Class 11 Hindi Antra Chapter 4 Summary – Gunge Summary Vyakhya

गूँगे Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 4 Summary

गूँगे – रांगेय राघव – कवि परिचय

जीवन-परिचय : रांगेय गघव का जन्म जून 1923 में आगरा में हुआ था। उनका वास्तविक नाम विसमल्लै नम्बाकम वीर राघव आचायं था, पर साहित्य की रचना उन्होंने रांगयय राघव के नाम से की । उनके पूर्वज दक्षिण आरकाट से जयपुर नरेश के निमंत्रण पर जयपुर आए थे। बाद में आगरा में स्थायी रूप से रहने लगे। वहीं रांगेय राघव की शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने सेंट जान्स कॉलेज, आगरा से सन् 1943 में हिन्दी में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा सन् 1919 में पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। सन् 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया। 39 वर्ष की अल्पायु में ही 12 सितम्बर सन् 1962 को आपका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक-परिचय : रांगेय राघव ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचना की है जिनमें कहानी, उपन्यास, कवितां और आलोचना मुख्य हैं। उन्होंने सन् 1936 से ही कहानियाँ लिखनी आरम्भ कर दी थीं। उन्होंने अस्सी से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। अपने कथा साहित्य में उन्होंने जीवन के विविध आयामों को चित्रिंत किया है। समाज के शोषित-पीड़ित मानय के जीवन के यथार्थ का बहुत ही मार्मिक चित्रण उनकी कहानियों में मिलता है। साथ ही शोषण से मुक्ति का मार्ग भी उन्होंने दिखाया है।

रचनाएँ : रांगेय राघव ने साहित्य की विविध विधाओं में रचना की है जिनमें- कहानी, उपन्यास, कविता और आलोचना मुख्य हैं। उनके प्रमुख कहानी-संग्रह हैं- ‘रामराज्य का वैभव’, ‘देक्दासी’ ‘समुद्र के फेन’, ‘अधूरी मूरत’, ‘जीवन के दाने’, ‘अंगारे न बुझ्गे’, ‘ऐयाश मुर्दे’, ‘इंसान पैदा हुआ’। उनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं- ‘कब तक पुकारूँ’, ‘घरोंदा’, ‘विषाद-मठ’, ‘मुर्दों का टीला’, ‘सीधा-सादा रास्ता’, ‘अँधेरे के जुगनू’, ‘बोलते खंडहर’। सन् 1961 में ‘राजस्थान साहेत्य अकादमी’ ने उनकी साहित्य-सेवा के लिए उन्हें पुरस्कृत किया। उनकी रचनाओं का संग्रह दस खंडों में ‘रांगेय राघव ग्रंथावली’ नाम से प्रकाशित हो चुका है।

भाषा-शैली : राघव जी की भाषा सहज, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।

Gunge Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

लेखक ने प्रस्तुत कहानी ‘‘ूूँगे’ में मानव संवेदनाओं के टूटे धागों को जोड़ने का कार्य किया है। ‘गूँगा’ मानवीय गुणों से ओतप्रोत है। वह ईमानदार और परिश्रमी है तथा धर्म के प्रति उसका समर्पण का भाव है, उसके अंदर आत्म-सम्मान है। वह किसी की भीख नहीं लेता। चमेली उस पर दया करके अपने घर ले आती है। लेखक का कहना है कि जो अन्याय और अत्याचार के प्रति संवेदनशील नहीं है वह भी गूँगों-बहरों के ही समान है। लेखक ने इस पात्र के माध्यम से दलितों और शोषितों के मन के भावों को खोलने का प्रयत्न किया है। यह कहानी विद्यार्थियों में संवेदना जगाने का कार्य अवश्य करेगी।

कहानी का सार :

इस कहानी में लेखक ने एक गूँगे के माध्यम से शोषित एवं पीड़ित मानव की असहायता का चित्रण किया है।
कहानी का प्रारम्भ पारस्परिक बातचीत से होता है। स्त्रियाँ परस्पर बातचीत करते हुए बालिका शकुन्तला से उस गूँगे को अपने पास बुलवाती हैं।

जन्म से वज्र बहरा होने के कारण वह युवक गूँगा भी है। वह न बोल सकता है और न सुन सकता है। चमेली उसकी विगत जिन्दगी के सम्बन्ध में जानने को उत्तुक है। वह उससे उसके जीवन के सम्बन्ध में पूछती है। गूँगा संकेतों के द्वारा बताता है कि बचपन में ही उसके पिता का देहान्त हो गया और माँ उसे छोड़कर भाग गयी। उसे फूफा और बुआ ने पाला, वे उसे बहुत मारते थे क्योंकि वे चाहते थे कि वह कहीं काम करके कुछ कमाकर लाए और उन्हें दे। वह अपने हुदय को व्यक्त करना चाहता है लेकिन व्यक्त नहीं कर पाता। सुशीला उसका मुँह खुलवाकर देखती है तो वह संकेत से बताता है कि किसी ने बचपन में गला साफ करने की कोशिश में उसका काकल (कौआ) काट दिया।

