संध्या के बाद Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 14 Summary
संध्या के बाद – सुमित्रानंदन पंत – कवि परिचय
जीवन-परिचय : सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म सन् 1900 में उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के कौसानी ग्राम में हुआ था। उनका बचपन का नाम गोसाईं दत्त था। उनके जन्म के छः घण्टे बाद ही माता की मृत्यु हो गई थी और कुछ वर्षों बाद पिता गंगादत्त भी चल बसे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में तथा बाद की इलाहाबाद ‘म्योर सेंट्रल कॉलेज’ में हुई। सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन में कॉलेज छोड़ दिया और साहित्य-रचना को अपने जीवन का ध्येय बनाया। अनेक वर्षों तक आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे। उन्हें साहित्य अकादमी, भारत सरकार, सोवियत रूस आदि ने पुरस्कृत किया। ‘चिदम्बरा’ पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का एक लाख रुपये का पुरस्कार मिला। 25 दिसम्बर, 1977 को उनका स्वर्गवास हो गया।
साहित्यिक-परिचय : पन्त जी का बचपन अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुन्दरता के बीच बीता था, अतः प्रकृति-काव्य की ओर उनकी विशेष रुचि रही। उन्होंने छायावाद, प्रगतिवाद और अरविन्द-दर्शन पर काव्य रचना की। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति के अनेक मनोहारी दृश्यों का चित्रण किया है। वास्तव में वे प्रकृति के सुकुमार कवि हैं।
पन्त जी छायावाद के आधार स्तम्भों में गिने जाते हैं क्योंकि वे छायावाद के सभी कवियों से अधिक भावुक और कल्पनाशील हैं। उनकी संवेदनशीलता पर युग और परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव अंकित होता गया और युग के अनुकूल उनकी काव्य संवेदना भी बदलती गई। ‘लोकायतन’ आपका प्रसिद्ध महाकाव्य है।
रचनाएँ : पन्त जी की प्रमुख रचनाएँ हैं-उच्छूवास, ग्रंयि, वीणा, पल्लव, गुंजन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्य, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, युग पथ, उत्तरा, अतिमा, वाणी, कला और बूढ़ा चाँद। इनके अतिरिक्त रजत शिखर, शिल्पी और सौवर्ण, उनके तीन काव्य-रूपक हैं। ‘ज्योत्सना’ प्रतीक नाटक है। पाँच कहानियाँ (कहानी संग्रह), ‘छायावादः पुनर्मूल्यांकन’ और ‘गद्यपथ’ समीक्षा ग्रन्थ हैं। ‘साठ वर्ष’ एक रेखांकन में कवि ने बड़ी ही ललित शैली में आत्मकथा लिखी है। ‘आधुनिक कवि’ पल्लविनी, ‘रश्मिबन्ध’, ‘चिदम्बरा’ और ‘मधुज्बाला’ कवि की अपनी श्रेष्ठ कविताओं के संकलन हैं। ‘चिदम्बरा’ पर उन्हें एक लाख रुपये का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। उन्होंने कल्पना, भायुकता, प्रकृति प्रेम, आध्यात्मिकता, मानवता आदि को व्यापक अभिव्यक्ति दी है।
भाषा-शैली : उनकी भाषा कहीं संस्कृतनिष्ठ है और कहीं अत्यधिक सरल है। ‘पल्लय’ और ‘गुन्जन’ में भाषा के दोनों रूप देखे जा सकते हैं, उनकी भाषा में गीतिकाव्य के सभी गुण मिल जाते हैं। अधिकांश कविताओं में भाव सौन्दर्य के साथ अभिव्यक्ति का लालित्य भी मिलता है।
सुमित्रानन्दन पन्त को अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार उनमें प्रमुख हैं।
Sandhya Ke Baad Class 11 Hindi Summary
कविता का संक्षिप्त परिचय :
प्रस्तुत कविता ‘संध्या के बाद’ संध्या के समय सूर्य की लाली के विभिन्न रूपों को व्यक्त करती है। इन रूपों में तरु के शिखर, चंचल एवं स्वर्णिम झरने, सूर्य का ज्योति स्तम्भ सा नदी में समाते हुए दिखाई देना आदि चित्र चित्ताकर्षक हैं। मन्दिर में बजते शंख, घंटे तथा दीपशिखा भी संध्या की लाली को आलोकित करते हैं। संध्या के समय अपने घरों की ओर लौटते किसानों एवं पशु-पक्षियों का चित्र भी कविता में चित्ताकर्षण है। यह कविता समाज के निम्न मध्यम वर्ग की विडम्बना को भी अभिव्यक्त करती है। कवि ने दैन्य दुख, अपमान, ग्लानि और उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण उनकी बिगड़ रही पारिवारिक स्थिति को भी चित्रित किया है। इन लोगों के मन में लाला, बनियों और महाजनों के प्रति मन में आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। दरिद्रता को पापों की जननी कहा है।
कविता का सार :
