Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Summary – Badal Ko Ghirte Dekha Hai Summary Vyakhya

बादल को घिरते देखा है Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 17 Summary

बादल को घिरते देखा है – नागार्जुन – कवि परिचय

जीवन-परिचय : नानार्जुन का जन्म सन् 1911 में बिहार राज्य के दरभंगा जिले के तरौनी ग्राम में हुआ। इनका पूरा नाम वैद्यनाथ मिश्र है। इनके पिता का नाम गोकुलनाथ मिश्र था। इन्होंने ‘नागार्जुन’ और ‘यात्री’ नाम से रचनाएँ की हैं। साहित्यिक क्षेत्र में ये ‘बाबा’ नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। इन्होंने संस्कृत और पालि माध्यम से काशी, कलकत्ता और केलानिया, कोलम्बो में साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया। सन् 1936 में श्रीलंका गए और वहाँ बौद्व धर्म की दीक्षा ली। सन् 1938 में स्वदेश लौट आए। नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत, पालि, मगधी, अपभ्रंश, सिंहली, तिब्बती, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के ज्ञाता हैं।

नागार्जुन ने सम्पूर्ण भारत का कई बार भ्रमण किया है। उनके व्यक्तित्य में घुमक्कड़ और अक्खड़पन स्पष्ट रूप से झलकता है। उन्होंने मैथिली और हिन्दी दोनों भाषाओं में रचनाएँ की हैं। वे अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ नाम से लिखते हैं। बांग्ला और संस्कृत में भी उन्होंने कविताएँ लिखी हैं। उन्होंने सन् 1935 में ‘दीपक’ नामक हिन्दी मासिक और सन् 1942-43 में ‘विश्वबन्धु’ साप्ताहिक का सम्पादन किया। वे राजनीतिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे और इस सिलसिले में उन्हें कई बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी। सन् 1987 में ‘भारत-भारती पुरस्कार’ से आपको सम्मानित किया गया। 1998 में इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक-परिचय : नागार्जुन साहित्य और राजनीति दोनों में समान रूप से रुचि रखने वाले प्रगतिशील साहित्यकार हैं। वे धरती, जनता और श्रम के गीत गाने वाले संवेदनशील कवि हैं। कबीर की-सी सहजता उनके काव्य की एक अन्यतम विशेषता है। सामयिक बोध उनकी कविता का प्रधान स्वर है। उनकी कविताओं में कल्पना की ऊँची उड़ान नहीं होती। उनका अपने चारों ओर फैली धरती और जनता के साथ जीवन सम्पर्क रहता है। वे इन्हीं विषयों को अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। खेत, खलिहानों, कल-कारखानों, खाद्यान्नों, शोषण की चक्की में पिसते हुए कृषक मजदूरों के प्रति सहानुभूति, व्यंग्य शैली से प्रभावी रचना करने के कुशल शिल्पी हैं। उनकी रचनाओं में तीखा व्यंग्य पाया जाता है। उन्होंने कई आन्दोलनधर्मी कविताएँ लिखी हैं, जिन्हें ‘पोस्टर कविता’ कहा जाता है।

रचनाएँ : उनकी मुख्य काव्य-कृतियाँ हैं-युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ, हजार-हजार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या, भस्मांकुर (खंडकाव्य)।

भाषा-शैली : नागार्जुन की भाषा में ऊबड़-खाबड़पन और चट्टान की-सी मजबूती है। उनकी रचनाओं में तीक्ष्ण व्यंग्य है। भाषा में शिष्ट और गम्भीर हास्य के साथ-साथ सूक्ष्म चुटीला व्यंग्य भी निहित है। अधिकांश रचनाओं की भाषा सरल और सुबोध है किन्तु कुछ कविताओं में संस्कृत क्लिष्ट शब्दावली का भी प्रयोग हुआ है। उन्होंने बोलचाल की खड़ी बोली को अपनाया, भाषा कं जन-सामान्य बनाने के लिए ग्रामीण बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया।

