आवारा मसीहा Summary – Class 11 Hindi Antral Chapter 3 Summary
आवारा मसीहा – विष्णु प्रभाकर – कवि परिचय
विष्णु प्रभाकर का जन्म 20 जुलाई, सन् 1912 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में मोरपुर गाँव में हुआ। पिता दुर्गा प्रसाद और माँ महादेवी धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। पिता तंबाकू के व्यापारी थे। विष्णुजी ने सन् 1929 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में नौकरी करते हुए ही पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी में भूषण, प्रभाकर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण. की। उनके जीवन पर आर्य समाज तथा महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा।
लगभग 15 साल तक पंजाब में सरकारी कैटल फार्म में नौकरी की। तभी लिखना प्रारंभ हुआ तथा राजनैतिक गतिविधियों से भी संबंध स्थापित हुए। पुलिस ने गिरफ्तार कर पंजाब छोड़ देने की चेतावनी दी। आपने पंजाब छोड़ दिया और स्वतंत्र लेखन, समाज सुधार तथा हिंदी प्रचार के कार्य में लग गए। पारसी रंगमंच में अभिनय भी करना प्रारंभ कर दिया। आर्य समाज की कार्यकारिणी के सदस्य बन गए, किन्तु मतभेद हो जाने के बाद उसे छोड़ दिया। कुछ दिन आयुर्वेद संस्था में काम किया। सन् 1950 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे, पर सत्ता लोलुपों से नहीं बनी और 1950 में त्यागपत्र दे दिया। 1955 से 1957 तक आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र नाटक निदेशक के रूप में कार्य किया।
साहित्यिक परिचय-विष्णु प्रभाकर मानवतावादी लेखक हैं। उनके लेखन में गांधीवादी आदर्श की स्पष्ट झलक है। देश-प्रेम की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों और विसंगतियों पर प्रहार किया है। सन् 1931 में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई। 1933 में हिसार में शौकिया नाटक कंपनियों के सम्पर्क में आए और उनमें से एक में अभिनेता से लेकर मंत्री तक का कार्य किया। सन् 1939 में ‘हत्या के बाद’ प्रथम एकांकी लिखा। रचनाएँ-उपन्यास-ढलती रात, तट के बंधन, स्वप्नमयी, निशिकांत, दर्पण का व्यक्ति, परछाई, कोई तो। कहानी संग्रह-रहमान का बेटा, जिंदगी के थपेड़े, धरती अब भी घूम रही है, सफर के साथी, खंडित पूजा, साँचे और कला, पुल टूटने से पहले, मेरा बतन, खिलौने, एक और कुंती, जिंदगी एक रिहर्सल और संघर्ष के बाद।
नाटक-नव प्रभात, समाधि, डाक्टर, युगे-युगे क्रान्ति, दूटते परिवेश, कुहासा और किरण, बंदिनी, सत्ता के आर-पार, अब और नहीं, गंधार की भिक्षुणी, श्वेत कमल, जाने-अनजाने (संस्मरण और रेखाचित्र) आवारा मसीहा (शरतचंद्र की जीवनी)। इसके अतिरिक्त विष्णु जी ने अब तक 11 एकांकी संग्रह, 13 जीवनियाँ और संस्मरण, तीन यात्रा संस्मरण, दो वैचारिक निबंध संग्रह तथा पचास बालोपयोगी पुस्तकें लिखी हैं।
भाषा-विष्णु जी की भाषा आम बोलचाल की सरल, रोचक एवं स्वाभाविक भाषा है।
Awara Masiha Class 11 Hindi Summary
पाठ-परिचय :
यह पाठ श्री विष्णुप्रभाकर द्वारा रचित आवारामसीहा के प्रथम पर्व दिशाहारा का एक अंश है। विधा की दृष्टि से यह एक जीवनी है जिसमें महान कथा शिल्पी शरतचंद्र के जीवन के विभिन्न रंगों को बहुत सूक्ष्मता से उकेरा गया है। इस पाठ में शरतचंद्र के बचपन से किशोर वय तक की यात्रा के विविध पहलुओं को इस प्रकार वर्णित किया गया है जिससे शरतचंद्र के जीवन के
समस्त अनुभवों की गहराई और विस्तार को एक नया केनवास प्राप्त हुआ है। बचपन की शरारतों में भी एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उनके रचना-संसार के समस्त पात्र वस्तुतः उनके वास्तविक जीवन के ही पात्र हैं। फिर चाहे वह देवदास की पारो हो बड़ीतीरो की माधवी, काशीनाथ का या काशीनाध श्रीकांत की राजलक्ष्मी। सभी पात्र रचनाओं में काल्पनिक प्रतीत होते हुए भी जीवंत हैं। पाठ में उन सभी परिस्थितियों को भी उजागर किया गया है। जो उनके रचनाकार बनने की आधार भूमि और प्रेरणास्रोत बने। संघर्षशील और अभावग्रस्त जीवन की हर चोट का सामना करते हुए उन्होंने एक जुझारू व्यक्ति का भी परिचय दिया है।
पाठ का सार :
स्कूल की छुट्टी के बाद शरतचंद्र अपने मामा सुरेन्द्र के साथ घूमने के लिए निकल पड़ा। सुरेन्द्र के साथ शरत की बहुत घनिष्ठता थी। वे दोनों एक बाग में पहुँचे। शरत का यहाँ से जाने का समय आ गया था उसने अपने मामा को फिर आने का वचन दिया। शरत तीन वर्ष पहले अपने नाना के यहाँ आया था। शरत के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे कभी एक जगह बंधन में बंधकर नहीं रहे। वे कभी कविता करने लगते, कभी कहानी लिखने लगते, कभी नौकरी करते कभी छोड़ देते, परिवार का भरण-पोपण उनके लिए असंभव हो गया। सारे प्रयल्ल करने के बाद एक दिन शरत की माता भुवन मोहनी सबको लेकर अपने पिता के पास भागलपुर आ गई।
भागलपुर आने के बाद शरत को दुर्गाचरण एम.ई. स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में दाखिल करा दिया। वहाँ उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ किया। उनके नाना का परिवार संयुक्त परिवार था। उनके छोटे नाना का पुत्र मणींद्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को पढ़ाने के लिए अक्षय पंडित घर आया करते थे। शरत विद्याध्ययन के समय भी शरारत करने से बाज नहीं आता था। शरत के बड़े मामा ठाकुरदास बच्चों की शिक्षा की देखभाल किया करते थे।
वे गांगुली परिवार की कहृरता एवं कठोरता के पूरे पक्षधर थे। वे बच्चों की अनुशासनहीनता कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। अपराध होने पर चाबुक खाना पड़ता था या अस्तवल में बंद होना पड़ता था। शरत अपनी कुशलता के कारण धीरे-धीरे मामा लोगों के दल का दलपति बन गया। उनके कई मामा उसी के हमउम्र थे। छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करने के बाद शरत जब अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुआ तब भी उसकी प्रतिभा में जरा भी कभी नहीं आई। पतंग उड़ाना, वागों से फल चुराना आदि कलाओं में वह कुशल था। उसके आगे मालिकों के सब उपाय व्यर्थ हो जाते थे।
वह खिलाड़ी भी था, परन्तु वह बदमाश नहीं था। वह दिनभर में जितनी गोलियाँ और लट्ट् जीतता वह उनको बच्चों में बाँट देता था। शरत को कुश्ती लड़ने का शौक भी था। अपने नानाओं से छिपकर उसने पड़ोस के एक भुतहा घर में अखाड़ा बना रखा था। एक बार ताल में नहाने पर शरत व मणि को खूब डँँट पड़ी। शरत को खेलने के साथ-साथ पढ़ने का भी बहुत शौक था। वह कोर्स की किताबों से अलग इधर-उधर की बहुत किताबें पढ़ता था। इन किताबों से उसने तरह-तरह की बातें सीखीं। वह सीखे हुए ज्ञान का प्रैक्टिकल भी करके देखता है। एक बार उसने साँप को वश में करने का प्रयोग किया। वह कभी-कभी चिंतन मनन के लिए एक झुुरुट में जाकर बैठ जाता था जिसको उसने तपोवन का नाम दिया था। उसके सुरेन्द्र मामा के अतिरिक्त इस तपोवन के बारे में कोई नहीं जानता था।
शरत के स्कूल में एक छोटा-सा पुस्तकालय था। शरत ने उस पुस्तकालय का सारा साहित्य पढ़ डाला था। व्यक्तियों के मन के भाव जानने में शरत को महारथ हासिल थी। उसके शिक्षक अधीर बाबू ने उसको एक असाधारण बालक बताया। लेकिन गांगुली परिवार में उसकी प्रतिभा को पहचानने वाला कोई न था। बंकिमचंद्र के ‘बंग प्रदर्शन’ का प्रवेश उन्हीं के द्वारा गांगुली परिवार में हुआ। उनके छोटे नाना की पत्नी का नाम कुसुम मोहिनी था। उन्होंने छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करके ईश्वरचंद्र विद्यासागर के हाथ से पारितोषिक पाया था। वह एक विदुषी महिला थी। शरत अंतिम क्षण तक उनको अपना गुरु मानते रहे। वास्तव में उनकी शिक्षा का आरंभ कुसुम मोहिनी की पाठशाला से ही हुआ था।
नाना के इस परिवार में शरत के लिए अधिक दिन रहना संभव नहीं रह गया था। उनके पिता घर-जैवाई के रूप में इस परिवार में रह रहे थे। शरत को ऐसा लगने लगा जैसा उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व मानो समाप्त हो रहा है। नाना के परिवार की आर्थिक हालत खराब हो चुकी थी। एक दिन केदारनाध ने मोतीलाल को बुलाकर कहा कि अब तुम्हारा यहाँ रहना संभव नहीं है। उनका परिवार देवानंदपुर लौट आया। शरत का परिचय यहाँ गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले राजू से हो गया था। राजू एक अच्छा पतंगबाज था। शरत और राजू में गहरी मित्रता हो गई। राजू के पितां इंजीनियर होकर भागलपुर आए थे इसलिए राजू भी उनके साथ आया था।
मोलीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में काँचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहने वाले थे। उनके पिता वैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय राठी ब्राहमण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। वह जमींदारों के अत्याचारों का युग था। एक बार एक जमींदार ने उनको एक मुकद्दमे में गवाही देने को कहा। उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि में इस व्यक्ति को जांनता ही नहीं तो गबाही क्यों दूँ। जमींदार ने मोतीलाल के पिता यानि वैकुंठनाथ को मरवा दिया। जमींदार के आतंक के कारण वैकुंठनाथ की प्ली चीखकर रो भी न सकी। गाँव के बड़े बूढ़ों की सलाह पर वह अपने पति का क्रियाकर्म करके रातों-रात देवानंदपुर अपने भाई के पास चली गई। कुछ बड़े होने पर मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की दूसरी बेटी भुवन मोहिनी के साथ हुआ।
इनके परिवार की आर्थिक हालत अच्छी न थी। अच्छे परिवार का होने के कारण ही केदारनाथ ने अपनी कन्या मोतीलाल से व्याही थे। मोतीलाल यायाबर किस्म के व्यक्ति थे? यहीं पर 15 सितम्बर, सन् 1876 तदनुसार 31 भाद्र, 1283 बंगाब्द, अश्विन कृष्णा द्वादशी, संवत्, 1933 , शकाब्द 1798 , शुक्रवार की संध्या को एक पुत्र का जन्म हुआ। वह अपने माता-पिता की दूसरी संतान था। चार वर्ष पहले उसकी एक बहिन अनिला जन्म ले चुकी थी। माता-पिता ने बड़े चाव से पुत्र का नाम रखा ‘शरतचन्द्र’।
देवानंद्पर बंगाल का एक साधारण-सा गाँव है। हरा-भरा, ताल-तलैयों, नारियल और केले के वृक्षों से पूर्ण था। इसी गाँव में शरत का वाल्यकाल अत्यंत अभाव में आरंभ हुआ। माँ न जाने कैसे गृहस्थी चलाती थी। जानती थी पति कैसे हैं। उनसे शिकया-शिकायत व्यर्थ है। सार्थक यही है कि घर की शोभा बनी रहे। उन्होंने न कभी गहनों की माँग की, न कीमती पोशाक की ही। आत्मोत्सर्ग ही मानो उनका दाय था। जब भागलपुर में वे रहती थीं तब चाचाओं के इतने बड़े परिवार में यह उन्हीं का अधिकार था कि सब माँओं के बच्चों को अपनी छांती में छिपाकर उनकी देख-रेख करें। कौन कब आएगा ? कौन कब जाएगा? किसको क्या और कब खाना है? ऐसे असंख्य प्रश्नों को सुलझाने में उन्हें सांस लेने की फुरसत ही नहीं मिलती थी।
मोतीलाल मानो आकाश में उड़ने वाले रंगीन पतंग थे और भुवनमोहिनी थी निरंतर घूमते हुए चक्र के समान सीधी-सादी प्रकृति की महिला। उसका कोमल मन सबके दु:ख से द्रवित हो उठता था। इसीलिए सभी उसको प्यार करते थे, बड़े उसकी सेवा-परायणता पर मुग्ध थे, छोटे उसके स्नेह के लिए लालायित रहते थे। शरत-साहित्य में खोजने पर ऐसे अनेक चरित्र मिल सकते हैं। माँ का ॠण चुकाने के लिए कधाकार शरत ज़रा भी तो कृपण नहीं हुआ। लेकिन कैसी भी सरल और उदार नारी हो पति की अकर्मण्यता उसको ठेस पहुँचाती ही है। भुवनमोहिनी बहुत बार क्षुब्ध हो उठती, तब मोतीलाल चुपचाप घर से निकल जाते और देर रात तक बाहर ही रहते।
पौँच वर्ष का होने पर शरत को बाकायदा प्यारी (बंदोपाध्याय) पंडित की पाठशाला में भर्ती करा दिया गया। शरत बचपन से ही शरारती था। एक बार उसने पंडित बंदोपाध्याय जी को बहुत परेशान किया जिसकी उसको सजा भी मिली। पंडित जी उसकी अधिकतर शरारतों को नज़रअंदाज कर जाते थे क्योंकि शरत पढ़ने में बहुत तेज तो था ही वह उनके बेटे काशीनाथ का परममित्र भी था। उसी स्कूल में उसके मित्र की बहिन धीरू भी पढ़ती थी। शरत और धीरू में बहुत ही घनिष्ठ मित्रता थी दोनों साथ खेलते लड़ते झगड़ते रहते थे। शरत ने आगे चलकर धीरू को आधार बनाकर अपने कई उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया। देवदास की ‘पारो’ श्रीकांत की राजलक्ष्मी, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी ये सब धीरू का ही विकसित रूप थे।
इन्ही दिनों गाँव में सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने एक नया बांग्ला स्कूल खोला। शरत को भी इस स्कूल में दाखिल करा दिया गया। तभी अचानक मोतीलाल की भी ‘डेहरी आन सोन’ में नौकरी लग गई। शरत का अधिकतर समय खेलकूद में भी बीतने लगा। शरत ने अपने उपन्यास ‘गृृहदाह’ में ‘डेहरी’ के इस छोटे से स्थान को अमर कर दिया है। देवानंद्पुर में उसको मछलियाँ पकड़ने का शौक लग गया। वह सरस्वती नदी में मछलियौँ पकड़ने में मग्न रहता था। एक बार मोहल्ले का नयन बागदी गाय खरीदने के लिए पाँच रुपए उधार लेने के लिए शरत की दादी के पास आया। उसे बसंतपुर से गाय लानी थी। शरत भी छिपते-छिपाते उसके साथ बसंतपुर गया। रास्ते में आते हुए रात के समय जंगल में डाकुओं ने एक भिखारी को मार दिया। नयन के पराक्रम से डर कर कुछ डाकू भाग गए और एक इनके हाथ लग गया जिसको पीट-पीट कर इन्होंने बेहोश कर दिया।
तीन वर्ष नाना के घर रहने के बाद फिर देवानंदुुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण इनकी पढ़ाई बाधित हुई। यहाँ इनकी अनुशासनहीनता और बढ़ गई। यहाँ इनको हुगली ब्रांच स्कूल की चौथी कक्षा में दाखिल कराया गया। पक्के दो कोस चलकर स्कूल जाना पड़ता था। इनके पिता की आर्थिक हालत खराब तो थी ही। घर के आभूषण तक दरिद्रता की भेंट चढ़ गए। धीरे-धीरे शरत यहाँ के सभी बालकों का सरदार बन गया। बे इधर-उधर से चीज़ें चुराकर एक गढ्ढे में जमा करते थे फिर उन से जरूरतमंदों की मदद करते थे। कहानी पढ़कर सुनाने की जन्मजात प्रतिभा शरत में विकसित हो रही थी। पन्द्रह वर्ष की आयु में वह इसमें पारंगत हो चुका था।
