Class 11 Hindi Antra Chapter 15 Summary – Jaag Tujhko Door Jaana, Sab Aankho Ke Aansu Ujle Summary Vyakhya

जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 15 Summary

जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले – महादेवी वर्मा – कवि परिचय

जीवन-परिचय : छायावाद के चार प्रमुख-स्तंभों में महादेवी वर्मा एक हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद में एक सम्पन्न कला-प्रेमी परिवार में सन् 1907 को होली के दिन हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मिशन स्कूल इंदौर में हुई। केवल नौ वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया। विवाह के उपरान्त भी अध्ययन चलता रहा। सन् 1929 में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर भिक्षुणी बनना चाहा। परन्तु महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने पर भिक्षुणी न बनकर समाज-सेवा में लग गईं। सन् 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. की और नारी समाज में शिक्षा-प्रसार के उद्देश्य से प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की तथा प्रधानाचार्य के रूप में कार्य करने लगीं। कुछ समय तक मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का निःशुल्क सम्पादन किया।

महादेवी जी का कार्यक्षेत्र बहुमुखी रहा है। उन्हें सन् 1952 में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया। सन् 1954 में वे साहित्य अकादमी दिल्ली की संस्थापक संदस्या बनीं। सन् 1960 में प्रयाग महिला विद्यापीठ की कुलपति नियुक्त हुईं। सन् 1966 में साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया। विक्रम, कुमायूँ तथा दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें डी० लिट् की मानद उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। 1983 में यामा और दीपशिक्षा पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने भी ‘भारती’ नाम से स्थापित हिन्दी के सर्वोत्तम पुरस्कार से सम्मानित किया।

महादेवी को काव्य, दर्शन, संगीत, चित्रकला के अतिरिक्त पशु-पक्षियों से भी प्रेम था।
सन् 1987 में उनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक-परिचय : महादेवी एक उच्च कोटि की रहस्यवादी-छायावादी कवयित्री हैं। वे मूलतः अपनी छायावादी रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। गीत लिखने में महादेवी जी को आशातीत सफलता मिली है। उनकी रचनाओं में माधुर्य, प्रांजलता, करुणा, रोमांस और प्रेम की गहन पीड़ा और अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति की अभिव्यक्ति मिली है। उनके गीतों को पढ़ते समय पाठक का हृदय भीग उठता है। उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। उन्हें दीपक का प्रतीक अत्यन्त प्रिय है जो उनकी कविताओं में जीवन का पर्याय बनकर प्रयुक्त हुआ है।

रचनाएँ : नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिक्षा और यामा उनकी प्रसिद्ध काव्य-रचनाएँ हैं। इनके अलावा महादेवी ने गद्य में भी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ की हैं।

भाषा-शैली : महादेवी की भाषा संस्कृत निष्ठ है। उन्होंने छायावादी शैली के अनुरूप कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में स्निग्धता और प्रांजल प्रवाह मिलता है। उसमें लाक्षणिकता एवं व्यंजनात्मकता विद्यमान है। रूपात्मक बिम्बों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने अत्यन्त मोहक चित्र उपस्थित किए हैं। दीपक और मंझा उनके प्रिय प्रतीक हैं।

Jaag Tujhko Door Jaana, Sab Aankho Ke Aansu Ujle Class 11 Hindi Summary

1. जाग तुझको दूर जाना – 

पदों का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत गीत ‘जाग तुझको दूर जाना’ में कवयित्री महादेवी वर्मा ने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए भारतीयों का आह्वान किया है। कवयित्री प्रमाद में सोए पड़े भारतीयों को जगाकर उनमें देश की रक्ष प्रेरणा भर रही है। इसमें भीषण संकटों से न घबराते हुए तथा मोह के बंधन में फँसे बिना आगे बढ़ने का आह्वान किया है। इस गीत में महादेवी ने मानव को जागृत होने का संदेश दिया है। कवयित्री चाहती है कि हम भारतीय प्रकृति के कोमल रूपों में लीन न होकर तुफानों का दृढृतापूर्वक मुकाबला करते हुए आगे बढ़ें और संघर्ष करते हुए अपनी छाप छोड़ें। कवयित्री इस रास्ते में आने वाले सामान्य बंधनों से बचते हुए आगे बढ़ने की बात कहती है क्योंकि ये बंधन हमारे लिए कारागार सिद्ध हो सकते हैं। कवयित्री ने भारतीयों को अमर पुत्र कहा है उनका कहना है कि वह इस प्रकार के बंधनों में पड़कर मृत्यु का वरण क्यों कर रहा है। जीवन संग्राम में हार भी मिलती है और जीत भी। हमें हार से विचलित हुए बिना आगे बढ़ना है। कवयित्री यहाँ मोह-माया के बंधनों में फँसे मानव को जगाने का प्रयास कर रही है।