Badal Ko Ghirte Dekha Hai Class 11 Hindi Summary

कविता का संक्षिप्त परिचय :

‘बादल को घिरते देखा है’ कविता में प्रकृति का चित्रण किया गया है। इसमें पर्वतीय प्रदेश में बादल के घिरने के विभिन्न छ: दृश्य अंकित किए गए हैं। पावस की उमस को शान्त करने के लिए मान सरोवर में तैरते हंस, चकवा-चकवी का प्रणय-मिलन, हिमालय की गोद में सुवास के स्रोत खोजते हरिण, हिमालय की ऊँची चोटियों पर चलते भयंकर तूफान और बादलों का गरज-गरज कर भिड़ना, कोमल, मनोरम अँगुलियों को वंशी पर फेरते किन्नर-किन्नरियाँ ये सभी चित्र स्वयं में अत्यन्त आकर्षक एवं मनोरम हैं तथा कविता की प्रभावोत्पादकता में भी वृद्धि करते हैं। कविता की सरल चित्रमयी भाषा के कारण प्रकृति के जो चित्र अंकित हुए हैं वे अत्यन्त हुदयग्राही हैं। एक दृष्टि से देखें तो नागार्जुन ने कालिदास की परम्परा को आगे बढ़ाया है। यह कविता इसका प्रमाण है।

कविता का सार :

‘बादल को घिरते देखा है’, कविता में कवि ने पर्वतीय प्रदेश में बादलों के घिरने के दृश्यों के साथ-साथ अन्य दृश्यों का वर्णन भी किया है।

हिमालय पर्वत की बर्फ से ढकी चोटियों पर उड़ते हुए बादलों से मान सरोवर के कमलों पर मोतियों के समान ओस की बूंदें गिरती हैं। पावस ऋतु की उमस से बचने के लिए दूर-दूर से हंस आकर झीलों पर तैरते हैं। प्रातःकाल की सुनहरी धूप में सरोवर की हरी शैवाल पर रात्रि के बिछड़े चकवा-चकवी प्रणय-केलि करते दिखाई पड़ते हैं। अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की सुगन्ध पर मस्त होकर हिरण, सुगन्ध को खोजता फिरता है और न मिलने पर स्वयं पर झुंझलाता है। पर्वतों पर तूफान के समय बड़े-बड़े बादल के टुकड़े गरज कर परस्पर टकराते हैं। पर्वत प्रदेश में देवदार के वनों में मध्य लाल-सफेद भोज पत्रों से बनी कुटिया में मृग की छाल पर बैठे पर्वतीय युगल द्राक्षासव की मदिरा पीते हैं। द्राक्षासव के ये पात्र लाल चन्दन की तिपाई पर रखे रहते हैं। पर्वतीय स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के फूलों से स्वयं को सजाती हैं। वे मदिरा के नशे में मस्त होकर बाँसुरी जैसा वाद्ययंत्र बजाती हैं।

बादल को घिरते देखा है सप्रसंग व्याख्या

1. अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • अमल-धवल – निर्मल और सफेद
  • गिरि – पर्वत
  • शिखरों – चोटियों
  • तुहिन कण – ओस की बूँदें
  • मान सरोवर – हिमालय पर्वत पर स्थित हिन्दुओं का एक पवित्र स्थल
  • स्वर्णिम – सुनहरे

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता उनके काव्य संग्रह, ‘कविश्री’ से ‘संगृहीत है’। कवि ने यहाँ पावस ऋतु में पर्वतीय प्रदेश में बादलों के घिरने का मनोहारी चित्रण किया है। इन पंक्तियों में पर्वत की चोटियों पर बादलों के घिरने का स्वाभाविक चित्रण हुआ है ?