स्थानीय जमींदार गोपालदास मुंशी इसी कारण उससे बहुत स्नेह करते थे। इनका पुत्र अतुलचंद्र इनको कहानियाँ पढ़ने के लिए देता था। वह कहता था कि तुम ऐसी कहानियाँ लिखा करो। में तुम्हें थियेटर ले जाऊँगा। इसी तरह लिखते-लिखते शरत ने मौलिक कहानियौं लिखनी शुरु कर दीं। शरत जो कुछ भी देखता था उसे गहराई से जानने का प्रयत्न करता था। इसी गाँव में एक ब्राह्मण की बेटी थी नीरू, जो बाल विधवा थी। उसमें स्त्रियोचित सभी गुण विद्यमान थे। गाँव के स्टेशन का मास्टर उसके जीवन को कलंकित करके कहीं चला गया। गाँव के लोगों ने उसके सारे उपकारों को भुलाकर नीरू दीदी का बहिष्कार कर दिया। उसके पास किसी को भी जाने की आज्ञा नहीं थी। परन्तु शरत चोरी छिपे उसके पास जाता व उसकी सेवा टहल करता था। जब वह मरी तो किसी ने उसकी लाश को नहीं छुआ। उसकी लाश को डोम जंगल में फेंक आए।
शरत को कहानी लिखने की प्रेरणा अपने पिता की अलमारी में रखी ‘हरिदास की गुप्त बातें’ और भवानी पाठ जैसी पुस्तकों से भी मिली। वह चोरी छिपे इन पुस्तकों को पढ़ता था। इसी अलमारी में उसको अपने पिता द्वारा लिखी आधी अधूरी कहानियाँ भी मिलीं। पिता का यह अधूरापन उसकी प्रेरक शक्ति बन गया। घर की गरीबी बार-बार उसे घर छोड़ने के लिए प्रेरित करती थी। वह पता नहीं कितनी बार घर से भागे। देवानंदपुर रहते हुए एक बार वह पुरी की यात्रा पर निकल पड़ा। इस यात्रा में भी उनके साथ विचित्र घटनाएँ घटित हुईं। इनके परिवार की स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी।
इनके नाना का परिवार भी छिन्न-भिन्न हो चुका था। इनके लिए देवानंद्ुर में रहना मुश्किल हो गया था। इनकी माता ने डरते-डरते अपने छोटे काका अधोरनाथ को चिट्ठी लिखवाई। अधोरनाथ ने इनको चले आने के लिए लिख दिया। शरत फिर कभी देवानंदपुर नहीं लौटा। यहाँ उनका सारा जीवन गरीबी में बीता। उसकी माँ और दादी के आँसुओं से इस गाँव के पथ-घाट भीगे हुए थे। शरत ने शुभदा में अपनी गरीबी के ऐसे ही चित्र खींचे हैं। इसी यातना की नींव में उनकी साहित्य साधना का बीजारोपण हुआ। यही उसने संघर्ष और कल्पना से प्रथम परिचय पाया। इस गाँव के ऋण से वह कभी मुक्त नहीं हो सका।
शब्दार्थ :
- नवासा = बेटी का पुत्र, नाती।
- निस्तब्धता = खामोशी।
- यायावर प्रकृति = घुमक्कड़ी स्वभाव।
- कृतार्थ = संतुष्ट।
- अपरिग्रही = किसी से कुछ ग्रहण न करने वाला।
- स्वल्पाहारी = कम मात्रा में भोजन करने वाला।
- आच्छन्न = घिरा हुआ।
- स्निग्धहरित प्रकाश = ऐसा हरा प्रकाश जिसमें चमक और शीतलता हो।
- औखें जुड़ाने लर्गी = आँखों में तृप्ति का भाव।
- पुलक = प्रसन्नता।
- विदीर्ण = भेदना।
- मनस्तत्व = विद्या संबंधी।
- पारितोषिक = पुरस्कार।
- शाद्वल = नई हरी घास से युक्त।
- अपरिसीम = जिसकी कोई सीमा न हो।
- आजानबाहु = घुटनों तक बहें हों जिसकी।
- हतप्रभ विमूढ़ = हैरान, कुछ समझ में न आना।
- आत्मोत्सर्ग = आत्मबलिदान।
- सरंजाम = तैयारी, प्रबंध (होना, करना) काम का नतीजा।
- मूड़ी = मुरमुरे, चावल का भुनारुप।
- निरूद्वेग = शांत, उद्वेग रहित।
- खिरनियाँ = पीला फल, एक फलवृक्ष।
- कमचियाँ = बाँस आदि की पतली टहनी।
- निविड़ = घना, घोर।
- स्फुरण = काँपना, हिलना, फड़कना।
- गल्प = कथा, कहानी।
- धर्मशीला = वह स्त्री जो धर्म के अनुसार आचरण करे।
- पदस्खलन = अपने मार्ग से भटकना, पतन होना।
- अपाठ्य पुस्तकें = न पढ़ी जाने योग्य पुस्तकें।
- अभिज्ञता = जानना।