हँसी की चोट, सपना, दरबार Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 12 Summary
हँसी की चोट, सपना, दरबार – देव – कवि परिचय
जीवन-परिचय : महाकवि देव का पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में सन् 1673 में हुआ था। वे देवसरिया ब्राह्मण थे। सन् 1689 में इन्होंने काव्य रचना आरम्भ की। ये औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के दरबारी कवि थे। वहाँ इन्होंने ‘भाव विलास’ नामक ग्रंथ की रचना की। इसके पश्चातू उन्होंने कई आश्रयदाता बदले पर उन्हें सबसे अधिक सन्तुष्टि भोगीलाल नाम के सहुदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की सम्पत्ति प्रदान की। अनेक आश्रयदाता राजाओं, नवाबों, धनिकों से सम्बद्ध रहने के कारण उन्होंने राज दरबारों का आडम्बरपूर्ण और चाटुकारितापूर्ण जीवन अत्यन्त निकट से देखा था। बाद में उन्हें ऐसे जीवन से वितृष्णा हो गई। सन् 1767 में इनका देहान्त हो गया।
साहित्यिक-परिचय : देव बड़े प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। आश्रित कवि होने के कारण उनके काव्य में जीवन के विविध दृश्यों का अभाव है, किन्तु उनके काव्य में प्रेम और सौन्दर्य के अनेक मर्मस्पर्शी चित्र मिलते हैं। श्रृंगार उनका प्रमुख विषय है। उन्होंने अपने काव्य में रस, छन्द, अलंकार आदि की चर्चा में श्रृंगारिक उदाहरण दिए या आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए शृंगार विषयक काव्य लिखा। शृंगार में उनकी रुचि नायक-नायिका के रूप-माधुर्य, उनके परस्पर मिलन तथा हाव-भावों में ही अधिक रमी है फिर भी शृंगार के उदात्त रूप का चित्रण भी देव ने किया है।
रचनाएँ : देव द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें से सुमिल विनोद, सुजान विनोद, काव्यासावन, रसविलास, भावविलास, भवानी विलास, कुशल विलास, अष्टयाम, प्रेमदीपिका आदि प्रमुख हैं।
भाषा-शैली : देव की काव्य भाषा मधुर ब्रज है। ध्वनि योजना तथा अलंकारों के आग्रह के कारण उन्होंने शब्दों को तोड़ा मरोड़ा भी है। अनुप्रास और यमक के प्रति उनमें प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुन्दर ध्वनि चित्र खींचे हैं। ध्वनि योजना उनके छन्दों में पग-पग पर मिलती है। उनके काव्य में विपुल कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है। भावों के अनुकूल भाषा को ढालने में सिद्धहस्त हैं।
Hansi Ki Chot, Sapna, Darbar Class 11 Hindi Summary
यहाँ देव के दो सवैये और एक कवित्त दिया गया है। पहले सवैये में कवि ने प्रिय की हँसी से घायल एक नायिका के विरह का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण के मुख फेर लेने से हैंसना भी भूल गई। विरह में उनका हाल बेहाल हो गया। एक-एक करके उनके शरीर के सारे तत्त्व नष्ट हो गए परन्तु फिर भी उनको आशा है कि एक दिन कृष्ण जरूर आएंगे।
दूसरे कवित्त में कवि ने एक गोपिका के स्वप्न का वर्णन किया है। गोपिका को स्वप्न में कृष्ण झूला झुलाते हैं। वह इस मिलन से फूली नहीं समाती। तभी उसकी नींद खुल जाती है। उसको बहुत दुःख होता है कि यह एक सपना था। परन्तु सपने में श्रीकृष्ण के मिलन की सुखद स्मृति उसको वियोग में भी आनन्द की अनुभूति कराती रहती है। इस कवित्त में संयोग और वियोग शृंगार का वर्णन हुआ है।
तीसरा सवैया है। इस सवैये में कवि ने तत्कालीन दरबारी संस्कृति का यथार्थ चित्रण किया है। लोग भोग-विलास में लिप्त रहते थे। वे अकर्मण्य हो चुके थे। सब अपनी-अपनी धुन में डूबे थे। उनकी मति भोग-विलास के कारण मारी गई थी। ‘देव’ ने इस दरबारी संस्कृति पर करारा व्यंग्य किया है।
हँसी की चोट, सपना, दरबार सप्रसंग व्याख्या
1. हँसी की चोट
साँसन ही सों समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि ॥
‘देव’ जिये मिलिबेई कि आस कि, आसहू पास अकास रहओ भरि।
जा दिन तै मुख फेरि हरे हंसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि ॥
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- साँसन – श्वास, प्रश्वासों में, आहों में