ब्याख्या : कवि एक बार पावस ऋतु में बर्फ से ढके हुए पहाड़ों को देखने गया। वहाँ उसने पवित्र एवं सफेद पर्वतों की चोटियों पर बादलों को घिरते हुए देखा। बर्फीले पर्वतों पर बादल जल की बूंदों के रूप में नहीं बरसते वहाँ तो वे मोती के समान छोटी-छोटी ठंडी ओस के कणों के रूप में पर्वत पर गिरते हैं। मानसरोवर झील में खिल रहे कमलों पर बादलों की बूंदों का मोती की तरह गिरना बहुत ही मनोहारी लगता है। पावस ऋतु में बादल पर्वत पर घिर आते हैं।

भाव सौन्दर्य : पर्वतीय प्रदेश में पावस ऋतु में घिर रहे बादलों का मनोहारी एवं स्वाभाविक चित्रण है। जल की बूंदें तापमान अत्यन्त कम होने के कारण जम जाती हैं तो उनका रंग मोती की तरह चमकदार व सफेद दिखाई देता है।

शिल्प सौन्दर्य : भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली है। लयात्मकता एवं गयात्मकता का गुण विद्यमान है। मार्धुय गुण है। चक्षु बिम्ब है। अनुप्रास एवं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है।

2. तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • तुंग – ऊँचा
  • श्यामल – काले
  • सलिल – जल
  • अमस – गर्मी
  • तिक्त मधुर – कड़वे और मीठे
  • विसतंतु – कमलनाल के भीतर स्थित कोमल रेशे या तंतु

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश ‘नागार्जुन’ द्वारा रचित कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से अवतरित है। कवि ने यहाँ हिमालय पर्वत पर स्थित नीले जल वाली झीलों का वर्णन किया है जिनमें कमलनाल के चुनने के लिए हंस तैरते रहते हैं।

ब्याख्या : कवि कहता है कि ऊँचे हिमालय पर्वत की रृंखलाओं पर छोटी-बड़ी कई झीलें हैं। उन झीलों का पानी श्याम और नीले रंग का दिखाई देता है। इन झीलों के पवित्र जल में मैदानी इलाकों एवं विभिन्न देशों से आ-आकर हंस तैरते दिखाई देते हैं। ये हंस यहाँ पर मैदानों की भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए आते हैं क्योंकि मैदानी इलाकों में झुलस देने वाली व व्याकुलता बढ़ा देने वाली गर्मी पड़ती है। हिमालय के ठंडे क्षेत्र में मैदानों से आने वाले हंस यहाँ आकर शीतलता का अनुभव करते हैं। गर्मी से दुःखी होकर ये हंस सरोवरों में उगे कमलों के खटृ-मीठे तन्तुओं का स्वाद लेते-लेते पर्वतों पर चले आते हैं। हंस यहाँ के सरोवरों में तैरते हुए मन को बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। हंस सरोवर के जल में तैरते रहते हैं और आकाश में बादल घिरते रहते हैं।

भाव सीन्दर्य : हिमालय की सुन्दरता का मनोरम वर्णन किया है। गर्मी से बचने के लिए हंस देश-विदेश से यहाँ आकर अपनी व्याकुलता दूर करते हैं।

शिल्प सौन्द्य : भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली है भाषा में लयात्मकता एवं चित्रात्मकता है। प्रकृति वर्णन का यथार्थ चित्रण है। चक्षु बिम्ब है। अनुप्रास एवं मानवीकरण अलंकार है।

3. कतु वसंत का सुप्रभात था
मंद्मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मुदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक दूसरे से बिरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकवी का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है
बाटल को घिरते टेखा है

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • सुप्रभात – शुभ-प्रभात
  • बालारुण – उगता हुआ सूर्य
  • मृदु – कोमल
  • निशाकाल – रात्रि का समय
  • चिर-अभिशापित – सदा से ही शाप ग्रस्त, दुःखी, अभागे
  • बेबस – विवश
  • क्रन्दन – चीख
  • शैवाल – काई की जाति की एक घास
  • प्रणय-कलह – प्यार भरी छेड़छाड़

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि ने वसन्त ऋतु के प्रातःकाल में सूर्य की सुनहरी धूप में झील के किनारे किसी पर्वतीय प्रदेश में विहार करते चकवा-चकवी का बिम्ब अंकित किया है। यहॉं वसंत ऋतु का मनोहारी चित्र प्रस्तुत हो रहा है।

व्याख्या : वसंत ऋतु का अत्यन्त शुभ प्रातःकाल है। धीमे-धीमे सुगन्धित वायु बह रही थी। उदित होते हुए सूर्य की मनोहारी लाल कोमल किरणें पड़ रही थीं। सूर्य की अगल-बगल में सूर्य के पड़ते लाल प्रकाश से सुनहरी हुए पर्वत की चोटियाँ थीं। एक-दूसरे से विरह में अलग-अलग रह कर ही सारी रात व्यतीत करनी होती है। प्रकृति का नियम है कि चकवा-चकवी रात के समय परस्पर इकट्ठे नहीं रहते वे बिछुड़ जाते हैं। बिछुड़ने से दुःख होता है। बिछुड़ना उनकी विवशता है। वे अपनी इस विवशता पर चीख-चीख कर विलाप करते हैं। वे प्रातः काल होने की प्रतीक्षा करते हैं कि कब सुबह हो और कब मिलन हो। प्रतीक्षा की घड़ियाँ लम्बी होती हैं। सुबह हुई। सूर्य की कोमल किरणें आस-पास की चोटियों पर पड़ रही थीं। जैसे ही सूर्य की किरणें शिखरों पर आने लगीं, चकवा-चकवी की विरह-वेला समाप्त हो गई। उनका चीत्कार बन्द हो गया। वे दोनों एक-दूसरे के निकट आकर उस सरोवर की काई रूपी हरी-दरी पर प्रेम-निवेदन करने लगे। तब मैंने बादलों की छाया के नीचे उनकी प्रेम भरी छेड़छाड़ को देखा है।

भाव सौन्दर्य : वसन्त ऋतु का मनोहारी चित्रण है। सूर्य उदय हो रहा है। प्रातःकालीन सूर्य की किरणों से पर्वत शिखर स्वर्णिम लग रहे हैं। चकवा-चकई का क्रंदन सूर्योदय होते ही बन्द हो गया है। अब वे प्यार-प्यार में झगड़ा कर रहे हैं।

शिल्प सीन्दर्य : भाषा संस्कृत निष्ठ है चित्रात्मक है बालारुण एवं शैवालों की हरी-दरी पर में रूपक अलंकार है। चक्षुबिंब प्रस्तुत हो रहा है। माधुर्य गुण है। शृंगार रस है।

4. दुर्गम बपृर्शानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठनेवाले
निज के ही उन्मादक परिमल
के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • दुर्गम – विकट, कठिन
  • शत-सहस्र – सैकड़ों-हजारों
  • अलख – अगोचर, अदृश्य
  • निज – अपने
  • परिमल – सुवास
  • कस्तूरी मृग – एक प्रकार का हिरण जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि ने पहाड़ी प्रदेशों में बहने वाली सुवासित वायु के बहने का बड़ा आकर्षक चित्र अंकित किया है।

व्याख्या : कवि कहता है कि हिमालय पर्वत की चोटियों पर पहुँचना बहुत मुश्किल है वे बर्फ से आच्छादित रहती हैं। हिमालय की इन बर्फीली चोटियों पर कस्तूरी मृग पाए जाते हैं। यहाँ ये सीधे-साधे कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि में स्थित अदृश्य कस्तूरी से उठने वाली सुवास के पीछे उसे प्राप्त करने के लिए पागल होकर दौड़ते हैं परन्तु वे इस सुवास को समझ नहीं पाते कि यह कहाँ से आ रही है, तो ये अपने ऊपर ही झुंझलाते हैं। कवि ने हिमालय पर्वत पर इन कस्तूरी मृगों को भागते व बादल को घिरते देखा है।

