True Friend Essay In Hindi | सच्चा मित्र पर निबन्ध

True Friend Essay In Hindi सच्चा मित्र पर निबन्ध
सच्चा मित्र संकेत बिंदु:

  • मनुष्य सामाजिक प्राणी
  • सच्चा मित्र
  • सच्चे मित्र के उदाहरण
  • मित्र बनाना

मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। उसे ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिसके समक्ष वह अपने मन के भाव प्रकट कर सके। वह जिसके साथ सुख के आनंद भरे क्षण व्यतीत कर सके। उसके दुःख और कष्टमय जीवन में जो उसका सहायक हो। वह परिवार के सदस्यों के साथ जी सकता है परंतु मन के समस्त भावों को उन पर प्रकट नहीं कर सकता। वह केवल मित्र के साथ ही मन की भावनाएँ प्रकट कर सकता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में मित्र बनाता है।

मित्र को भाई से भी बढ़कर माना जाता है। सच्चे मित्र के विषय में प्रसिद्ध विद्वान भर्तृहरि ने सत्य ही लिखा है-

पापन्निवारयति, योजयते हिताय
गुह्यानि गुह्याति गुणान प्रकट करोति।
आपद्गतं च न जहाति, ददाति काले,
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदंति संतः।

सच्चा मित्र पापकर्म करने से रोकता है। कल्याण के कार्यों में प्रवृत्त करता है। दोषों को छिपाता है। गुणों को प्रकट करता है। विपत्ति के समय साथ नहीं छोड़ता। आवश्यकता पड़ने पर सहायता करता है।

सच्चा मित्र अपने मित्र का हितैषी होता है। वह अपने मित्र को उचित परामर्श देकर सुपथ पर ले जाता है। वह मित्र के अवगुणों को दूर करता है। उसका एकमात्र लक्ष्य मित्र को अधिक-से-अधिक लाभ पहुंचाना होता है। मित्रता पावन संबंध है। इसमें किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं होता।

बाल्यकाल से ही मित्र बनाने की भावना जाग्रत होने लगती है। बालक-बालिकाएँ अपनी आयु के मित्र और सखियाँ बनाते हैं। कक्षा के सहपाठियों को मित्र बनाते हैं। मित्र बनाने की प्रक्रिया जीवनपर्यंत चलती रहती है। मित्र अवश्य बनाने चाहिए परंतु मित्र का चयन सावधानी से करना चाहिए। मित्र बनाने से पूर्व उसके गुणों, अवगुणों, स्वभाव और रुचियों को जान लेना चाहिए। उसकी आर्थिक स्थिति समान स्तर की होनी चाहिए। सच्चा मित्र नाविक के समान होता है जो मँझदार में फँसी नाव को किनारे पर लगा देता है।

श्री राम सीता की खोज करने निकले तो उन्होंने सुग्रीव से मित्रता की। श्री राम ने सुग्रीव को बालि के भय से मुक्त कराया तो सुग्रीव ने हनुमान के द्वारा सीता की खोज की। महाकवि तुलसीदास ने इस प्रसंग में सच्चे मित्र को परिभाषित करते हुए ‘रामचरितमानस’ में लिखा है-

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनहि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
विपत्तिकाल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

श्री कृष्ण और सुदामा सहपाठी थे। श्री कृष्ण राजा बन गए। सुदामा निर्धनता का कष्टमय जीवन व्यतीत करने लगा। जब सुदामा कृष्ण के पास गया तो श्री कृष्ण ने मित्रता का निर्वाह करते हुए सुदामा को गले से लगाया। उसे राजसिंहासन पर अपने साथ बिठाया। उसका मान-सम्मान किया। उसके भवन को महल-सा भव्य बनवाकर उसे निर्धनता के अभिशाप से मुक्त कर दिया। कर्ण ने मृत्युपर्यंत दुर्योधन का साथ देकर मित्रता का निर्वाह किया था। सच्चा मित्र स्वयं कष्ट सह लेता है परंतु अपने मित्र पर आँच नहीं आने देता। वह मित्र के लिए छायादार वृक्ष बनकर उसे धूप और गर्म हवाओं से बचाता है। मित्रता की कसौटी विपत्तिकाल में होती है-

विपत्ति कसौटी जे कसै सोई साँचे मीत।

सच्चा मित्र वह होता है जो विपत्ति आने पर दृढ़ चट्टान के समान मित्र का साथ देता है। वह मित्र के सभी प्रकार के कष्टों को बाँट लेता है। प्रसिद्ध साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-‘जीवन में मित्रों की भीड़ एकत्र करने से श्रेष्ठ होता है एक ही मित्र बनाना। वह सच्चा मित्र होना चाहिए।’

सच्चे मित्र पर आँख मूंदकर विश्वास करना चाहिए। संदेह मित्रता का नाश कर देता है। मित्रता की दीवार में संदेह की तनिक-सी चोट से दरार पड़ जाती है।

मित्रता भावनाओं में बहकर नहीं अपितु भली-भाँति सोच-विचारकर करनी चाहिए। प्रायः देखा जाता है कि लोग बिना-सोचे समझे मित्र बनाते चले जाते हैं। ऐसे लोगों को बाद में पछताना पड़ता है। परखकर ही मित्र बनाना चाहिए। सच्चा मित्र अमूल्य धरोहर होता है। सौभाग्यशालियों को ही सच्चे मित्र मिलते हैं। ऐसे मित्रों पर गर्व करना चाहिए।