Class 11 Hindi Antra Chapter 3 Summary – Torch Bechne Wale Summary Vyakhya

टार्च बेचने वाले Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 3 Summary

टार्च बेचने वाले – हरिशंकर परसाई – कवि परिचय

जीवन-परिचय : परसाई जी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी नामक ग्राम में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा गाँव में हुई किन्तु विधिवत् अध्ययन के लिए नागपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से एम.ए. हिन्दी में किया। कुछ वर्षों तक अध्यापन करने के पश्चात् नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। सन् 1987 में स्वतन्त्र लेखन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। कुछ समय तक आप पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली जिसे घाटे के बावजूद कई वर्षों तक चलाते रहे।

साहित्यिक-परिचय : परसाई जी मुख्य रूप से व्यंग्य लेखक हैं किन्तु उनका व्यंग्य मनोरंजन के लिए नहीं है। उन्होंने अपने व्यंग्य के द्वारा बार-बार पाठकों का ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों की ओर आकर्षित किया है जो हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं। उनका व्यंग्य समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की कुरीतियों, विंषमताओं, विद्रूपताओं और विसंगतियों के उन्मूलन के निष्ठापूर्वक प्रयास में भी झलकता है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार एवं शोषण पर व्यंग्य के कोड़े लगाये हैं। उनका व्यंग्य हिन्दी साहित्य की अनमोल निधि है।

रचनाएँ : परसाई जी ने लगभग दो दर्जन पुस्तकों की रचना की है-हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह), रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज (उपन्यास), तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परन्तु पगडंडियों का जमाना, सदाचार का ताबीज, शिकायत मुझे भी है, और अन्त में (निबन्ध संग्रह), वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, ठिठुरता हुआ गणतन्न्र, विकलांग श्रद्धा का दैर (व्यंग्य-प्रबन्ध) आदि।
‘परसाई रचनावली’ के छः भागों में उनका समस्त साहित्य प्रकाशित है।

भाषा-शेली : प्रयोग में परसाई जी बड़े सिद्धहस्त हैं। वे प्रायः आम बोलचाल के शब्दों का चयन करते हैं, पर कहाँ कौन-सा शब्द अधिक अर्थवत्ता प्रदान करेगा, उसका ध्यान इन्हें सदैव रहता है। परसाई जी की भापा-शैली बड़ी साफ व स्पष्ट है। इनकी भाषा-भावों के अनुकूल चलती है। परसाई जी की भाषा व्यंग्य प्रधान है। आपके व्यंग्य का विषय सामाजिक व राजनैतिक होता है। इनके व्यंग्य में कभी चटपटा तो कभी तिलमिला देने वाला व्यंग्य होता है। हैंसी-हँसी में वे वर्तमान जीवन का ऐसा चित्र खींचते हैं कि हास्य-विनोद की ऊपरी सतह के नीचे कभी खट्टी-मीठी चुटकी होती है। व्यंग्य उत्पन्न करने के लिए अंग्रेजी, उर्दू भाषाओं के शब्दों को निस्संकोच अपनी भाषा में स्थान देते हैं। भाषा में बोलचाल के शब्दों और विदेशी शब्दों का चुनाव उत्तम है।

Torch Bechne Wale Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत रचना ‘टार्च बेचने वाले’ परसाई जी की एक सशक्त व्यंग्य रचना है। व्यंग्यकार ने इस रचना में धार्मिक प्रवचन कर्ताओं पर करारा व्यंग्य किया है। दो मित्र किसी प्रकार पैसा कमाने के तरीके ढूँढ़ते हैं। एक मित्र टार्च बेचते-बेचते प्रवचनकर्ता बन जाता है। वह साधु सन्तों की वेशभूषा धारण कर, ऊँचे मंच पर सुशोभित होता हुआ भोली-भाली जनता को अँधेरे का डर दिखाकर रोशनी बाँटने लगता है। व्यंग्यकार ने इस रचना में उपदेशक का छद्म वेश बनाकर जनता को ठगने वाले कथित धर्मात्माओं की खबर ली है। दोनों दोस्त जब आपस में मिलते हैं तो दूसरा दोस्त धर्मोपदेशक बने अपने दोस्त को देखकर अचम्भित रह जाता है। उसको अपने दोस्त का धन्धा लाभप्रद लगता है। आखिर में वह भी इसी धन्धे को अपना लेता है।

कहानी का सार :

वह पहले चौराहे पर बिजली के टार्च बेचा करता था। एक दिन उससे लेखक की मुलाकात हुई। लेखक ने उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी देखी तो उसके बढ़ने का कारण पूछा। तो उसके मित्र ने बताया कि अब टार्च बेचने का धन्धा तो बन्द कर दिया है अब तो आत्मा के भीतर का टार्च जल चुका है। अब इस ‘सूरज छाप’ टार्च का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। लेखक ने कहा कि शायद तुम भी संयास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है वह हरामखोरी पर उतर आता है। लेखक की इस बात से उसको पीड़ा पहुँची। लेखक ने उससे अचानक यह सब करने का कारण पूछा। उसने कहा कि एक घटना ने मेरा तो जीवन ही बदल दिया।

पाँच साल पहले मैं अपने दोस्त के पास था। हम दोनों के सामने यह प्रश्न था कि पैसा किस प्रकार कमाया जाए। बहुत सोच विचार के बाद यह तय किया कि कुछ काम धन्धा करें । हम अपनी-अपनी किस्मत चमकाने अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े क्योंकि एक साथ जाने से किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है। उनमें से एक मित्र ने टार्च बेचने का धन्धा शुरू कर दिया। वह अँधेरे का भय दिखाकर लोगों में अपनी टार्च बेचने लगा। लोग उसकी बातों को सुनकर डर जाते थे और देखते ही देखते उसकी सारी टार्च बिक जाती थीं। एक दिन वह एक शहर की सड़क पर जा रहा था तो उसने देखा एक मैदान रोशनी से जगमगा रहा है।

मंच पर एक व्यक्ति सुन्दर रेशमी वस्त्रों से सजा हुआ बैठा है। वे कह रहे थे कि मैं आज मनुष्य को घने अन्धकार में फँसा हुआ देख रहा हूँ। उसकी आत्मा के अन्दर अन्धेरा छाया हुआ है। मनुष्य की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे बोलते जा रहे थे और श्रोता मन्त्र-मुग्ध होकर उनकी बातों को सुन रहे थे। वे फिर बोले जहाँ अन्धकार है वहाँ प्रकाश भी है तुम भी अपने अन्दर प्रकाश को खोजो। मैं तुम्हारे भीतर की उस शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ। पहले वाला मित्र उसको देखकर खिलखिलाकर हैंसने लगा। लोगों ने धक्का देकर उसे मंच के पास पहुँचा दिया।

दाढ़ी बढ़ी होने के कारण मैं उसे नहीं पहचान सका परन्तु उसने मुझे पहचान लिया। वह मुझे अपने साथ कार में बैठाकर अपने बंगले पर ले गया। उसका ठाठ देखते ही बनता था। थोड़ी देर में ही उसकी झिझक दूर हो गई। उसने संत बने मित्र से पूछा कि तुमने इतनी दौलत कैसे पाई है। जो बातें मैं कहता हूँ तू भी तो वही बातें कहता है तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं, मैं भी अँधेरे का डर दिखाकर टार्च बेचता हूँ और तुम भी लोगों को अँधेरे का भय दिखाते हो। मेरी इस बात पर वह बोला कि मेरी कम्पनी सनातन है। उससे बात करने के बाद दूसरा मित्र भी दाढ़ी बढ़ाकर उसी धन्धे में लग गया जिसमें उसका मित्र लगा हुआ था।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • हरामखोरी – मुफ्तखोरी
  • दीक्षा – शिक्षा प्राप्ति के बाद का आशीर्वाद
  • कठोर वचन – अप्रिय बातें, कष्ट देनेवाली बातें
  • बयान – वर्णन
  • गुप्त – छिपा हुआ
  • अन्दाज़ – अनुमान
  • बयान – कहना, वक्तव्य, कथन
  • त्रस्त – पीड़ित
  • वैभव – शानोशौकत
  • गुरु गम्भीर वाणी – विचारों से पुष्ट वाणी
  • सर्वग्राही – सबको ग्रहण करने वाला, सबको समाहित करने वाला
  • उदर – पेट
  • स्तब्य – हैरान
  • आहान – पुकारना, बुलाना
  • शाश्वत – चिरंतन, हमेशा रहने वाली
  • प्रवचन – उपदेश
  • मौलिक – बिना किसी बनावट के, मूल रूप में
  • वैभव – ठाट-बाट, ऐश्वर्य
  • सनातन – सदैव रहने वाला
  • असार संसार – सारहीन, सत्त्वहीन संसार

टार्च बेचने वाले सप्रसंग व्याख्या

1. “मैं आज मनुष्य को एक घने अन्धकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अन्धकारमय है। यह सर्वप्राही अन्धकार सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अन्धकार से घबरा उठा है। वह पयभ्रष्ट हो गया है। आज आत्मा में भी अन्धकार है। अन्तर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पार्ती। मानव-आत्मा अन्धकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित व्यंग्य ‘टार्च बेचने वाले’ से लिया गया है। जिसके व्यंग्यकार व्यंग्य जगत के जाने माने हस्ताक्षर ‘हरिशंकर परसाई’ जी हैं। व्यंग्यकार ने यहाँ धर्म प्रचारकों के द्वारा तरह-तरह के भय दिखाकर भोली-भाली जनता को अपना अनुयायी बनाकर फिर उन्हें ठगने पर व्यंग्य किया है।

ब्याख्या : दो मित्रों में से एक तो धन कमाने की लिप्सा लिए धर्म प्रचारक बन जाता है। वह अपनी इस बाजीगरी से भोलीभाली जनता को बड़े-बड़े पार्कों में इकट्ठा करके भव्य मंच से जनता को अन्धकार के प्रति सावधान करता है। वह कहता है कि आज मनुष्य घने अन्धकार में घिरा हुआ है। मनुष्य के भीतर आत्म प्रकाश नहीं रहा उसकी यह ज्योति बुझ गई है यह युग अन्धकारमय हो रहा है। सब तरफ अन्धेरा छाया हुआ है। इस अँधकार की चपेट में सारी दुनिया आ गई है। मनुष्य को इस अन्धकार ने विचलित कर दिया है। अन्धकार का प्रभाव बहुत ही भयानक है। इसने मनुष्य के चरित्र का हनन कर दिया है। मनुष्य अपने रास्ते से भटक गया है। उसको कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है। मनुष्य की आत्मा भी अन्धकार की चपेट में आ गई है। मनुष्य के अन्तःकरण में भी अन्धेरा फैल गया है। अन्तःकरण को देखने वाली ज्ञानचक्षु ज्योतिहीन हो चुकी है। वे जान ही नहीं पा रही है। मनुष्य की आत्मा अन्धकार में छटपटा रही है।

विशेष : धर्म प्रचार पर व्यंग्य किया है, वे लोगों को भय दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

2. जहाँ अन्धकार है, वहीं प्रकाश है। अन्धकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अन्धकार की किंचित कालिमा है, प्रकाश भी है। प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अन्तर में खोजो। अन्तर में बुझ़ी उस ज्योति को जगाओ। में तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आदान करता हूँ। में तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ। हमारे “साधना मन्दिर में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।”