कवयित्री देशवासियों का आहृवान करते हुए कहती है चिरकाल से तुम्हारी आँखें सजग थीं। आज तुम सुस्त क्यों दिखाई दे रहे हो। तुम्हें तो बहुत दूर जाना है। आज चाहे हिमालय पर्वत का हुदय काँपने लगे या आकाश प्रलय के आँसू बहाए। चाहे कितनी ही बाधाएँ क्यों न आएँ तुम्हें इन समस्त विनाशकारी शक्तियों को अपनें वश में करके अप्ने पैरों की छाप छोड़ते हुए आगे बढ़ना है। क्या तुम्हें सांसारिक मोह माया के बंधन बाँध सकते हैं ? क्या सुन्दरियों की सुन्दरता तुम्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकती है? क्या ऐसे में तुम्हें भौरों का मधुर गान या फूलों की ओसयुक्त पंखुड़ियाँ अपनी ओर आकर्षित कर सकती हैं।

तुम अपने सुखों की कैद में स्वयं को बन्दी मत बनाओ।

हे भारतीयो! क्या तुम्हारा वज्र के समान कठोर हृदय बेदना के आँतुओं से घुलकर गल जाएगा। तुम जीवन रूपी अमृत को न समझकर मृत्यु का स्वयं वरण करने के लिए उद्धत हो रहे हो क्या क्षणिक आनन्द के मोह में स्वतंत्रता प्राप्ति का आवेश कम हो सकता है अर्थात् नहीं। हे वीरो! तुम अमर पुत्र हो क्यों कायरों की भाँति डरकर मृत्यु को गले लगाते हो। अपनी पराजय की कहानी को दोहराकर ठंडी आहें भरने से कोई लाभ नहीं। यदि तुम्हारे हृदय में स्वाभिमान की ज्वाला धधक रही है तभी आँखों में पानी अच्छा लगता है। जीवन में संघर्ष करते हुए हार भी प्राप्त हो जाती है परन्तु वह हार भी जीत से कम नहीं होती। दीपक के ऊपर मंडराने वाला पतंगा दीपक की लौ में जलकर खाक हो जाता है तब भी दीपक का अस्तित्व रहता है। तुम्हें स्वतंत्रता की अग्नि शय्या पर अपने देश-प्रेम एवं आत्म-बलिदान की कलियाँ बिछानी हैं।

2. ‘सब आँखों के आँसू उजले’ – 

पदों का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ महादेवी वर्मा की मूल भावना से बँधा हुआ गीत है, कवयित्री ने यहाँ प्रकृति के विभिन्न चित्रों द्वारा उन स्वप्नों का जिक्र किया है जो मनुष्य के हैं या हो भी सकते हैं। कवयित्री ने मकरन्द, निझर, तारक समूह और मोती जैसे प्रतीकों के माध्यम से मानव जीवन के सत्य को उद्धाटित किया है। कवयित्री ने यहां सभी मानवों के मन की सत्यता पर बल दिया है। कवयित्री यहाँ अपनी वैयक्तिक भावनाओं का आरोप प्रकृति के क्रिया व्यापारों में करती है।

कविता का सार :

कवयित्री प्रस्तुत गीत में कहती है कि सभी आँखों के सपने उजले होते हैं और सबके सपनों में सत्य पलता है आशापूर्ण हैं। भविष्य के सपनों में सत्य पलता है और उन सपनों को देखने वाली आँखें कभी दु:ख एवं पीड़ा के कारण आँसू बहाती हैं तो कभी उन आँखों से सपनों का उजलापन दिखाई देता है। सर्वशक्तिमान ईश्वर ने ही दीपक को ज्वाला प्रदान की है और उसी परम शक्ति ने ही फूलों को सुंगधित बनाया है। फूल भी अपनी खुशबू को अपने पास नहीं रखता वह तो उसे औरों पर ही लुटाता है। दीपक और फूल ईश्वर की दी हुई वस्तु को लुटाने व बाँटने में साथ-साथ हैं, परन्तु कर्म दोनों के अलग-अलग हैं। पर्वत स्वयं अचल बनकर भी पृथ्वी से मिल रहा है।

