What is Wrong with Indian Films Summary in English and Hindi by Satyajit Ray

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What is Wrong with Indian Films Summary in English and Hindi

What is Wrong with Indian Films Summary in English

The cinema is one of the most significant phenomena of these days. It has great command over every creative expression.

The cinema combine’s the functions of poetry, music, painting, drama, and architecture. Film production in India started in 1907. Now India has become the second after Hollywood in film production. But the author questions here.

Why our films are not shown abroad? He himself answers that they are ashamed of their films. Indian films do not deal with honest and they lack maturity. Each and every worker or the technician blames each other.

The author considers the American film a bad one. Most of the Indian films are replete with such ‘Visual dissonances’. So he advises that the Indian cinema needs today is not more gloss but more imagination, more integrity and a more intelligent appreciation of the limitations of the medium.

What is Wrong with Indian Films Summary in Hindi

आज सिनेमा के क्षेत्र में होने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों में एक यह है कि इसने एक बहुत ही प्रभावशाली और बहुआयामी कला का रूप ले लिया है. आज सिनेमा उस सम्मान का . अधिकार है जो साहित्य और कला की रचनात्मक अभिव्यक्ति को दिया जाता है।

भारत में फिल्म का बनना 1907 ई० में शुरू हुआ और पहली फीचर फिल्म 1913 में बनी। यह सत्य है कि बड़ी संख्या में फिल्म निर्माण करने में भारत, हॉलीवुड के बाद दूसरे पायदान पर है। लेकिन हमारे फिल्मों में गुणवत्ता की कमी है। इसलिए कोई भी भारतीय फिल्म हर दृष्टि से वाहवाही नहीं पा सकी, क्योंकि हमने ईमानदारीपूर्वक प्रयास नहीं किया। इस परिपक्वता की कमी के कई कारण हो सकते हैं। निर्माता कहेंगे कि जनता इसी प्रकार की चीज पसन्द करती है, टेकनीशियन यंत्रों को दोष देंगे, निर्देशक भी स्थितियों को मुख्य कारण मानेंगे। ऐसा लगा कि संबद्ध नाटकीय पैटर्न की मौलिक अवधारणा को गलत ढंग से ग्रहण किया गया। अक्सर हरकत को कार्य के बराबर किया गया और कार्य को भावनात्मक नाटक के बराबर । संगीत की समरूपता विफल हो गी क्योंकि भारतीय संगीत की रचना खेल के साथ होती है।

अमेरिकी सिनेमा का भारतीय फिल्म पर अप्रत्यक्ष प्रभाव था, यहाँ तक कि मौलिक भारतीय कहानी पर भी। पृष्ठभूमि का संगीत शोरगुल भरा नाच-गानों से भरा रहता है। औसत अमेरिकी फिल्म हमारे जीवन-ढंग से मेल नहीं खाती । वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में हॉलीवुड की उच्च तकनीकी प्राप्त करना असंभव होता । भारतीय सिनेमा को अधिक चमक की जगह अधिक कल्पना, : अधिक स्थिरता और अधिक बौद्धिक मूल्यांकन की आवश्यकता है।

भारत के पास फिल्म निर्माण प्राथमिक यंत्र हैं लेकिन हमारे सिनेमा को किसी और चीज .. की अपेक्षा भारतीय शैली, भाषा अभिव्यक्ति और सिनेमा के कलात्मक प्रतीकों के अध्ययन की आवश्यकता है।

अधिकांश भारतीय फिल्में ध्वनियों के मिश्रण से भरे होते हैं। भारतीय फिल्म को एक लय की ताल में अभिनय करने का मार्ग दर्शन करना चाहिए और भारतीय जीवन के आधारभूत पहलू ‘की खोज करनी चाहिए।

भारतीय सिनेमा से शैली और कथावस्तु का तेजी से सरलीकरण करके अस्तित्व में बने रहने की आशा की जाती है। सभी वर्तमान क्रियाएँ इसके विरुद्ध हैं। कुछ चीजें हैं जो विशिष्ट शैली के विकास के मार्ग में बाधक हैं, जैसे-बिना पर्याप्त योजना के निर्माण शुरू करना, बिना कोई शूटिंग की लिपि का निर्माण करना, कथावस्तु को तोड़ने-मरोड़ने की प्रवृत्ति, साधारण अनिर्दिष्ट – कहानी, असंगीतमय परिस्थितियों में संगीत भर देना और कमरे के अन्दर शूटिंग करने की आदत।

वर्तमान की नाममात्र की फिल्मों में प्रगतिशील सोच की दुर्लभ झाकियाँ मिलती हैं। ‘ईप्टा’ की ‘धरती के लाल’ साधारण विषय ईमानदारी और तकनीकी दक्षता का एक उदाहरण है। शंकर की ‘कल्पना’ फिल्मी गति की पकड़ और परंपरा के प्रति सम्मान दिखाली है।

जीवन स्वयं सिनेमा का कच्चा माल है। यह अविश्वासनीय है कि भारत जैसा देश जिसने अनेक चित्रकारी, संगीत और कविता को प्रेरणा दी। फिल्म निर्माता को प्रेरित करने में असफल होता है। उसे केवल अपनी आँखें और अपने कान (दिल-दिमाग) खोले रखने की जरूरत है। उसे ऐसा करना चाहिए।