प्रसंग : प्रस्तुत गय्यांश प्रसिद्ध व्यंग्यकार ‘हरिशंकर परसाई’ की व्यंग्यकृति ‘टार्च बेचने वाले’ से अवतरित है। व्यंग्यकार ने यहाँ धर्म प्रचारक के द्वारा पहले जनता के बीच भाव पैदा करके बाद में अपने स्वार्थ के कहने पर व्यंग्य किया है। वह उनको अपने साधना मन्दिर में आने के लिए प्रेरित करता है।

ब्याख्या : धर्म प्रचारक जनता में अपना प्रवचन कर रहा है। जनता बड़े धैर्य से उसकी बातें सुन रही है कोई शोर नहीं है, कोई हलचल नहीं है। वह कहता है कि जहाँ अन्धकार है तो वहाँ प्रकाश भी है और प्रकाश है तो अन्धकार भी होता ही है। अन्धकार में प्रकाश की किरण अवश्य होती है इसी प्रकार कितना भी प्रकाश क्यों न हो उसमें कहीं न कहीं अन्धेरे का भी अपना वजूद रहता ही है। इसलिए तुम उस प्रकाश को बाहर खोजने के बजाय उसे अपने अन्तःकरण में खोजो। वहीं तुम्हें जीवन का भार्ग मिलेगा। तुम्हारे अन्दर ज्ञान की ज्योति बुझ़ गई है तुम्हें उस ज्योति को पुनः जलाना है। तुम्हें अपनी आत्मा को आलोकित करना है। मैं उस परम ज्योति को तुम्हारे अन्तःकरण में जलाना चाहता हूँ। मैं तुम सब का आह्वान करता हूँ। तुम सब उस ज्योति से अपने मन को आलोकित करने के लिए हमारे साधना मन्दिर में आइए वहाँ आने से तुम्हारी आत्मा आलोकित हो जाएगी।

3. ‘तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते टार्च हो। तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं। चाहे कोई दार्शनिक बने, सन्त बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अन्धेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर अपनी कम्पनी का टार्च बेचना चाहता है। तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अन्धकार छाया रहता है। बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हज़ारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है ? कभी नहीं कहा। क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपनी कम्पनी का टार्च बेचना है।’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध व्यंग्यकार ‘हरिशंकर परसाई’ द्वारा रचित व्यंग्य ‘टार्च बेचने वाले’ से अवतरित है। कवि ने यहाँ अन्धेरे का भय दिखाकर टार्च बेचने वाले और मन के अन्धेरे का भय दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले धर्म प्रचारक से समानता दिखाई है।

व्याख्या : टार्च बेचने वाला मित्र अपने धर्म प्रचारक बने मित्र से कहता है कि चाहे तुम लोगों को कुछ भी कहो परन्तु तुम्हारा काम भी टार्च बेचना ही है। तुम्हारे और मेरे प्रवचनों में कोई भेद नहीं है। तुम भी लोगों को अन्धेरे का भय दिखाते हो और मैं भी उनको अन्धेरे का ही भय दिखाता हूँ ? यदि कोई व्यक्ति दार्शनिक सन्त या साधु का स्वांग रचकर लोगों को अन्धेरे का भय दिखाता है तो वह भी किसी कम्पनी का टार्च ही बेचता है। धर्म प्रचार करने वालों को सब जगह अन्धकार ही दिखाई देता है और वे दूसरों को भी अन्धकार ही दिखाते हैं। यदि वे प्रकाश की बात करेंगे तो उनके पास कौन आएगा। जनता धर्मभीरू होती है। उसे धर्म के नाम पर कोई भय दिखाकर कोई कुछ भी कर सकता है। आजकल के सभी साधु संत यही कर रहे हैं। ये धर्म के ठेकेदार कहीं नहीं कहते कि दुनिया में सुख शान्ति है। दुनिया में प्रकाश फैला है इनको तो सर्वत्र अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है। यदि ये लोग प्रकाश की बात करेंगे तो इनके पास कौन आएगा। इनकी दुकानदारी तो ठप पड़ जाएगी। वे इसलिए ही अन्धकार का भय दिखाते हैं जिससे उनकी दुकानदारी चलती रहे।

विशेष : धर्म प्रचारकों की दुकानदारी पर करारा व्यंग्य किया गया है।

“मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए ? क्या बीबी ने तुम्हें त्याग दिया ?
क्या उधार मिलना बन्द हो गया ? क्या साहूकारों ने ज़्यादा तंग करना शुरू कर दिया ?
क्या चोरी के मामले में फँस गए हो ? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया।”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ‘हरिशंकर परसाई’ द्वारा रचित व्यंग्य रचना ‘टार्च बेचने वाले’ से लिया गया है। लेखक यहाँ सन्त बने एक परिचित से उसके दाढ़ी बढ़ाने का कारण पूछते हैं।

ब्याख्या : लेखक को एक बार उनका एक पूर्व परिचित मिला। उसने बहुत लम्बी दाढ़ी बढ़ा रखी थी। लेखक ने पूछा कि तुमने यह रूप कैसे धारण कर लिया। तुम तो ऐसे न थे क्या तुमको तुम्हारी घरवाली ने घर से बाहर निकाल दिया जो तुमने दाढ़ी बढ़ा ली है। क्या दुकानदार अब तुम्हें उधार नहीं देता। क्या तुमने साहूकारों से ज्यादा कर्ज ले लिया जो अब दिया नहीं जा रहा है। क्या तुमने किसी के घर में चोरी कर ली और पकड़े जाने के डर से यह रूप धर रखा है। तुम तो टार्च बेचने का काम करते थे, बाहर के टार्च का प्रकाश तुम्हारी आत्मा में कैसे घुस गया। बोलो क्या कारण है जो तुमने यह रूप धारण कर लिया है।

“में आज मनुष्य को एक घने अन्धकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुंड़ गया है। यह युग ही अन्धकारमय है। यह सर्वग्राही अन्धकार सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अन्धकार से घबरा उठा है। यह पथभ्रष्ट हो गया है, आज आत्मा में भी अन्धकार है। अन्तर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं, वे उसे भेद नहीं पारीं। मानव-आत्मा अन्धकार में घुटती है। में देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।”

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित व्यंग्य ‘टार्च बेचने वाले’ से लिया गया है। जिसके लेखक व्यंग्य जगत के जाने माने हस्तांक्षर ‘हरिशंकर परसाई’ जी हैं। व्यंग्यकार ने यहाँ धर्म प्रचारकों के द्वारा तरह-तरह के भय दिखाकर भोली-भाली जनता को अपना अनुयायी बनाकर फिर उन्हें ठगने पर व्यंग्य किया है।

ब्याख्या : दो मित्रों में से एक जो धन कमाने की लिप्सा लिए धर्म प्रचारक बन जाता है वह अपनी इस बाजीगरी से भोली भाली जनता को बड़े-बड़े पारों में इकट्ठा करके भव्य मंच से जनता को अन्धकार के प्रति सावधान करता है। वह कहता है कि आज मनुष्य घने अन्धकार में घिरा हुआ है। मनुष्य के भीतर आत्म प्रकाश नहीं रहा उसकी यह ज्योति बुझ गई है यह युग अन्धकारमय हो रहा है। सब तरफ अन्धेरा छाया हुआ है। इस अँधकार की चपेट में सारी दुनिया आ गई है। मनुष्य को इस अन्धकार ने विचलित कर दिया है। अन्धकार का प्रभाव बहुत ही भयानक है। इसने मनुष्य के चरित्र का हनन कर दिया है। मनुष्य अपने रास्ते से भटक गया है। उसको कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है। मनुष्य की आत्मा भी अन्धकार की चपेट में आ गई है। मनुष्य के अन्तःकरण में भी अन्धेरा फैल गया है। अन्तःकरण को देखने वाले ज्ञान चक्षु ज्योतिहीन हो चुके हैं, वे जान ही नहीं पा रहे हैं। मनुष्य की आत्मा अन्धकार में छटपटा रही है।

Hindi Antra Class 11 Summary