कवि संध्या के समय का वर्णन करते हुए कहता है कि शाम के समय जब सूर्य अस्ताचल की ओर चला जाता है तो पेड़ों के पत्ते ताम्रवर्णी दिखाई देते हैं। सूर्य की किरणों से झरनों का जल भी स्वर्णिम दिखाई देता है। छिपता हुआ सूर्य नदी के बीच ज्योति स्तम्भ की तरह दिखाई देता है गंगा का जल ऐसा लगता है जैसे बहुत बड़े सर्प ने अपनी केंचुली छोड़ दी है। श्याम श्वेत रंग के रेत में हवा के कारण ऐसी लगती है जैसे इस पर साँचों से चित्र अंकित किए हों। नीली लहरों के कारण मथित जल में जब श्वेत बादलों की छाया पड़ती है तो वह चाँदी जैसा दिखाई देता है। रेत, पानी और हवा स्नेह पास में बँधे हुए दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है जैसे अनिल पिघलकर सलिल (पानी) बनता है।
सलिल अपनी गति खोकर हिमखण्ड बनता है। मन्दिर में शंख और घण्टों की ध्वनि से मानो लहरें भी लय से कम्पन करने लगती हैं। मन्दिर का कलश दीपक की शिखा के समान दिखाई देता है। मानो वह भी आकाश में उठकर आरती कर रहा हो। नदी किनारे सफेद वस्त्र पहने विधवाएँ ऐसी लगती हैं मानो बगुले जप-तप में लीन हों। जैसे उन विधवाओं का रुदन भी नदी की मंथर धारा में बह रहा है। सोन पक्षी पंक्तिबद्ध होकर उड़ते हुए ऐसे लगते हैं जैसे अन्धकार की रेखा हो। वे अपनी आवाज से शान्त आकाश को मुखरित कर देते हैं। सूर्य के संध्याकालीन प्रकाश में गायों के खुरों से उठी हुई धूल सोने के चूर्ण जैसी सुनहरी लगती है। पक्षियों के पंखों एवं कंठों का स्वर आकाश में विलीन हो जाता है।
साँझ होते ही पक्षी, गाएँ और दिन भर काम करके थके हारे किसान भी घर लौट आते हैं। सभी चराचर अपने घरों में छिप गए उनकी छायाएँ भी दिखाई नहीं देतीं। हाट से व्यापारी भी अपने घरों को लौट आए। अपने ऊँटों और घोड़ों के पास खाली बोरों पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। जाड़ों की सूनी चमक समाप्त होने लगी और रात्रि गहराने लगी। अन्धकार रूपी दुःख में खेत, बाग-बगीचे सभी डूबने लगे। गाड़ी वाले बिरहा गाने लगे। कुते भौंक-भौंक कर लड़ने लगे। सियार भी हुआँ-हुआँ करके दुःख भरी रात्रि को और दुःखी बनाने लगे। माली की झोपड़ी से नीला-नीला धुआँ उठकर आकाश में जाली बनाने लगा।
कस्बे के व्यापारी अपनी दुकानों में बत्ती जलाकर बैठे थे। सर्दी की रातें ऊँघती हुई सी प्रतीत हो रही थीं। घरों में टिन की डिबरी रोशनी कम देती है धुआँ अधिक देती है। ऐसा लगता है जैसे वह अपने मन के अवसाद को बाहर करके आँखों के आगे जाली बुन रही है। छोटी सी बस्ती में दीपक के चारों ओर बैठकर लोग अपने सुख-दुःख वह लेन-देन की बातें करते हैं। दीपक की लौ के साथ-साथ ही उनकी आशाएँ और निराशाएँ प्रकट होती हैं। सारी बस्ती में रात्रि का सन्नाटा छा जाता है। लाला भी अपना मूलधन और ब्याज भूलकर नींद के आगोश में चला जाता है। परचून और किराने की ढेरी कुछ सकुचाई सी लगती है इस शान्त रात्रि में जैसे जग की व्याकुलता उमड़ रही हो। लाला का मन छोटी हस्ती अर्थात् छोटे से
गाँव के सस्तेपन को अनुभव करता है। उसके अन्दर भी मानव और असफल जीवन का उत्पीड़न जाग उठा । लाला की दुकान में आमदनी तो कुछ है नहीं उनको आर्थिक हालत खराब होने के कारण तरह-तरह के अपमान सहने पड़ते हैं। वह भी अनाज के ढेर के समान जड़ होकर बैठा-बैठा सारा दिन झूठ बोलता रहता है और एक-एक कौड़ी के लिए अपनी जान देता है। फिर भी वह अपने परिवार को क्या भली-भाँति पालता है ? उसके पास पक्का घर भी नहीं है। बनिये की गुदड़ी कन्धे से खिसक गई है। वह सर्दी में ठठठुते हुए अपनी विवशता के कारण को खोजता है। वह अपने मन में सोचता है कि शहरी बनियों की तरह वह भी बड़ा सेठ क्यों नहीं बन जाता। उसकी उन्नति के रास्तों को किसने रोक दिया है। वह व्यवस्था में परिवर्तन चाहता है जिससे गुणों के अनुसार ही आय व्यय हो।
मिट्टी के घरोंदों में घुसे हुए लोग सोच रहे थे कि क्या ऐसा नहीं हो सकता जिससे सबमें सामूहिक जीवन हो जाए। सभी आपस में मिलकर काम करें और जीवन का भोग करें। लोगों का किसी भी प्रकार का शोषण न हो। धन का मालिक समाज हो। दरिद्रता पापों की जननी होती है। सभी के अच्छे घर हों। पशुता पर मनुष्य विजय प्राप्त कर सके। लोगों के परिश्रम का फल उनको ही मिले और सब लोग सुखी हो जाएँ। बनिया अपनी दुकान पर बैठा स्वप्न देख रहा था तभी एक बुढ़िया आधा पाव आटा लेने आई। लाला अपनी सारी कल्पना भूल गया उसने तोलते समय फिर डन्डी मार ली। पेड़ पर घु-घु-घू बोलने लगा। सभी लोग अपने-अपने घरों के दरवाजे बन्द करके सो गए क्योंकि रात्रि हो गई थी।
संध्या के बाद सप्रसंग व्याख्या
1. सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीयल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
ज्योति स्तम्भ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहदु जिद्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल !
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- ताम्रपर्ण – ताँबे जैसे रंग के पत्ते
- स्वर्णिम – सोने जैसे
- जिहम – वक्र टेढा
- विश्लथ – थका हुआ सा
- केंचुल – साँप की ऊपरी त्वचा जिसे वह साल में एक बार गिराता है।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश प्रकृति के सुकुमार कवि ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित उनकी कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। यह कविता उनके काव्य संग्रह ‘ग्राम्या’ से ली गई है। कवि ने इन पंक्तियों में संध्याकालीन सौन्दर्य को रूपांकित किया है।
व्याख्या : सूर्य धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर जा रहा था। साँझ की लाली सिमटना शुरू हो गई थी। सूर्य की लालिमा के कारण वृक्षों के पत्ते ताम्र जैसे वर्ण के लग रहे थे। जिस प्रकार पीपल का नया-नया पत्ता होता है वे पत्ते वैसे ही लग रहे थे। पर्वतों से सैकड़ों मुख वाले झरने झर रहे थे। झरनों के जल पर सूर्य की लालिमा पड़ रही थी। इस कारण से वे झरने सोने जैसी आभा वाले लग रहे थे। सूर्य के छिपने का दृश्य तो पूरी तरह से मन को हरने वाला था। सूर्य की किरणें नदी के जल पर पड़ने से सूर्य गोल नहीं बल्कि उसका प्रतिबिम्ब प्रकाश स्तम्भ की तरह लग रहा था। वह स्तम्भ मानो सरिता में धँसता हुआ सा प्रतीत हो रहा था। सूर्य क्षितिज पर धीरे-धीरे ओझल होता जा रहा था। दूर-दूर तक फैली हुई टेढ़ी-मेढ़ी गंगा का जल ऐसा लग रहा था जैसे साँप ने अपनी केंचुली डाल दी हो। भाव यह है कि सूर्य की लालिमा के कारण गंगा का जल झिलमिला-सा लग रहा था।
काव्य सौन्दर्य : संध्या समय का बहुत ही सजीव वर्णन किया है। वृक्षों के पत्र लालिमा से ताम्रवर्णी हो गए हैं। झरनों की स्वर्णिम आभा का भावपूर्ण वर्णन है। नदी में पड़ रहे सूर्य के प्रतिबिम्ब को ज्योति स्तम्भ जैसा बताया है। गंगा जल को साँप की केंचुल जैसा बताया है। भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली है। प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है। प्रकृति का मानवीकरण किया है। ताम्रपर्ण पीपल से ज्योति स्तम्भ सा वृहद जिह्य विश्लथ केंचुल-सा में उपमा अलंकार है।
2. धूपठाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित !
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- उर्मियाँ – लहरें
- सर्पांकित – सर्प की तरह अंकित
- लहरियाँ – छोटी-छोटी लहरें
- लाडित – मधित (मथा हुआ)
- सिकता – रेत
- सलिल – पानी
- समुज्ज्वल – एक समान उज्ज्वल साफ-सुथरे
- लवोपल – हिमखंड
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। यह कविता पन्त जी के काव्य संग्रह ‘ग्राम्या’ में संकलित है। कवि ने यहाँ संध्या कालीन प्रकृति का सुन्दर चित्रण किया है।
ब्याख्या : कवि कहता है कि नदी की रेत धूप-छाँह के रंग की अर्थात् श्याम औरं सफेद लग रही है। इस रेती पर हवा चलने के कारण सर्प की आकृति जैसे चिह्न अंकित हो गए हैं अर्थात् हवा चलने से नदी की रेल पर जो निशान पड़े हैं वे साँप की तरह टेढ़े-मेढ़े हैं। नदी के नीले जल में छोटी-छोटी लहरें उठ रही हैं। उन लहरों से नदी का जल मथा जा रहा है। ऊपर आकाश में स्थित सफेद बादलों की छाया के कारण नदी का जल पीले रंग का लग रहा है। अब वह सोने जैसे रंग का नहीं रहा उसमें कुछ सफेद रंग मिल गया है। रेत, पानी और हवा सदा से ही स्नेह के बन्धन में बँधे रहते हैं। ये सभी एक समान उज्ज्वलता लिए हुए हैं। हवा से बर्फ पिघलने के बाद जल का रूप धारण कर लेती है और जब जल अपनी गति खो देता है तो हिमखंड बन जाता है अर्थात् सर्दी बढ़ने के साथ-साथ जल की गति कम होने लगती है और तापमान जब शून्य से काफी कम चला जाता है तो पानी बहना बन्द हो जाता है और वह पानी हिमखंड में बदल जाता है।
काव्य सौन्दर्य : रेती को धूप-छाँह के रंग के समान श्याम श्वेत बताया है। सफेद बादल के प्रतिबिम्ब से नदी का जल पीला हो जाता है। रेत, जल और हवा में एक समान उज्चलता बताई है। जल का रूप बदलता रहता है। संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है। चित्रात्मक शैली है। सिकता, सलिल समीर सदा से, स्नेह पाश में बँधे समुज्चल पंक्ति में अनुप्रास अलंकार का बड़ी सुन्दरता सें प्रयोग किया गयां है। उत्रेक्षा अलंकार का प्रयोग भी दर्शनीय है।
3. शंख घंट बजते मन्दिर में
लहरों में होता लय कम्पन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उउकर करता नीराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्वाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अन्तर-रोदन!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- कलश – मन्दिर का गुम्बद
- नीराजन – मन्धर
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश प्रकृति के सुकुमार कवि ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित उनके काव्य-संग्रह ‘ग्राम्या’ में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। कवि ने यहाँ संध्या के समय जब मन्दिर में शंख और घण्टे बजते हैं उस समय नदी तट का दृश्य कैसा होता है उस दृश्य का चित्रण किया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि सूर्यास्त के समय जब मन्दिर में शंख और घण्टे बजते हैं तो उनकी ध्वनि की तरंगों से पानी की लहरों में भी कम्पन का अनुभव होता है। मन्दिर का कलश जाते हुए सूर्य की हल्की रोशनी से आलोकित ऐसा लगता है जैसे वह मन्दिर का कलश नहीं बल्कि किसी दीपक की बाती जल रही हो। मन्दिर का कलश भी सुनहरा होता है और दीप-शिखा का वर्ण भी दमकते स्वर्ण जैसा होता है। मन्दिर के कलश को देखकर कवि कल्पना करता है जैसे यह नभ में ऊपर उठ्कर आरती कर रहा है। नदी किनारे स्नान ध्यान करती हुई श्वेत वस्त्र धारण किए वृद्धाएँ जिनमें अनेक विधवाएँ हैं ऐसी लग रही हैं जैसे नदी तट पर बहुत सारे बगुले ध्यानमग्न खड़े हों। इन वृद्ध महिलाओं एवं विधवाओं के मन में एक तरह का अटृश्य दु:ख छिपा हुआ है जिसे ये प्रकट नहीं कर पा रही हैं। इनका यह रुदन नदी की मंथर धारा की तरह ही अदृश्य गति से फूट रहा है।
काव्य सीन्द्र : मन्दिर के कलश को दीप शिखा जैसा बताया है। शंख और घण्टों की आवाज नदी की लहरों में भी कम्पन करने वाली हैं। वृद्धाओं का नदी तट पर ध्यानावस्था का भावपूर्ण चित्रण है। उनका अदृश्य रुदन करुणा को जन्म दे रहा है। भावाभिव्यक्ति उत्तम है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का सुन्दर प्रयोग किया है। ‘नभ में उठकर करता नीराजन’ पंक्ति में मानवीकरण अलंकार है। ‘दीप शिखा-सा ज्वलित कलश’ एवं ‘तट पर बगुलों सी वृद्धाएँ’ में उपमा अलंकार है। पहली चार पंक्तियों में भक्ति रस है तथा अंतिम चार पंक्तियों में करुण रस है। चित्रात्मक शैली है।
4. दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कन्ठों का स्वर :
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- तमस – अन्धकार
- पाँति – पंक्ति
- आर्द्र – गीला
- गोरज – गायों के खुरों से उड़ने वाली धूल
- सनन् – सनसनाता हुआ (एक प्रकार की ध्वनि)
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित काव्य संग्रह ‘ग्राम्या’ में संकलित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। कवि ने यहाँ पर आकाश में उड़ रहे सोन पक्षियों की पंक्ति एवं गोधूलि का मनोहारी चित्रण किया है।
ब्याख्या : कवि कहता है कि आकाश में हल्का-हल्का सा अंधकार छाने लगा है। आकाश में उड़ते हुए सोन पक्षियों की पंक्तियाँ ऐसी लगती हैं जैसे ये पक्षियों की पंक्तियाँ नहीं बल्कि अंधकार की रेखाएँ हैं। उड़ते समय वे कलरव कर रहे हैं। उनके कलरव से आकाश मुखरित हो रहा है। ऐसा लगता है मानो आकाश ही कुछ बोल रहा है। संध्या के बाद ग्वाले अपनी गायों को लेकर अपने घरों को लौट रहे हैं। गायों के खुरों से उड़ने वाली सुनहरे रंग की धूल स्वर्ण चूर्ण की तरह लग रही है। उस धूल के आकाश में छाने से ऐसा लगता है जैसे आकाश में बादल छा गए हों। सोन पक्षियों के पंखों की ध्वनि और उनके कंठों का स्वर ऐसा लगता है जैसे आकाश में सनसनाता हुआ तीर जा रहा हो।
काव्य सौन्दर्य : आकाश में उड़ रहे सोन पक्षियों की पंक्तियों का स्वाभाविक चित्रण किया गया है। गोधूलि के समय आकाश में धूल के बादल छा जाते हैं। पक्षियों के पंखों की सनसनाहट को तीर की ध्वनि की तरह बताया है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है ‘उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित’, ‘स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज’, ‘किरणों की बादल-सी जलकर’ ‘सनन् तीर-सा जाता नभ में’ इन पंक्तियों में उपमा अलंकार है। चित्रात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
5. लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गयी अगोचर,
लौट पैंट से ब्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर !
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- श्रांत श्लय – थके हुए ढीले-ढाले
- म्लान – मुरझाया हुआ
- पेंठ – हाट, बाजार
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। कवि ने यहाँ पक्षियों, पशुओं और थके हारे किसानों के घर लौटने का वर्णन किया है व्यापारी भी बाजार से खरीद-फरोख्त करके घर लौट आते हैं।
ब्याख्या : कवि संध्या के बाद का वर्णन करते हुए कहता है कि संध्या के समय पक्षी भी अपने बसेरों में लौट आते हैं। गाएँ भी घरों को लौट रही हैं। धके हारे निढ़ाल किसान दिन भर खेतों में काम करके थके-थके कदमों से अपने घरों को लौट रहे हैं। सभी चर और अचर मुरझाए हुए चेहरे लिए अपने घरों में छिप गए हैं। उनकी छाया भी अब दिखाई नहीं दे रही है। नाव पर सवार होकर बाजार से लौटे हुए ब्यापारी नदी पार कर रहे हैं। वे अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं।
काव्य सौन्दर्य : कवि ने गायों, किसानों, पक्षियों का अपने-अपने ठिकानों पर लौटने का वर्णन किया है। बाजार से लौटे व्यापारियों का स्वाभाविक चित्रण है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है। चित्रात्मक शैली है। ‘श्रांत श्लथ’ में अनुप्रास अलंकार है।
6. जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्ष्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी !
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर :
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- द्वाभा – प्रकाश, चमक (द्वि + आभा)
- निष्प्रभ – अंधकार पूर्ण, धुँधला
- बिरहा – एक लोकगीत
- कूकर – कुत्ता
- विषण्ण – दु:खी
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश में ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ जी ने सर्दी के मौसम की संध्या के बाद का वर्णन किया है। सर्दी में जल्दी ही अँधकार छा जाता है। रात के सन्नाटे में गाड़ीवान को कुत्तों के भौंक-भौंक कर लड़ने व सियार के हुआँ-हुआँ करने की आवाजें आती हैं।
व्याख्या : कवि कहता है कि जाड़ों की सुनसान द्वाभा में अर्थात् न तो पूर्णतया प्रकाश ही है न पूरी तरह अँधकर छाया है। सर्दी की रात्रि धीरे-धीरे छा रही है। खेत, बाग, घर, पेड़, नदी के तट, नदी में उठती हुई छोटी-छोटी लहरें अन्धकार रूपी दुःख में डूबना चाहते हैं। रात्रि के समय गाड़ीवान एक जगह से दूसरी जगह सामान भरकर ले जाते हैं। वे सफर के दौरान बिरहा जैसे लोग गीत गाते हुए सफर करते हैं। इससे उनका सफर आसान हो जाता है। कभी-कभी भौंक-भौंक कर कुत्तों के लड़ने की आवाज आती है। कभी-कभी सियार हुआँ-हुआँ करके दु:ख भरी रात्रि को अपना स्वर प्रदान करते हैं।
काव्य सौन्दर्य : कवि ने रात्रि को दुःख का प्रतीक बताया है। सियार की हुआँ-हुआँ वातावरण को और दुःखी बनाने वाली होती है। अन्धकार के धुँधलके में सभी कुछ छिप जाता है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी भाषा का सुन्दर प्रयोग है ‘डूब रहे निष्र्रभ विषाद में’, खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी में मानवीकरण अलंकार है। अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की छटा दर्शनीय है। ‘निष्ट्रभ विषाद’ ‘विषण्ण निशि में रूपक अलंकार है।
7. माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मन्द आभा में
हिम की ऊँघ रही लम्बी अधियारी!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश में ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ जी ने माली की धूड़ी से उठते हुए धुएँ का चित्रात्मक वर्णन किया है। साथ ही यहाँ कस्बे के व्यापारियों का भी चित्रण हुआ है।
ब्याख्या : माली अपने बाग की रखवाली के लिए बाग में ही एक मड़िया डालकर उसमें रहता है। सर्दी के मौसम में वह ईंधन इकहा करके धूड़ी में आग जला लेता है जिससे सर्दी से बचा जा सके। माली की धूमाली अर्थात् धुई से धुआँ उठ रहा है और उस धुएँ से आकाश भर रहा है। हल्की-हल्की हवा चलने पर वह धुआँ इधर-उधर तैरता फिर रहा है। उस धुएँ से नीली-नीली रेशम जैसी जाली-सी बन रही है। कस्बे के व्यापारी बत्ती जलाकर अपनी दुकानों में बैठे हुए है। सर्दी की ठंडी रात में अँधेरा ऊँघता हुआ सा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है जैसे अँधेरे को भी आलस्य आ रहा हो।
