CBSE Class 11 Hindi Elective रचना निबंध-लेखन

CBSE Class 11 Hindi Elective Rachana निबंध-लेखन

1. मेरा भारत महान

जग में सब देशों से जिसकी,
रही निराली शान है।
धरती का यह स्वर्ग हमारा,
भारत देश महान है।

भारत संसार का शिरोमणि देश है। अद्भुत देश है भारतवर्ष। उत्तर में हैं गगनचुंबी हिमालय की चोटियाँ और दक्षिण में गरजते हिंद महासागर की भयानक लहरें। इनके बीच 3200 किलोमीटर लंबी विभिन्नताओं और आकर्षण से भरपूर भारत भूमि। अत्यन्त प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाला यह देश संसार में विचित्र है। इसी भारतभूमि की महानता में महाकवि इकबाल कह उठे-

यूनान मिस्त, रोमां सब मिट गये जहाँ से,
लेकिन अभी है बाकी नामोनिशां हमारा।

बहुत ही आकर्षक देश है भारत। यह देखने और सुनने में जितना आकर्षक है, उससे भी अधिक है विभिन्न विचित्रताओं से पूर्ण। यह एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें 100 करोड़ जनसंख्या भाँति-भाँति की वेश-भूषाओं, विभिन्न रीति रिवाजों से सम्पन्न है। इन विभिन्नताओं में छिपी हुई अभिन्नता और भी अदुभुत है। पुरातनता का सर्वश्रूष्ठ और जीवंत स्वरूप देखना हो तो भारत का व्यापक भ्रमण कीजिए। सभ्यता और संकृति का प्रथम सूर्योदय यहीं हुआ था। गुजरात और राजस्थान के भग्नावशेष, मिस्न और सुमेर सभ्यताओं को भी पीठे छोड़ देते हैं।

इस देश की परम्पराएं भी अद्भुत रही हैं। इस देश में विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का समन्वय और संगम हुआ है। यहाँ की संस्कृति संसार में बेजोड़ है। यहाँ की पुरातनता में भी नवीनता की जीवंतता है और नवीनता में पुरातनता की पृष्ठभूमि। मंदिरों में हजारों वर्ष पूर्व की गई नक्काशी आज भी ऐसी लगती है, जैसे कल ही बनाई गई हो। इस देश की संस्कृति और जीवन पद्धति में रंगों का आश्चर्यजनक मिश्रण है। एक उच्चकोटि की सभ्यता और संस्कृति के साथ अनेक सभ्यताओं और परिवर्तनों का टकराव हुआ है। जीवन के उतार चढ़ाव देखे हैं। इस महान् राष्ट्र ने लेकिन सबको आत्मसात् किया इस देश की परम्परा ने।

इतिहास साक्षी है कि इस महान धरा की संस्कृति ने अनेक संस्कृतियों को आत्मसात किया है। इस देश की संस्कृति की आदिम धारा आज भी सूखी नहीं है। जिस तरह गंगा में अनेक नदियाँ आकर मिली हैं और मिलकर गंगा बन गई हैं, उसी प्रकार इस देश की संस्कृति रूपी गंगा में शक, हूण, कुषाण आदि न जाने कितनी संस्कृतियाँ और जातियाँ आईं और इस देश की संस्कृति में घुल-मिल कर एकरूप हो गईं। सब वैदिक धर्म और दर्शन के रंग में रंग गईं। कितना महान् है भारतीयता का स्वरूप-यहाँ के काव्य और दर्शन में उसी का प्रतिरूप है। महान् मनीषियों ने यहाँ साधना की है। मुनियों के तत्त चिंतन और उपदेशों ने प्राणवान बनाया है इस देश कों।

इस देश ने विदेशियों के वार और प्रहार भी अनेक बार सहे हैं। छोटे और बड़े अनेक आक्रमण इस देश पर हुए। ई. पू. 326 में यूनानी सम्राट सिकंदर यहाँ की धन दौलत और समृद्धि का वरण करने भारत आया था। उसके साथ आई थी यूनान की सभ्यता और संस्कृति, परंतु यूनानी प्रभाव भी भारतीयता का एक अंग बनकर विलीन हो गया इस देश में। यूनानी पर्यटक मेगस्थनीज ने भारतीय संस्कृति और समृद्धि की सराहना अपने यात्रा वर्णन में मुक्त कंठ से की है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबंध की सराहना की है। अशोक ने इसी भारत भूमि पर प्यार को तलवार बना लिया था। यहीं से ‘‘ुद्धम् शरणम् गच्छामि’ का महामंत्र श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, चीन और जापान तक फैला। भारत में उसके बिखरे हुए स्तंभों, स्मारकों, स्तूपों और शिलालेखों को कौन देखना नहीं चाहेगा।

भारत में स्वर्णकाल लाने वाले गुप्त सम्राटों की कलाकृतियों पर किसे गर्व नहीं होगा। आठवीं शताब्दी से भारत पर यवनों के आक्रमण होने आरंभ हो गए थे। तेरहवीं शताब्दी तक दिल्ली उनकी तलवार के नीचे आ गई। मुगलों के आगमन के साथ दो विभिन्न संस्कृतियों का मेल हुआ। व्यापारी बनकर आए अंग्रेज छल-बल से भारत विधाता बन बैठे। पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति से देश का पाला पड़ा। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का प्रचलन हुआ। भारतीय जनमानस ने इस नई गुलामी के विरुद्ध विद्रोह किया।

बच्चे, बूढ़े और जवान भारत माँ की परतंत्रता की बेड़ियों को काट गिराने के लिए कटिबद्ध हो गए। नौजवान सर पर कफन बांधे अंग्रेजी हुकूमत के विरदद्ध अपना सर्वस्व लुटाने लगे। अंग्रेजी सत्ता जुल्म ढाने लगी। अंत में 15 अगस्त, सन् 1947 ई. को देश स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी, नेहर, तिलक, लाल, बाल, पाल, भगत सिंह, आजाद और न जाने कितनी महान् आत्माओं ने कुर्बानियाँ दीं। 26 जनवरी, सन् 1950 ई. को भारत में गणतंत्रीय संविधान का जन्म हुआ। आर्थिक और सामाजिक न्याय के द्ववार सभी के लिए खुले। गुटनिरेपक्षता, पंचशील की नीतियों पर चलने वाले इस महान भारत देश पर संसार की निगाहें टिकी हैं, पुनः मार्गदर्शन के लिए।

2. हम भारतवासी एक हैं

हमारे भारत में तरह-तरह की जातियों के लोग रहते हैं। वे अपने त्योहार अपनी तरह से अलग-अलग मनाते हैं, लेकिन जहाँ तक एकता का सवाल है, वहाँ सभी भारतीय एक हैं। विभिन्न धर्मों के होते हुए भी दूसरे धर्मों के ल्योहारों को भी इतने ही उत्साह से मनाते हैं, जैसे अपने त्योहार। यह एक ऐसा तथ्य है। जो सभी भारतवासियों को एकता के सूत्र में बाँधे रखता है। राष्ट्रीय एकता भारतवासियों में कूट-कूटक भरी है।

आज भारत की गणना संसार के आधुनिक राष्ट्रों में होती है, किंतु यह सौभाग्य का विषय है कि हमारे देश की एकता व अखण्डता अक्षुण्ण है।

हमारे देश अत्यंत विशाल है। इस विशाल देश में इनती विविधतायें हैं, उनकी गणना करना संभव नहीं है। इस देश में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ लोगों द्वारा विभिन्न वेश-भूषाएँ पहनी जाती हैं। यहाँ खान-पान में विभिन्नताएँ हैं। प्राकृतिक दृष्टि से भी अनेक भिन्नताएँ हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तथा उत्तर-पूर्वी अंचल से लेकर गुजरात तक भारत एक विस्तृत भू-भाग है। यहाँ चेरापूँजी जैसी अतिवृष्टि वाले क्षेत्र हैं, तो रेगिस्तान के मरुस्थल भी हैं, जो बूँद-बूँद वर्षा के लिए तरसते हैं। धर्म-संस्कृति आदि की दृष्टि से भी यहाँ अनेक मिन्नताएँ विद्ययमान हैं। प्राकृतिक बाधाओं पर तो अब लगभग काबू पर लिया गया है ।

हमारे देश का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब विघटनकारी शक्तियें ने सिर उठाया, तब-तब यहाँ की एकता की भावना को क्षति पहुँची। यहाँ कभी धर्म को लेकर, तो कभी भाषा को लेकर दंगे होते रहते हैं। कभी पंजाब और कभी कश्मीर को लेकर दंगे भड़कते हैं, तो कभी बिहार में सवर्णों एवं हरिजनों के मध्य संघर्ष छिड़ जाता है। उत्तर प्रदेश में हिंदूनुस्लिम दंगे भड़काना कुछ लोगों का काम ही हो गया है। पिछले दिनों से ‘राम-जन्मभूमि’ और ‘बाबरी मस्जिद’ का झगड़ा उलझता नजर आ रहा है। ये सब प्रवृत्तियाँ देश की एकता को खण्डित करती हैं, इन्हें रोका जाना नितांत आवश्यक है।

भारत में अनेक वर्गों के मानने वाले लोग रहते हैं। उनकी भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं। उनकी वेशभूषा, रीति-रिवाज, त्योहार अलग-अलग हैं। कश्मीर जैसे ठण्डे और मद्रास जैसे गर्म प्रांत इस देश में हैं, लिए तो वेशभूषा की भिन्नता होना अनिवार्य है। भारत में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं। अतः स्वाभाविक है कि इनके रीति-रिवाज, त्योहार व खानपान में भिन्नता परंतु विभिन्नता में एकता भारत का गुण है।

परंतु सभी भारतवासी एक होने पर भी आर्थिक विषमता के कारण कभी-कभी कोई क्षेत्र विशेष आंदोलन पर उतारू हो जाता है, परंतु ये विवाद आपसी सूझ-बूझ से सुलझाए ज़ा सकते हैं, तथा सभी भारतवासी एक होकर, मिल-जुलकर देश की उन्नति के शिखर पर ले जाएं, तथा दुनिया को दिखा दें कि पर्याप्त विषमता होते हुए भी हम सभी आपस में भाई-भाई हैं, किसी ने सच ही कहा है-हिन्दू, ,ुस्तिम, सिख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई।

3. 21 वीं सदी का भारत कैसा होगा ?

आज भारत वर्ष ने इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लिया है। यह सदी असीम विकास की संभावनाओं से भरी है। 21 वीं सदी में विकास की यह कल्पना आहलादकारी होने के साथ-साथ जिज्ञासापूर्ण भी है। विकास की कोई निश्चित सीमा नहीं होती। विकास एवं नवीन आविष्कार तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इक्कीसवीं सदी के भारत की परिकल्पना हमारे राष्ट्रपति डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम एवं प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जो की है, उस पर यदि हम विचार करें एवं अमल में लाएं, तो हम सन् 2010 तक विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जाएँगे।

यह सदी विकास के उत्कर्ष की सदी होगी। इस सदी में कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट के प्रयोग का बाहुल्य होगा। सम्पूर्ण महत्वपूर्ण कार्यों के सम्पादन के केन्द्र में कम्पूटर होगा। यदि यह कहा जाए कि कम्पूटर ही केंद्रीय मस्तिष्क होगा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सम्पूर्ण सूचनाओं के एकतीकरण उसके विश्लेषण एवं सही निष्षर्षों को सामने लाने का काम कम्प्रूटर ही करेंगे। हालाँकि कम्प्यूटरों पर अधिक-से-अधिक आध्रित होना एवं मशीनों को महत्त्व देना, बेरोजगारी का कारण बनेगी। बेरोजगारों की संख्या में वृद्धधि धीरे-धीरे दिखाई भी पड़ने लगी है।

आजकल हर विभागों में छँटनी एवं लोगों की संख्या घटाने का कार्य शुरू हो चुका है। हर विभागों में से या तो कुछ लोगों को बाहर किया जा रहा है या वे स्वयं स्वैच्छिक अवकाश ले रहे हैं। भारत की जनसंख्या बैसे ही अधिक है। रोजगार के नए अवसरों का सृजन करने की अपेक्षा नौकरी में लगे लोगों को बाहर करना भविष्य में देश के लिए भयंकर समस्या हो सकती है। सरकार का यह कदम उचित नहीं है। आखिर इतनी अधिक संख्या में बेरोजगार किधर जाएँगे। सही तो यह होता कि सरकार बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या को किसी विकास के नए क्षेत्रों में लगाती।

21 वीं सदी में शिक्षा के क्षेत्र में मूलभूत परिवर्तन किए जा रहे हैं। सरकार ‘नयी शिखा नीति’ लागू करने जा रही है। शिक्षा में सूचना तकनीक ज्योतिष गणित (वैदिक गणित) एवं वैज्ञानिक दृटिकोण को महत्व दिया जा रहा है। निश्चित ही इनके परिणाम सुखद और कल्याणकारी होंगे। भारत प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण करने की योजना बना चुका है। निरक्षरता उन्मूलन का प्रयास किया जा रहा है। आने वाले दस, पन्द्रह वर्षों में शिक्षा जगत में कांतिकारी परिवर्तन होंगे।

भारत कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुका है। खाद्यानों से गोदाम भरे हैं। समय-समय पर सूखा और बाढ़ रूपी प्राकृतिक आपदाएँ आकर कृषि व्यवस्था को चौपट कर देती हैं। देश इस समस्या के स्थायी समाधान की भी योजना बना रहा है। देश की सभी नदियों को आपस में जोड़ने की राय प्रधानमंत्री जी ने व्यक्त की है। इस राय पर हर प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों की सहमति अपेक्षित है। अगर ऐसा हो जाता तो कम-से-कम बाढ़ एवं सूखा में कृषि को राहत मिलती, वैसे वैज्ञानिक ढंग से कृषि की जा रही है। उत्पादन भी भरपूर हो रहे हैं। आने वाले वर्षों में कृषि के क्षेत्र में भी व्यापक सुधार होगा।