- समीर – वायु, शरीर-रचना के पाँच तत्त्वों में ‘वायु’ नामक तत्त्व
- नीर – जल, शरीर का जल तत्त्व
- ढरि – ढुलक गया
- तेज – सृष्टि के पंच तत्त्चों में अग्नि-तत्च, शरीर की दुति अथवा कांति
- भूमि – क्षिति तत्च (पृथ्वी)
- तनुता – क्षीणता, दुबलापन
- अकास – आकाश, तत्त्य, सुनापन
- रि – देखकर
- हरि-जू – श्री कृष्ण
- हरि – चराना, हर लेना
प्रसंग : प्रस्तुत सवैया हमारी पाठ्य-पुस्तक अन्तरा में संकलित रीतिकालीन आचार्य कवि देव द्वारा रचित ‘हँसी की चोट’ शीर्षक से अवतरित है। प्रस्तुत सवैये में प्रिय की हँसी से घायल एक नायिका के विरह का मर्मस्पशी चित्रण किया है। कृष्ण के वियोग में नायिका के शरीर से एक-एक तत्त्व विनष्ट होता जा रहा है।
ब्याख्या : कवि कहता है-जिस दिन से श्रीकृष्ण उस नायिका के सामने से हँसते हुए मुँह फेरकर चले गए, तभी से वह नायिका विरह से व्याकुल हो गई है। कृष्ण मानो उसकी ओर देखते हुए उसका दिल ही चुरा कर ले गए हैं तब से उसके पाँच तत्त्वों से निर्मित शरीर से सारे तत्व एक-एक करके विदा होते जा रहे हैं। विरह की लम्बी-लम्बी आहें भरने से शरीर का वायु-तत्व निःशेष हो गया है। जल तत्त्व भी आँखों से बहते हुए आँसुओं के रूप में बूँद-बूँद करके रिस गया है। विरह के ताप में झुलसती हुई उसकी देह सर्वथा निस्तेज, कांतिविहीन हो गई है। ऐसा आभास होता है कि तेज-तत्व ही अपने गुण (शरीर की चमक) को लेकर समाप्त हो गया है। विरह-दुःख में डूबी उसकी देह इतनी दुबली हो गई है मानो शरीर में विद्यमान भूमि तत्त्व ही उसे जीर्ण-शीर्ण बनाकर विलीन हो गया है। फिर भी वह बाला प्रिय से मिलने की आस को मन में लिए जी रही है। वस्तुतः विरह-काल में आशा का तन्तु ही जीवन को बाँधे रहता है। लेकिन अब तो उसके जीवन में केवल आकाश-तत्त्व ही शेष बचा है, जिसने चारों ओर से उसकी आशाओं को घेरा है। अभिप्राय यह है कि अब उसकी आशाएँ भी जीवन के सूनेपन में भटक रही हैं। विरह एक व्यापक शून्य बनकर उसके जीवन में व्याप्त हो गया है।
काव्य सौन्दर्य : गोपिका की विरह अवस्था का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है। विरह की पूर्वानुराग स्थिति का चित्रण है नायक के मुँह फेरने मात्र से ही नायिका विरह की अग्नि में झुलसने लगी। विरह जन्य संताप व कृशता की बड़ी मार्मिक व्यंजना हुई है।
ब्रंज भाषा का सुन्दर प्रयोग है। लयात्मकता एवं गेयता विद्यमान है। माधुर्य गुण है। सवैया छंद है। वियोग श्रृंगार का मार्मिक चित्रण हुआ है। अनुप्रास अलंकार की सहज योजना से सवैया बहुत ही प्रभावशाली बना है।
2. सपना
झहरि-शहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं ‘चलौ डूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं ॥
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखों तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदें मेरे आँसु है दृगन में ॥
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- झहरि-झहरि झीनी बूँदें – हल्की-हल्की बूँदें
- घेरी – घिर आना
- मो सौं – फली न समानी
- मुझसे – फूली नहीं समाई अर्थात् बहुत प्रसन्न हुई
- गमन – मस्त
- निगोड़ी – निर्दयी
- जानि वा जगन में – जागने पर पता चला
- दुगन में – औँखों में
प्रसंग : प्रस्तुत सवैया देव द्वारा रचित ‘सपना’ शीर्षक से लिया गया है यहाँ कवि एक-एक नायिका के स्वप्न का वर्णन करते हुए कृष्ण से उनके मिलन व फिर नींद खुलने पर उनके वियोग का चित्रण किया है।
व्याख्या : प्रस्तुत कवित्त में एक गोपिका रात्रि के समय स्वप्न देख रही है। स्वप्न में उसे दिखाई देता है कि हल्की-हल्की वर्षा की फुहारें जमीन पर पड़ रही हैं और आकाश में घनघोर घटाएँ छाई हुई हैं तभी उस गोपिका को स्वप्न में श्याम दिखाई देते हैं। श्याम आकर उनको झूलने के लिए चलने को कहते हैं। गोपिका कृष्ण मिलन से बेहद प्रसन्न हो उठती है उसकी प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही। वह प्रसन्नता से झूम उठती है। उसके ऊपर मस्ती छा जाती है। वह श्रीकृष्ण के साथ झूलने के लिए जाने के लिए जैसे ही उठना चाहती है तभी उसकी नींद खुल जाती है। नायिका का स्वप्न खंडित हो जाता है। निर्दयी नींद के कारण उसके भाग्य ही सो गए अर्थात् नींद से जागना उसके लिए बहुत ही दु:खद सिद्ध हुआ। गोपिका ने आँख खोल कर देखा न तो आकाश में बादल थे और न ही वहाँ श्रीकृष्ण जी थे। आकाश से बादल तो नहीं बरस रहे थे बल्कि उस विरहिणी की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई थी।