काव्य सौन्दर्य : हिमालय की दुर्गम एवं बर्फीली चोटियों का स्वाभाविक चित्रण है। कस्तूरी मृग का सुवास को पाने के लिए दौड़ना एवं अपने पर झुंझलाने का स्वाभाविक वर्णन हुआ है।

शिल्प सौन्दर्य : संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली का प्रयोग है। चित्रात्मक शैली का अनुसरण किया गया है। ‘हो-होकर’, एवं ‘तरल तरुण’ में अनुप्रास अलंकार है। रूपक की छटा विद्यमान है। चक्षु बिम्ब प्रस्तुत हो रहा है।

5. कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहौँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का
ढूँढा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी केलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है
बादल को घिरते देखा है

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • कुबेर – धन का स्वामी, देवताओं का कोषाध्यक्ष
  • अलका – कुबेर की नगरी
  • कालिदास – संस्कृत साहित्य के एक प्रसिद्ध कवि
  • व्योम-प्रवाही – आकाश में घूमने वाला
  • मेघदूत – कालिदास का एक प्रसिद्ध खंड काव्य

प्रसंग : प्रस्तुत पद श्री नागार्जुन द्वारा लिखित ‘बादल को घिरते देखा है’ कविता से लिया गया है। पर्वत पर उमड़ते बादलों को देखकर कवि नागार्जुन को महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध काव्य ‘मेघदूत’ का स्मरण हो आता है जिसमें पर्वतीय प्रदेश में निर्वासित एक यक्ष राज की कथा है। अतः कवि इस क्षेत्र में उस कथा के स्थानों और पात्रों को खोजने लगता है, परन्तु उसे कुछ भी नहीं मिल पाता। अतः वह कहता है :

ब्याख्या : कवि हिमालय पर्वत की बर्फीली चोटियों पर बहुत घूमा परन्तु पौराणिक कथाओं में प्रचलित न तो कहीं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर का कुछ पता चला न उनकी नगरी अलका का कोई चिन्ह दिखाई दिया। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य मेघदूत में जिस आकाश गंगा एवं मेघदूत की घटनास्थली का वर्णन किया है उसका भी कुछ पता नहीं चला। कवि का मानना है, लगता है यह सब केवल कवि कल्पना या कवि सत्य ही था। लगता है जिस मेघदूत का कालिदास ने वर्णन किया है वह यहीं कहीं बरस गया होगा। कवि हिमालय पर छाए बादलों के बारे में बताते हुए कहता है कि मैंने तो भीषण सर्दी में कैलाश पर्वत के शिखरों पर भयंकर तूफान के समय इन बादलों को भयावह गर्जना के साथ आपस में टकरा-टकरा कर गरजते-बरसते हुए देखा है जो मैंने देखा वह कोई कवि कल्पना नहीं बल्कि वास्तविकता थी।

भाव सौन्दर्य : पर्वत प्रदेश का अत्यंत मनोहारी चित्र प्रस्तुत हुआ है। बादलों के परस्पर मिलन का हृदयग्राही चित्रण हुआ है। कवि ने पौराणिक कथाओं का उल्लेख किया है।

शिल्प सौन्दर्य : संस्कृत निष्ठ भाषा का प्रयोग है। चित्रात्मक शैली का प्रयोग है। नाद सौन्दर्य एवं चक्षुबिम्ब है। ‘कालिदास का’ ‘कवि-कल्पित’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘गरज-गरज में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। प्रसाद गुण है।