भारत में औद्योगिक विकास की दर सन्तोषप्रद नहीं है। विश्व बाजार की प्रतिस्पर्धा में अभी विकसित राष्ट्रों की तुलना में हम काफी पीछे हैं। अभी भी बड़े-बड़े कल-कारखानों, सुरक्षातंत्रों आदि के लिए अधिकांश मशीने एवं कलपुर्जे दूसरे देशों से आयात करने पड़ रहे हैं। इस क्षेत्र में भारत नई औद्योोगिक इकाइयाँ स्थापित कर रहा है। आशाा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इस सदी में भारत औदूयोगिक क्षेत्रों में भी वांछित प्रगति कर विश्व अर्थव्यवस्था में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है। इस सदी में उद्योग-धंधों का जाल विछ जाने से विश्व बाजार प्रतिस्पधां में हम टिक पाएँगे।

इस सदी में देश सूचना तकनीकी में अंग्रेजी भूमिका निभा सकता है। भारत के विद्यार्थी एवं प्रशिक्षक सूचना तकनीकी के क्षेत्र में विश्व में अपनी अच्छी साख बना चुके हैं। ज्ञान एवं परिश्रम दोनों कुशलताओं ये युक्त भारतीय युवा विश्व सूचना जगत में भूमिका निभा सकते हैं।

इस सदी में देश के सामने सबसे बड़ी परेशानी अशांति एवं अराजकता के कारण है। हमें बाहर से ही नहीं देश के भीतर से भी पृथकतावादी ताकतों से डर है। जम्मू-कश्मीर, असम, दिल्ली, गुजरात, हैदराबाद आदि जगहों में उग्रवादी गतिविधियाँ देशवासियों के मन में भय एवं असुरक्षा की भावना को जन्म दे रही हैं। निहत्थे एवं निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएँ देश के लिएं चिन्ता का विषय बन चुकी हैं। सरकार सख्ती के साथ आतंकवाद को कुचलने का प्रयास कर रही है। देश के खुपिया तंत्र को काफी सक्रिय किया गया है। ऐसा विश्वास है कि यह सदी आतंकवाद की समस्या से मुक्ति पाएगी। इस समस्या से मुक्ति पाने के बाद देश में पूरा अमन-चैन आएगा। देश में भाई-चारा लाने के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करना होगा। 21 वीं सदी में राष्ट्र चतुर्दिक विकास करेगा, राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री की कल्पनाएँ साकार होंगी। हर देशवासी खुशहाल होगा, लेकिन इसके लिए हम सभी को निःस्वार्थ भाव से देश के विकास में योगदान देना होगा। परिश्रम ही सफलता का आधार होता है। अगर देश का हर नागरिक परिश्रम करेगा, तो यह सदी निश्चय ही भारत-भाभ्य विधाता होगी।

4. भारत में राष्ट्रीय एकता का स्वरूप

राष्ट्रीय एकता किसी भी राष्ट्र की सुख, शांति, प्रगति और समृद्धिध एवं शक्ति की परिचायक है। यह राष्ट्रीय समस्याओं और अंतर्राष्ट्रीय दबावों को सुलझाने और दृढ़तापूर्वक सामना करने की शक्ति प्रदान करती है। यह राष्ट्र पर आने वाली कठिनाइयों का एकजुट होकर सामना करने की भावना का नाम है।

भारत में राष्ट्रीयता की शक्ति ने लोगों के जन-जीवन को बड़ा प्रभावित किया है और साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। भारत की स्वतंत्रता के मूल में इसी राष्ट्रीयता की भावना का बहुत बड़ा हाथ रहा है। हमारा देश अनेक जातियों, विभिन्न धर्मों और सम्रदायों में विभाजित है। राष्ट्र के जीवन में दो परस्पर विरोधी शक्तियों में संघर्ष दिखाई पड़ते हैं, किंतु आंतरिक रूप से इनमें एक प्रकार की एकता विद्यमान है, क्योंकि हम सभी भारतीय भारत-भूमि पर रहने वाले पहले हैं। भारत हमारी मातृभमि है और भूमि के प्रति मातृत्व की भावना ही लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करती है। आज के संदर्भ में हम लोग देश को स्वाधीन, स्वतंत्र तभी रख सकते हैं, जब हमारे मनों में देश के प्रति मातृत्व की भावना विद्यमान रहे। इसी भावना से अनुप्राणित होकर सभी देशवासी स्वयं को भारतीय कहते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् कई बार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि अनेक प्रकार की विभिन्नताओं और अनेकताओं के रहते हुए भी हममें एकता विद्यमान है।

राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक को समान रूप से अपने-अपने विश्वासों की रक्षा के साथ-साथ समन्वयात्मक रूप से उन्नति और विकास का समान अवसर तथा अधिकार प्राप्त हो हमारे देश में अनेक मत-मतांतरों के मानने वाले लोग रहते हैं। उनके पूजा-उपासना के ढंग अलग-अलग हैं, लेकिन सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर संकेत करते हैं। सभी धर्मों के अंदर बहने वाली. भावधारा एक ही है। सभी जीवन के उच्चादर्शों की ओर संकेत करते हैं।

हमारी भाषाएँ अलग-अलग हैं किंतु उनमें घहने वाली भावधारा एक ही है। सभी भाषाओं के शब्द एक-दूसरे से बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं। वास्तव में हमारी राष्ट्रीय एकता को समग्र सूत्रता में बाँधने वाला नियामक तत्त्व है-भावनात्मक तत्त्व, यहाँ की संस्कृति। संस्कृति किसी देश और राष्ट्र की उन समुन्नत परम्पराओं का मिश्रित रूप है, जो चेतनाओं की विभिन्न प्रकार की सुरुचियों को भावनात्मक स्तरों पर आश्रय देती है। साहित्य, संगीत, नृत्य, मूर्ति, वास्तु, चित्र आदि विविध कलाएँ और उनके मूल में अंतर्निहित आनंद-उल्लास के भाव, प्रगति के लिए मार्ग तलाशती परम्पराएँ, धर्म, दर्शन, अध्यात्मिकता आदि मानव संस्कृति के ही अंग हैं। इतना ही नहीं सामाजिक रीति-नीतियाँ, मानवीय सम्बंधों की प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति, सहयोग आदि भावनात्मक क्रियाएँ भी तो मानव-संस्कृति का अंग हैं। राष्ट्रीय एकता की धारा को अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित करने की सूक्ष्म शक्ति संस्कृति में है। संस्कृति का सूक्ष्म अमूर्त रूप ही राष्ट्रीय एकता के स्थूल रूप को मूर्त रूप देता है। यही वह धारा है, जो प्रत्येक भारतीय के हृदय में प्रवाहित रहती है और उंसे राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधे रखती है।

वैसे तो राजनैतिक से राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं। हमारा संविधान एक है, हमारी संसद एक है, सभी पर एक जैसे कानून लागू होते हैं। बेशक हमारे देश में अनेक राजनीतिक दल हैं, उनकी अलग-अलग विचारधाराएँ है, लेकिन देश की अखंडता, एकता और सुरक्षा के मामले में वे भी राष्ट्रीय से अलग नहीं हैं।

अंत में निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि भारत की राष्ट्रीय एकता का स्वरूप किन्ही अर्थों और संदर्भी में स्थूल होते हुए भी वास्तव में सूक्ष्म और भावनात्मक ही अधिक है। उसे किसी प्रत्यक्ष परिभाषा के दायरे में नहीं बांधा जा सकता है। उसे किसी एक भावनात्मक एकता की शक्ति के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है।

5. पर्यटकों का स्वर्ग-भारत

पर्यटन से तात्पर्य है-घूमना, भ्रमण करना एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने की प्रवृत्ति सृष्टि से प्रत्येक जीव को ईश्वर प्रदत्त वरदान है। इस दृश्यमान जगत् के कण-कण में स्थानांतर की क्रिया को देखा जा सकता है। वनस्पति, पशु, पक्षी और मनुष्य सभी पर्यटन के माध्यम से अलौकिक सुख की अनुभूति करते हैं। पर्यटन मनुष्य के मानसिक क्षितिज को एक विस्तृत आयाम प्रदान करता हुआ उसे जीवन और जगत् के वास्तविक स्वरूप की अधिक निकटता से है। मानव हुदय में स्थित विश्व-बधुत्व की चिरस्थायी भावना ने समय-समय पर मानव को दूसरे मानव के प्रति आकृष्ट किया और वह इस अदम्य लालसा की संतुष्टि के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए खाना होने लगा। यहौं तक कि ये भौगोलिक यात्राएँ मानव को आध्यात्मिक आनंद प्रदान करने लगें। सही अर्थों में मानव ने ईश्वर के विश्वय्यापी चिरंतन रूप का अवलोकन ही पर्यटन के माध्यम से किया है।

भारत की शस्पश्यामला भूमि पर्यटकों का स्वर्ग है। प्रतिवर्ष देश-विदेश के लाखों पर्यटक भारत के विभिन्न पर्यटन केंद्रों को देखने के लिए आते हैं। विभिन्न देशों के पर्यटक भारत में उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम रंग-बिंगे भारत को देखकर चकित होते हैं। पुनः भारत आने और घूमने की इच्छा लिए वे भारत से प्रस्थान करते हैं। भारत का आकर्षण पर्यटकों को सदैव भारत की ओर मोड़ता है।

आज पर्यटन उद्योग भारत की आय का तीसरा बड़ा साधन है। प्रतिवर्ष लाखों विदेशी पर्यटकों के आगमन से जहाँ हम एक ओर विश्व सम्पर्क में आ रहे हैं, वहाँ हमारे देश के सम्बन्ध में अनेक भ्रांत धारणाओं का अंत हो रहा है। भारत को अब विश्व में राजाओं, सपेरों और अधनंगे लोगों का देश नहीं समझा जाता। विदेशी पर्यटक भारतीय संसकृति, उद्योग और कलाओं से भली-भाँति परिचित होकर स्वदेश लौटते हैं।

मनुष्य स्वभाव से ही पर्यटनशील होता है। उसे नए-नए नगर, वन, पर्वत, दुर्ग, खण्डहर, नदियाँ और समुद्र तट आकर्षित करते हैं। देवस्थानों के दर्शनों की अभिलाषा में मनुष्य किसी भी आयु में और कहीं तक भी जाने को तैयार रहता है। भारत में पर्यटन के केंद्र सम्पूर्ण देश में फैले हुए हैं। केंद्रीय और राज्य सरकारों के पर्यटन विभागों ने महत्त्वपूर्ण पर्यटक केंद्रों पर अपने कार्यालय खोल रखे हैं, जहाँ केन्द्रों के सम्बंध में समस्त जानकारी उपलब्ध होती है। आकर्षक दर्शनीय स्थलों की जानकारी पुस्तकों की सहायता से सरलता से हो जाती है।

देश में पर्यटन मंत्रालय का उत्तदायित्व है कि वह पर्यटकों के लिए समस्त सुविधाएँ जुटाए। पर्यटकों को सस्ते होटलों एवं यातायात सुविधाएँँ जुटाई जानी चाहिए। नागरिक और उड्डययन विभाग, पुरातत्व विभाग और पर्यटन विभाग इस सम्बंध में यात्रा व्यवस्था, होटलों के निर्माण और पर्यटक केंदों की व्यवस्था करता है। यात्रा एजेन्सियों से सम्बंध स्थापित कर पर्यटकों को स्थल की सैर के लिए ले जाते हैं, इसलिए कश्मीर और मसूरी में ट्राली व्यवस्था है। विदेशों में स्थित पर्यटन कार्यालय एयर इण्डिया के सहयोग से पर्यटों की सुविधाओं की व्यवस्था करते हैं।

विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ एक ओर गगनचुम्बी हिमालय पर्वतमाला के पर्वत शिखर हैं, तो दूसरी ओर तपती हुई बालू के टीलों से युक्त रेंगिस्तान, हजारों मील लम्बा समुद्र तट विस्तृत मैदान, हरी-भरी पहाड़ी झरने, ऐतिहासिक दुर्ग, भव्य और अलौकिक देवस्थल, सुरम्य घाटियाँ, मनभावन वाग-बगीचे, प्रकृति के शरण-स्थल और अभयारण्य मौजूद हैं। भारत में कश्मीर मनोहर घाटियाँ, वनों और झरनों में युक्त स्थल है।

चीड़ देवदार, अखरोट के वृक्षों से सजा हुआ एक बगीचा है। पहुलगाँव और गुलमार्ग देखकर दर्शक कह उतता है कि ‘यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो यही हैं। शालीमार और निशात गार्डन, चश्मीशाही का शीतल जल, उल झील में तैरते शिकारे का उद्युत दृश्य प्रस्तुत करते हैं। शंकराचार्य का मंदिर, गुलमार्ग का विस्तृत मैदान मन को मोह लेते हैं। प्रत्येक पहाड़ी एक अद्भुत सौंदर्य लिए हुए है। जिसे नेत्र देख देखते हैं, तो बस देखेते ही रह जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के शिमला, कुल्लू, मनाली के प्राकृतिक सौंदर्य के सामने स्विट्जरलैंड भी फीका दिखाई पड़ता है।

पर्यटन के माध्यम से अनेक क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क बनाए जा सकते हैं। सर्वप्रथम, सामाजिक गतिविधियों से परिचय होता है। एक देश के कुछ व्यक्ति जब दूसरे देशों में जाते हैं, तो वह अपने रहन-सहन के ढंग से उस देश को प्रभावित करते हैं और साथ ही वहाँ की सामाजिक विचार धाराओं से प्रभावित होते हैं। भारत ही विश्व पर्यटक स्थलों में सबसे आकर्षक, सुंदर होने के साथ-साथ सस्ता भी है। यही कारण है कि भारत पर्यटकों के लिए स्वर्ग है।

6. लोकतंत्र और भारत

लोकतंत्र की कार्य प्रणाली कुछ निश्चित धारणाओं पर आधारित होती है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि जनता राजनीतिक रूप से पर्याप्त जागरूक हो। लोकतंत्र में नेताओं का ईमानदार लेना एवं उनका जनहित में कार्य करना भी आवश्यक है। लोकतंत्र में जनता ही सत्तारूढ़ दल पर अपनी निगरानी रखती है। लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र में न्यायपालिका को पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहिए, तभी वह लोगों के अधिकरों की रक्षा करने में समर्थ हो सकेगी। लोकतंत्र की सफलता का एक अन्य अंग है-समाचार पत्रों की स्वतंत्रता एवं निष्षक्षता।