मिलन के इन क्षणों में अचल भी चंचल हो जाता है। पर्वत की चंचलता सैकड़ों झरनों के रूप में व्यक्त होती है। सागर परिधि बनकर सम्पूर्ण भूमंडल को घेरे हुए है। समुद्र का जल लहरों से युक्त है। लहरें चंचलता भी प्रकट करती हैं और करुणा भाव भी। सागर और पर्वत का अपना-अपना स्वभाव है, न तो सागर कठोर होता है न पर्वत अपनी कठोरता छोड़ सकता है। हीरा आकाश में टूटे तारे सा कांतिमान है और खंडित होकर तराशे जाने पर वह और भी पुलकित हो जाता है। दूसरी ओर सोने को आग में तपाया जाता है वह केशर की किरणों-सा उज्ज्वल हो जाता है।

सोने ने कभी हीरे-सा अनमोल बनने के लिए टूटना नहीं सीखा और न ही सोने की-सी चमक पाने के लिए हीरे ने कभी आग में पिघलना स्वीकार किया। दोनों का स्वभाव एक दम अलग है। नीलम और मरकत बहुमूल्य रल हैं। यह आकाश नीलम है तो यह हरी घास मरकत है। इस सीप के बीच विद्युत से युक्त बादल विचरण करता है। मेघ के बरसने से धरती से अंकुर फूटता है। मोती की आभा एक स्पन्दन-सा उत्पन्न करती है। यह उस परमेश्वर का ही चमत्कार है।

इस भूमंडल में जो जल है वह आकाश में बादल के रूप में दिखाई पड़ता है, वही धरती में अंकुर फूटने का कारण बनता है और उसी की आभा मोती में दिखाई पड़ती है। संसार में सभी जगह उसी सर्वशक्तिमान की गति दिखाई पड़ती है। साँस जीवन का प्रमाण है और जीवन भी उसी की साँसों से जीवित है। इस जीवन में चाहे जैसी भी स्थिति हो प्रत्येक स्थिति में उसी एकाकी का प्राण घुला हुआ है। यहाँ प्रत्येक सपने में सत्य है या प्रत्येक सपना सत्य बन सकता है।

जाग तुझको दूर जाना, सब आँखों के आँसू उजले सप्रसंग व्याख्या

जाग तुझको दूर जाना :

1. चिर सजग आँखें उर्नीदी आज कैसा व्यस्त बाना !
जाग तुझ़को दूर जाना!
अचल हिमगिरि के द्ददय में आज चाहे कंप हो ले,
या प्रलय के औसुुओं में मौन असलित ब्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छावा,
जागकर विद्युत्शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुड़े है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझ़को दूर जाना!

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • उनींदी – नींद से भरी हुई
  • बाना – वेशभूषा
  • अलसित – अलसाया हुआ
  • विद्युत – शिखाओं में बिजली की चमक में
  • तिमिर – अँधेरा

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश छायावाद की प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित एवं हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से अवतरित है। यह कविता एक जागरण गीत है। इसमें कवियित्री ने देशवासियों को प्रेरणा दी है कि कठिनाइयों की चिन्ता न करते हुए सांसारिक आकर्षणों से मुक्त होकर निर्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए।

ब्याख्या : कवयित्री देशवासियों का आह्वान करते हुए कहती हैं कि चिरकाल से तुम्हारी आँखें सजग थीं, अपने मित्र और शत्रु की पहचान तुम्हें थी। आज वही आँखें नींद में भरी हुई व बंद सी प्रतीत हो रही हैं। यह सोने की नहीं जागरण की बेला है। अतः अपनी अस्त-व्यस्त वेशभूषा को त्यागकर, वीर वेशभूषा धारण करो क्योंकि तुम्हें देश को स्वतंत्र कराने के लिए अभी बहुत आगे बढ़ना है।

आज चाहे हिमालय पर्वत का हुदय काँपने लगे या आकाश चुपचाप प्रलय के आँसू बहाता रहे। आज चाहे प्रकाश को अंधकार की श्यामल रेखा आवृत कर ले, आँधियाँ चलने लगें या आकाश में बिजली कड़कने और चमकने लगे। कितने ही तूफान आ जाएँ। परन्तु तुम्हें जागते हुए, समस्त विनाशकारी शक्तियों को अपने वश में करते हुए, आँधी तूफानों से लड़ते हुए, अपने चरण-चिह्न स्थापित करते हुए बहुत दूर जाना है अतः नींद और आलस्य छोड़कर जागो। भाव यह है कि धैर्य का प्रतीक हिमालय चाहे काँपने लगे या अपना धैर्य छोड़ दे, प्राकृतिक आपदाएँ तुम्हारे धैर्य को डगमगाने का प्रयास करें किन्तु मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सभी की उपेक्षा करते हुए तुम्हें आगे बढ़ना है।

