खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 11 Summary
खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति – सूरदास – कवि परिचय
जीवन-परिचय : सूरदास जी का भक्तिकालीन सगुण भक्तिधारा के कृष्ण भक्त कवियों में मूर्धन्य स्थान है। सूरदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में रुनकता या रेणुका क्षेत्र में सन् 1478 में हुआ। किशोरावस्था में संसार से विरक्त होकर मथुरा चले गए और बाद में मथुरा और वृन्दावन के बीच यमुना नदी के किनारे गऊघाट पर रहने लगे। आप यहीं पर रहकर कृष्णभक्ति के भजन गाया करते थे। यहीं पर आपकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई । आपने एक भजन गाकर महाप्रभु को सुनाया, जिससे वे अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने आपको अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने सूरदास को श्रीनाथ द्वारा में रहकर श्रीमद्भागवत के आधार पर कृष्गलीला का गुणगान करने का आदेश दिया। इस प्रकार श्रीनाथ मन्दिर में रहते हुए आपने भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में प्रतिदिन एक नवीन पद बनाकर गाना प्रारम्भ कर दिया।
कहा जाता है कि सूर जन्मान्ध थे, किन्तु उनके काव्य में सजीव और सूक्ष्म वर्णनों को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं होता। लगता है वह बाद में अन्धे हुए। उनकी मृत्यु सन् 1583 में पारसौली नामक ग्राम में हुई।
साहित्यिक-परिचय : सूरदास जी सौन्दर्य और प्रेम के अमर गायक हैं। उनकी भक्ति में सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भावों का सम्मिश्रण है। उन्होंने मुख्य रूप से वात्सल्य और शृंगार का ही चित्रण किया है। वात्सल्य के क्षेत्र में तो वे बेजोड़ हैं। वात्सल्य का तो वे कोना-कोना झाँक आए हैं। उन्होंने एक ही रस के अन्तर्गत नए-नए प्रसंगों की उद्भावना की है जो उनकी अलौकिक प्रतिभा, उर्वर कल्पना एवं अनुभूति की परिचायक है। जीवन के एक ही क्षेत्र के अन्तर्गत कथावस्तु की यह कल्पना देखते ही बनती है।
वात्सल्य रस का अत्यन्त सजीव वर्णन सूर ने क्रिया है-
“जसोदा हरि पालनै झुलावै।”
“चलत देखि जसुमति सुख पावै। ठुमुकि-टुमुकि पग धरनी रेंगत।”
वैसे सूर ने सभी रसों का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है किन्तु शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अद्विवतीय वर्णन किया है-‘बूझत स्याम कौन तू गौरी।’ ‘स्याम बिना उनए ये बदरा। आजु स्याम सपने में देखे, भरि आए नैन ढरकि गयौ कजरा।’
रचनाएँ : सूरदास के रचे तीन ग्रंथ मिलते हैं-सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य-लहरी। सूरसागर ही सूरदास की अमर कीर्ति का आधार है। प्रसिद्ध है कि सूरसागर में सवा लाख पद हैं लेकिन अभी तक केवल पाँच हजार ही पद प्राप्त हो सके हैं।
भाषा-शैली : सूरदास के पदों में ब्रजभाषा का बहुत परिष्कृत और निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। भाषा और भाव की अद्विवतीय पूर्णता के कारण ‘सूरसागर’ पहले से चली आ रही गीतिकाव्य परम्परा का विकास प्रतीत होता है। उनकी भाषा में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, रूपकातिशयोक्ति आदि अर्थालंकारों के साथ-साथ वर्णन वैचित्र्य दिखाने के लिए श्लेष, यमक, वक्रोक्ति आदि शब्दालंकारों का भी खुलकर प्रयोग हुआ है। साहित्य लहरी शब्दालंकारों की जीती-जागती निधि है। उनकी भाषा यद्यपि ब्रजभाषा है किन्तु उसमें संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, पंजाबी आदि के शब्द भी मिलते हैं। मुहावरे और लोकोक्तियों का भी बड़ा सार्थक प्रयोग उनकी भाषा में देखने को मिलता है।