भारत के संविधान में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को स्वीकृति प्रदान की गई है। भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यद्यपि यह लोकतंत्र अमेरिका जितना पुराना नहीं है, पर उससे कम मजबूत कतई नहीं है। यह आश्चर्य का विषय ही कहा जाएगा कि भारत में अशिक्षा के होते हुए भी लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं। लोग अपने अधिकारों को भली प्रकार जानते एवं पहचानते हैं। उनमें राजनैतिक चेतना का अभाव नहीं है। भारत में अनेक विपक्षी दलों का अस्तित्व है, जो अपने अपने ढंग से मतदांताओं को प्रशिक्षित करते रहते हैं।

यदि हम भारत के आम चुनावों पर दृष्टिपात करें, तो हमें भारत में लोकतंत्र की स्थिति का सही ज्ञान हो जाता है। सन् 1947 ई. से लेकर सन् 1967 ई. तक बीस वर्ष का काल भारत की लोकतांत्रिक जड़ों को जमाने वाला था। उस समय तक हमारा लोकतंत्र शैशवकाल में था। इन बीस वर्षों में कांग्रेस पार्टी का एकठत्र शासन बना रहा। सन् 1967 ई. में पहली बार भारतीय मतदाताओं ने कांग्रेस को कई राज्यों में पराजित किया। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल प्रांतों में संविद सरकारों का गठन हुआ। यद्यपि यह प्रयोग अधिक सफल नहीं हुआ, पर लोगों की जागरूकता का अहसास अवश्य हो गया। सनू 1975 ई. में आपात्काल की घोषणा हुई। कांग्रेस सरकार का यह कदम लोकतंत्र विरोधी था, अतः यह कदम उसके लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ।

जनाक्रोश भड़क रहा था और सन् 1977 ई. के चुनावों में लोकतंत्र की परिपक्वता का परिचय पुनः मिला। इन्दिरा गांधी और उसकी सरकार की भारी पराजय हुई। सरकार को सही रास्ते पर लाने का यही एकमात्र उपाय लोकतंत्र में होता है। जनता पार्टी की सरकार का नेतृत्व श्री मोरारजी देसाई ने किया। भारत के लोकतंत्र की सर्वत्र सराहना हुई। सरकार आपसी कलह का शिकार होने के कारण समय से पूर्व ही गिर गई। अव भारतीय जनता ने ऐसे मौकापरस्त नेताओं को सबक सिखाने के लिए उन्हें धभारी पराजय का सामना कराया। कंग्रेस पार्टी पुनः सत्ता में आई। जब लोगों को देश की एकता एवं अखण्डता खतरे में दिखाई दी तो उन्होंने तीन चौथाई बहुमत प्रदान कर राजीव गांधी को जिताया। इस सरकार को पूरे पाँच वर्ष तक कार्य करने का अवसर मिला।

राजीव सरकार पर बोफोर्स तोप संदे में दलाली के आरोप लगे। लोगों को यह बात चुभी। सन् 1989 ई. के आम चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने राजीव सरकार को उखाड़ फेंका। वी.पी. सिंह ने अपनी सहयोगी पार्टियों का समर्थन पाकर अपनी सरकार बनाई, किंतु यह सरकार अधिक समय तक न चली। मंदिर-मस्जिद, मंडल आयोग आदि विवादों के कारण यह सरकार गिर गई। मई 1991 ई. में पुनः मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस दल को सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए। उसी ने अपने सहयोग दलों की सहायता से सरकार का गठन किया अब यह अल्पमत सरकार सफलतापूर्वक चल रही है। यह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता की ही परिचायक है। जनता के इस निर्णय से ज्ञात हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। यहाँ का मतदाता अंिक्षित होते हुए भी राजनैतिक दृष्टि से शिक्षित एवं जागरुक है।

भारत के लोकतंत्र पर कुछ धब्ये भी दिखाई दे जाते हैं। कुछ मतदान केंद्रों पर बलात् कब्जा इन चुनावों में दिखाई दिया। यह स्थिति बिहार और हरियाणा के कुछ मतकेन्द्रों पर दिखाई दी। इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। चुनावों में धन की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता। चुनावों में काला धन खर्च होता है और इससे चुनावों की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक है। भारत का लोकतंत्र अपने सक्षम स्वरूप में है। उसे पटरी से उतारना संभव नहीं है। जब कभी इस प्रकार के प्रयास किए गए हैं। तब सरकार को भारी मार खानी पड़ी है। सरकार ने लोकतंत्र की आवाज उठाने वाले समाचार-पत्रों का गला घोंटने का एक-दो बार प्रयास किया है, पर उसे हर बार नीचा देखना पड़ा है। हम आशा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होता चला जाएगा।

7. स्वतंत्र भारत की उपलब्धियाँ

भारत देश हमारे लिए स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमने यहाँ जन्म लिया है। इसकी गोद में पलकर बड़े हुए हैं। इसके अन्न-जल से हमारा पोषण हुआ है। हमें अपने देश पर गर्व है। हमारा देश भारत दिन-प्रतिदिन प्रगति की और बढ़ता चला जा रहा है। भारत को स्वतंत्र हुए लगभग 55 वर्ष हो गए है। अंग्रेजी सरकार ने भारत को परतंत्र बनाए रखना था, अतः उसने इसकी प्रगति में कोई रुचि नहीं ली थी। वह तो भारत को अपने ऊपर निर्भर रखना चाहता था। उसने यहाँ न तो उद्योगों को पनपने दिया और न शिक्षा का प्रसार होने दिया। भारतीय को क्लर्क बनाकर रखने की प्रवृत्ति के कारण हम प्रगति की दौड़ में पिछड़ गए। 15 अगस्त, सन् 1947 ई. को हमारा देश स्वतंत्र हुआ और हमारी प्रगति की राह खुल गई।

आधुनिक भारत विज्ञान की सहायता से दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। यद्यपि विश्व ने विज्ञान के क्षेत्र में नित नए आविष्कारों के कारण अद्भुत तकक्की कर ली है, पर अब भारत भी इस दिशा में बहुत पीछे नहीं रह गया। भारत में वैज्ञानिक उपकरणों का उत्पादन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अब हम विदेशी उपकरणों के मोहताज नहीं रह गए हैं। कम्प्यूटर का प्रयोग सभी क्षेत्रों में होता जा रहा है। टी.वी, वी.सी.आर, केलकुलेटर आदि वस्तुओं का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा है। वस्तुओं की गुणवत्ता में भी निरंतर सुधार हो रहा है। भारत के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में भी अपने यान भेजने में सफल रहे हैं। हमारे राकेश शर्मा अंतरिक्ष का चक्कर भी लगा आए हैं। अणुशक्ति का शांतिपूर्ण कार्यों में भरपूर प्रयोग किया जा रहा है।

हमारा देश विकासशील देशों की श्रेणी में आता है। यह विकास की प्रक्रिया से गुजर रहा है। यहाँ की प्रगति को देखकर विदेशी तक आश्चर्यचकित रह जाते हैं। जिस देश के बारे में उन्होंने पढ़ा-सुना था कि वह एक अत्यंत गरीब देश है, उसी देश में आकर जब वे गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ देखते हैं, तो उन्हें सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। भारत की राजधानी दिल्ली भव्य इमारतों का नगर बनता जा रहा है। भारत के अन्य नगर भी प्रगति की दौड़ में पीछे नहीं हैं।

आधुनिक भारत की नींव पं. जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी। उन्होंने देश को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भाखड़ा बांध, दुर्गापुर और भिलाई के इस्पात कारखाने, चितरंजन में रेल के इंजनों का निर्माण आदि की शुरूआत उन्हीं के.प्रयासों से हुई। आज़ वही योजनाएँ फलदायी सिद्ध हो रही हैं। भारत औद्योगिक विकास में किसी से भी पीछे नहीं है। हमारे यहाँ भरपूर कच्चा माल है, खनिज पदार्थ हैं और हम उनका पूरा-पूरा लाभ उठा रहे हैं। आधुनिक भारत में आवागमन के साधनों में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। आज से 30 वर्ष पूर्व तक एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना अत्यंत कष्टप्रद हुआ करता था। आज के नवीनतम साधनों ने मानव की यात्रा को अत्यंत सुगम बना दिया है। सड़क परिवहन तो सरल हो ही गया है, वायुयान की यात्रा भी सर्वसुलभ हो गई है। संचार के साधनों का भी पर्याप्त जाल बिछा दिया गया है। आज “इलेक्ट्रॉनिक एक्सचेंजों की भरमार हो गई है। एक सामान्य नागरिक भी टेलिफोन का लाभ उठा रहा है।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत ने बहुत प्रगति की है। आज भारत में सभी असाध्य रोगों का इलाज संभव है। दिल, गुर्दे, कैंसर आदि बीमारियों के आपरेशन सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं; यद्यपि चिकित्सा व्यवस्था अभी तक महँंगी बनी हुई है, पर उसकी उपलब्धता भी संतोषजनक है। समय के साथ-साथ यह सस्ती भी हो जाएगी। औषधियों का निर्माण तीव्र गति से चल रहा है।

आधुनिक भारत खाद्यान्न के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर है। अब हमें अन्न के लिए दूसरे देशों का मुँह नहीं देखना पड़ता। हम अन्न का निर्यात करने की स्थिति में आ गए हैं। दाल, दूध, घी, मक्खन का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो रहा है। हमारा देश वस्त्र-निर्माण की दिशा में भी किसी से पीछे नहीं है। हमारे यहाँ आधुनिकतम श्रेणी के वस्त्र निर्मित हो रहे हैं। हमारे वस्तों की गुणवत्ता भी उच्चकोटि की है। हमारे देश के वस्त्र विदेशों में खूय लोकप्रिय हो रहे हैं। भारत भारी मात्रा में सिले-सिलाए वस्त्रों का निर्यात करता है।

आधुनिक भारत में मनोरंजन के साधनों में भी अभूतपूर्व विकास हुआ है। दूरदर्शन की लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही है। लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठा है। भारत में साक्षरों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। मृत्युदर में कमी आई है। इस प्रकार हम, देखते हैं भारत निरंतर प्रगति की ओर बढ़ता चला जा रहा है। हमें पूर्ण आशा है कि भारत इक्कीसवीं शताब्दी में प्रंवेश करते समय पूर्णतः विकसित देश बन चुका होगा।

8. मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है

भारतवर्ष अत्यंत प्राचीन एवं विशाल देश है। संसार की प्राचीनतम संस्कृति इसी देश में फली-फूली, संसार के प्राचीनतम वेद ग्रंथ यहीं रचे गए। आधुनिक काल में भी इस देश की प्राकृतिक सुषमा, सांस्कृतिक गौरव और आध्यात्मिक ज्ञान अनेक विदेशी विद्वानों को आकर्षित करते रहे हैं। संसार का सबसे ऊँचा पर्वत हिमालय इसके उत्तर में हैं। सर्वाधिक उपजाऊ गंगा-यमुना का मैदान इसके मध्य में है और दक्षिण में समुद्र इसके चरणों को धोता है। यह देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक, तथा कच्छ से कामरूप तक फैला हुआ है।

भारत में अनेक धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं। उनकी भाषाएँ भिन्न-मिन्न हैं, उनकी वेश-भूषा, रीति-रिवाज, त्योहार अलग-अलग हैं। कश्मीर जैसे ठण्डे और म्रास जैसे गर्म प्रांत इस देश में हैं, फिर वेश-भूषा की भिग्रता होना अनिवार्य है। भारत में हिद्यु, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि धंरों के मानने वाले लोग रहते हैं, अतः स्वाभाविक है कि इनके रीति-रिवाज, त्योहार और खान-पान में मिन्नता होगी। परंतु विभिन्नता में एकता भारत का गुण है। कभी-कभी आपसी मतभेदों के कारण साम्प्रदायिक दंगे भी हो जाते हैं।

यह देश तीन सी वर्षों तक विदेशियों के अधीन रहा। विदेशियों के शासन ने फूट के जो बीज बोए हैं, हम अभी तक उनको जड़ से नहीं उखाड़ सके। स्वार्थ के वशभूत होकर भाई का भाई शत्रु हो जाता है। फलस्वरूप जान-माल की हानि होती है। राजनीतिक नेता और धार्मिक नेता भी अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु साधारण जनता की भावनाओं को उभार कर तनाव और दंगे करने में पीछे नहीं रहते। फिर भी भारत के रहने वाले परस्पर भाई-भाई हैं और भारतीय हैं।

भारत प्राकृतिक सम्पत्ति से भरपूर है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत और घने जंगल प्राकृतिक सम्पत्ति से सम्पन्न हैं। लोहा, कोयला, तांबा, तेल, पेट्रोल आदि सभी कुछ यहाँ उपलब्ध हैं। गंगा, यमुना, सततुज, ब्रह्यपुत्र, रावी और व्यास जैसी पवित्र नदियाँ यहाँ बहती हैं, फलस्वरूप भूमि उपजाऊ है। देश खाद्यान्न के सम्बंध में आत्मनिर्भर हैं। नदियों पर अनेक बांधों के निर्माण द्वारा नहरें निकाली गई हैं, जिनसे हजारों एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। पन-बिजली की अनेक योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत ने औद्योगिक दृष्टि से अत्यंत प्रगति की है। अनेक बड़े-बड़े कारखाने देश में स्थापित हो गए हैं। विकासशील देशों में हमारा नाम काफी ऊपर है। अब भारत से विदेशों को मशीनों आदि का निर्यात होने लगा है।

हनारे देश में प्रगति के साथ-साथ अनेक समस्याएँ भी उठ खड़ी हुई हैं। बेरोजगारी और भ्रष्टाचार फलने-फूलने लगे हैं, जिससे देश के विकास की गति में बाधा पड़ी है। कुछ लोग स्वार्थ के कारण देश में साम्प्रदायिक सद्भाव को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक-से-अधिक लाम कमाने के चक्कर में रहता है। काम करने के लिए तैयार नहीं है। स्वतंत्रता से पूर्व की लगन और निः:्वार्थ सेवा भावना अब समाप्त हो गई है। देश की प्रगति का लाभ साधारण जनता तक नहीं पहुँचा है। यही कारण है कि अधिकांश भारतीय अभी भी गरीबीं की रेखा से नीचे का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

