पहली बूँद Class 6 Saransh in Hindi
Pehli Boond Class 6 Summary
पहली बूँद कविता का सारांश
कवि बताता हे कि वर्षा ऋतु के पहले दिन की बूँद धरती पर आकर गिरी। इससे धरती के अंदर समाए बीज से अंकुर फूटकर बाहर निकल आया। ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो नए जीवन ने अंगडाई ली हो।
वर्षा के आगमन के साथ धरती की प्यास बुझ गई। इसके सूखे होठों पर बूँद अमृत बनकर गिरी। धरती की घास भी ऐसे मुस्कराने लगी जैसे धरती की रोमोवली पुलकति हो रही हो।
आसमान में समुद्र (वर्षा जल) बिजलियों के सुनहरे पंख लगाकर उड़ने लगा। बादल ऐसे गरज रहे हैं जैसे नगाड़े बज रहे हों। बादल तो धरती की जवानी आने की तरह धरती पर पहली बूँद बरसा रहे हैं।
इस समय आसमान नीली आँखों-सा दिखाई दे रहा है। उसकी काली-काली पुतली से बादल जल बरसा रहे हैं। ये आँसू करुणा बनकर धरती की प्यास को बुझा रहे हैं।
अब तक जो धरती बूढ़ी-सी प्रतीत हो रही थी, वही अब हरी-भरी बन गई है। अब वह जवान हो गई है। वह ललचा रही है। यह सब धरती पर आई पहली बूँद का ही चमत्कार है।
पहली बूँद कवि परिचय
इस कविता के रचयिता गोपालकृष्ण कौल हैं। उनका जन्म 1923 ई. हुआ था। कौल बाल साहित्यकार है। उन्होंने बच्चों के लिए देश-प्रेम, प्रकृति-चित्रण और जीव-जंतुओं से संबंधित अनेक कविताओं की रचना की है। इनकी रची कविताएँ मनोरम हैं। इनकी एक कविता काफ़ी प्रसिद्ध है-” देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।” उनका निधन 2007 ई. में हुआ।
पहली बूँद कविता का हिंदी भावार्थ
Pehli Boond Class 6 Explanation
1. वह पावस का प्रथम दिवस जब,
पहली बूँद धरा पर आई।
अंकुर फूट पड़ा धरती से,
नव-जीवन की ले अँगड़ाई।
धरती के सूखे अधरों पर,
गिरी बूँद अमृत-सी आकर।
वसुंधरा की रोमावलि-सी,
हरी दूब पुलकी-मुसकाई।
पहली बूँद धरा पर आई॥
शब्दार्थ : पावस = वर्षा ऋतु (rainy season)। प्रथम = पहला (first)। दिवस = दिन (day)। धरा = पृथ्वी (earth)। अंकुर = पौधे का प्रारंभिक रूप (sprout)। नव = नया (new)। अधर = होंठ (lips)। वसुंधरा = भूमि (earth)। रोमावली = रोएँ की पंक्ति (small hair on body)।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘मल्हार’ में संकलित कविता ‘पहली बूँद’ से अवतरित है। इसके रचियता गोपालकृष्ण कौल हैं। इस कविता में कवि वर्षा ऋतु की पहली बूँद का पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या : वर्षा ऋतु का पहला दिन था। इस ऋतु की पहली बूँद पृथ्वी पर आकर गिरी। इससे पृथ्वी के अंदर छिपे बीज का अंकुरण हो गया। वह धरती के माध्यम से बीज नए जीवन की अंगडाई ले रहा है।
वर्षा की बूँद के आते ही धरती के सूखे होंठों की प्यास बुझ गई अर्थात् धरती का सूखापन जाता रहा। वर्षा की पहली बूँद अमृत के समान धरती के होठों पर आ गिरी। इसके गिरते ही धरती के अंदर रोमांच आ गया। हरी घास ही धरती की रोमावली है। पृथ्वी हरी-भरी घास के रूप में पुलकित होती जान पड़ी। वह मुसकराती दिखाई देने लगी।
2. आसमान में उड़ता सागर,
लगा बिजलियों के स्वर्णिम पर।
बजा नगाड़े जगा रहे हैं,
बादल धरती की तरुणाई।
पहली बूँद धरा पर आई॥
नीले नयनों-सा यह अंबर,
काली पुतली-से ये जलधर।
करुणा-विगलित अश्रु बहाकर,
धरती की चिर-प्यास बुझाई।
बूढ़ी धरती शस्य-श्यामला
बनने को फिर से ललचाई।
पहली बूँद धरा पर आई॥
शब्दार्थ : सागर = समुद्र (sea)। स्वर्णिम = सुनहरी (golden)। पर = पंख (winds)। तरुणाई = जवानी (youth)। धरा = धरती (earth)। नसनों = आँखें (eyes)। अंबर = आसमान (sky)। जलधर = बादल (clouds)। करुणा = दया-भावना (kindness)। विगलित = पिघली हुई (liquidation)। अश्रु = आँसू (tears)। शस्य-श्यामला = हरी-भरी (greenry)।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘मल्हार’ में संकलित कविता ‘पहली बूँद’ से अवतरित है। इसके रचियता गोपालकृष्ण कौल हैं। इस कविता में कवि वर्षा ऋतु की पहली बूँद का पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या : वर्षा के समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि समुद्र आसमान में उड़ रहा है। बिजलियों के सुनहरे पंख चमक रहे हैं। बादल नगाड़े बजाते लग रहे थे। यह आसमान नीली आँखों जैसा लग रहा था और उसकी काली पुतली सें जल की धारा बह रही थी। इससे धरती की प्यास बुझ गई। अब बूढ़ी (सूखी) धरती भी हरी-भरी होने के लिए ललचाने लगी। पहली बूँदें धरती पर आईं।