काव्य सौन्दर्य : गोपिका की विरहावस्था का मार्मिक चित्रण हुआ है। ‘नींद का खुलना और भाग्य का सोना’ इस पंक्ति से गोपिका की पीड़ा अभिव्यंजित हो रही है। आँसुओं की झड़ी उसके विरह को और बढ़ा रही है।
सरल, सहज ब्रज भाषा का प्रयोग है। शब्द चयन प्रभावोत्पादक है। लय व संगीतमयता इस कवित्त को प्रभावशाली बनाने में सहायक हो रही है। ‘झहरि-झहरि-झीनी’ ‘घहरि घहरि घटा घेरी’ में अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है। पुनरुक्ति प्रकाश एवं यमक अलंकार का भी सुन्दर प्रयोग है। माधुर्य गुण है। कवित्त छंद है। संयोग एवं वियोग श्रृंगार दोनों ही हैं।
3. दरबार
साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो ॥
भेष न सूझयो, कहूयो समझूयो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो ॥
शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :
- साहिब – राजा
- मुहासिब – राजा के दरबारी
- औघट – कठिन मार्ग, दुर्गम मार्ग
- निबरे नट – अपनी कला या प्रतिभा से भटका हुआ कलाकार
- सगरी – ‘सारी, सम्पूर्ण
प्रसंग : प्रस्तुत सवैया दरबार शीर्षक से संकलित एवं ‘देव’ कवि द्वारा रचित है। कवि ने इस सवैये में रीतिकालीन दरबारी संस्कृति का यथार्थ चित्रण किया है। उस काल से राजा और उसके दरबारी सभी रास-रंग में डूबे रहते थे। देश एवं समाज की किसी को कोई चिन्ता नहीं थी।
व्याख्या : कवि यहौं दरबारी संस्कृति के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करते हैं कि राजा को कुछ दिखाई नहीं देता क्या अच्छा है और क्या बुरा इसकी उसको चिंता नहीं है। वह अपनी दुनिया में मस्त है। उसको रास-रंग से फुर्सत मिले तो वह कुछ सोचे भी। राजा की देखा-देखी उसके दरबारी भी उसी का अनुसरण कर रहे हैं वे भी कुछ नहीं बोलते। वे अपने राजा को कोई अच्छी सलाह नहीं देते। जब उनका राजा कोई गलत कार्य करता है तो वे उसको सचेत नहीं करते। सभा भी बहरी है उसको भी हित की बात नहीं सुहाती। कहने का भाव है कि जब राजा ही पथभ्रष्ट हो जाए तो उसके मातहत क्या करेंगे।
राजा से लेकर उनके दरबार का छोटे से छोटा कर्मचारी भी अपने रास रंग में डूबा हुआ है। न कोई सुनने वाला है, न समझने वाला, न कहने वाला। सब अपना कर्त्तव्य भूल गए हैं। सब सुरा-सुन्दरी के फेर में पड़कर पतित हो रहे हैं। वे अकर्मण्य हो गए हैं, उनको अपना कर्म सूझता हीं नहीं। उनको सूझ ही नहीं रहा कि वे क्या करें ? न कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ समझने की कोशिश करता है, न कोई कुछ बताता है, न कोई सुनने वाला है सभी का हाल अजीब हो रहा है। देव कवि कहते हैं कि रास, रंग, सुरा-सुन्दरी में डूब कर उनकी बुद्धि बिगड़ गई है।
उनकी स्थिति ऐसी हो गई है जैसी अपनी प्रतिभा से भटके किसी कलाकार की हो जाती है। भटकने के बाद कलाकार फिर अपनी कला को ठीक से समझ नहीं पाता। इस प्रकार राजा एवं दरबारी सभी की बुद्धि मारी गई। वे तो सारी रात रास-रंग में डूबे रहते थे। जिस प्रकार नट अपनी प्रतिभा से भटक जाने पर सारी रात नाचता रहता है यही हाल दरबारियों का था।
काव्य सौन्दर्य : कवि ने सौन्दर्य से विहीन कला, सौन्दर्य से हीन समाज और दरबारी वातावरण के भोग-विलास में लिप्त रहने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। अकर्मण्यता का यह हाल है कि न कोई किसी को कुछ कहने वाला था न सुनने वाला, भोग विलास के कारण उनकी मति बिगड़ चुकी थी।
ब्रज भाषा का सुन्दर प्रयोग है। प्रसाद गुण है। ‘मुहासिब मूक’, रंग रीझ, ‘निबरे नट’, ‘निसि नाच्यो’ में अनुप्रास अलंकार है। छन्द सवैया है।