भारत राम और कृष्ण का देश है, अशोक और अकबर का देश है। इसमें प्राचीनकाल में ही नहीं, आधुनिक युग में भी अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। स्वतंत्रता संग्राम में भारत के प्रत्येक कोने के लोगों ने कंधे-से-कंधा मिलाकर संघर्ष किया था और अब इसकी प्रगति और विकास के लिए उसी प्रकार के सहयोग की आवश्यकता है। यह तभी सम्भव होगा जब हम सभी अपने को भारतीय समझेंगे और परस्पर समता और एकता का व्यवहार करेंगे। होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस आदि एकत्र होकर भाई चारे से मनाएँगे।

जब हम राष्ट्रीय भावना को सर्वोपरि मानेंगे तभी कला और संस्कृति, भव्य ऊँचे-ऊँचे ऐतिहासिक भवनों और बड़े-बड़े कारखानों की उपयोगिता सार्थक होगी। हमें क्षुद्र स्वार्थ को त्यागकर कठोर परिश्रम द्वारा भारत की प्रगति को तीव्र करना, होगा। सभी वर्गों के लोगों को अपना कार्य पूरी ईमानदारी और लगन से करना पड़ेगा, तभी तो यह देश, जो प्राचीनकाल में सोने की चिड़िया कहलाता था, पुनः अपना प्राचीन गौरव प्राप्त कर पाने में समर्थ होगा।

यही वे कारण हैं, जिसके कारण मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है। मैंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया है। इसी के अन्न-जल-मिट्टी से मैं पलकर बड़ा हुआ हूँ, अतः में अपने को गौरवान्वित अनुभव करता हूँ।

भारत के राष्ट्रपति
9. डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

डॉ. अय्दुल कलाम का नाम सुनते ही एक ऐसे भारतीय का चित्र आँखों के सामने आ जाता है, जिस पर सारे देश को गर्व है। डॉ. अब्दुल कलाम राजनीति से कोसों दूर का रिश्ता रखने वाले परंतु संयोग देखिए यह आज भारत गणतंत्र के बारहवें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए, 25 जुलाई सन् 2002 ई. को इन्होंने राष्ट्रपति पद का भार सम्भाला।

अब्दुल कलाम एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन पर भारत का बच्चा-बच्चा गर्व करता है, इनको सभी बहुत पेंळले से ही मिसाइल मैन के नाम से जानते हैं। इनका जन्म मद्रास (अब तमिलनाडु) राज्य कै रामेश्वरम कस्वे में 15.10.1931 ई. में एक मध्यम वर्गीय तमिल परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम जैनुलाबदीन और माता का नाम आशियम्मा था। रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी महाराज इनके पिता के घनिष्ठ मित्र थे, उनमें धर्म ग्रंथ का कोई भेदभाव नहीं था। अपने पिता एवं पक्षी महाराज का असर कलाम के जीवन पर बहुत गहरा पड़ा। इनके पिताजी का लकड़ी की नौक़ाएँ बनाने का कार्य था, ये नौकाएँ तीर्थ यात्रियों को रामेश्वरम् से धनुष कोडि तक लाने ले जाने के काम आती थीं।

कलाम के जीवन पर अपने पिता एवं पक्षी महाराज के अलावा उनके बहनोई जलालुद्दीन एवं चचेर भाई शम्सुद्दीन का भी काफी गहरा असर पड़ा।

अब्दुल कलाम का जीवन आर्थिक संकटों से परिपूर्ण रहा। ईमानदारी और आत्मानुशासन कलाम को अपने पिताजी से विरासत में ही मिला था, तथा माँ से ईश्वर में विश्वास और करुणा भाव मिला था।

कलाम के बचपन के तीन पक्के दोस्त थे रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिव प्रकाशन। ये तीनों ब्राह्मण परिवार से थे। रामानंद शास्त्री रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी के पुत्र थे। इनमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था, रामानंद शास्त्री अपने पिता की मृत्यु के बाद रामेश्वरम् मंदिर के पुजारी बने। इनकी माँ और दादी इनको रामायण और पैगम्बर मुहम्मद की कहानियाँ सुनाती थीं।

कलाम की शिक्षा उनके गृहराज्य तमिलनाडु में ही हुई। वे कभी भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश नहीं गए। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद ये रामानाथपुरम के श्वाट्र्ज हाई स्कूल में भर्ती हुए। इन्होंने हायर सैकेन्द्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1950 में इंटर मीडिएट की पढ़ाई के लिए इन्होंने त्रिची के सेंट जोसेफ कॉलेज मे दाखिला लिया। परीक्षा में डिवीजन लाने की दृष्टि से कलाम अपने को होशियार छात्र नहीं मानते थे। सैंट जोसेफ कालेज में ये चार साल तक रहे। इनको यहाँ के होस्ट्रल में शाकाहारी मेस का सचिव बनाया गया था।

कलाम जब सेंट जोसेफ कॉलेज के अंतिम वर्ष में थे, तो इनको अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का चस्का लग गया। इन्होंने टॉल्सटाय, स्काट औश्र हार्डी को पढ़ना शुरू किया। इसके बाद दर्शन की ओर इनका झुकाव हो गया, तथा उस पर काम भी किया।

सेंट जोसेफ में कलाम के भौतिकी के शिक्षकों प्रो. चिन्ना दुर और प्रो. कृष्गमूर्ति ने परमाणवीय भौतिकी के अध्यायों में कलाम को पदार्थों के जीवन काल की अवधारणा और उनके रेडियो एक्टिव क्षय के बारे में ज्ञान करवाया। ब्रह्मांड विज्ञान के बारे में खूब उत्सुकता से किताबें पढ़ते थे, तथा खगोलीय पिंडों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में इनको आनंद आता था। पढ़ाई खत्म करके अपने कैरियर की चिंता में लग गए। ये भारतीय वायु सेना के पाइलट के लिए भी चुने गएं, परंतु इंटरव्यू में रह गए, इस बात का इनको काफी आघात लगा था। इसके बाद ये सन् 1958 ई. में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन से जुड़ गए। इन्होंने विदेश जाकर धन कमाने की अपेक्षा देश सेवा करने का निश्चय किया। इनकी नियुक्ति हैदराबाद के केन्द्र में हुई।

अग्नि का जिस समय परीक्षण हुआ उस दौरान के.सी. पंत रक्षा मंत्री थे, वे अग्नि का परीक्षण देखने आए थे। उन्होंने कलाम से पूछा था-कलाम! कल अग्नि की सफलता पर तुम मुझसे क्या तोहफा लेना पसंद करोगे। कलाम का जवाब था हमें आर. सी. आई. में एक लाख छोटे पौधे लगाने की जरूरत है। रक्षा मंत्री ने कहा था कि तुम धरती माँ का आशीर्वाद लें रहे हो। इस घटना से कलाम का पर्यावरण के प्रति नजरिए का पता चलता है। प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने अग्नि प्रक्षेपण को आत्मनिर्भर तरीकों से देश की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा की दृष्टि से सफल उपलब्धि बताया था।

1 मई सन् 1998 ई. में पोखरण परीक्षण उन्हीं के ही नेतृत्व में किया गया, जो पूरी तरह सफल रहा।
डॉ. कलाम दृढ़ इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति हैं, इन्होंने सदा अपने सामर्र्य से अधिक परिश्रम करके कार्य किया। यही कारण है कि इनको अपने कार्यों में सदा सफलताएँ मिली। इनके मन में भारत को अगले 20 वर्षों में विकसित देश बनाने का स्वप्न है, इनका कहना है कि हमारे देश के युवकों को स्वप्न देखने की आदत डालनी चाहिए। स्वप्न देखेंगे तभी तो उनको हकीकत में ढालने का प्रयल करेंगे।

इन्होंने विकलांगों के लिए मिसाइल में प्रयोग होने वाली प्लास्टिक से बहुत उत्तम एवं सस्ते उपकरण भी बनाएँ हैं। कलाम को भारत रत्न से अलंकृत किया गया है, वे तीसरे भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिनको ‘भारत रत्न’ मिला है।.कलाम को पदमभूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है।

कलाम बहुत ही भावुक किस्म के व्यक्ति हैं। बच्चों से इनको बहुत प्यार है। इनको कविताएँ लिखने का भी शौक है। दूसरा शौक इनका वीणा बजाना है। इनकी एक कविता जो इन्होंने 22 मार्च 2002 को लिखी थी इस प्रकार है-

ज्ञान का दीप जलाए रखूँगा
हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुछ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
में मेहनत करूँगा
मेरा देश महान हो
धनवानू हो, गुणवान् हो,
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है
कहीं भी धरती पर
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रबूँगा
जिससे मेरा देश महान हो।

कलाम को अहंकार छू तक नहीं गया पाया है। जब इन्होंने भारत के राष्ट्रपति पद की शपथ लेते समय दिए गए भाषण में कहा था ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब’; इनके शपथ समारोह में विभिन्न स्कूलों के हजारों बच्चों ने भाग लिया था। कलाम साहब का जीवन भारतीयों के जीवन में प्रेरणा भरने वाला है। ये एक सच्चे देश भक्त हैं। इनके सानिध्य में देश दिन दूनी रात चौगनी उन्नति करेगा ऐसी आशा है।

10. राष्ट्रीय एकता

राष्ट्रीय एकता ही किसी राष्ट्र की वास्तविक शंक्ति होती है। राष्ट्रीय-एकता राष्ट्र को सशक्त बनाती है, उसको प्रगति की दौड़ में शामिल करती है। राष्ट्रीय एकता से ही कोई राष्ट्र विकसित राष्ट्र बना सकता है। राष्ट्रीयता राष्ट्र के चरित्र का निर्माण करती है, देश को खंड-खंड होने से बचाती है। सम्पूर्ण मोह-बंधन छोड़कर धर्म, जाति, संप्रदाय, पार्टी या दल का हित त्याग कर, राष्ट्र प्रेम की पावन गंगा में अपने को निमग्न कर देना ही राष्ट्रीय एकता है।

राष्ट्रीय-एकता के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है-राष्ट्र को मातृभूमि के रूप में देखने की, उसके प्रति आस्था और शट्धा रखने की। दुर्भाग्य से भारत का देशभक्त राजनीतिज्ञ भी क्षेत्रीयता से ऊपर नहीं उठ पा रहा है। महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पंजाब जाकर राष्ट्रीय एकता का उपदेश देकर आता है, किंतु स्वयं कर्नाटक के कुछ भू-भाग को महाराष्ट्र में मिलाने के लिए जान की बाजी लगाने को तैयार है। यही हाल पंजाब का है, भाखड़ा के निर्माण में हिमाचल का बहुत भू-भाग पानी में डूबा हुआ है।

उसका लाभ हिमाचल के अतिरिक्त हरियाणा और राजस्थान को भी मिलना चाहिए था। पंजाब का राजभक्त राजनीतिज्ञ इतनी उदारता नहीं दिखा पाता कि भारतमाता के शरीर के हिस्से हिमाचल हरियाणा और राजस्थान से मिल-बैठकर नदी जल का बंटवारा कर लें। यही नदी जल समस्या दक्षिण के तीन राज्यों के बीच बर्षों से चल रही है और सैकडों बेगुनाह जानें इस पर न्यौछावर हो चुकी हैं। इस प्रकार क्षेत्रीयता की भावना राष्ट्रीयता-एकता में बाधक है। अलगाववाद की जननी है।

राष्ट्रीय एकता की दूसरी आवश्यकता है-धर्म निरपेक्ष दृष्टि। भारत में हिंदू, मुसलमान, सिख और इसाई, ये चार धर्म प्रमुख रूप से हैं। जहाँ तक धार्मिक दृष्टि से पूजा-अर्चना और प्रभु-भक्ति में विश्वास की बात है, उससे राष्ट्रिय एकता को कोई क्षति नहीं पहुँचती। राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचती है राजनीति से। राजनीति में आकर धर्म और धर्मावलंबी अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बंट जाते हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र की दृष्टि से हिंदू बहुसंख्यक हैं और मुसलमान, सिख और ईसाई अल्पसंख्यद। प्रांतानुसार देखें तो मुसलमान जम्मू-कश्मीर राज्य में, सिख-पंजाब प्रांत में तथा ईसाई नागालैंड, मेघालय, अरूणाचल और मिजोरम में बहुसंख्या में है, वहाँ हिंदू अल्पसंख्यक है। राजनीतिक दृष्टि से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का बँटवारा राष्ट्रीय एकता में बाधक है।

हमारा संविधान स्वयं धर्म निरपेक्षता को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बंटता है। कोड़बिल हिंदुओं तक सीमित है, मुसलमानों पर लागू नहीं होता। नारी संरक्षण कानून भी अलग-अलग हैं, हिंदू नारी के लिए अलग और मुस्लिम नारी के लिए अलग। राजनीति ने हिंदुओं को भी दो भागों में बाँट दिया-एक सवर्ण और दूसरा हरिजन। हरिजन उद्वार राष्ट्र-हित में हैं, यह निर्विवाद हैं, पर राजनीतिक लाभ के लालच में इसने राष्ट्रीय-एकता में नागरिक-नागरिक में विभेद खड़ा कर दिया।

राष्ट्रीय एकता की बहुत बड़ी पहचान-राष्ट्र भाषा है। सम्पूर्ण राष्ट्र की एक राष्ट्रीय भाषा हो, यह अनिवार्य है। भारत की राष्ट्र भाषा अट़क से कटक और हिमालय से कन्याकुमारी तक विशाल राष्ट्र को एक सूत्र में पिरौ सकती है। संविधान ने हिंदी को राज भाषा माना। भारत की राजनीति ने राष्ट्रीय-एकता के इस सूत्र को अपमानित करके छोड़ दिया।

हिंदी राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सबसे सशक्त भाषा है, परंतु दो प्रतिशत अंग्रेज लोग हिंदी बालों की खिल्ली उड़ाते हैं। वे अपने को राष्ट्रीय एकता के पुजारी कहते हैं।

राष्ट्रीय एकता को क्षति तब पहुँचती है, जब हम सभी संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास करते हैं। लगता है, हम एक नैसर्गिक सच्चाई को झुठ्लाने पर आमादा हो गए हैं। संस्कृति मानव की आस्था का प्रकाश पुंज है ‘संस्कृतियों को होड़ में खड़ा करना पाप है। संस्कृति की यह माँग होनी चाहिए कि दूसरी संस्कृति के प्रति अपेक्षा या उपेक्षा का नहीं’, बल्कि विविक्षा का भाव हो।

में भारत में ‘राष्ट्रीय एकता’ भारत-माता की प्रतिमा पर अश्रु-अंजलि अर्पित कर रही है। राष्ट्र भक्त और देशभक्त राजनीतिज्ञों के लिए माता से प्रार्थना करती है कि एक समान कानून तथा एक राष्ट्र भाषा लागू करें। धर्म को राजनीति की तुला पर न तोलें।

विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। इन विभिन्ताओं की तह में एक ऐसी एकता फैली हुई है, जो आम विभिन्नताओं को एक हार में पिरोती है। यह हार अपनी सुन्दरता से लोगों को मोहता ही नहीं, अपितु सुंदरता को स्वयं सुशोभित करता है। इसे हम भारतीय संस्कृति कह सकते हैं। इसी विभिन्नता में एकता के कारण भारतीय संस्कृति का अस्तित्व आज भी कायम हैं-कवि इकबाल ने कहा था।

“बाकी मगर है अब तक नामो निशां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।”

11. समय का सदुपयोग

समय चूकि पुनि का पछताने,
का वर्षा जब कृषि सुखाने।

मनुष्य का जीवन अमूल्य है, जो संसार में विशिष्ट स्थान रखता है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। प्रकृति के समस्त कार्य नियत समय पर होते हैं। समय की गति बड़ी तीव्र होती है, जो उससे पिछड़ जाता है, वह सदैव पछताता है। प्रसिद्ध कवि का कथन है-“समय को मैंने नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है।”

अतः आवश्यकता है समय के सदुपयोग की। समय वह धन है जिसका सदुपयोग न करने से वह व्यर्थ चला जाता है। हमें समय के महत्त का ज्ञान तब होता है, जब दो मिनट विलम्ब के कारण हमारी गाड़ी छूट जाती है। जीवन में वही व्यक्ति सफल हो पाता है, जो समय का सदुपयोग करता है।

आज का काम आज ही कर डालिए, तो कल उससे आगे के काम करने का अवसर मिलेगा, लेकिन जो काम कल पर छोड़ा, समझो वह गया। बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। बीत गया सो बीत गया और भविष्य को किसने देखा है ? अतः जो कुछ है बस वर्तमान के क्षण हैं, इन्हीं का सदुपयोग कीजिए। किसी कवि ने कहा भी है-

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगो कब।।

हर काम के लिए निश्चित समय रखिए। खाने, खेलने, सोने, पढ़ने, मनोरंजन करने, भजन-पूजा करने, सबका एक निश्चित समय रखो। कोई भी काम असमय न करो। निश्चित सम्य पर काम करने से जीवन में नियमितता आती है, जो एक अच्छी आदत तो है ही, सफलता की कुंजी भी है।

दुर्भाग्य की बात है कि हम लोग समय का महत्त्व नहीं समझते। समय की पाबंदी का हम ध्यान नहीं रखते। उत्सय आदि में देर से पहुँचना हमारे स्वभाव में शामिल हो गया है, इसलिए ‘भारतीय समय’ बदनाम हो गया है। अन्य देशों में समय की पाबंदी सराहनीय है।

हमें समय के हर मिनट का महत्त्व समझना चाहिए। कुल पाँच मिनट का मूल्य न पहचानने के कारण ही आस्ट्रेलिया निबासियों ने नेपोलियन से मात खाई । दूसरी ओर नेपोलियन के साथी ग्रीक के पाँच मिनट देर से युद्ध भूमि में पहुँचने के कारण नेपोलियन पकड़ा गया और वह हार गया। महात्मा गाँधी ने समय के अमूल्य रल को पहचान कर अपने निश्चित देनिक कार्यक्रम का आदर्श प्रस्तुत किया।

समय थोड़ा है, परंतु कार्य अधिक है, अतः समय का पाबंद होना अति आवश्यक है। पैसा गया हुआ फिर कमाया जा सकता है, परंतु गया समय फिर नहीं आता। स्वयं को समय की गति के अनुसार ढालना चाहिए। समय के सदुपयोग से एक राजा और मूर्ख भी विद्वान बन जाते हैं। छात्रों के लिए तो समय और भी अधिक मूल्ययान है। वह छात्र अच्छे अंक प्राप्त करता है, जो समय का सही उपयोग करता है। कभी समय बरबाद मत करो, जो व्यंक्ति समय की परवाह करते हैं, वे जीवन

में कभी असफल नहीं होते। सफलता तो उनके चरण चूमती है। हमें सदैव यह प्रयास करना चाहिए कि समय व्यर्थ न चला जाए। समय का भरपूर उपयोग करना ही सफलता का मूलमंत्र है।

12. सहशिक्षा

भार में सहशिक्षा सभ्यता की देन है। इसका प्रचलन अंग्रेजी राज्य काल में हुआ। सहशिक्षा का अर्थ है-छात्र-छात्राओं द्वारा एक ही विद्यालय में एक ही समय, एक ही अध्यापक से एक साथ मिलकर शिक्षा प्राप्त करना। प्रारम्भ में इस प्राणाली का विरोध हुआ, क्योंकि भारतीय और पश्चिमी दृष्टीकोण में बहुत अन्तर था, यद्यपि यह प्रणाली भारत में पूर्णरूप से लागू नहीं हुई, तथापि अधिकांश बड़े नगरों, शहरों में यह प्रणाली जड़ें जमाती जा रही है।

भारतीय शिक्षा शास्त्रियों या भारतीय विचारकों की दृष्टि से भारतीय परिवेश में सहशिक्षा से छात्र-छात्राओं का चारित्रिक पतन हो जाएगा, क्योंकि उनका कहना है कि विरोधी लिंगों का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। अतः उनका पथभ्रष्ट हो जाना स्वाभाविक है। दूसरे हमारी और पश्चिम की संस्कृति में पर्याप्त अन्तर है। उनकी सभ्यता में स्ती और पुरुष के स्वच्छन्द मिलन की छूट है। जबकि हमारी सभ्यता में इनकी वर्जना है।

सहशिक्षा के समर्थकों का कहना है कि छात्र-छत्राओं में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है, किंतु यह कोई अनुचित बात नहीं है। यह एक शक्ति है, जिसका सदुपयोग करके उनमें स्पर्धा की भावना उत्पन्न करके शिक्षा के श्रेष्ठतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। वास्तव में सहशिक्षा से लाभ और हानि दोनों ही हैं।

सहशिक्षा से लाभ-सहशिक्षा के पक्षधरों का कहना है कि यह हमारे सामाजिक जीवन के लिए लाभदायक है। उनके मतानुसार यदि देश में सहशिक्षा प्रणाली प्रचलित कर दी जाए, तो छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग विद्यालय बनाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। एक ही भवन में स्कूल एवं कालेजों का प्रबंध हो जाएगा। उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न होगी। इससे उनका बौद्धिक विकास होगा। दोनों वर्ग एक दूसरे से आगे निकलने का प्रयास करेंगे। प्रतिस्पर्धा के जोश में छात्र जितनी श्रेष्ठ सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं, उतनी साधारण स्थिति में नहीं। सहशिक्षा से लड़कियों में स्वाभाविक रूप से पाई जाने वाली झिझक दूर होगी। लड़के-लड़कियों के सम्मुख झेंप अनुभव नहीं करेंगे।

इससे दोनों में सहानुभूति की भावना उत्पन्न होगी। वे एक-दूसरे के सुख-दुखख में सहायक बनेंगे। एक-दूसरे की मनोवृत्ति और स्वभाव को समझने का अवसर मिलेगा, जो उनके भावी जीवन के लिए उपयोगी होगा। सहशिक्षा के द्वारा छात्र-छात्रायें परस्पर गुणों का आदान-प्रदान करके अपने अपने व्यक्तित्व का विकास कर पाएँगे। इसमें यदि छात्र-छत्राएँ बचपन से एक-दूसरे के साथ रहें तो उनमें शुद्ध आकर्षण ही रहेगा क्योंकि वे प्रतिदिन एक-दूसरे के समीप रहेंगें उनमें अशुद्ध आकर्षण पनप ही नहीं पाएगा।

सहशिक्षा से ह्वनियाँ-सहशिक्षा से विरोधियों का कहना है कि यह पद्धति हमारी संस्कृति पर आघात है। उनका कहना है कि भारतीय शास्त्रों के अनुसार छात्र-छात्राओं के विद्यालयों में पर्याप्त अन्तर होना चाहिए। भारतीय इतिहास में ऐसी शिक्षा का उल्लेख नहीं मिलता। यह शिक्षण पद्धति पूर्णतः भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है। इससे विद्यालयों का वातावरण दूषित हो जाएगा, तथा दोनों का चारित्रिक पतन हो जाएगा, तथा भारतीय संस्कृति धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। उनका यह भी कहना है कि स्त्री-पुरुष की रुचि की भिन्नता प्राकृतिक है। दोनों का कार्य क्षेत्र अलग-अलग है, अतः दोनों की शिक्षा एक ही प्रकार की नहीं हो सकती।

वास्तव में भारतीय परम्पराओं के अनुकूल न होते हुए भी सहशिक्षा भारत में प्रचलित हुई। जिसका कारण है-भारतीय प्रगतिशील विद्वानों द्ववरा स्त्री शिक्षा का समर्थन और उनकी उच्च शिक्षा की माँग। सहशिक्षा के समर्थकों का कहना है कि प्रारम्भिक श्रेणियों तक सहर्शिक्षा उत्तम है। माध्यम अवस्था में छात्राओं के लिए हानिकारक है, क्योंकि इस अवस्था में ही अज्ञान के दुश्परिणाम प्रकट होते हैं। बड़ी अवस्था में छत्र्ठात्राएं परिपक्व हो जाते हैं, अतः सहशिक्षा में कोई हानि नहीं होती। सर्वोत्तम तो यह है कि छात्र-छात्राओं को अलग-अलग ही शिक्षा दी जाए, ताकि किसी प्रकार का डर न रहे।

13. आदर्श नागरिक

देश की प्रगति और विकास, सुख और शांति, निर्माण और सम्पन्नता के लिए सवांधिक आवश्यक है कि यहाँ के नगरिक अपने अधिकार और कर्त्तय्य के प्रजि सजग सचेत हों। वे अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह अनुभव करते हों, तथा सच्चे अर्थंं में आदर्श नागरिक कहलाने का गौरव धारण करते हों।

हम यहाँ इस झमेले में पड़ना पसन्द नहीं करते कि नागरिक की क्या परिभाषा की जाए अथवा देश-विदेश के राष्ट्रों की नागरिकता सम्बन्धी नियमों और उपनियमों की व्याख्या की जाए। हमारा मन्तब्य केवल यह है कि आदर्श नागरिक के उन गुणों और लक्षणों की विवचेना करें, जिनके कारण किसी नागरिक को आदर्श नागकिर कहा जा सकता है, तथा जिनके कारण कोई भी समाज सभ्यता और संस्कृति की स्वर्णिम मंंजिलों की और अग्रसर हो सकता है।

आदर्श नागरिक वह है जो समाज, जाति, परिवार, संस्थाओं और समुदायों के प्रति अपने अधिकारों और कर्त्बयों को न केवल पूरी तरह जानता समझता हो, अपितु बड़ी सजगता और तत्परता के साथ उस पर आचरण भी करता हो। अधिकार के प्रति लिप्ता और कर्त्तयोंों के प्रति उदासीनता प्रायः ही मनुष्य सहज स्वभाव-सा है, पर याद रखिए अधिकार और कर्त्वय्य दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। कर्त्त्यों के बिना अधिकारों और अधिकरों दे बिना कर्त्तवयों का कोई मूल्य नहीं है। हम यह नहीं कहते कि अधिकरों के प्रति उपेक्षा बरती जाए औरर कर्त्तव्यों के प्रति सचेत रहा जाए।

ऐसा नहीं होने पर धीरे-धीरे सभी अधिकार हमारे हाथों से निकलने आरम्भ हो जाएंगे और एक दिन उन्हें वापस लेने के लिए हमें और संघर्ष करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त अधिकार प्राप्ति के बिंना हमारा व्यक्तित्व भी कुंठित और लुंठित हो जाएगा, तथा हम केवल दास-द्रत जीवन बिता सकेंगे। इसके विपरीत कर्त्त्यों के प्रति उपेक्षा बरतने से समाज उच्छृखंल, हिंसक, अनाचारी, शोषक और तानाशाह हो उठेगा। अतएव आदर्श नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य पालन के बीच समुचित सन्तुलन बनाए रखा चाहिए।

आदर्श नागरिक को स्वावलंबी होना चाहिए। अपना बोझ दूसरे के कंघों पर डालकर जीने वाला व्यक्ति समाज और पृथ्वी दोनों के लिए बोझ है। यदि वह दूसरों का बोझ उठाने में अथवा हल्का करने में स्वयं असमर्थ है, तो कम-से-कम अपना बोझ भी.तो-उसे दूसरों के ऊपर नहीं डालना चाहिए। आदर्श नागरिक स्वावलंबी होने पर भी अपने प्रयलों और कार्यों से कुछ-न-कुछ पंसा रचनात्मक कार्य अवश्य करता है, जिससे दूसरे लोगों को भी जीवनयापन में कुछ-न-कुछ सहायता व सहयोग मिल सके।

आदर्श नागरिक को चरित्रवानू होना चाहिए। चरित्रवान् होने से हमारा तात्पर्य उन योगों से है, जो व्यक्ति में आदर्श सामाजिक जीवन जीने के लिए होने चाहिए। उसे अहिंसक और प्रियभाषी होना चाहिए तथा उसका कोई भी कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए, जिसमें राष्ट्र और समाज के ऊपर लोगों को असुविधा अथवा कष्ट हो। उसे परोपकारी, सहनशील और पीड़ित का सहायक होना चाहिए।

आदर्श नागरिक को त्यागशील और कर्मवीर होना चाहिए। त्यागशील से हमारा तात्पर्य है कि उसे दूसरों के लिए अपने निजी हितों का बलिदान कर देना चाहिए और अधिकतम लोगों के सुख को अपने नागरिक आचरण की कसौटी मान लेना चाहिए।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नागरिक के आचरण को और उसकी अच्छाई-ुुराई की कसीटी समाज हित है। अतएव आदर्श नागरिक को अपनी आत्मा का निरंतर विस्तार और विकास करते रहना चाहिए, तथा समस्त वसुन्धरा के सूत्रों में ही अपना सुख समझना चाहिए। इस प्रकार आदर्श नागरिक न केवल किसी एक राष्ट्र अथवा राज्य का हीं नागरिक होगा, वरन् वह विश्व नागरिक के गौरवमय पद को प्राप्त कर सकेगा।

14. “आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु”

आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। जो व्यक्ति आलसी होता है, वह हर कार्य करने से पहले ही सुस्ती व अनुत्साह दिखाने लगता है। आलस्य एक ऐसा रोग है, जिसका रोगी कभी नहीं संभलता। यदि किसी को असफलता या पराजय का मुख देखना पड़ता है, तो वह सिर्फ आलस के कारण। ज्यादातर जो लोग आलसी होते हैं, वे केवल अपने भाग्य को ही कोसते रहते हैं। वे सोचते हैं कि जो भाग्य में लिखा है वही होगा। किसी कार्य को करने से पूर्व ही उसे आलस के कारण भाग्य के भरोसे छोड़ना और परिणाम में पराजय हाथ लगने पर फिर भाग्य को कोसना, यह आलसी व्यक्ति का ही लक्षण होता है।

भाग्य तो आलसियों का सबसे बड़ा सहारा होता है। आलसी व्यक्ति हर कार्य भाग्य के सहारे छोड़ देता है और परिश्रम से दूर भागता है। इसी कारण उसे जीवन में सफलता नहीं मिलती और वह जीवन भर भाग्य को ही कोसता रह जाता है। उक्ति प्रसिद्ध है : उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशत्ति मुखे मृगा:।

इस उक्ति से यह स्पष्ट है कि परिश्रम से ही कार्य सफल होते हैं न कि सिर्फ कल्पना करने से। परिश्रम के बिना तो शेर भी अपना भोजन नहीं पाता अर्थात् उसे भी भोजन प्राप्त करने के लिए इधर-उधर घूमना अवश्य पड़ता है। सोये हुए-शेर के मुँह में कोई हिरण अपने आप ही प्रवेश नहीं करता।

आलस्य से समय भी नष्ट होता है। सिर्फ सोचना-में यह करूंगा, ऐसा हो जाए आदि सोचते-सोचतें ही समय निकल जाता है। आलसी व्यक्तियों का तो यह स्वभाव ही होता है। क्या सिर्फ सोचने मात्र से ही कार्य सफल होते हैं। परिश्नम के बिना कोई भी विद्यार्थी कक्षा में उत्तीर्ण कैसे हो जाएगा ? आलस्य में डूब कर केवल समय नष्ट करने वाला व्यक्ति कभी सफल नहीं हो पाता। आलस्य के विरुद्ध सभी विद्वानों ने कहा है। स्वामी रामतीर्थ ने भी कहा है-आलस्य आपके लिए मृत्यु है और केवल उद्योग ही आपका जीवन है। आलस्य हमारे जीवन का सबसे बड़ा शत्रु होता है। आलस्य हमारे जीवन को नरक के समान बना देता है। आलसी व्यक्ति तो दूसरों के लिए एक प्रकार से भार-स्वरूप रहता है। आलसी व्यक्ति हर कार्य करने से पहले दस बार सोचता है- “कि करू या न करू” और परिश्रमी व्यक्ति इतने में वह काम कर भी देता है और आलसी मुख ताकता रह जाता है।

आलसी व्यक्ति कभी भी किसी कार्य को सरल नहीं समझता। वह अपने आलस के कारण काम को ही दोषी ठहराता है। उसे हर कार्य असम्भव ही लगता है। आलस्य मनुष्य के पत़न का सबसे बड़ा कारण होता है। आलसी व्यक्ति कभी भी जीवन में सफल नहीं हो पाता। आलसी व्यक्ति को अपना दोष कभी भी नहीं दिखता। वह सदैव दूसरों को ही दोषी ठहराता है। अपने आलस्य के कारण वह अनेक बहाने बनाता है, परंतु अपने आलस्य को कभी नहीं देखता।

अपने जीवन में हमें आलस्य के अनेक परिणाम देखने को मिलते हैं। ज्यादातर बच्ये आलस्य के कारण प्रातः देर से उठते हैं और फिर बिना स्नान किए पागलों की तरह विद्यालय भाग जाते हैं। कभी-कभी हम अपनी स्कूल की वर्दी आलस्य के कारण प्रेस नहीं करते। फिर यदि बिजली चली जाती है तो बिजली वालों को कोसते हैं कि “यही समय मिला था बिजली गुल करने के लिए।” आलस्य के कारण हम अपने शरीर को भी बहुत कष्ट देते हैं। बिना हाथ धोए भोजन करने बैठ जाना, भोजन करने के बाद भी हाथ व मुँह आलस्यवश न धोना-इनसे हमें अनेक बीमारियाँ भी लग सकती हैं। आलसी व्यक्ति को जो कष्ट भोगने पड़ते हैं, वह केवल विद्यार्थी जीवन में ही नहीं अपितु पूरे जीवन भर उसे दु:खों का सामना करना पड़ता है। आलसी व्यक्ति को तो जीवन के सभी क्षेत्रों में असफलता ही मिलती है। आलसियों का तो ईश्वर भी साथ नहीं देता। परींक्षाओं के समय आलस्यवश न पढ़ना और फिर परिणाम के समय भगवान से प्रार्थना करना प्रथम आने की-ऐसे में तो भगवान भी मुँह मोड़ लेते हैं।

आलस्य परमात्मा के दिए हुए हाथ-पैरों का अपमान है। आलसी व्यक्तियों को तो देवता भी प्रेम नहीं करते। आलस्य सब कामों को कठिन बना देता है। आलस्य से कोई भी काम अपने अन्त तक नहीं पहुँचता, अतः हमें आलस्य को अपना शत्रु समझना चाहिए और इससे दूर रहना चाहिए, क्योंकि जीवन का विकास आलस्य से नहीं, परिश्रम से ही होता है।

15. सत्संगति

सज्जन व्यक्तियों की संगति को सत्संगति कहा जाता है अर्थात् साधु-महात्माओं या अच्छे लोगों के साथ चर्चा करना, उठना-बैठना। सत्संगति दो शब्दों का योग है- सत् + संगति। संगति ‘सम + गति’ का संधि रूप है। जिसका अर्थ है समानगति अर्थात् एक साथ रहना, उठना-बैठना आदि। संगति का प्रभाव मानव जीवन पर अवश्य पड़ता है। मनुष्य बुरी संगति में बुरा और अच्छी सेंगति में अच्छा बन जाता है, इसलिए हमें सदैव अच्छी संगति में रहना चाहिए। संगति का प्रभाव अनिवार्य है तो क्या इससे बचा नहीं जा सकता ? उत्तर-नहीं। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग नहीं रह सकता। संगति से मनुष्य का जीवन ही बदल जाता है। मनुष्य उसकी स्वयं की संगति से ही जाना जाता है। दुर्जन व्यक्ति के संग मनुष्य को पग-पग पर अपमान सहना पड़ता है। गंगा जैसी निर्मल पवित्र नदी विश्व भर में प्रसिद्ध है। उसका मीठा पानी कितना निर्मल है, परंतु जब वह समुद्र में जा मिलती है, तो उसका सारा मान वहीं भंग हो जाता है। समुद्र उसे भी खारे पानी में मिला लेता है।

अव बात आई सत्संगति की। सत्संगति मानव की सफलता में बहुत सहायक होती है। सत्संगति वाणी में सच्चाई लाती है। सत्संगति बुद्धिि की जड़ता को दूर करती है; मनुष्य को सम्मान तथा उन्नति दिलाती है और कीर्ति का चारों दिशाओं में विस्तार करती है। मनुष्य के लिए सत्संगति क्या नहीं करती। सत्संगति मनुष्य को जीवन का महत्व बताती है।

गलियों का पानी भी गंगा जी में मिलने पर गंगा के रूप में ही जाना जाता है। पुष्प फूलों के संग रहने पर, मिट्टी से भी सुंगध आने लगती है। वाल्मीकि के मत से सत्संगति के कारण मृत्यु भी उत्सव जैसी लगती है और आपत्ति, सम्पत्ति के समान प्रतीत होती है। भगवान श्रीकृष्ण की संगति से निराश हताश अर्जुन भी युद्ध में विजयी हुए।

सत्संगति से मनुष्य के पास क्या नहीं आता नाम शौहरत, सम्मान सब कुछ मिलता है। जबकि कुसंगति से सिर्फ अपमान ही सहना पड़ता है। सत्संगति मनुष्य का सदैव साथ देती है। मनुष्य अपने जीवन में सफल होता है या असफल, यह उसकी संगत पर निर्भर करता है। सज्जन व्यक्ति अपनी संगति से दूसरे मनुष्यों को भी सज्जन बना देता है। अकसर लोग कहते हैं बच्चे को शुरूआत से ही अच्छी संगति में रहना चाहिए, क्योंकि अच्छी संगति से मनुष्य का जीवन तर जाता है। सज्जनों के साथ उठना-बैठना, महापुरुषों की शरण में रहना, सत्संग सुनना-ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी भी असफल नहीं होता। जिस प्रकार दांतों से घिरी जीभ सुरक्षित रहती है, उसी प्रकार अच्छे लोग भी दुष्टों और दुर्भाग्य से सुरक्षित रहते हैं।

मनुष्य अपने जीवन में सफल होगा या असफल यह उसके भाग्य पर नहीं संगति पर निर्भर करता है। महापुरुषों का सत्संग, मानव का कल्याण करता है। यदि दुर्जन व्यक्ति भी सस्संग रूपी गंगा में स्नान कर ले तो फिर उसे दान, तीर्थ, तप आदि की क्या आवश्यकता है। सत्संग में होने वाला मरणं भी मनुष्य का उद्धार कर देता है।

कुसंगति का प्रभाव बहुत तीव्र होता है। मनुष्य बहुत सरलता से कुसगंति में पड़ सकता है, परंतु सज्जन बनना बहुत कठिन है। मनुष्य को सदैव सत्संगति में रहना चाहिए। भगवान् राम के सत्संग से वानर और रीछ संस्कृति के अनुयायी तर गए । सत्संग से ही रल्लाकर वाल्मीकि बने। ठीक भी है-‘बिनु सत्संगति विवेक न होई’। परमेश्वर भी सत्संगति से ही प्राप्त होता है। अच्छी संगति में रहने वाले लोगों को कभी निराश नहीं होना पड़ता। हमें सदैव अच्छी संगति में रहना चाहिए। कहते हैं सत्संग पापों को धो देता है। सत्संग से पापों का तत्काल नाश हो जाता है। अच्छी संगति में रहने से मनुष्य का व्यवहार नम्रता से परिपूर्ण हो जाता है, जिससे वह सबका प्यार लेता है।

प्रत्येक मानव चाहता है कि वह सुख भोगे, ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करे, समददधि एवं शांति से जीवन व्यतीत करे और मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक में जाए। ऐसी सुखद कामना तभी संभव हो पाती है, जब मनुष्य सत्संगति का वरण करे। यदि मनुष्य अपने से भी दीन व्यक्ति के साथ रहेगा, तो स्वयं भी उसके जैसा हो जाएगा। यदि वह बराबर वालों के साथ संग करेगा, तो ज्यों-का-ज्यों ही रहेगा, परंतु यदि वह श्रेष्ठ पुरुषों के साथ रहेगा, तो वह व्यक्ति शीघ्र ही महापुरुषों के संग से विकास और उदय की ओर स्वयं ही जाएगा। अतः व्यक्ति को सदा श्रेष्ठ पुरुषों का ही संग करना चाहिए और कुसंगति से सदा दूर रहना चाहिए। इसी में उसकी भलाई है।

16. स्वावलंबन अथवा आत्मनिर्भरता

आत्मनिर्भरता का अर्थ है अपने ऊपर निर्भर रहना, जो व्यक्ति दूसरे के मुँह को नहीं ताकते, वे ही आत्मनिर्भर होते हैं। वस्तुतः आत्मविश्वास के बल पर कार्य करते रहना आत्मनिर्भरता है। आत्मनिर्भरता का अर्थ है-समाज, निज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करना। व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में आत्मविश्वास की भावना, आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। स्वावलंबन जीवन की सफलता की पहली सीढ़ी है। सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वावलंबी अवश्य होना चाहिए। स्वावलंबन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के जीवन में सर्वांगीण सफलता प्राप्ति का महामंत्र है। स्वावलंबन जीवन का अमूल्य आभूषण है। वीरों तथा कर्मयोगियों का इष्ट देव है। सर्वांगीण उन्नति का आधार है।

स्वावलंबन की परिभाषा हम अनेक उदाहरणों से समझ सकते हैं। जब बच्चा छोटा होता है, तो वह पूर्णतया अपनी माँ पर आश्रित होता है। वह अपने हाथों का प्रयोग करना नहीं जानता, परंतु धीरे-धीरे वह हाथों का प्रयोग करना जान लेता है। वह अपने हाथों से चीजों को उठाता है, अपने हाथों से खाता है, इस प्रयोग क्रिया में उसे परम आनन्द प्राप्त होता है। शिशु की यह प्रसन्नता स्वावलंबन का आनन्द है। ईश्वर ने हमें हाथ, पैर, मुँह दिया है। इसका तात्पर्य है कि स्वावलंबी बनो। अपने आत्मविश्वास को जाग्रत कर उसे मजबूत बनाओ। आत्मनिर्भर बनकर हार्दिक आनन्द प्राप्त करो। स्वावलंबन के अन्य अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। पेड़-पौधों व पशु-पक्षियों में तो स्वावलंबन कूट-कूटकर भरा है। वे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। सूर्य से प्रकाश, चन्द्रमा से रस व आकाश से जल प्राप्त कर पौधे स्वतः बढ़ते जाते हैं। वे इन चीजों के लिए किसी की खुशांमद नहीं करते। पशु-पक्षी जरा से वड़े हुए नहीं कि निकल पड़े अपने भोजन की तलाश में। चींंी जैसा नन्हा-सा जीव भी स्वावलंबन का महत्व समझता है।

स्वावलंबन मनुष्य में एक चमल्कारी शक्ति के समान है। जब व्यक्ति स्वावलंबी होगा, उसमें आत्म-निर्भरता होगी, तो ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे वह न कर सके। स्वावलंबी मनुष्य के सामने कोई-भी कार्य आ जाए, तो वह अपने दृढ़ विश्वास से अपने आत्मबल से उसे अवश्य ही संपूर्ण कर देगा। स्वावलंबी मनुष्य जीवन में कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखता। वह जीवन के हर क्षेत्र में निरंतर कामयाब होता जाता है। सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की दासी बनकर रहती है। जिस व्यक्ति का स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं, वह भला क्या कर पाएगा ? परंतु इसके विपरीत जिस व्यक्ति में आत्मनिर्भरता होगी, वह कभी किसी के सामने नहीं झुकेगा, वह जो करेगा सोच-समझकर धैर्य से करेगा। मनुष्य में सबसे बड़ी कमी स्वावलंबन का न होना है। सबसे बड़ा गुण भी मनुष्य. की आत्मनिर्भरता ही है।

आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है। स्वावलंबी मनुष्य को अपने आप पर विश्वास होता है, जिससे वह किसी के भी कहने में नहीं आ सकता। यदि हमें कोई काम सुधारना है, तो हमें किसी के अधीन नहों रहना चाहिए, बल्कि उसे स्वयं करना चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि स्वावलम्बी बनो भगवानू श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-जो स्वावलंबी व्यक्ति अपने कर्म के पालन में तत्पर रहता है, उसे ही सिद्धि प्राप्त होती है। एकलव्य स्वयं के प्रयास से धनुर्विद्या में प्रवीण बना। निपट, दरिद्र विद्युयार्थी लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधान मंत्री बने, साधारण से परिवार में जन्मे जैल सिंह स्वावलंबन के सहारे ही भारत के राष्ट्रपति बने। जिस प्रकार अलंकार काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, सूक्ति भाषा को चमक्कृत करती है, गहने नारी का सौन्दर्य बढ़ाते हैं। उसी प्रकार आत्मनिर्भरता मानव में अनेक गुणों की प्रतिष्ठा करती है।

आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मबल, आत्मनिर्भरता, आत्मर्षा, साहस, संतोष, धैर्य आदि गुण स्वावलंवन के ही सहोदर हैं। महात्मा गांधी स्वावलंबन के जीवंत उदाहरण थे। आवश्यकता पड़ने पर वे किसी भी कार्य से झिझके नहीं, हिचके नहीं। स्वावलंबन के महत्त्व से अपरिचित, दूसरों का मुँह ताकने वाले लोग अपने कर्त्तय का पालन नहीं कर पाते। ऐसे लोग मोह को बढ़ाकर, तृष्णा को उत्पन्न कर अपनी स्थिति दयनीय तथा कृपण बना लेते हैं। कार्यण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो जाता है, उनकी दृष्टि मलिन हो जाती है। इस मलिन, अंधकारपूर्ण दृष्टि से तो भगवान को भी भय लगता है। प्रभु तो उन्हीं की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। स्वांवलंबी मनुष्य को ही प्रभु का वरदान प्राप्त होता है।

आत्मनिर्रता तो स्वावलंबियों की आराघ्य देवी है। इस देवी की उपासना से उनका आलस्य अन्तर्धान हो जाता है, कायरता नष्ट हो जाती है, संकोच समाप्त हो जाता है, आत्मविश्वास की उत्पत्ति होती है, आत्मगौरव जाग्रत होता है। स्वावलंबी मनुष्य किसी भी कष्ट या विपल्ति से नहीं घबराता। स्वावलंबी व्यक्ति कष्टों और बाधाओं को रौंदता हुआ कंटकाकीर्ण पथ पर निर्भीकतापूर्वक आगे बढ़ता है। ऐसे महाप्रचण्ड शक्ति सम्पन्न स्वावलंबी मनुष्य ही समाज तथा राष्ट्र का जीवन हैं। वे जीवन रस के उपकरणों में प्राण डाल देते हैं। कठोर भूतल को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह प्राप्त करते है। वायुमण्डल को चूसकर तूफान से लड़कर अपना प्राण्य वसूल करते है। स्वावलंबी व्यक्ति समाज तथा राष्ट्र के लिए बल, गौरव एवं उन्नति का द्वार है, सुख, शांति तथा सफलता का प्रदाता है, आत्मनिर्भरता का परिचायक है, शौर्य, शक्ति तथा समृद्धि का साधन है।

17. संतोष : सबसे बड़ा धन

मनीषियों ने संतोष को सबसे बड़ा धन बताया है, जो व्यक्ति संतुष्ट नहीं उसको कुबेर का खजाना भी संतुष्ट नहीं कर सकता।
जब संतोष रूपी धन हमें प्राप्त हो जाता है, तो उसके सम्मुख अन्य सभी धन धूल के समान अत्यन्त तुच्छ, हीन तथा उपेक्ष्य हैं। धन का रूप केवल रुपया-पैसा ही नहीं, बल्कि यथेष्ट मात्रा में गऊ, हाथी, घोड़े का भी धन माना जा सकता है। बहुमूल्य पत्थर माणिक्य लाल को भी धन माना जा सकता है। यह विचार एक सूक्तिकार ने प्रकट किए “जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।”

जब यह सूक्ति लिखी गई होगी, तब गऊ, गज, बाजि को धन रूप में माना गया होगा, परंतु आज के युग में धन का अर्थ रुपया, पैसा, सम्पत्ति, रत्न आदि विनिमय पदार्थों से है। सूक्तिकार कहता है कि संतोष धन के सम्मुख ये धन भी नगण्य है। संतोष वह मानसिक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वलली वस्तु को पर्याप्त समझता है और उससे अधिक की कामना नहीं करता। महोपनिषद् के मत में ‘अप्राप्य वस्तु के लिए चिंता न करना प्राप्त वस्तु के लिए सम रहना संतोष है।’ संतुष्ट वही है, जो चाहना, चिता को छोड़कर, कामना रहित है। संतोष एक ऐसा धन है, जिसे पाकर जीवन इतना आनन्दमय और आध्यात्मिक हो जाता है, मानो जीवन शांत सरोवर के अचल जल के समान निर्विकार है। जिसमें बड़-से-दड़े आघात पर भी हलचल या उथल-पुथल पैदा नहीं होती।

मनुष्य का जीवन केवल कामना करते ही बीत जाता है। मनुष्य की कामनाएँ चाहते हुए कभी भी पूर्ण नहीं होती। प्रत्येक वस्तु के पश्चात् भी मनुष्य को लालसा लगी रहती है कि उसे कुछ और भी प्राप्त हो। प्रत्येक मनुष्य की यह लालसा होती है कि उसके पास बहुत सा धन हो। वह जीवन को सुखपूर्वक भोगे और सुख का निवास मन है। मन से ही आदमी सुख महसूस करता है। परंतु जब मनुष्य को संतोष रूपी धन प्राप्त हो जाता है, तो उसके जीवन की इच्छाएँ स्वयं ही पूर्ण होती हैं। जीटन की चाहना तो यही है कि जीवन सुख से परिपूर्ण रहे।

सुख का एहसांस मनुष्य मन से करता है। यही कारण है कि धनवानू अन्तःकरण से दुःखी है और निर्धन दुःखी होते हुए भी सुखी है। कारण, निर्धन को जो कुछ मिलता है वह उसी में सुखी है, जितने से वह सांसारिक भोग, भोग पाता है, उतने से ही वह संतुष्ट है। यदि मनुष्य के पास संतोष है, तो उसके पास दुनिया की प्रत्येक वह वस्तु है, जो वह चाहता है। जिसके पास संतोष नहीं है, वह अपना सम्पूर्ण जीवन लालसा में ही बिता देता है। उसकी हर वक्त यही कामना होती है कि उसे यह मिल जाए, वह मिल जाए और यही कामनाएँ करते-करते उसका सम्पूर्ण जीवन बीत जाता है। वह जीवन का अर्थ ही नहीं समझ पाता, परंतु संतोष मनुष्य के जीवन में वह भाव ला देता है, जिससे मनुष्य जीवन को समझ पाता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।

संसार में सभी गुणों का वास धन में बताया गया है। जीवन का सुख-धन बताया गया है। धन को ही पूजनीय माना जाता है, परंतु धन से मनुष्य की कभी भी तृप्ति नहीं हुई। कोई भी मानव धन से कभी तृप्त नहीं हुआ। अतुप्ति से इन्द्रियाँ बेलगाम घोड़े के समान भागती हैं। बेलगाम इन्द्रियाँ मनुष्य के हृदय को अशांत करती हैं। अशांत हृदय में सुख कैसा ? सुख के अभाव में जीवन नरक है। सुख की जननी है-संतोष।

जो व्यक्ति अधिक धनी है, कोठी, कार और अतुल निधि का मालिक है, वह स्वभावतः निनानवे के फेर में रहता है। वह लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनने के लिए चितिंत रहता है। कुछ और अधिक, कुछ और ज्यादा की मृग-तृष्णा में वह व्याकुल रहता है। इससे उसके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। भूख घटती जाती है। दवाई के सहारे काया जीती रहती है। इस मृत्युलोक में स्वस्थ शरीर के समान तो कोई नहीं। फिर जो धन सुख न पहुँचा सके, काया की अस्वस्थता के कारण धर्माचरण से दूर करे, वह धन किस काम का। इसके मुकाबले उस व्यक्ति का जीवन अधिक सुखमय

है, जो अपनी कामनाओं को मर्यादित किए है, क्योंकि उसका धन तो संतोष है। जिसके समुख और धन तुच्छ है। जातक भी कहते हैं-जो मिले उसी से संतुष्ट रहना चाहिए। अति लोभ करना पाप है।

जो कुछ मनुष्य को मिले, वह उसी में संतुष्ट होकर प्रसन्न रहने की चेष्टा करे। संतोष रूपी धन का वृक्ष भले ही कड़वा हो, परंतु उसके फल मीठे और लाभदायक होते हैं। स्वामी भजनानन्द जी की तो मान्यता है कि “जैसे हरा चश्भा लगा लेने से सभी वस्तुएँ हरी-हरी दिखती हैं। उसी प्रकार संतोष धारण कर लेने पर सारा संसार आनन्द रूप ही दिखाई पड़ता है।

जीवन का असली सुख धन नहीं, संतोष है। यदि मनुष्य को सुखी रहना है, तो उसे संतोष ग्रहण करना होगा। संतोष रूपी धन जिसके पास है, उसकी आँखों की ज्योति में चमक होती है, स्वास्थ की लाली उसके कपोलों पर फूटती है। कमल के समान उसका बदन खिला रहता है। अंग-अंग में स्फूर्ति रहती है और चाँदनी-सी पुंसकाराहट उसके अरूणाधर पर खेलती रहती है। संतोष रूपी अमृत से तृप्त शान्तचित व्यक्तियों को जो सुख प्राप्त है, वह धन के लोभ में इधर-उधर भटकने वालों को कहाँ प्राप्त हो सकता है ,

18. परिश्रम का महत्त्व

परिश्रम का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। परिश्रमी व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। मन और बुद्धि के संयोग में ज्ञानेन्द्रियों और करेंन्द्रिय का यथासम्भव उपयोग परिश्रम है। सफल होने की अवस्था या भाव का नाम सफलता है। दूसरे शब्दों में कार्य की सिद्धि सफलता है। परिश्रम उद्देश्य की सिद्धि का सरल साधन है। परिश्रम सफलता की कुंजी है’ से तात्पर्य है कि परिश्रम से ही कायों में सफलता मिलती है। प्रतिभा जाग्रत करने का उपाय है, उन्नति का द्वार है, प्रगति का सोपान है, यश का मेरुदण्ड है। केवल इच्छा मात्र से कार्य पूर्ण नहीं होते। यदि यह सम्भव होता तो सोते हुए सिंह के मुख में पशु स्वयमेव प्रवेश कर जाते।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥

बिना परिश्रम के कोई भी मूल्यवती वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती। बुद्धि और विद्या के चक्कर से सफलता नहीं मिलती। सफलता रूपी ताले को खोलने के लिए परिश्रम रूपी कुंजी चाहिए। स्वामी रामतीर्थ का विचार है-‘सफलता का पहला सिद्धांत है, ‘काम अनवरत काम’ अर्थात, निरंतर परिश्रम’।

अच्छे प्रयल्लों से पुरुषों की पुरुषता सिद्ध होती है। ‘जो व्यक्ति परिश्रमी होते हैं, वे परिश्रम करके सफलता प्राप्त करते ही हैं। महापुरुषों की वाणी ने यह प्रेणा दी कि जीवन में श्रम को अपनाओ, परिश्रम की पूजा करो, क्योंकि यह मनुष्यों के सिर पर सफलता का सेहरा बाँधती है। भाग्यवादी परिश्रम को सफलता की कुंजी नहीं मानते। उनका विचार है-‘भाग्यं फलति सर्वत्र, न विद्या न च पौरुषमू।’ तुलसी ने कहा, ‘विधि का लिखा को मेटन हारा।’ क्या यह सच नहीं है कि श्रीराम और अयोध्या के प्रजाजन का उद्यम भाग्य के आगे व्यर्थ हो गया, जब उन्हें राज-मुकट के स्थान पर वनवास मिला। यह सही है कि परिश्रम के साथ भाग्य भी सफलता का एक उपकरण है, पर यह भी सही है कि मानव का परिश्रम उसका भाग्य बनकर गुण के समान उसे अपने अभिष्सित स्थान पर ले जाता है। वेदव्यास जी नें इस बात का समर्थन करते हुए कहा, भाग्य किसी व्यक्ति को बिना पुरुषार्थ कुष नहीं दे सकता। इतना ही नहीं परिश्रम का सहारा पाकर ही भाग्य भली-भाँति बढ़ता है।