Khelan Me Ko Kako Gusaiya, Murali Tau Gupalhi Bhavati Class 11 Hindi Summary
यहाँ सूरदास जी के दो पद दिए गए हैं। पहले पद में कवि ने भगवान श्रीकृष्ण की खेल में हार हो जाने को बड़े स्वाभाविक ढंग से चित्रित किया है। कृष्ण सुदामा से खेल में हार जाते हैं परन्तु वे अपनी हार स्वीकार नहीं करते। नंद की दुहाई देने पर वे पुनः खेलना स्वीकार करने पर सुदामा को दाँव देना स्वीकार करते हैं। भगवान श्रीकृष्ग की बाल सुलभ खीज का यहौँ स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
दूसरें पद में गोपियों का कृष्ण के प्रति सौतिया भाव प्रकट हुआ है ! गोपियाँ कृष्ण की मुरली के प्रति रोष प्रकट करती हैं। उनका कहना है कि मुरली कृष्ण को जैसे चाहती है वैसे नचाती रहती है। कृष्ण तो पूरी तरह मुरली के कब्जे में हैं। वह तो उनकी आत्मीय बन बैठी है। मुरली के कारण गोपियों को कृष्ण का कोप भाजन बनना पड़ता है। इस पद में कृष्ण के प्रति गोपियों का अगाध प्रेम प्रकट हुआ है।
खेलन में को काको गुसैयाँ, मुरली तऊ गुपालहिं भावति सप्रसंग व्याख्या
1. खेलत में को काको गुसियाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरवस हीं कत करत रिसैयाँ।
जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातै जातें अधिक तुम्हारे गैयाँ।
रूटहि करे तासौं को खेले, रहे बैटि जहँ-तहँ ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाऊँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ ॥
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- काको – किसका
- गुसैयाँ – स्वामी
- श्रीदामा – सुदामा
- रिसैयाँ – क्रोध करना
- बड़ – बड़ा
- छैया – छाया/आश्रय
- यातैं – इसलिए
- जातें – क्योंकि
- दाऊ दियौ – दाँव दे दिया
प्रसंग : प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण द्वारा खेलने हारने और फिर रूठ कर बैठ जाने का स्वाभाविक चित्रण किया है। सुदामा श्रीकृष्ण के हार कर भी हार न मानने का कारण देता है। श्रीकृष्ण जी का जब खेलने को मन करता है तो वह नंद बाबा की दुहाई देकर खेलने के लिए तैयार हो जाते हैं। कवि ने बाल मनोविज्ञान को बहुत बारीकी से उकेरा है।
ब्याख्या : श्रीकृष्ग और सुदामा कोई खेल खेलते हैं खेल में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता न किसी प्रकार का भेदभाव किया जाता है। श्रीकृष्ण की सुदामा के साथ खेलते हुए हार हो जाती है। श्रीकृष्ण बड़े घर के थे। उनमें भी बाल सुलभ ईर्ष्या थी। वे अपनी हार स्वीकार ही नहीं करते बल्कि उल्टा सुदामा के ऊपर क्रोधित होने लगते हैं। वे सुदामा को दौंव देना भी स्वीकार नहीं करते। सुदामा जी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि तुम किसलिए बड़े बनते हो? जाति में तो तुम हमसे बड़े हो नहीं।
हम क्या तुम्हारे आश्रय में रहते हैं जो तुम इतनी ऐंठ दिखाते हो। तुम इसलिए अपना ज्यादा अधिकार जताते हो क्योंकि तुम्हारे पास अधिक गाएँ हैं। जो खेल में रूठता है, भला उसके साथ कौन खेलगा ? खेल में तो हार जीत होती ही है। तुम भी वहीं जाकर बैठ जाओ जहाँ अन्य ग्वाले बैठे हैं। सुदामा की इन बातों को सुनकर श्रीकृष्ण का मन दोबारा खेलने का हो जाता है। वे सुदामा के ऊपर ही एहसान रख देते हैं कि देखो मैं दोबारा खेल रहा हूँ जबकि वास्तव में श्रीकृष्ण का मन खेलने को हो गया था फिर भी वह नंद बाबा की दुहाई देकर सुदामा का दाँव देने के लिए तैयार हो जाते हैं।
काव्य सौन्दर्य : बाल मनोविज्ञान का स्वाभाविक चित्रण किया गया है। कृष्ण जिस तरह की खीज प्रकट करते हैं वह बचपन की स्वाभाविक खीज है। सुदामा के कथनों का भावपूर्ण चित्रण हुआ है।
