भारतीय संस्कृति निबंध – India Culture Essay In Hindi

भारतीय संस्कृति पर छोटे तथा बड़े निबंध (Essay on India Culture In Hindi)

उपभोक्तावाद और भारत की संस्कृति – Consumerism and Culture of India

रूपरेखा–

  • प्रस्तावना,
  • भारत की संस्कृति,
  • पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव,
  • उपभोक्तावाद,
  • उदारवाद और आर्थिक सुधार,
  • उपसंहार।

साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।

प्रस्तावना–
संसार में अपने लिए तो सभी जीते हैं, किन्तु क्या इसको जीवन कहा जा सकता है? जो दूसरों के हितार्थ अपना सुख–चैन त्याग सकता है, वास्तविक जीवन तो वही जी रहा है। व्यक्ति के हित से सामाजिक तथा राष्ट्रीय हित को ऊपर मानना ही समाजवाद है। समाजवाद में संग्रह नहीं त्याग–बलिदान को ही महत्त्वपूर्ण माना गया है। ‘महाभारत’ में समाजवाद की धारणा को इस प्रकार व्यक्त किया गया है–

त्यजेत् एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामम् जनपदस्यार्थे , आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।।

कुल के हित के लिए एक व्यक्ति, ग्राम के हितार्थ एक कुटुम्ब, जनपद के हित के लिए ग्राम के हितों को तथा आत्म– हित के लिए पृथ्वी को ही छोड़ देना उचित बताया गया है।

भारत की संस्कृति–
भारतीय संस्कृति संग्रह नहीं त्याग की शिक्षा देती है। सत्य, अहिंसा, शान्ति, जीव रक्षा, क्षमा उसके आदर्श हैं। सभी प्राणियों को अपने समान देखने वाले को ही भारत में पण्डित माना गया है-

आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः।

विद्या सभी को सुशिक्षित और ज्ञानी बनाने तथा धन दूसरों को दान देने के लिए होता है। इस प्रकार परमार्थ ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य है। यहाँ व्यापार धन कमाकर धनवान बनने के लिए नहीं किया जाता, समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। भारतीय संस्कृति में शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है, उत्पीड़न के लिए नहीं।

पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव–
भारतीय संस्कृति आज अपना मूल स्वरूप खोती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति ने उसको दूषित कर दिया है। उसने त्याग–बलिदान, परमार्थ के आदर्श से हटकर स्वार्थ को अपना लिया है। भारत में भी अब खाओ, पीओ और मौज करो का आदर्श घर करता जा रहा है।

अपना हित अपना सुख ही महत्त्वपूर्ण है। सुख के लिए धन आवश्यक है। ‘धनात् धर्मः ततः सुखम्’ के उपदेश में से ‘धर्मः’ गायब हो गया है। अब तो धन से सुख मिलता है। धर्म की आवश्यकता नहीं। अतः किसी भी तरीके, भ्रष्टाचार, परशोषण, ठगी, लूट आदि से धन कमाना आज बुरा नहीं माना जाता।

उपभोक्तावाद–
उपभोक्तावाद क्या है? आज विश्व की अर्थव्यवस्था पूँजी’ केन्द्रित है। उद्योग–व्यापार का लक्ष्य अधिक से अधिक धनोपार्जन है। इस धनोपार्जन का जोर माध्यम पर नहीं है, साधन उचित या अनुचित कोई भी हो सकता है, बस, वह धन कमाने में सहायक होना चाहिए।

उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो उद्योग में हुए उत्पादन का प्रयोग करता है। उसको अधिक से अधिक उत्पादन खरीदने को प्रोत्साहित किया जाता है। पुराने आदर्श आवश्यकताएँ कम से कम रखने के स्थान पर आज अधिक–से–अधिक आवश्यकताएँ रखना और उनकी पूर्ति करना सुखी होने के लिए जरूरी है। ऐसी स्थिति में इन्द्रिय दमन और मन के नियन्त्रण की बात ही बेमानी है।