6. शत-शत निर्दर-निर्मरणण-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फलों से कंतल को साजे,
इन्द्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखो सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाघ बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखोंवाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • शत-शत – सैकड़ों
  • निर्झर-निर्झरणी – झरनों और नदियों
  • मुखरित – फैले हुए
  • कानन – बाग-वन
  • शोणित – लाल
  • धवल – सफेद
  • कुंतल – बाल
  • इन्द्रनील – नीलम, नीले रंग का कीमती पत्थर
  • कुवलय – नील कमल
  • शतदल – कमल
  • वेणी – चोटी
  • रजत-रंचित – चांदी से बना हुआ
  • मणि खचित – मणियों से जड़ा हुआ
  • पान पात्र – मदिर का पात्र, सुराही
  • द्राक्षासव – अंगूरों से बनी सुरा
  • लोहित – लाल
  • त्रिपदी – तिपाई
  • निदाध – ग्रीष्म ऋतु
  • उन्मद – नशीला
  • मदिरारुण – शराब से लाल हुई ऑखें
  • किन्नर – देवलोक की एक कलाप्रिय जाति

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादलों को घिरते देखा है’ कविता से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि ने किन्नर-किन्नरियों के रहन-सहन, वेश-भूषा, साज सज्जा और उनके उन्मुक्त जीवन का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या : कवि का कहना है कि हिमालय पर्वत की दुर्गम बर्फीली चोटियों से सैकड़ों झरनें और छोटी बड़ी नदी निकल रही हैं। झरनों एवं नदियों के शोर से पूरा बन प्रदेश मुखरित हो उण। है। यहाँ देवदार के जंगल हैं। यहाँ रहने वाले किन्नर-किन्नरियों ने सफेद एवं लाल भोजपत्र से अपने लिए सुन्दर कुटियों का निर्माण कर रखा है। किन्नरियों ने अपने बालों को रंग बिरंगे और सुगंधित पुष्मों से सजा रखा है। उन्होंने अपने गले में इन्द्रनील अर्थात् नीलम (नीले पत्थर) की माला पहन रखी है। उनकी गर्दन शंख के समान लम्बी व सुन्दर है ऐसा लगता है जैसे किसी कारीगर ने बड़े यत्न से गढ़ी हो।

उनके कानों में नील कमल लटक रहे हैं। उनके सामने चन्दन की लकड़ी से बनी तिपाई रखी है जिस पर चाँदी से बने हुए सुन्दर चित्रकारी से युक्त सुरापात्र रखे हुए हैं। उन पात्रों में अंगूरों से बनी हुई शराब भरी हुई है। वे सभी किन्नर और किन्नरियाँ बाल कस्तूरी मृग की खाल से बने आसन पर पालथी मारकर बैठे हुए सुरापान का आनन्द ले रहे हैं। मदिरापान के कारण उनकी आँखें लाल हो रही हैं। वे सब अपनी मस्ती में चूर हो रहे हैं। वे अपनी कोमल एवं मनोरम अँगुलियों से बाँसुरी बजा रहे हैं। कवि ने हिमालय पर्वत के बनों में किन्नर-किन्नरियों को बड़े ही उन्मादक क्षणों में देखा है साथ ही वहाँ बादल को भी घिरते देखा है।

भाव सौन्दर्य : पर्वतीय प्रदेश में प्रवाहित होने वाले झरनों एवं नदियों का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया गया है। किन्नर-किन्नरियों के परिवारों का यथार्थ एवं मनोरम चित्र प्रस्तुत हुआ है।

शिल्प सौन्दर्य : संस्कृत निष्ठ भाषा का सुन्दर प्रयोग है। चित्रात्मक शैली है। चक्षु बिम्ब, माधुर्य गुण है। शंख सरीखे में उपमा अलंकार है। ‘शत-शत’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। ‘निईर-निझरी’, ‘रजत-रचित’, ‘नरम-निदाघ’, ‘मृदुल मनोरम’ में अनुप्रास अलंकार है। रूपक अलंकार की छटा सर्वत्र बिखरी हुई है।

Hindi Antra Class 11 Summary