ब्रज भाषा का सुन्दर प्रयोग है। पंक्तियों के अन्त में ‘याँ’ की आवृत्ति से भाषा प्रभावोत्पादक बन गई है। वात्सल्य रस है। ‘को काको’ ‘हरि हारे’ ‘कत करत’ ‘दाँऊ दियो’ में अनुपास अलंकार है। माधुर्य गुण है एवं छंद पद है।
2. मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाई ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ है आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौंढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति।
भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप-कराबति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तैं सीस डुलावति ॥
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- तऊ – इस पर भी
- भावति – अच्छी लगती है
- ठाढ़ौ करि – खड़ा करके
- पाइ – पाँव/पैर
- जनावति – दिखाना/जताना
- कटि – कमर
- कनीड़े – कृतज्ञ, एहसान मंद/कीतदास
- तन – शरीर
- गिरिधर नारि नचावति – गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले कृष्ण की गर्दन भी झका देती है
- पीढ़ि – लेटकर
- अधर – होंठ
- पतुटावति – दबवाना
- कुटिल – कठोर
- कोप – क्रोध/गुस्सा
- छिन – क्षण
- सीस – सिर
प्रसंग : प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित है। श्रीकृष्ग बाँसुरी बजाने में इतने तल्लीन हो जाते हैं, उस समय उन्हें गोपियों की सुध नहीं रहती। गोपियाँ इसे सहन नहीं कर पातीं। वे मुरली को अपनी सौत समझती हैं। मुरली को सौत मानकर वे उसकी आलोचना करती हैं।
व्याख्या : एक सखी दूसरी सखी से कह रही है-हे सखी! सुन, मुरली नन्द के लाल श्रीकृष्ण को अनेक प्रकार से नचाती रहती है फिर भी वह श्रीकृष्ण के मन को बहुत अच्छी लगती है। वह उनको एक पाँव पर खड़े रहने को बाध्य करती है एवं उन पर यह अपना अत्यधिक अधिकार जताती है। उनके कोमल शरीर से अपनी मनमानी करवाती है। जब ये उसे (बाँसुरी) बजाते हैं तो उनकी कमर टेढ़ी हो जाती है। श्रीकृष्ण मुरली के सर्वथा अधीन हैं अर्थात् श्रीकृष्ण उसके बहुत एहसानमंद हैं। गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले श्रीकृष्ण को उसने अधीन कर रखा है और यह मुरली रूपी नारी उनकी गर्दन झुकवा देती है अर्थात् जब कृष्ण मुरली बजाते हैं तो उनकी गर्दन झुक जाती है।
यह मुरली उनके होठों की शय्या पर लेटकर, पत्तों के समान कोमल हाथों से अपने पैर दबवाती है। श्रीकृष्ग जब बाँसुरी बजाते हैं उस समय उनकी भौैैं टेढ़ी हो जाती हैं। आँखें नाक की सीध में हो जाती हैं या आँखें लाल और नथुने फूल जाते हैं। इस प्रकार मुरली हम पर क्रोध करवाती है। सूरदास जी कहते हैं कि यह मुरली श्रीकृष्ग को एक क्षण में प्रसन्न कर लेती है जिसके परिणाम स्वरूप वे अपना सिर डुलाने लगते हैं।
भाव सौन्दर्य : कृष्ण का बाँसुरी बजाते हुए इतना तल्लीन हो जाना कि उनको गोपियों की भी सुध नहीं रहती। कृष्ग की वंशी के प्रति गोपियों का सौतिया डाह प्रकट हुआ है। कृष्ण के अधरों को शय्या बताया गया है। यह पद नारी मनोविज्ञान और तात्कालिक नारी समाज की स्थिति का द्योतक है।
शिल्प सौन्दर्य : ब्रज भाषा का सुन्दर प्रयोग है कवि का वाक् चातुर्य और काव्य-कौशल दोनों ही देखने लायक हैं। शब्द चयन सटीक है। स्थानीय शब्द जैसे ठाढ़ौ, कनौड़, पौढ़,, पतुरावति आदि का प्रयोग हुआ है। नाच नचावति, एक पाइ ठाढ़ौ करि, नार नचावति, पलुटावति तथा सीस डुलावति आदि लोक प्रचलित मुहावरों का सार्थक प्रयोग दृष्टव्य है। वंशीवादक कृष्ण का मुद्रा चित्रण एकदम सफल बन पड़ा है जो उनकी कल्पना शक्ति का परिचायक है। ‘गुपालहि’ ‘गिरिधर’ में श्लेष अलंकार है। ‘अधर सज्जा’, ‘कर-पल्लव’ में रूपक अलंकार है। सुन री सखी, नंद लालहि नाना, नार नचावति, नैन-नासा’ में अनुप्रास अलंकार है। इनके अतिरिक्त स्वभावोक्ति अलंकार का भी प्रयोग है। शृृंगार रस, माधुर्यगुण एवं छंद पद है।