लेकिन संकेत गजब के करता है जिससे पता चलता है कि अक्ल बहुत तेज है। जब उससे पूछा गया कि वह क्या ज्ञाता है तो वह बताता है कि हलवाई के यहाँ काम करके अपना पेट पालता है। वह कभी किसी से भीख नहीं माँगता।

चमेली को उसकी दशा पर दया आ जाती है। वह उसे चार रुपये महीने पर घर में नौकर रख लेती है। सुशीला उसे नौकर रखने के लिए मना करती है। वह गूँगा चमेली के घर में काम करता है अपने घर भी नहीं जाता। बच्चे चिढ़ाते हैं, नाराज नहीं होता। चमेली के पति सीधे-सादे आदमी थे। पल जाएगा, किन्तु वे जानते थे कि मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है।

एक दिन चमेली गूँगे को बुलाने लगी तो गूँगे का कहीं पता नहीं चला। अपने पति और पुत्र बसंता से पूछने पर पता चला कि वह भाग गया है। किन्तु सबके खाना खा लेने के बाद चमेली बची रोटियौं कटोरदान में रखकर उठने लगी तो गूँगा वहाँ आ गया। चमेली ने उसके सामने रोटियाँ फेंक दीं। वह भूखा था। कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। फिर न जाने क्यों गूँगे ने रोटियाँ उठा लीं और खाने लगा। जब गूँगा रोटी खा चुका तो वह उठी और हाथ में चिमटा लेकर उसके पास खड़ी हो गई। उसने कर्कश स्वर में उससे पूछा ‘कहाँ गया था ?’ कोई उत्तर न देने पर उसने गूँगे को एक चिमटा जड़ दिया और फिर गूँगे के साथ रोने लगी। अब तो जब चाहे भाग जाना और लौट आना गूँगे का स्वभाव बन गया।

एक दिन बसंता ने कसकर गूँगे को चपत जड़ दी, किन्तु गूँगा समझता था कि वह मालिक का बेटा है, अतः वह उस पर हाथ नहीं चला सका। इसका दुख चमेली को भी हुआ किन्तु पुत्र के प्रति पक्षपात की भावना के कारण कुछ न कर सकी। चमेली ने गूँगे को मारने के लिए हाथ उठाया तो उसने चमेली का हाथ कसकर पकड़ लिया। चमेली को लगा कि उसके ही पुत्र ने उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक उसने घृणा से हाथ छुड़ा लिया और चूल्हे पर जा बैठी। उसने सोचा कि कहीं उसका बेटा भी गूँगा होता तो वह भी ऐसे ही दु:ख उठाता।

एक दिन चमेली ने उसे मक्कार व बदमाश कहकर धक्के मारकर घर से निकाल दिया। अपने इस कार्य पर भी चमेली स्वयं लज्जित हो गई। शाम के समय उनके बसंता ने देखा कि गूँगा लहूलुहान होकर दरवाजे की दहलीज पर पड़ा है। सड़क के लड़कों ने उसका सिर फोड़ दिया था। चमेली उसकी दशा चुपचाप देखती रही और उसकी कराहटें सुनती रही जिनमें स्वर तो है पर अर्थ नहीं। यह स्वयं न्याय और अन्याय को भली-भाँति समझता है किन्तु किसी अत्याचार को चुनौती देने वाली आवाज उसके पास नहीं है। यही दशा सब गूँगों की है।

शब्दार्य एवं टिप्पणियाँ :

  • वज्ञ बहरा – जिसे पूर्ण रूप से सुनाई न देता हो
  • तमाम – समस्त, बहुत अधिक, सभी
  • इंगित – इशारा
  • अस्फुट – अस्पष्ट
  • इशारा – संकेत
  • कुतूहल – उत्कट इच्छा, उत्सुकता, जिज्ञासा
  • ध्वनियों का वमन – आवाज़ को प्रयास से निकालना
  • चीत्कार – चीख
  • परिणत – बदल गया
  • विक्षुब्ध – अशांत
  • द्वेष – शत्रुता, बैर, घृणा, नफ़रत
  • तमाम – समस्त, संपूर्ण, सभी
  • नतीजा – परिणाम
  • कांकल – गले के भीतर की घाँटी
  • पल्लेदारी – पीठ पर अनाज या सामान इत्यादि ढोने का कार्य
  • रोष – क्रोध
  • पक्षपात – भेदभाव
  • तिरस्कार – उपेक्षा
  • अवसाद – शिथिलता

गूँगे सप्रसंग व्याख्या

1. कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता तो वह भी ऐसे ही दुख उठाता! वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हृदय में ममता भर आई। वह लौटकर चूल्हे पर जा बैठी, जिसमें अंदर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था जिससे सबसे भयानक आग बुझती है-पेट की आग, जिसके कारण आदमी गुलाम हो जाता है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘रांगेय राघव’ द्वारा रचित कहानी ‘गूँगे’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ चमेली के हृदय में उठ रहे अंतर्द्व को स्पष्ट किया है। चमेली का लड़का बसंता ‘गूँगे’ को थप्पड़ मारता है परन्तु गूँगा हाथ उठाकर भी उस पर वार नहीं करता।

ब्याख्या : चमेली जब गूँगे को देखती है तो उसे इस बात का एहसास होता है कि यदि उसका बेटा भी कहीं गूँगा होता तो उसे भी इसी प्रकार कष्ट उठाना पड़ता। चमेली के हृदय में गूँगे के प्रति संवेदना जग गई उसको लगा जैसे यह भी उसका पुत्र है। वह कुछ भी नहीं सोच पाई। वह हठात्-सी खड़ी रह गई। चमेली के हृदय में गूँगे के प्रति ममता उमड़ आई। वह फिर से चौके पर आ गई जिसके भीतर आग सुलग रही थी। इस चूल्हे की आग से ही वह आग बुझती है जो पेट के अंदर जलती है अर्थात् चूल्हे की आग पर भोजन पकाया जाता है यही भोजन आदमी के पेट की आग को शांत करता है। आदमी इस पेट की आग को ही बुझाने के लिए दूसरों की गुलामी करता है। पेट की आग मनुष्य से न जाने क्या-क्या करवा देती है।

2. गूँगा इस स्वर की, इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह हँस पड़ा। अगर उसका रोना एक अजीब दर्दनाक आवाज़ थी तो यह हँसना और कुछ नहीं-एक अचानक गुर्राहट-सी चमेली के कानों में बज उठी। उस अमानवीय स्वर को सुनकर वह भीतर-ही-भीतर काँप उठी। यह उसने क्या किया ? उसने एक पशु पाला था। जिसके हृदय में मनुष्यों की-सी बेदना थी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘रांगेय राघव’ द्वारा रचित कहानी ‘गूँगे’ से लिया गया है। लेखक ने यहौँ गूँगे के हृदय में उठने वाली संवेदनाओं पर प्रकाश डाला है। साथ ही चमेली की मनःस्थिति को भी प्रकट किया है।

ब्याख्या : चमेली गूँगे के लिए रात की रोटी लेकर आई उसने गूँगे को पुकारा! गूँगा बहुत नाराज था परन्तु वह चमेली के स्वर की उपेक्षा नहीं कर सकता था। गूँगे को पता नहीं किस चेतन शक्ति से आभास होता था कि चमेली कुछ कह रही है। चमेली के पुकारने पर गूँगा हँस पड़ा। गूँगे के रोने में भी एक दर्द था और उसका हँसना भी एक गुर्राहट के समान जान पड़ता था। लगता ही नहीं था कि यह किसी मनुष्य की आवाज है। इस आवाज को सुनकर चमेली का हृदय काँप उठा उसे लगा कि उसने किसी मनुष्य को नहीं बल्कि पशु को पाल रखा है। परन्तु उसके हृदय में पशु की नहीं मनुष्य जैसी वेदना उठती है।

3. और ये गूँगे…. अनेक-अनेक हो संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं-जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परखकर भी अत्याचार को चुनीती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर होकर भी-स्वर में अर्य नहीं है…. क्योंकि वे असमर्थ हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ में संकलित कहानी ‘गूँगे’ से लिया गया है। जिसके लेखक ‘रांगेय राघव’ जी हैं। लेखक ने यहाँ समाज के उन गूँगों की ओर संकेत किया है जिनके हृदय में संवेदना नहीं है। उनके सामने कुछ भी होता रहे वे कुछ नहीं बोलते।

ब्याख्या : लेखक का मानना है कि हमारे समाज में ‘गूँगों’ की कमी नहीं। इन गूँगों का एक रूप नहीं बल्कि अनेक रूप हैं। जो व्यक्ति अन्याय को देखता रहता है, सहता रहता है परन्तु बोलता कुछ नहीं वह भी गूँगा है। जो किसी पर अत्याचार होते देखता है परन्तु बोलने का साइस नहीं करता वहु भी गूँगा है। जिस व्यक्ति के मन में विचार उठते हैं परन्तु किसी कारण से वह उनको प्रकट नहीं कर पाता वह भी गूँगा है। जो न्याय और अन्याय में भेद करके भी अत्याचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते वे भी गूँगे ही हैं। वे जो बोलना चाहते हैं उनके बोलने का कोई अर्थ नहीं है। जो निरर्थक बोलते हैं वे भी गूँगे के समान ही हैं। उनकी असमर्थता उनको गूँगा बना देती है।

Hindi Antra Class 11 Summary