विशेष :
(क) भाषा संस्कृत निष्ठ है। शब्द योजना विषय के अनुरूप है।
(ख) अंत्यनुप्रास का सुन्दर प्रयोग है।
(ग) पंक्तियाँ उत्साहवर्धक हैं। देश भक्ति की भावना से परिपूर्ण हैं।
(घ) भाषा का लाक्षणिक प्रयोग है।
(ङ) प्रवाह गुण विद्यमान है एवं पंक्तियाँ नाद सौंदर्य से आपूरित हैं।
(च) भाव साम्य-जीवन तेरा नहीं मुसाफिर, चलते जाना है
मातृभूमि हित ही तो तेरा, ताना-बाना है।

काव्य सौन्दर्य : कवयित्री ने भारतवासियों को देश के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने के लिए प्रेरित किया है। विषम परिस्थितियों एवं कठिनाइयों का सामना करते हुए हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। कवयित्री ने बताया है कि सदा जागरूक रहकर ही देश की रक्षा हो सकती है। आलसी बनकर नहीं। भाषा तत्सम शब्दावली से युक्त है। लाक्षणिक और प्रतीकात्मक प्रयोग ने कवयित्री के कथन को गंभीरता प्रदान की है। उद्बोधन शैली का प्रयोग किया गया है। ओज गुण प्रधान रचना है। प्रश्न, अनुप्रास, मानवीकरण, विरोधाभास, स्वरमैत्री और रूपक अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

2. बाँध लेंगे क्या तुड़े यह मोम के बंधन सजीले ?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • मोम के बंधन – सांसारिक बंधन
  • क्रंदन – रोना, चिल्लाना
  • दल – पंखुड़ियाँ
  • कारा – कारागार

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हिन्दी साहित्य की देदीप्यमान नक्षत्र छायावाद की सुदृढ़ स्तंभ महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। देशवासियों को देश के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने की प्रेरणा देती हुई कवयित्री कहती हैं-

ब्याख्या : सांसारिक आकर्षणों में न फँसकर तुम्हें आगे बढ़ना है। कवयित्री प्रश्न करती हुई कहती हैं कि क्या मोम के बंधन अर्थात् शक्तिहीन आकर्षण तुम्हें बाँध सकते हैं ? नहीं। सुन्दरियों का रूप, उनकी चित्रविचित्र सुन्दरता तुम्हें अपनी ओर खींच सकती है ? नहीं। सारा संसार पराधीनता की पीड़ा से विलाप कर रहा है। ऐसे वातावरण में भौरों की मधुर गुनगुन और फूल की ओस से भीगी हुई पंखुडियाँ एवं चारों ओर विकसित पुष्पों का रूप तुम्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है ? नहीं। क्योंकि प्रकृति के ये सुंदर तत्व तभी हमारी दृष्टि और हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं जब हमारा मन शांत होता है। कवयित्री कहती हैं कि हे भारत-वासियो! तुम अपने सुखों की कैद में स्वयं को बंदी मत बनाना अर्थात् सुखों में ही लीन मत हो जाना क्योंकि तुम्हें तो अपने लक्ष्य की ओर निरंतर आगे बढ़ना है। के लिए स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ता है। कवयित्री पुन: देशवासियों से प्रश्न करती हुई कहती हैं कि क्या आँधिया चंदन से सुगंधित हवाओं के बहने से सो गई हैं ? अर्थात् क्षणिक आनन्द के मोह में फँसकर क्या स्वतंत्रता प्राप्ति का आवेश कम हो सकता है ? नहीं। अतः तुम जागो तुम्हें दूर जाना है। क्या तुम्हारे मार्ग में विश्व का अभिशाप अर्थात् भय चिर-निद्रा बनकर बाधा उपस्थित कर रहा है ? हे देश के वीरो! तुम तो अमृतपुत्र हो, देवों की संतान हो। तुम क्यों कायरों की भाँति डरकर मृत्यु को गले लगाना चाहते हो ? तुम्हारे लिए यह शोभा नहीं देता। अतः तुम सचेत हो जाओ, जागो, तुम्हें देश की स्वतंत्रता के लिए बहुत आगे जाना है, अभी बहुत संघर्ष करना है।

विशेष :
(क) संस्कृत निष्ठ भाषा का प्रयोग है एवं शब्द योजना भावानुरूप है।
(ख) लाक्षणिकता की प्रधानता है।
(ग) सम्पूर्ण पंक्तियों में बिंबधर्मिता एवं संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
(घ) अंतिम पंक्ति में स्वर मैत्री है।
(ङ) सम्पूर्ण पद्यांश में प्रश्न अलंकार है।
(च) भाव साम्य-तुम कालजयी, तुम रागजयी हो देवों के वंशज।
(छ) पंक्तियों में छायावाद का भी पुट है।

भाव सौन्दर्य : कवयित्री ने यहाँ भारतवासियों को सांसारिक आकर्षण से मुक्त रहने, जीवन संघर्ष से जूझते हुए तथा अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ने की प्रेरणा दी है। शरीर का शव रूप में बदलना मृत्यु नहीं है क्योंकि आत्मा नित्य है। गीता के इस सन्देश को फूल चढ़ाने में इस पद का भाव सौंदर्य है। भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली है। लाक्षणिकता का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है। उद्बोधन शैली है। सम्पूर्ण पंक्तियों में बिम्बधर्मिता एवं संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है ‘अंतिम पंक्ति’ में प्रश्न अलंकार है। सम्पूर्ण पद में प्रश्न अलंकार है एवं छायावादी पुट है। रचना ओजगुण प्रधान है।

4. कह न ठंडी सौंस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मूदुल कलियाँ बिछाना !
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • दृग – नेत्र
  • मानिनी – अभिमान करने वाली
  • पताका – ध्वजा
  • शय्या – बिस्तर
  • मदद्रल – कोमल

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री महादेवी वर्मा ने स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भाग लेने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि भीषण कठिनाइयों की चिंता न करके निरन्तर आगे बढ़ते जाना है…

व्याख्या : कवयित्री कहती हैं कि हे भारत के वीरो! अपनी पराजय की कहानी को दोहराकर ठंडी आहें भरने या रोने से कोई लाभ नहीं होगा,उसे भूलकर आगे बढ़ने में ही कल्याण है। यदि हदयय में स्वाभिमान की ज्वाला धधक रही हो तभी आँखों में पानी अच्छा लगता है अर्थात् आत्मसम्मान श्रेयष्कर है। अपने कर्त्तय का पालन करते हुए यदि हार भी हो जाए तो भी पीछे नहीं हटना है क्योंकि वही पराजय एक दिन विजय पताका के रूप में परिणत होगी। क्योंकि दीपक के ऊपर मँडराता हुआ पतंगा जब जलकर राख हो जाता है तब भी दीपक का अस्तित्व बना रहता है, ठीक उसी प्रकार तुम्हारा बलिदान भी निर्थक नहीं जाएगा। आज अवसर आ गया है कि तुम्हें स्वतंत्रता की अग्नि शय्या पर अपने देश-प्रेम की एवं आत्मबलिदान की कोमल कलियाँ बिछानी हैं। तात्पर्य यह है कि मार्ग कठिन है, प्राणों के संकट की भी सम्भावना है लेकिन सबकी उपेक्षा करते हुए निरन्तर आगे ही बढ़ते चलो। सचेत हो क्योंकि तुम्हें अभी प्रगति के पथ पर, अपनी स्वतंंत्रता के लिए बहुत दूर तक जाना है। जिससे आने वाला समय सभी के लिए सुखद हो सके।

विशेष :
(क) लाक्षणिकता से परिपूर्ण है।
(ख) देश-भक्ति की अपूर्व भावना प्रगट हो रही है।
(ग) पंक्तियाँ गीति काव्य शैली में निबद्ध हैं एवं अंत्यनुप्रास का सौन्दर्य दृष्ट्य है।
(घ) अंगार शय्या में प्रतीकात्मक प्रयोग है।
(ङ) कविता का स्वर उद्बोधनात्मक है।

भाव सौन्दर्य : कवयित्री ने भीषण कठिनाइयों में भी सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। आजादी की लड़ाई में पराजय में भी विजय तथा मृत्यु में अमरत्व के दर्शन करने में भावों का सौन्दर्य है। रचना तत्सम शब्दावती से युक्त है। पंक्तियाँ गीति काव्य शेली में निबद्ध हैं। लाक्षणिकता के प्रयोग से कवयित्री के कथन में गम्भीरता का भाव उत्पन्न हुआ है। ओजगुण प्रधान रचना है। अंगार शय्या में प्रतीकात्मक प्रयोग है। कविता का स्वर उद्वोधनात्मक है।

‘सब आँखों के आँसू उजले’ :

1. सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला!
जिसने उसको ज्वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी पथ एक किन्तु कब दीप खिला कब फूल जला ?

