बिनु भय होय न प्रीति पर निबंध – Essay On Binu Bhaya Hot Na Preet In Hindi
प्राय: कहा जाता है कि मिमियाते बकरे कसाई के हृदय में परिवतन नहीं कर सकते और घिघियाते मनुष्य दुष्टों के हृदय में करुणा नहीं जगा सकते हैं। दया-ममता का उपदेश कोई नहीं सुनता है। भय के बिना तो प्रीति का राग नहीं सुना जा सकता। संसार में चमत्कार को नमस्कार किया जाता है।
भय बिनु होइ न प्रीति (Binu Bhaya Hot Na Preet) – Fear without preaching
आज मनुष्य की विनम्रता को उसका संस्कार नहीं, अपितु उसकी कमजोरी समझी जाने लगी है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर विचार किया जाए कि भारत की विनम्रता या भारत की अहिंसावादी नीति को इसकी कमजोरी समझ कर पाकिस्तान कभी सीमा-उल्लंघन तो कभी आतंकवादी-घुसपैठ या अन्य हरकतें करता रहता है।
उसकी इस दुष्प्रवृत्ति में निरंतर वृद्ध होती जा रही है जिसका मुख्य कारण राजनैतिक इच्छाशक्ति व दृढ़ता में कमी है। ऐसी ही प्रवृत्ति के प्रतीक समुद्र से तीन दिन तक श्री राम रास्ता देने के लिए विनम्रतापूर्वक अनुरोध करते रहे परंतु समुद्र पर कोई असर नहीं पड़ा। फलस्वरूप उनका पौरुष धधक उठा और उन्होंने लक्ष्मण से अग्निबाण लाने के लिए कहा-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब , भय बिनु होई न प्रीति।
लक्ष्मण बाणा सरासन आना
सोखौं बारिधि बिसिखि कृसाना।
अन्याय का विरोध न होने पर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे वह इतना प्रचार-प्रसार पा लेता है कि फिर उसको रोकना कठिन हो जाता है और जन-जीवन को इतना संत्रस्त कर देता है कि लोगों का जीवन जीना दूभर हो जाता है। समयोपरांत प्रबुद्ध-वर्ग भी अन्यायी का मुँह कुचलने की हिमायत करता है।
वह चाहता है कि येन-केन प्रकारेण अन्यायी का सिर इस प्रकार कुचल दिया जाए कि वह फिर कभी सिर न उठा सके। न्याय और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए भी उचित है कि अन्यायी का प्रतिकार दंड से किया जाए, क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं।
भारतीय समाज अपनी घिघियाने की प्रवृत्ति और निरीहता को प्रदर्शित कर शत्रुओं को आक्रमण के लिए आमंत्रित करता रहा है। इतिहास-प्रसिद्ध घटना ‘सोमनाथ’ के मंदिर की प्रतिष्ठा लोगों की प्रार्थना, चीख और करुण-क्रदन के कारण जाती रही।
आक्रांता सबको पद्दलित कर लूटकर चला गया। लोगों की चीख-पुकार ने आक्रांता के कार्य को सरल तथा सुगम बना दिया। इसलिए अन्याय के सम्मुख सिर झुकाकर अपना स्वत्व छोड़ देना मनुष्य धर्म नहीं है, अपितु कायरता ही है।
मनुष्य कुछ हद तक तो सामान्य स्थितियों तक अन्याय को सहन कर सकता है, किंतु अन्याय सिर पर चढ़कर बोलने लगता है या आसमान को छूने लगता है तो सामान्य आदमी भी प्रतिकार करने के लिए खड़ा हो जाता है। अंत: हृदय से यही अवाज निकलती है कि अन्याय को सहन करना कायरतापूर्ण अधर्म है और अन्याय का प्रतिकार करना मानव-धर्म है।
अन्याय को सहन कर लेने से अपराधी के अपराध बढ़े हैं, घटे नहीं हैं। असहाय अवस्था में अन्याय के प्रति सहिष्णुता विवशता है, किंतु निरंतर विवश बने रहना निष्क्रियता और दब्बूपन ही है। अन्याय का विरोध न्याय ही कहा जा सकता है। न्याय का पक्ष मनुष्य को युद्ध की स्थिति तक भी ले जा सकता है।
महाभारत का युद्ध अन्याय के विरोध के लिए ही तो था। अपराधों को सहन करना या उसका विरोध न करना, अनदेखा करना उसको बढ़ावा देना है। कभी-कभी तो इतना दुष्परिणाम देने वाला होता है जिसका खामियाजा सदियों तक भुगतना पड़ता है।
अंग्रेजों का प्रतिकार न होने से सदियों तक अंग्रेजों के पैरों तले भारतीय कुचले जाते रहे। अन्याय का विरोध उचित है, किंतु उसके विरोध के लिए मजबूत साहस की आवश्यकता होती है। मानव का मनोबल अन्याय और अन्यायी को धराशायी करने में सहायता देता है।
दुष्ट की दुष्टता तब तक विराम नहीं लेती है जब-तक उसका मुकाबला डटकर नहीं किया जाता है। हालाँकि मुकाबला करने के लिए मनोबल और उत्साह की आवश्यकता होती है। दुष्ट तब तक भयावह दिखाई देता है जब तक उसके शरीर पर जख्म नहीं होता है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गाँधी के उत्साह और सकारात्मक सोच ने पाक की रोज बढ़ती हुई उच्छुखलता पर जो निशान दिए, उसके बाद दशकों तक पाकिस्तान ने कोई गलती नहीं की। दुष्ट-जनों को सबक सिखाने के लिए स्वयं सामथ्र्यवान होना बहुत जरूरी है। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि पैर में मजबूत जूता होने पर काँटे को कुचलते हुए चलो जिससे किसी और के न चुभ जाए और जूता कमजोर है तो रास्ता बदल कर चले जाना ही उचित है। शस्त्रों से सुसज्जित होने पर भी साहस और मनोबल के अभाव में बड़े-बड़े आततायी उदित होकर स्वयं अस्त हो जाते हैं। पाक के साथ ऐसा ही हुआ था कि अमेरिका से खैरात में मिले युद्ध-विमानों के होते हुए भी प्राकृतिक मनोबल के अभाव में भारत-पाक युद्ध के दौरान मुँह की खाकर रह गया। दार्शनिकों का विचार है कि दुष्टों के साथ प्रीति तभी तक सार्थक होती है जब तक वे भय के सानिध्य में रहते हैं।
परिस्थितियों का आकलन करते हुए दुष्ट की दुष्टता का प्रतिकार करना सामाजिक और पुण्यात्मक कृत्य है। ऐसा न होने पर दृष्ट की दुष्टता समाज और राष्ट्र के लिए त्रासदी बन जाती है और इतनी बड़ी त्रासदी कि जिसकी बहुत बड़ी कीमत मानव समाज को चुकानी पड़ती है। जीवन कठिन हो जाता है। मानवता, सहिष्णुता कलकित हो जाती है। प्रमाणस्वरूप इतिहास के पृष्ठों का अवलोकन करें तो चंगेज, तैमूर, मुसोलिनी आदि के रूप में ये दुष्ट शक्तियाँ आम नागरिक को समय-समय पर परेशान करती रही हैं। तत्कालिन मानव-समाज द्वारा प्रतिकार न करना ही इसका मुख्य कारण रहा है। कलम का सिपाही होने के नाते हमारे देश के कवियों व लेखकों ने इन दुष्ट लोगों के विरोध में अपनी लेखनी के माध्यम से जनमत तैयार करने का काम किया है। उनका कहना है कि क्षमाशील होना अच्छी बात तब है जब आप समर्थवान है अन्यथा आप निरीह हैं। यदि आप समर्थवान हैं फिर भी विरोध नहीं करते हैं तो भी आपको कायर समझा जाएगा। दिनकर जी ने भी कहा है
क्षमा शोभती उसी भुजंग को
जिस के पास गरल हो।