काव्य सौन्दर्य : माली की धूड़ी से उठते धुएँ को नीली-नीली रेशम की जाली जैसा बताया है अँधियारी को ऊँघता हुआ बताया है। सर्दी की रात्रि में आलस्य बहुत जल्दी आता है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है। धुएँ का सजीव चित्र प्रस्तुत हुआ है। चित्रात्मक शैली है ‘नभ-के नीचे नभ-सी धूमाली’, एवं नीली रेशम की सी हल्की जाली में उपमा अलंकार है ‘मौन मंद’ में अनुप्रास अलंकार है ‘हिम की ऊँघ रही लम्बी अँधियारी’ में मानवीकरण अलंकार है।
8. धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- ढबरी – मिट्टी के तेल से जलने वाला दीपक
- अवसाद – दु:ख
- श्रांति – थकावट
- थोथे – निरर्थक
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ जी के द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया। कवि ने यहाँ समाज के निर्धन वर्ग की समस्याओं की ओर संकेत किया है।
ब्याख्या : कवि कहता है कि मिट्टी के तेल से जलने वाली डिबरी धुआँ अधिक देती है उसका प्रकाश बहुत ही कम होता है। ऐसा लगता है जैसे यह जलकर धुएँ के रूप में अपने मन के अवसाद (दुःख) को बाहर निकाल रही है। आँखों के आगे ढिबरी के धुएँ से जाला सा बन जाता है। छोटी-सी बस्ती में लोग इकट्टा होकर अपने मन के दुःख दर्द आपस में बाँटकर हल्का करते हैं। वे दीपक के प्रकाश में अपने लेन-देन की बातें करते हैं।
काव्य सौन्दर्य : टिन की डिबरी के धुएँ के माध्यम से कवि ने लोगों के हृदय के अवसादों का उल्लेख किया है। लोग दैनिक जीवन की समस्याओं को मिल बैठकर हल करते हैं। भाषाभिव्यक्ति उत्तम है।
खड़ी बोली का सुन्दर प्रयोग है ‘कम करती’ में अनुप्रास अलंकार है। चित्रात्मक शैली है।
9. कँप-कँप उठते लौ के संग
एकातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गयी क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
सकुची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अन्तर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
‘औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- कातर – पीड़ित
- सुधि – होश-हवास
- नीरव – शांत, बिना किसी शोर के
- प्रदोष – रात्रि
- आकुल – व्याकुल, दुःखी
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। कवि ने यहाँ लोगों द्वारा अपने दुख दर्दों पर चर्चा एवं लाला के मन में मानवता जागने की बात कही है। भले ही उसके अन्दर यह मानव थोड़ी देर के लिए ही जागा हो।
व्याख्या : कवि का कहना है कि बस्ती के लोगों की निराशाएँ एवं कष्ट दीपक की ली की तरह ही काँप-काँप कर व्यक्त होती हैं उनके हृदय का मूक रुदन दीपक की मंदिम रोशनी में जैसे मुखरित हो उठता है। दीपक की क्षीण रोशनी ने जैसे उन लोगों को भी अपने विचार व्यक्त करने की हिम्मत दे दी जो अपने मन की बात अपने मन में ही दबाए रखते हैं। बहुत से व्यक्ति रोशनी में खुलकर नहीं बोलते परन्तु अँधरे में अपनी बात कह जाते हैं। थोड़ी देर में ही सारी बस्ती अन्धकार में लीन हो गई। रात्रि हो चुकी थी। मिट्टी के घर आँगन सभी रात्रि में समाहित हो गए। लाला अपनी दुकान पर बैठा हुआ ब्याज व मूलधन की बातें भूलकर कल्पना लोक में विचरण करने लगा।
लाला को इस रात में अपनी परचून की दुकान में अनाज आदि की ढेरियाँ तुच्छ प्रतीत हो रही थीं। रात्रि के इस शांत माहौल में उसके मन में तरह-तरह के विचार उठने लगे। लाला का मन इस छोटी-सी बस्ती के सस्तेपन के अनुभव करने लगा कि यहाँ चीजें कितनी सस्ती मिल जाती हैं। लाला के हृदय का सोया मानव जाग गया। लाला के हृदय में सात्विक विचार उठने लगे। उसके जीवन की असफलताएँ और उत्पीड़न तरोताजा होकर उसके सामने उभरने लगे।
काव्य सौन्दर्य : कवि ने बस्ती के लोगों की निराशाओं को दीपक की मन्द लौ के माध्यम से उभारा है। कवि ने लाला के अन्दर का मानव जागने की बात कहकर उस पर व्यंग्य किया है। अक्सर लाला लोग अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए काँट-छाँट में ही लगे रहते हैं।
खड़ी बोली का सुन्दर प्रयोग है। कवि की प्रगतिशील विचारधारा को उभारा गया है। कँप-कँष में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों, गोपन मन को दे दी भाषा ‘इस पंक्ति में उत्रेक्षा अलंकार है; ‘सकुची-सी परचून किराने की देरी’ में उपमा अलंकार है।
10. दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
बह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूट बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है ?
रहते स्वच्छ सुघट.सब परिजन ?
बना पा रहा वह पक्का घर ?
मन में सुख है ? जुटता है धन ?
खिसक गयी कन्धों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ
- दैन्य – भाग्य
- क्षुधित – भूख
- पिपासा – प्यास
- अभिलाषा – इच्छा
- कथड़ी – गुदड़ी, पुराने कपड़े से बनाया गया लेवा
- क्लांति – हतोत्साह
- विवशता – लाचारी
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। कवि ने लाला को कल्पनाओं के सागर में गोते लगाते हुए दिखाया है। यहाँ उसकी विवशता को प्रकट किया गया है। सारा दिन दुकान पर बैठने के बाद भी वह अपने लिए सुख के साधन नहीं जुटा सकता । वह अपने जीवन को धिक्कारता है।
व्याख्या : लाला अपनी किराने की दुकान पर बैठा हुआ अपने जीवन की असफलताओं पर दृष्टिपात कर रहा है। वह सोचता है कि उसके भाग्य में तो दु:ख ही दुःख है, जगह-जगह अपमान सहना पड़ता है, मन ग्लानि से भर जाता है बिना आय के उसका जीवन हतोत्साह करने वाला ही रह गया। वह अपने को जड़ अनाज की ढेरी की तरह अर्थहीन समझने लगा। वह सारा दिन गद्दी पर बैठा-बैठा झूठ बोलता रहता है और लोगों के साथ एक-एक कौड़ी के लिए झगड़ता रहता है।
लाला सोचता है कि इतना कुछ करने के बाद भी वह अपना परिवार ठीक तरह से पाल नहीं सकता और न ही उसका घर स्वच्छ रह पाता है और न ही घर के सदस्य स्वच्छतापूर्वक रह सकते। वह आज तक अपने परिवार के लिए पक्का मकान भी नहीं बना पाया, न वह सुख़ी ही है और न वह अपने जीवन में धन जुटा सकता है। लाला जी अपने विचारों में खोए हुए थे कि तभी उनके कन्धे से उसकी गुदड़ी खिसक जाती है। उसका शरीर अब ठंड में ठिठुर रहा था। बस्ती का बनिया अपने विचारों में खोया हुआ अपनी लाचारी के कारण खोजने में लगा हुआ था।
काव्य सीन्दर्य : लाला के अंतर्द्दद को सुन्दरता के साथ चित्रित किया है। उसके जीवन की लाचारियों को बड़ी बारीकी से उभारा है। तरह-तरह के अपमान सहकर भी वह अपने जीवन को सुखमय बनाने की कोशिश करता है परन्तु उसकी हर कोशिश नाकाम होती है।
संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का सुन्दर प्रयोग है। कवि की प्रगतिशील विचारधारा परिलक्षित होती है। ‘जड़ अनाज के ढेर सदृश’ में उपमा अलंकार है। ‘दैन्य-दुःख’, में अनुप्रास एवं ‘बात-बात’ और ‘मर-मर’ में पुनरक्ति प्रकाश अलंकार है।
11. शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन ?
रोक दिए गए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन ?
यह क्या सम्भव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन ?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-बयय का हो वितरण ?
घुसे घरौंदों में मिट्दी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन ?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- महाजन – बड़ा सेठ
- सकल – सम्पूर्ण
- विमुक्त – आजाद
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से अवतरित है। कवि ने यहाँ समाज में फैली विषमता को उजागर किया है। कवि ने सामूहिक रूप से कार्य करने, आय-व्यय के समान वितरण की बात कही है तभी सामाजिक विषमता दूर हो सकती है।
ब्याख्या : लाला अपने किरानी की दुकान पर बैठा-बैठा सोच रहा है कि वह भी शहरी बनिये की तरह बड़ा सेठ क्यों नहीं बन जाता। उसके जीवन की उन्नति के द्वार किसने रोक दिए। उसके जीवन में समृद्धि क्यों नहीं है। क्या यह सम्भव नहीं है कि हमारी व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हो। लोगों के कर्म और गुण को आधार बनाकर ही क्या आय-व्यय का बँटवारा नहीं हो सकता।
लाला की तरह ही अन्य लोग भी सर्दी की इस रात्रि में अपने मिट्टी के घरोंदों में घुसे हुए सोच रहे हैं कि हमारा सामाजिक जीवन कैसे ऊपर उठ सकता है। वे सोचते हैं कि सब आपस में मिलकर सामूहिक रूप से परिश्रम करके नए समाज का निर्माण करें जहाँ छोटे-बड़े लोगों के बीच किसी प्रकार की असमानता न हो। सभी आपस में मिल बाँटकर जीवन के भोगों का भोग करें। सभी लोगों को शोषण से मुक्ति मिले। सारा समाज ही धन का अधिकारी हो, कोई अकेला व्यक्ति नहीं तभी हमारे समाज की विषमता दूर हो सकती है।
काव्य सौन्दर्य : कवि ने समाज को उन्नतिशील बनाने के तरीकों पर प्रकाश डाला है। उन्नति मिलजुल कर ही हो सकती है। धन का वितरण गुणों और कर्मों के आधार पर होना चाहिए। धन का अधिकारी पूरा समाज हो न कि कोई व्यक्ति विशेष। धन का विकेन्द्रीकरण होना जरूरी बताया है।
खड़ी बोली का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कवि के छायावादी व्यक्तित्व पर प्रगतिशीलता हावी हो रही है। कवि यहाँ सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए सजग नजर आते हैं। सामासिक शैली का अनुसरण किया गया है। ‘सब साधन’, ‘ ‘ुुसे घरौंदों’, ‘सबमें सामूहिक’ में अनुप्रास अलंकार है।
12. दरिद्धता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुन्दर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय ?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दु:ख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आयी जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उडा घुघ्यू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ
- दरिद्रता – गरीबी
- ताप – द्ख
- अधिवास – निवास स्थान
- परिपाटी – रिवाज
- घुघ्यू – उल्लू प्रजाति का एक पक्षी
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश ‘सुमित्रानन्दन पन्त’ द्वारा रचित कविता ‘संध्या के बाद’ से लिया गया है। कवि ने यहाँ दरिद्रता को पापों की जननी बताया है। अच्छे विचारों के बाद भी लाला डंडी मारने से बाज नहीं आता । उसकी गरीबी ही उसे ऐसे कर्म करने के लिए बाध्य करती है। घुघूघू का चीखना अशुभ संकेत माना जाता है।
व्याख्या : कवि ने दरिद्रता को सभी पापों की जननी बताया है। मनुष्य सारे पाप गरीबी के कारण ही करता है। कवि कहता है कि यदि गरीबी मिट जाएगी तो लोगों के सारे पाप, दुःख और भय भी समाप्त हो जाएंगे। कवि सुखद भविष्य की कामना करता हुआ कहता है कि सभी के अच्छे घर हों, सुन्दर वस्त्र हों, हृष्ट-पुष्ट शरीर हों। मनुष्य के मन से पशुता समाप्त हो जाए। मनुष्य पर जब-जब पशुता भारी पड़ती है वह अनैतिक कार्यों की ओर प्रवृत्त होने लगता है। यह केवल एक व्यक्ति की बात नहीं है। यह तो पूरी दुनिया का ही चलन है। दोषी जनों के सभी दुःख और क्लेशों का कारण गरीबी ही है। यदि सभी लोगों को उनके परिश्रम का फल बराबर मिले तो देश की गरीबी मिट सकती है। हमारे देश में गरीबी इसलिए अधिक है कि परिश्रम करने वाले को तो पेट भरने के लिए पूरी तरह रोटी भी नहीं मिलती जबकि उसके परिश्रम के बल पर परिश्रम न करने वाला अमीर बन जाता है।
लाला अपनी दुकान पर बैठा हुआ सुन्दर-सुन्दर कल्पनाओं में खोया हुआ था। अचानक वह कल्पना लोक से बाहर आ गया क्योंकि उसकी दुकान पर एक बुढ़िया आधा पाव आटा लेने आई थी। लाला जी के सभी विचार धरे रह गए। लाला जी ने बुढ़िया को आटा तोलते समय कम आटा तोलकर दिया। कवि यहौं यह कहना चाहता है कि लाला जी के विचार अच्छे थे परन्तु उसकी गरीबी उससे ये पाप करा रही थी। पेड़ पर बैठा घुघूघू चीख उठा जिससे आभास होता है कि समाज को इस गरीबी से जल्दी निजात मिलना मुश्किल है। लोग अपने घरों के द्वार बन्द करके अपने बिस्तरों में सो गए। पूरी बस्ती को धंरे-धीरे अलसाई निद्रा रूपी अजगर निगल रहा था अर्थात् धीरे-धीरे पूरी बस्ती नींद के आगोश में समा गई।
काव्य सौन्दर्य : दरिद्रता को पापों की जननी बताया है। पशुता पर मानवता की जीत हो, यह कामना की गई है, लोगों का श्रम लोगों में ही बँटे। बनिये द्वारा डंड़ी मारना उसकी विवशता को दर्शाता है। कवि पूरी दुनिया को सुखी देखना चाहता है।
भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली है। कवि के छायावादी व्यक्तित्व पर प्रगतिशीलता हावी हो रही है। रूपक एवं अनुप्रास की छटा विद्यमान है।