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • उजले – उज्चनल
  • मकरन्द – फूलों का रस
  • आलोक – प्रकाश
  • सौरभ – सुगन्ध, खुशबू

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से अवतरित है। कवयित्री का कहना है कि सभी की आँखों के आँसू उजले होते हैं और सभी में सत्य पलता है। सभी का कर्म भी अलग-अलग होता है।

व्याख्या : कवयित्री कहती है कि सभी आँखों के सपने उजले होते हैं और सभी में सत्य पलता हैं। यहाँ कवयित्री का प्रयोजन आँसुओं की बात कहना नहीं बल्कि उनके सपनों की बात कहना है। यहाँ उजले विशेषण का प्रयोग सपनों के लिए किया गया है। आशापूर्ण भविष्य के सपनों में ही सत्य पलता है और जो आँखें इन सपनों को देखती हैं वे पीड़ा से आँसू बहाती हैं। उन आँखों में सपनों का उजालापन रहता है। दीपक को ज्वाला प्रदान किसने की और फूलों में मकरन्द किसने भरा ? उत्तर सीधा है ईश्वर ने ही दीपक को ज्वाला दी है और उसी ने ही फूलों को खुशबू प्रदान की है। दीपक उस ईश्वर से प्राप्त प्रकाश को लुटाता रहता है और फूल भी उससे ही प्राप्त गंध को सर्वत्र फैलाता रहता है। इस प्रक्रिया में दीपक की बाती जल जाती है और फूल भी नष्ट हो जाता है। लुटाने और बाँटने में दोनों साथ हैं परन्तु एक का कर्म दूसरा नहीं कर सकता न दीपक फूल की तरह खिल सकता है और न हीं फूल दीपक की तरह जल सकता है।

काव्य सौन्दर्य : ‘सब आँखों के आँसू उजले’ काव्य की पंक्ति के माध्यम से कवयित्री ने अपने विचारों का सामान्यीकरण किया है। कवयित्री ने यहाँ सभी मानवों के मन के सपनों की सत्यता पर बल दिया है। सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रताप और उसकी लुटाने की प्रयृत्ति को बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है वह उसी के अनुसार कार्य करता है।

संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है। भाषा प्रांजल, संस्कृत-गर्भित एवं भावानुकूल है। शब्द चयन बहुत कुशलता के साथ हुआ है लाक्षणिकता एवं रहस्यात्मक प्रयोग हुआ है। छायावादी काव्य की प्रायः सभी विशेषताएँ लक्षित हो रही हैं। प्रथम पंक्ति में विरोधाभास एवं घुल-घुल में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

2. वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्जर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका नित उर्मिल करुणा-जल!
कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला ?

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • अचल – पर्वत
  • उर्मिल – लहरें
  • पाषाण – पर्वत
  • निर्मम – कठोर

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश छायावादी युग की प्रमुख कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से लिया गया है। कवयित्री ने यहाँ अचल पर्वत की चंचलता को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ पर्वत एवं सागर द्वारा अपना स्वभाव न छोड़ने की सत्यता को प्रकट किया है।

ब्याख्या : कवयित्री ने यहाँ पर्वत की अचल एवं चंचल दोनों स्थितियों का उल्लेख किया है। वैसे ये दोनों स्थितियाँ विरोधाभासी हैं। पर्वत अचल बनकर धरती से मिल रहा है। मिलन के इन क्षणों में वह चंचल हो उठता है। उसकी चंचलता सैकड़ों झरनों के बहने के रूप में ब्यक्त हो रही है। पर्वत का धरा से ‘भेंटना’ प्रेमी-प्रेमिका के मिलन का भाव व्यंजक भी है। पर्वत से प्रवाहित होने वाले झरने उसकी चंचलता को व्यक्त कर रहे हैं। उधर सागर सम्पूर्ण भूमण्डल को अपने घेरे में लिए हुए है। सागर का जल लहरों से युक्त है। लहरें चंचलता और करुणा दोनों भावों को व्यक्त करती है। पर्वत और सागर दोनों अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। न तो सागर का हुदय पत्थर-सा कठोर हो सकता है और न ही पर्वत अपनी कठोरता को छोड़ सकता है। यह ही जीवन का सत्य है।

काव्य सीन्दर्य : पर्वत को अचल एवं चंचल कहकर विरोधाभासी स्थिति को प्रकट किया है। पर्बत का धरा को भेंटने से प्रेमी प्रेमिका के मिलन का भाव व्यंजित हो रहा है। लहरें चंचलता एवं करुणा की व्यंजक हैं। सभी अपने स्वभाव पर अडिग रहते हैं। यही जीवन का सत्य भी है।