उपभोक्तावाद का आधार बाजार है, अत: इसको बाजारवाद भी कहा जा सकता है। उद्योगों के विशाल मात्रा में हुए उत्पादन के लिए बाजार खोजना उत्पादक का लक्ष्य है। इसके लिए खरीददार की जेब में पैसा होना जरूरी है तथा उस पैसे को उन वस्तुओं के क्रय में खर्च होना भी जरूरी है जिनको उत्पादक ने बाजार में उतारा है। इसके लिए उत्पादक कम्पनियाँ तथा बैंकें ऋण भी देती हैं। इस प्रकार साधारण जन (उपभोक्ता) का दोहरा शोषण हो रहा है।

उदारवाद और आर्थिक सुधार–
उदारवाद या आर्थिक सुधार पूँजीवाद का नया स्वरूप है। सरकार की यह आर्थिक नीति ऊपर से बडी जन हितकारी और सन्दर लगती है। हम किसके प्रति उदारता दिखा रहे हैं और किस अर्थनीति में सुधार कर रहे हैं? क्या इससे पूर्व प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की आर्थिक नीति दोषपूर्ण थी? वास्तविकता यह है कि हम देश के गरीबों, किसानों, मजदूरों को आर्थिक सुधार का लालीपाप दे रहे हैं।

हम प्रत्येक क्षेत्र में, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य में निजीकरण को बढ़ावा देकर जनता के शोषण का मार्ग खोल रहे हैं। इस नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र को जानबूझकर कमजोर तथा अनुपयोगी बनाया जा रहा है तथा उसके समानान्तर निजीकरण के नाम पर शोषण का मजबूत दुर्ग बनाया जा रहा है।

निजीकरण के अन्तर्गत चलने वाले शिक्षालयों में गरीबों के बच्चे पढ़ ही नहीं सकते, अस्पतालों में गरीब रोगी इलाज करा नहीं सकते। अतः इस दोहरी व्यवस्था से लाभ पैसे वालों को ही होने वाला है। सरकार कम से कम 100 दिन के रोजगार की गारन्टी देती है। यह कौन बतायेगा कि गरीब आदमी अपने परिवार को शेष 265 दिन क्या खिलायेगा?

इस तरह आर्थिक सुधार तथा उदारवाद के नाम पर पूँजीपतियों को और अधिक सम्पन्न तथा गरीब को और अधिक गरीब बनाया जा रहा है। अब तो कृषि क्षेत्र को भी सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश के लिए खोल दिया है। किसान द्वारा अपने ही खेत पर दसरों के इशारे पर मजदूरी करने के लिए सरकार ने व्यवस्था कर दी है। सरकार ने खाद के दाम बढ़ा दिये हैं।

भारत के लोगों को सहायता (सब्सिडी) देने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं, किन्तु बजट में विदेशी कम्पनियों को शुल्क में तथा टैक्स में रियायत देने के लिए अपार धनराशि की व्यवस्था है। कोई दुर्घटना होने पर इन विदेशी कम्पनियों के लोगों को बचाने का काम भी सरकार करती है जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में हो चुका है।

यह नई पँजीवादी अर्थव्यवस्था भारतीय जनता (90 प्रतिशत) के शोषण का कारण है। इससे भारतीय समाज में आर्थिक असन्तुलन बढ़ेगा। गरीब और अधिक गरीब तथा अमीर और ज्यादा अमीर होगा। यह नीति शत–प्रतिशत अभारतीय है तथा भारत की संस्कृति के भी विपरीत है। ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध कस्विद्धनम्’ की भारतीय नीति के यह पूर्णत: विरुद्ध है।

उपसंहार–
भारत एक जनतांत्रिक देश है। जनतंत्र में जनता का हित ही सर्वोपरि होता है। जनता किसी भी देश की जनसंख्या के 90–95 प्रतिशत लोगों को कहते हैं। इनमें किसान, मजदूर, नौकरीपेशा, छोटे व्यापारी आदि लोग होते हैं। जब तक इनके हित को महत्व नहीं मिलेगा, तब तक कोई आर्थिक नीति कारगर नहीं हो सकती। विदेशी कर्ज से सम्पन्नता का सपना देखना बुद्धिमानी नहीं है। गांधीजी पागल नहीं थे जो स्वदेशी उद्योगों के पक्षधर थे। गांधीजी के अनुयायी नेताओं को कम से कम इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए।