Class 11 Hindi Antra Chapter 2 Summary – Dopahar Ka Bhojan Summary Vyakhya

दोपहर का भोजन Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 2 Summary

दोपहर का भोजन – अमरकांत – कवि परिचय

जीवन-परिचय : अमरकान्त का जन्म सन् 1925 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगरा गाँव में हुआ था। अमरकान्त का वास्तविक नांम श्रीराम शर्मा है परन्तु उन्होंने साहित्य रचना अमरकान्त के नाम से ही की है। प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा उन्होंने बलिया में ही प्राप्त की। बी०ए० उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया । वे मूलतः कहानीकार हैं, उन्होंने विद्यालय में पढ़ते हुा ही कहानियाँ लिखनी प्रारंभ कर दी थीं। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लिया।

साहित्यिक-परिचय : अमरकान्त पहले एक पत्रकार थे। साहित्यिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की। वे कई पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे जिनमें प्रमुख हैं सैनिक, अमृत पत्रिका, दैनिक भारत और कहानी-पत्रिका। अमरकान्त की गिनती नई कहानी के कथाकारों में की जाती है। नई कहानी आन्दोलन के ये प्रमुख कहानीकार माने जाते हैं। इनकी कहानियों में गाँव और शहर के जीवन की झाँकी मिलती है। इन्होंने अपने साहित्य का विपय समाज में फैली बुराइयों एवं आडम्बरों को बनाया। वे मुख्यतः जीवन की विसंगतियों को व्यक्त करने वाले कथाकार हैं।

रचनाएँ : अमरकान्त की प्रमुख रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं-जिन्दगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन, सूखा पत्ता, ग्राम सेविका, काले उजले दिन, सुख जीवी और बीच की दीवार आदि। अमरकान्त ने बच्चों के लिए भी साहित्य सृजन किया। उन्होंने अनेक प्रेरणादायक एवं शिक्षाप्रद कहानियाँ लिखीं।

भाषा-शैली : अमरकान्त की भाषा बड़ी रोचक और चुटीली है जो पाठक को आनंदित कर देती है। उनकी भाषा में आँचलिक मुहावरों और शब्दों का भरपूर प्रयोग किया गया है। उनकी कहानी में एक प्रवाह है। उनकी शैली की सहजता एवं सजीवता पाठकों को वरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। अमर्कान्त की कहानियों के शिल्प में पाठकों को चमत्कृत करने का प्रयास नहीं है। वे जीवन की कथा उसी ढंग से कहतं हैं, जिस ढंग से जीवन चलता है।

Dopahar Ka Bhojan Class 11 Hindi Summary

कहानी का संक्षिप्त परिचय :

प्रस्तुत कहानी दोपहर का भोजन एक यथार्थवादी कहानी है। यह कहानी समाज के निर्मम यथार्थ को प्रकट करती है। यह कहानी गरीबी से जूझ रहे ऐसे गरीब शहरी परिवार की कहानी है जिसे भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हो रहा है। बच्चों वाले परिवार में परिवार के मुखिया की अचानक नौकरी से छंटनी हो जाने पर परिवार के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाता है। मुन्शी जी के पूरे परिवार का संघर्ष भावी उम्मीदों पर टिका हुआ है। सिद्धेश्वरी गरीबी में अपने परिवार को जोड़े रखती है वह गरीबी के एहसास को मुखर नहीं होने देती। परिवार में भूख का प्रवेश हो जाने पर बच्चे भी सयाने हो जाते हैं। सिद्धेश्वरी आँसुओं का घूँट पीकर यथार्थ से जूझती है। पिता को उम्मीद है कि शायद बच्चों का भविष्य बन जाए। उनका बड़ा बेटा प्रूफ़-रीड़िंग का काम करता है। लेखक ने दोपहर के खाने पर ही पूरी कथा को केन्द्रित कर दिया है। यह कहानी छात्रों के लिए बहुत उपयोग सिद्ध हो सकती है। यह कहानी अभावों से जूझने एवं संघर्ष करने की प्रेरणा देती है।

कहानी का सार :

सिद्धेश्वरी खाना बनाने के बाद चूल्हे. की आग बुझाकर अपने घुटनों में सिर रखकर बैठी है। उसे काफी देर से प्यास का एहसास हो रहा है। वह उठकर गगरे से एक लोटा भरकर पानी पीती है। पानी उसके खाली कलेजे में जाकर लगता है। वह ‘हाय राम’ कहकर धम से जमीन पर लेट जाती है। आधि घण्टे बाद वह आँखें मलती हुई उठती है। उसका छह वर्ष का लड़का प्रमोद खाट पर पड़ा है। वह बीमार है। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं। धूप काफी तेज है। वह दरवाजे पर जाकर बड़ी व्यग्रता के साथ गली में आने-जाने वालों को देखती है। तभी उसका बड़ा लड़का धीरे-धीरे आतः हुआ दिखाई देता है। वह उसके लिए एक लोटा पानी रख देती है। वह निढाल-सा चौकी पर बैठ जाता है। सिद्धेश्वरी को उसकी ऐसी हालत देखकर चिन्ता होती है। थोड़ी देर बाद वह आँखें खोलता है और हाथ पैर धोकर चौकी पर ख़ाना खाने बैठ जाता है। सिद्धेश्वरी उसके सामने एक थाली में दो रोटी और दाल परोस देती है। वह धीरे-धीरे छोटे-छोटे कोर खाने लगता है। खाना खाते हुए ही वह अपनें छोटे भाई प्रमोद को पूछता है तो उसकी माँ उससे झूठ बोल देती है कि वह किसी दोस्त के पास पढ़ने गया है। सिद्धेश्वरी रामचन्द्र से एक रोटी और लेने को कहती है तो वह लेने से यह कहकर मना करता है कि क्या अधिक खिलाकर मुझे बीमार करोगी।

इसके बाद मँझला लड़का मोहन आता है। वह भी खाना खाने के लिए चौकी पर बैठ जाता है। सिद्धेश्वरी उसके सामने खाना रख देती है। सिद्धेश्वरी उससे कहती है कि तेरा बड़ा भाई तेरी बहुत तारीफ़ कर रहा था कि मोहन बड़ा दिमागी लड़का है। मोहन थोड़ी देर में ही खाना समाप्त कर लेता है। सिद्धेश्वरी मोहन को एक रोटी और देना चाहती है वह मना कर देता है और कहता है कि यदि दाल हो तो दे दीजिए रोटी तो खाने लायक है ही नहीं, दाल जरूर अच्छी बनी है। सिद्धेश्वरी दाल देती है। मोहन घूट भर-भर कर दाल को पी जाता है तभी मुन्शी चन्द्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आते हैं और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ जाते हैं। सिद्धेश्वरी चन्द्रिका प्रसाद के सामने दो रोटी और कटोरा भर दाल व चने की तली तरकारी रख देती है। चन्द्रिका प्रसाद ग्रास को इस प्रकार चबाता है जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। अभाव और भूख के कारण चन्द्रिका प्रसाद पैंतीस की उम्र में ही पचपन के लगने लगे हैं। चन्द्रिका प्रसाद दोनों लड़कों के बारे में पूछते हैं तो वह बताती है कि रामचन्द्र अभी-अभी खाकर गया है। कह रहा था कि कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। वह तो हमेशा बाबूजी बाबूजी किए रहता है। कहता है बाबूजी देवता समान हैं। सुनकर चन्द्रिका प्रसाद का चेहरा चमक जाता है। वह

अपने तीनों लड़कों की तारीफ करता है। मुन्शी जी दाल लगे हाथ चाट रहे थे तभी सिद्धेश्वरी उनको एक रोटी और लेने की जिद करती है। सिद्धेश्वरी की जिद के आगे वे एक रोटी और ले लेते हैं। वे कहते हैं कि नमकीन और अन्न से तो तबीयत ऊब गई है। वे सिद्धेश्वरी से पूछते हैं कि गुड़ है क्या ? वे सिद्धेश्वरी से गुड़ का शर्बत बनाने को कहते हैं। वे कहते हैं कि रोटी खाते खाते नाक में दम आ गया है। यह कहकर वे ठहाका लगाकर हैस पड़ते हैं।

मुन्शी जी को खाना खिलाने के बाद सिद्धेश्री उनकी जूटी थाली में दाल और तरकारी तथा बची हुई एक रोटी लेकर खाने बैठती है। तभी उसका ध्यान ओसारे में पड़े प्रमोद पर पड़ता है। उसने एकटक उसकी ओर देखा और उस जली हुई रोटी को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकडे को अलग रख, लोटे में पानी लेकर वह खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। सारा घर मक्खियों से भन-भन कर रहा था। दोनों लड़कों का कहीं पता नहीं था। मुन्शी चन्द्रिका प्रसाद बाहर की कोठरी में औंधे मुँह लेटकर निश्चित होकर सो रहे थे, ऐसा लगता था मानो डेढ़ महीने पहले मकान-किराया निरान्त्रण विभाग की कलर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।

शब्दार्थ एवं टिप्पणियाँ :

  • व्यग्रता – व्याकुलता, घबराया हुआ
  • ओसारा – बरामदा
  • बर्राक – याद रखना
  • पनियाई – पानी वाली
  • पंडूक – कबूतर की तरह का एक प्रसिद्ध पक्षी
  • निर्बिकार – जिसमें कोई विकार या परिवर्तन न होता हो
  • छिपुली – खाने का बर्तन
  • अब्वल – वास्तव में
  • अलगनी – आड़ी रस्सी या बाँस जो कपड़े टाँगने के लिए घर में बाँधा जाता है
  • नाक में दम आना – परेशान होना
  • उन्माद – पागलपन
  • जी में जी आना – चैन आ जाना
  • दृष्टिपात – नज़र दौड़ाना

दोपहर का भोजन सप्रसंग व्याख्या

1. सिद्देश्री की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास जाए और वह वहीं से भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-धुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किन्तु लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचन्द्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा, ‘बड़कू, बड़कू!’ लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर उर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचन्द्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नज़रों से देखा, फिर झट से उठ बैठा। जूते निकाले और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यन्त्र की तरह चौकी पर जाकर बैठ गया।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी के जाने माने कथाकार ‘अमरकान्त’ द्वारा रचित कहानी ‘दोपहर का भोजन’ से लिया गया है। लेखक ने यहाँ आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार की दयनीय दशा का वर्णन किया है।

ब्याख्या : सिद्धेश्वरी का बड़ा पुत्र रामचन्द्र थका हारा घर आता है। आते ही वह चौकी पर बैठता है परन्तु फिर वही निढ़ाल-सा होकर लेट जाता है। उसका शरीर ऐसा लगता है जैसे इसमें जान ही न हो। सिद्धेश्वरी रामचन्द्र को देखकर घबरा गई थी। उसके पास जाने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। जिस प्रकार से कोई हिरणी अपने घायल बच्चे की ओर बहुत ही व्यग्रता के साथ देखती है सिद्धेश्वगी भी घबराई हुई सी रामचन्द्र की ओर देख रही थी। दस मिनट बीत जाने के बाद भी रामचन्द्र नहीं उठा। सिद्धेश्वरी और अधिक चिन्तित हो गई। वह घबराकर बड़कू-बड़कू पुकारने लगी फिर भी कोई हिलडुल नहीं हुई तो उसने रामचन्द्र के नाक के पास हाथ रख कर देखा कि इसकी साँस भी चल रही है या नहीं। उसे यह जानकर थोड़ी राहत मिली कि साँस चल रही थी। उसने उसके सिर पर हाथ रखा कि कहीं इसको बुखार तो नहीं परन्तु उसका शरीर गर्म नहीं था। बुखार का कोई लक्षण नहीं था। हाथ के स्पर्श से उसने अपनी आँखें खोल दीं। उसने अपनी नज़रों को धीरे-धीरे घुमाकर अपनी माता की ओर देखा जैसे कुछ भूल रहा हो। फिर यकायक वह उठ बैठा जैसे उसके शरीर में चेतना आ गई हो। लोटे के जल से हाथ-मुँह धोने के बाद वह चौकी पर खाना खाने के लिए बैठ गया।

2. दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल तथा चने की तली तरकारी। मुंशी चन्द्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालयी मारकर बेठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतीस वर्ष के लगभग थी, किन्तु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गन्दी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ़ बनियान तार-त्तार लटक रही थी।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित कहानी ‘दोपहर का भोजन’ से लिया गया है। इस कहानी के कहानीकार अमरकान्त जी हैं। लेखक ने यहाँ आर्थिक तंगी एवं भूख की मार झेल रहे एक परिवार के मुखिया की दशा का वर्णन किया है।

ब्याख्या : लेखक परिवार के मुखिया मुन्शी चन्द्रिका प्रसाद के हाव-भाव एवं भंगेमा को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सिद्धेश्री ने चन्द्रिका प्रसाद के सामने एक थाली में दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल व चने की तरकारी परोस दी। मुन्शी चन्द्रिका प्रसाद पीढ़े पर पाल्थी मारकर भोजन करने बैठ गए। आर्थिक तंगी एवं भूख ने चन्द्रिका प्रसाद के शरीर के ढाँचे को भी बिगाड़ कर रख दिया था। वे भोजन के ग्रास को मुँह में इस प्रकार चबा रहे थे जैसे कोई बूढ़ी गाय जुगाली करती है या कोई बिना दाँत वाला व्यक्ति भोजन को केवल पपोलता रहता है। पैंतीस साल की उम्र में ही वे पचपन साल के व्यक्ति की तरह हो गए थे। वे ऐसे लगते थे जैसे इन्होंने जमाना देख रखा है। उनके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ कर खाल नीचे लटकने लगी थी। सिर के सभी बाल अलविदा हो चुके थे। उनकी गंजी खोपड़ी आइने की तरह चमकने लगी थी। उनके शरीर पर एक धोती थी और एक बनियान। बनियान पूरी तरह से फट चुकी थी।

3. सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल को क्या हो गया है-जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और ज़ोर से घुमाती हुई बोली, ‘अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा ‘बाबू जी-बाबू जी’ किए रहता है।’ बोला, ‘बाबू जी देवता के समान हैं।’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश जाने माने कथाकार ‘अमरकान्त’ द्वारा रचित कहानी ‘दोपहर का भोजन’ का अंश है। लेखक ने यहाँ सिद्धेश्ररी की मनोदशा एवं चतुराई का वर्णन किया है। लेखक ने बताया है कि गृहस्वामिनी किस प्रकार अपने घर को अभावों के बीच भी एक जुट करके रखती है।

ब्याख्या : लेखक कहता है कि जब मुंशी चन्द्रिका प्रसाद जी पूछते हैं कि बड़े वाला लड़का कहाँ गया तो सिद्धेश्वरी को कोई माकूल जवाब नहीं सूझ रहा था उसकी स्थिति विचित्र हो गई थी। ऐसा लगता था जैसे कोई उसको काटने आ रहा है। वह पंखे को जोर-जोर से घुमाने लगती है। वह अपने पति की बात का क्या जवाब दे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह बोली वह तो अभी-अभी खाकर काम पर गया है। उसने यह भी कहा कि कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी लग जाएगी । सिद्धेश्वरी रामचन्द्र की झूठी तारीफ करती हुई बोली उसको तो सदा ही बाबू जी-बाबू जी की रट रहती है। वह कहता है कि बाबू जी तो देवता समान हैं। चन्द्रिका बाबू अपनी तारीफ सुनकर खुश हो जाते हैं। सच बोलने पर जहाँ हताशा और निराशा होती वहाँ इस थोड़े से झूठ ने चन्द्रिका बाबू को जीने का मकसद बता दिया।

4. सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चड़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, ‘पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस ज़माने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने-लिखने वालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।’

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध कथाकार अमरकान्त द्वारा रचित ‘दोपहर का भोजन’ कहानी से लिया गया है। लेखक यहाँ सिद्धेश्वरी की समझदारी व अभावों से लड़ने एवं परिवार में भूख के दिनों में भी एक तरह की तृप्ति का एहसास कराते हैं। सिद्धेश्वरी अपनी समझदारी के कारण परिवार के किसी भी सदस्य को हताशा का शिकार नहीं हाने देती।

ब्याख्या : सिद्धेश्वरी के मुख से यह सुनकर कि उसका बड़ा पुत्र उनको देवता समान समझता है वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। सिद्धेश्वरी भी अपने पुत्र की एवं पति की तारीफों के पुल बाँधे जा रही थी। सिद्धेश्वरी एक उन्मादी व्यक्ति की तरह बोले जा रही थी । वह कहने लगी रामचन्द्र पागल नहीं है वह बड़ा ही होशियार लड़का है लगता है वह पहले जमाने का कोई महात्मा है तभी तो वह माता-पिता का सम्मान करना जानता है। छोटा लड़का मोहन भी उसकी बहुत इज्जत करता है। वह कहता है कि भैया की शहर में बहुत इज्जत है। पढ़े-लिखे लोगों की इज्जत होती ही है। जैसे छोटा भाई बड़े का सम्मान करता है वैसे ही बड़ा भी अपने छोटे भाई के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। वह उस पर जान छिड़कता है। वह कुछ भी देख सकता है पर यह हरगिज नहीं कि उसके छोटे भाई प्रमोद को कुछ हो जाए।

5. मुन्शी जी के निबटने के पश्चात सिद्देश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की ज़मीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उँड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में धोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास ख्रींच लिया, उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी, भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा ही रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी औंखों से टपटप ऑसूू चूने लगे।

प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा’ में संकलित कहानी ‘दोपहर का भोजन’ से लिया गया है। इसके कथाकार ‘अमरकान्त जी’ हैं। लेखक ने यहाँ सिद्धेश्वरी की मनोव्यथा को व्यक्त किया है। सबको भोजन कराने के बाद जब सिद्धेश्वरी भोजन करने के लिए बैठती है तो मानो सारी करुणा जिसको अब तक रोका हुआ था वह अचानक उमड़ आती है। सिद्धेश्वरी भी इस करुणा को रोकने में अपने को असमर्थ पाती है।

व्याख्या : सिद्धेश्वरी ने सभी को भोजन करा दिया। अन्त में वह अपने पति की जूठी थाली में भोजन करने बैठी। बटलोई में जो थोड़ी-बहुत दाल बची थी उसको एक कटोरे में उँड़ेल लिया। चने की तरकारी के बर्तन को भी उसने अपनी ओर खिसका लिया। रोटियों की थाली को भी उसने अपने समीप खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी, वह भी मोटी, जली हुई और भद्दी सी। तभी सिद्धेश्वरी का ध्यान अपने सबसे छोटे पुत्र की ओर जाता है जो बीमार है और उसने अभी तक कुछ नहीं खाया था। सिद्धेश्वरी उस एक रोटी में से आधी रोटी तोड़कर प्रमोद के लिए रख देती है। दूसरे आधे हिस्से को वह स्वयं खाने के लिए पानी का लोटा रखकर बैठ गई । वह पहला ग्रास मुँह में रखती है तो अचानक ही उसके हृदय की वेदना आँखों से आँसू बनकर टप-टप थाली में चूने लगती है जो अभी तक पूरे परिवार को हँस-हैंस कर आपस में जोड़ रही थी। अचानक ही वह करुणा की मूर्ति नज़र आने लगती है।

Hindi Antra Class 11 Summary