भाषा प्रांजल, संस्कृत-गर्भित एवं भावानुकूल है। शब्द च़यन कुशलता कें साथ किया है। प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से बिम्ब निर्माण हो रहा है। लाक्षणिकता का प्रयोग दर्शनीय है। प्रकृति के उदात्त स्वरूप का चित्रण किया है। ‘वह अचल धरा को भेंट रहा’ एवं ‘शत-शत् निर्झर में हो चंचल’ में मानवीकरण विरोधाभास अलंकार है। ‘करुणा-जल’ में रूपक अलंकार है। ‘शत-शत’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

3. नभन्तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मघु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा!
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक, पिघला!

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • खंडित – टूटा हुआ
  • पुलकित – प्रसन्न
  • क्षुर धारा – छुरे की धार जिससे हीरे को तराशा जाता है।
  • कंचन – सोना
  • हीरक – हीरा

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश छायावाद की प्रमुख स्तम्भ महादेवी वर्मा द्वारा रचित गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से अवतरित है। कवयित्री ने यहाँ बताया है कि सबका स्वभाव अलग होता है किसी का स्वभाव कितना ही अच्छा क्यों न हो वह दूसरे के स्वभाव को नहीं अपनाता।

व्याख्या : कवयित्री हीरे और सोने के स्वभाव का चित्रण करती हुई कहती है कि हीरा आकाश से टूटे तारे जैसी कांति से युक्त होता है। वह खंडित होने और तराशे जाने पर भी पुलकित रहता है। हीरा छुरे की धार को बार-बार चूमने से भी नहीं कतराता। हीरे को बहुत तेज धार वाले छुरे से तराशा जाता है। उधर सोना आग में तपकर केशर की किरणों के समान कांतिमान हो जाता है। सोना आग में तपकर ऐसा लगता है जैसे मधुरस पीकर और अधिक मतवाला हो गया हो। सोने ने कभी हीरे की तरह अनमोल बनने के लिए न तो टूटना सीखा और न छुरे से तराशना स्वीकार किया और इसी प्रकार हीरे ने भी न तो कभी सोने जैसी चमक पाने के लिए आग में तपना स्वीकार किया। दोनों का अपना मार्ग व स्वभाव अलग-अलग हैं वे कभी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।

भाव सौन्दर्य : कवयित्री ने हीरे और स्वर्ण के स्वभाव का चित्रण किया है। अंगारों की आँच को मधु-रस कहना कवयित्री की सुन्दर कल्पना है। हीरे और स्वर्ण का अपने स्वभाव पर अडिग रहने में भावों का सौन्दर्य है। भाषा संस्कृत निष्ठ प्रांजल एवं भावानुकूल है। शब्द चयन उत्तम है। लाक्षणिकता का प्रयोग है। भाषा का अभिनव प्रयोग हुआ है। ‘वह अंगारों का मधुरस पी केशर किरणों-सा झूल रहा’ पंक्ति में मानवीकरण अलंकार है। किरणों-सा में उपमा अलंकार है। ‘नभ तारक-सा खंडित’ एवं ‘केसर किरणों-सा’ में उपमा अलंकार है। ‘मधु-रस’ में रूपक अलंकार है। इसके अतिरक्त अनुप्रास अलंकार का भी प्रयोग है। ‘अंगारों का मधुरस पी’ में लाक्षणिकता का प्रयोग है।

4. नीलम मरकत के संपुट दो
जिनमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रूप
उसकी आभा स्पंदन होती।
जो नभ में विद्युत मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला !

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • नीलम – नीलमणि, नीले रंग का बहुमूल्य पत्थर
  • मरकत – पन्ना, हरे रंग का मूल्यवान पत्थर
  • संपुट – पेटी, पिटारा, सीपी के दो फलक
  • आभा – चमक
  • स्पंदन – धड़कन, हलचल
  • रज – मिट्टी

प्रसंग : प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ छायावादी युग की प्रमुख कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित उनके गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से अवतरित हैं। कवयित्री ने यहाँ सर्वशक्तिमान ईश्वर की शक्ति का उल्लेख किया है कि भूमंडल पर जल से बादल के रूप में बरसने से अंकुर फूटते हैं जिससे जीवन रूपी मोती प्राप्त होता है। यहाँ कवयित्री की रहस्यवादी भावना व्यक्त हुई है।

