभी तो पक्की इंटों का घर बनाना है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से अवतरित है। लेखक ने यहाँ मानो की मनोव्यथा का चित्रण किया है मानो के मन में दिन की घटना घूम रही थी। वह सोच रही थी कि किस प्रकार यह़ँ अपनी इज्जत को बचाया जा सकता है।

व्याख्या : मानो के हृदय को दिन में हुई सूबे सिंह वाली घटना ने झकझोर कर रख दिया था। वह अपनी सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित हो रही थी। उसको बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि वह यहाँ सुरक्षित बिल्कुल भी नहीं है। मन में यह सवाल रह-रहकर उठ रहा था कि क्या औरत होने की यही सजा होती है। उसे अपने पति पर पूरा भरोसा था । उसका पति महेश की तरह नहीं है जो अपनी पत्नी की इज्जत को दाँव पर लगा देगा। वह सोच रही थी कि भले ही यह भट्टा छोड़ना पड़े परन्तु वह ऐसा नहीं होने देगी। भट्टा छोड़ने का ख्याल आते ही उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। उसके जेहन में फिर पक्के घर वाली बात आ गई। उसने सोचा कि भट्टा नहीं छोड़ना है। उसने अपने मन को स्वयं ही दिलासा दी।

4. सुखिया भी चुपचाप लेटा हुआ था। उसकी भी नींद उड़ चुकी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, कि क्या करे, इन्हीं हालात में गाँब छोड़ा था। वे ही फिर सामने खड़े थे। आखिर जाएँ तो कहाँ ? सूबे सिंह से पार पाना आसान नहीं था। सुनसान जगह है कभी भी हमला कर सकता है। या फिर मानो को…. विचार आते ही बह काँप गया था। उसने करवट बदली। मानो जाग रही थी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ सुखिया के मन में चल रहे अन्तद्वद्व को दिखाया है। उसके मन में वही परिस्थितियाँ पुनः उपस्थित हो गई थीं जिनके कारण उसने घर छोड़ा था।

व्याख्या : सुखिया की आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। वह दिन की घटना के कारण स्तब्ध था। क्या करे क्या न करे उसको कुछ भी नहीं सूझ रहा था। उसके दिमाग में गाँव के वें हालात पुनः उपस्थित हों गए जिन हालातों के कारण उसने अपना घर छोड़ा था। आखिर जाएँ तो कहाँ जाएँ उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। सूबे सिंह ताकत वाला आदमी है। उससे किस प्रकार पार पाया जा सकता है। उसे कोई राह नज़र नहीं आ रही थी। वह कहीं भी उन पर हमला कर सकता है और वे उसका कुछ भी नहीं कर पाएँगे। या मानो को उसके हवाले कर दिया जाए यह विचार आते ही शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। इस विचार के मन में आते ही वह काँप गया। उसके पास ही मानो विचारों में खोई पड़ी थी। नींद किसी को भी नहीं आ रही थी।

5. भट्टे से उठते काले धुएँ ने आकाश तले एक काली चादर फैला दी थी। सब कुछ छोड़कर मानो और सुखिया चल पड़े थे-एक खानाबदोश की तरह। जिन्हें एक घर चाहिए था रहने के लिए, पीछे छूट गए थे कुछ बेतरतीब पल, पसीने के अक्स जो कभी इतिहास नहीं बन सकेंगे। खानाबदोश जिन्दगी का एक पड़ाव था। यह भट्टा।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘अंतरा भाग- 1′ में संकलित कहानी ‘खानाबदोश’ से लिया गया है। लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने यहाँ मानो और सुखिया के टूट चुके स्वप्नों को बिखरते दिखाया है। खानाबदोश किसी एक स्थान पर स्थित होकर नहीं रहते। यह भट्टा भी उनके जीवन का एक पड़ाव मात्र था।

व्याख्या : भट्टे से काला-काला धुआँ सारे आकाश में छाया हुआ था। ऐसा लगता था मानो आकाश पर काली चादर ढक दी गई हो। मानो और सुखिया इस भट्टे पर जिस अवस्था में आए थे वैसे ही खाली हाथ आगे के सफर के लिए चल पड़े। एक ऐसे सफर की ओर जिसका कोई निश्चित पड़ाव ही न हो। घर बनाने का स्वप्न काँच के टुकड़ों की तरह बिखर चुका था। लगता था उनका कभी घर बन ही नहीं पाएगा। इस स्वप्न को पूरा करने के लिए जो पसीना बहाया था वह सब व्यर्थ गया। अब यह कभी इतिहास नहीं बन पाएगा। यह स्वप्न सिर्फ स्वप्न ही रहेगा। यह ईंटों का भट्टा भी इसी सफर का एक पड़ाव था।

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