व्याख्या : कवयित्री ने यहाँ नीलम और मरकत का उल्लेख किया है नीलम से कवयित्री का आशय नीले आकाश से है और मरकत से आशय हरी-भरी भूमि से है। आकाश और धरती उन दो फलक के समान है जिनमें बादल रूपी मोती बनता है। इस विशाल सीप के बीच विचरण करने वाले बादल में विद्युत और जल की बूँदें भी हैं। मेघ के बरसने से धरती में अंकुर फूटते हैं जिससे जीवन रूपी मोती तैयार होता है अर्थात् जीवन पलता है। इसका दूसरा अर्थ भी है कि जल ही मोती जैसी कांति धारण करता है। उस मोती की आभा एक प्रकार की हलचल-सी पैदा करती है। यह उस ईश्वर की ही शक्ति का परिचायक है जो भूमंडल का जल आकाश में बादल के रूप में दिखाई पड़.ता है उस जल के कारण ही धरती में अंकुर फूटते हैं और बादलों में स्थित उसी भूमंडल के जल की आभा मोती में भी स्पंदित होती दिखाई देती है।

काव्य सीन्दर्य : कवयित्री ने भूमंडल के जल के विभिन्न रूपों का उल्लेख किया है। आकाश को नीलम के समान व धरती को पन्ने के समान बताया है। कवयित्री ने धरती और गगन के बीच की सारी सृष्टि को प्रतीकात्मक ढंग से समझाने का प्रयास किया है। सब प्रकार के रूप, रंग और छटाएँ इस नीलम-मरकत की पेटी के भीतर हैं। सारी सृष्टि में परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का सौन्दर्य बिखरा हुआ है।

भाषा संस्कृत-गर्भित, प्रांजल एवं भावानुकूल है। नए-नए प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। प्रकृति के उदात्त स्वरूप का चित्रण हुआ है। ‘जिसमें बनता जीवन-मोती’ में रूपक अलंकार है। छायावाद की सभी विशेषताएँ जैसे प्रकृति-चित्रण, मानवीकरण, रहस्यात्मकता परिलक्षित हो रही हैं।

5. संसृति के प्रति पग में मेरी
सॉसों का नव अंकन चुन लो,
मेंरे बनने-मिटने में नित
अपनी साधों के क्षण गिन लो।
जलते खिलते बढ़ते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला।
सपने-सपने में सत्य ढला!

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • संसृति – संसार
  • साध – इच्छा
  • एकाकी – अकेला

प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘महादेवी बर्मा’ द्वारा रचित उनके गीत ‘सब आँखों के आँसू उजले’ से अवतरित है। कवयित्री ने यहाँ कहा है कि संसार में सभी कुछ सर्वशक्तिमान ईश्वर की साँसों से ही स्पंदित हो रहा है। प्रत्येक स्वप्न को सत्य में बदला जा सकता है।

व्याख्या : कवयित्री को पूरी तरह से आभास हो चुका है कि यह संसार उस परम शक्ति परमेश्वर की साँसों की कृपा से ही स्पंदित हो रहा है। जहॉं भी जीवन है वह सब ईश्वर की ही कृपा का प्रतिफल है। साँस जीवन के होने का प्रमाण देते हैं। ऐसा लगता है जैसे सम्पूर्ण जगत उसी की साँसों से ही जीवित है। कवयित्री का यह भी कहना है कि मेरे बनने या मिटने से तुम अपनी अभिलाषाओं और इच्छाओं के बनने या मिटने को भी जोड़ सकते हो। इस जगत की प्रत्येक स्थिति में मेरा एकाक्री प्राण घुला हुआ है। चाहे वह दीपक का जलना हो, चाहे फूल का खिलना या धरा में वर्षा के जल से अंकुर का फूटना। प्रत्येक सपने में सत्य ढलता है और प्रत्येक स्वप्न सत्य में भी बदल सकता है। संसार में सब कुछ सम्भव है।

काव्य सौन्दर्य : महादेवी वर्मा ने अपनी वैयक्तिक भावनाओं का आरोप प्रकृति के क्रिया व्यापारों में भी किया है। सर्वशक्तिमान ईश्वर की साँसों से ही पूरा संसार चालित है। संसार में सभी की कल्पनाओं और सम्भावनाओं को हकीकत में बदला जा सकता है। संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है, प्रतीकात्मक शैली है। शब्द चयन कुशलता से किया गया है। प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से बिम्ब निर्माण हुआ है। ‘प्रति पग’, ‘जलते-खिलते बढ़ते’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘सपने-सपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

Hindi Antra Class 11 Summary