जो विद्यार्थी परिश्रम करता है, वह परीक्षा में अवश्य सफल होता है। व्यापारी अहर्निश पुरुषार्थ करता है, लक्ष्मी उसकी दासी बनती है। कारीगर जब परिश्रम करता है, तो सफलता उसके चरण चूमती है। वैज्ञानिक जब परिश्रम करता है तो जल, थल को दुह डालता है और नभ में भी अपनी विजय पताका फहरा देता है। वह सफलता में पाता है-भानव जीवन का सौन्दर्य। जो व्यक्ति परिश्रमी होता है, उसका भाग्य साथ अवश्य देता है।

मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए, फल की इच्छा किए बिना। परिश्रमी व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं होता। वह हर असम्भव कार्य को सम्भव कर सकता है। परिश्रमी व्यक्ति कार्य को देखते ही डरते नहीं, वह अपनी कड़ी मेहनत और लगन से उसे पूरा कर दिखाते हैं। दैनिक जीवन में ही हम देखते हैं, परिश्रमी परिवार सुख समृद्धि की ओर पग बढ़ाता है और आलसी तथा परिश्रम से जी चुराने बालों का मुँह कुत्ता चाटता है। टाटा, बिड़ला, सिंहानिया, थ्रीराम क्या थे ? निरंतर परिश्नम ने उनकी झोली को इतना भर दिया कि झोली छोटी पड़ गई।

यह परिश्रम का प्रसाद है कि आज नवधनाद्यों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है और भारत औदूयोगिक दृष्टि से समृद्ध देश बनता जा रहा है। परिश्रम द्वारा सफलता वर्णन करने वालों के उदाहरणों से इतिहास और पुराणों के पृष्ठ भरे पड़े है। अल्पायु में ही चार मठों की स्थापना कर पाने में आद्यशंकराचार्य का परिश्रम ही प्रमुख साधन था। दीन-हीन लाल बहादुर को राजनीतिक तप-बल के पुरस्कार रूप में मिला प्रधानमंत्री पद। अल्पायु में हिंदी साहित्य की दिशा-परिवर्तन का श्रेय प्राप्त करने वाले भारतेन्दु का तप उनकी सफलता का द्योतक बना। अकेले डॉ. हेडगेवार ने अपने तप-बल से राष्ट्रीय स्व्यंसेवक संघ की सिद्धि प्राप्त की। श्रम मानसिक हो या शारीरिक, सामान्य हो या असामान्य, उसका फल अवश्य मिल्लता है। ठीक भी है, जो सागर में उतरते हैं, वे ही मोती जमा करते हैं, जो छिछले पानी वाले किनारे पर ठहरते हैं, उन्हें शंख और सीप ही हाथ लगते हैं अतः सत्य है कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।

19. पहला सुख निरोगी काया

किसी ने कहा है-‘पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख घर में हो माया’ नीरोग-काया जीवन की सार्थकता है। अच्छा स्वास्थ्य महा-वरदान है, शुम-फलदायी है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रधान कारण आरोग्य है, इसलिए अच्छा स्वास्थ्य महावरदान है। प्रभु की कृपा से प्राप्त होने वाली फल सिद्धि है। अच्छा स्वास्थ्य वीरता का परिचायक है। वीर ही वसुन्धरा को भोग सकता है, इसलिए आरोग्य वरदान है। “अच्छा स्वास्थ और अच्छी समझ जीवन के दो सर्वोतम वरदान हैं।” अच्छा स्वास्थ्य क्या है ? इस सम्बन्ध में महाभारत के शांति पर्व में वेदब्यास जी ने कहा है-‘सर्दी गर्मी और वायु-ये तीन शारीरिक गुण है। उन तीनों का साम्यावस्था में रहना ही अच्छे स्वास्थ का लक्षण है। दूसरे, ‘सत्व, रज और तम ये तीन मानसिक गुण हैं। इन तीनों गुणों का साम्याबस्था में रहना ही मानसिक स्वास्थ का लक्षण बताया गया है।

अथववेद में भी इसीलिए इस महावरदान की प्राप्ति के लिए प्रार्यना की गई है-‘मेरे मुख में पाक्शक्ति हो, नाक में प्राण शक्ति हो, आँखों में दर्शनशक्ति हो, कानों में श्रवणशक्ति हो। बाल काले हों, दाँत मैल रहित हों, भुजाओं में बल हो, उरूओं में शक्ति हो, जांघों में वेग हो, पैरों में दृढ़शक्ति हो। शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग न्रुटि-रहित निरोग, स्वस्थ और सबल हों।’ मेरी सम्पूर्ण देह निर्दोंश हो। इतना ही नहीं शरीर पत्थर समान दृढ़ हो। यह चन्द्रमा के समान दिनों-दिन बढ़कर खूू मोटा-ताजा हो।

शरीर रथ है और इन्द्रियाँ रथी। शरीर रूपी रथ पर बैठकर मनोदेव इन्द्रियों के घोड़े दौड़ते हैं और आकाश-पाताल की सैर करते हैं। जीवन के चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का पालन और प्राप्ति कर इहलोक और परलोक को सुखमय बनाते हैं। मुख-मंडल की तेजस्विता से दूसरों को मुग्ध करते हैं, तथा अपने कुल और राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करते हैं। रल-गर्भा पृथ्वी का वीरता से भोग करते हैं। यदि इसके पहिए ढीले हो जाएँ, इसकी कमानियों में दमन रहे, तो जीवन-यात्रा कठिन हो जाए। सांसारिक भोग और आध्यात्मिक उन्नति व्यर्थ हो जाएँ। चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति क्षितिज के उस पार चली जाएँ। जीवन की सार्थकता के लिए अच्छा स्वास्थ अनिवार्य है।

अच्छे स्वास्थय का गुरु है-व्यायाम। व्यायाम करने से शरीर की पुष्टि, गात्रों की क्रांति, मांसपेशियों के उभार का ठीक विभाजन, आलस्यहीनता हल्कापन और मलादि की शुद्धि होती है। साथ ही शारीरिक हल्कापन, कर्म-सामर्थय, दृट़ता, कष्ट सहिण्युता आदि आती है और दोष क्षीण होते हैं।

मन की वह अवस्था जिसमें मानव को कोई उद्वेग, कष्ट तथा चिंता न हो, अच्छे स्वास्थ्य की व्याख्या मानी गई है। कारण, चित्त शांत और स्थिर होगा। क्षोभ, घबराहट या परेशानी उसे स्पर्श नहीं करेंगे। भय तथा विस्मय आतंकित नहीं करेंगे। कष्ट उसके रमक्ष उपस्थित होने में भी भयभीत होंगे। क्योंकि वह वीर है, साहस और तेज की प्रतिमूर्ति है, इसलिए चिंताएँ उसको स्पर्श ही नहीं करती। जीवन जागरण है, सुपुण्ति नहीं। उत्थान है, पतन नहीं। मानव को पृथ्वी के अंधकाराच्छन्न पथ से गुजर कर दिव्य ज्योति से साक्षात्कार करना है। यह साक्षात्कार तभी सम्भव है, जब हम तन और मन से निरोग होंगे। मस्तक तेज से दीप्त होगा। जीवन धारा सुंदर रूप में प्रवाहित होकर सत-सतत प्रकाश सुखद अथाह से पूर्ण करके महावरदान सिद्ध होगा।

संयम का जीवन व्यतीत करने वालों के पास कभी रोग नहीं फटकने पाते। जितनी अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाएँगे उतनी ही परेशानियाँ भी बढ़ेगी। अतः सांसारिक आपाधापी, भागदौड़ से दूर रहना चाहिए। अच्छे स्वास्थ्य के लिए संयम आवश्यक है। यदि स्वास्थ्य और धन में से हमें किसी एक का चयन करना पड़े तो हमें स्वास्थ्य का चयन करना चाहिए। अच्छा स्वास्थ है, तो धन भी कमा लिया जाएगा। यदि व्यक्ति बीमार है, तो लाखों की सम्पत्ति उसके लिए व्यर्थ है। इसलिए किसी ने कहा है ‘तन्दुरुस्ती हजार नियामत’।

20. टेलीविजन : लाभ और हानियाँ

दूरदर्शन विज्ञान के अद्भुत आविष्कारों में से एक है। पश्चिमी देशों में इसका प्रचलन हमरे देश से लगभग तीन दशक पहले हो गया था। हमारे देश में इसका प्रचलन तीन दशकों से है। दूरदर्शन की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। वर्तमान काल में टेलीविजन मनोरंजन का अत्यन्त संक्त और प्रचलित साधन है। दूरदर्शन एक ऐसा यंत्र है, जिसके माध्यम से हम दूरस्थ स्थान से प्रसारित ध्वनि सुनने के साथ-साथ कलाकारों के क्रियाकलापों, उनके हाव-भावों को साक्षात् रूप में घर बैठे देखते हैं। दृश्य और श्रव्य होने के कारण इसका हृदय पर बहुत गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ता है। अपने इन दोनों गुणों के कारण यह ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद होने के साथ-साथ विज्ञापित वस्तुओं का श्रेष्ठ प्रचारक है।

दूरदर्शन के जहाँ अनेक लाभ हैं, वहीं अनेक हानियाँ भी हैं। दिन-भर के परिश्रम से थका-हारा व्यक्ति शाम को अपने मनोंरनन का साधन ढूँढ़ता है। दूरदर्शन के रूप में घर बैठे यह साधन मिल जाता है। टेलीविजन में उसे विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम देखने को मिलते हैं, जिससे उसका मन-मस्तिष्क तनावरहितं होकर हल्केपन का अनुभव करने लगता है।

टेलीविजन प्रतिदिन देर सारे मनोरंजक प्रोग्राम प्रस्तुत करता रहता है। रविवार के दिन तो सुवह से ही कार्यक्रम आरंभ हो जाते हैं। सप्ताह भर ढ़र सारी फिल्में, सीरियल, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त गीत, गजल, भजन, तृत्य, नाच, कव्वाली तथा कवि सम्मेलन भी दूरदर्शन पर दिखाए जाते हैं। दूरदर्शन पर खेलों की विभिन्न प्रतियोगिताओं के लाइव टेलिकास्ट देखकर तो खेल-प्रेमियों के हूदय बल्लियों उछ्लने लगते हैं।

विश्व के किसी भी कोने में, कोई भी घटना, कहीं भी घटी हो, उसकी फिल्म टेलीविजन पर देखकर उस घटना की भयंकरता या रोचकता को सुखद या दुःखद अनुभव होते हैं।

भारत जैसे विशाल देश के लिए दूरदर्शन की महत्ता असंदिग्ध है। यंह ज्ञानवर्धन के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है। आज हमारे देश के सामने अनेकानेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। इन समस्याओं पर दूरदर्शन के माध्यम से जनता का ध्यान आकृष्ट कर, उनके समाधान का प्रयल्न किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान, समाज-शिक्षा, खेती-बाड़ी आदि विषयों पर उचित जानकारी प्रदान कर लोगों को शिक्षित किया जा सकता है। देश में बढ़ती जनसंख्या की समस्या, परिवार नियोजन की आवश्यकता, छुआघूत, दहेज, मद्यपान के कुप्रभावों, भारतीय जीवन में व्याप्त विविधता में एकता आदि विषयों पर विभिन्न कार्यक्रम दिखाकर लोगों को राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्तों, तथा असामाजिक तत्त्वों से सचेत रहने की प्रेणा दी जा सकती है।

निरक्षरता को दूर करने के प्रयल में दूरदर्शन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। देश में हो रही प्रगति का ज्ञान सामान्य जनता तक इसके माध्यम से पहुँचता है। जनता को उसके अधिकारों और कर्त्त्यों के प्रति सचेत एवं जागरूक बनाए रखने में दूरदर्शन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जहाँ इसके द्वारा जनता को शिक्षित करने के साथ-साथ अपेक्षित कार्यक्रमों के द्वारा लोगों का मनोरंजन भी किया जाता है, वहीं उनके दृष्टिकोण को विशाल, वैज्ञानिक और स्वस्थ बनाया जा सकता है। दूरदर्शन संबंधी कार्यक्रमों में थोड़ी-सी असावधानी भी भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक बन जाती है। दूरदर्शन पर प्रदर्शित चलचित्र छोटे बच्चों से लेकर मजदूरों, दुकानदारों, विद्यार्थियों पर अपना कुप्रभाव डालते हैं। आज विद्यार्थी शिक्षा की अपेक्षा टंलीविजन देखना अधिक पसन्द करता है। उसे चाहे अपनी पाठ्यपुस्तक का एक भी पाठ स्परण न हो, परंतु प्रायः सभी अभिनेता-अभिनेत्रियों के नाम उसे रटे रहते हैं। इसी प्रकार मजदूर, दुकानदार इन चलचित्रों को देखने के लिए अपना काम बीच में छोड़ देते हैं। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय उत्पादन में गिराबट आने का भय बना रहता है।

दूरदर्शन जहाँ एक ओर नृत्य, संगीत, कविता, नाटक, विज्ञान आदि पर रोचक कार्यक्रमों द्वारा जनता का ज्ञान बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज में फैशन, समय की व्यर्थ बरबादी को भी बढ़ावा देने में अपना योगदान दे रहा है। फिर भी दूरदर्शन की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। कार्यक्रमों को अधिक सुरुचिपूर्ण बनाकर इसके नकारात्मक पहतुओं को किसी सीमा तक दूर किया जा सकता है।

21. विज्ञान : बरदान और अभिशाप

वर्तमान युग विज्ञान का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान ने क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। विज्ञान के नवीन और अद्रुुत चमत्कारों से विश्व में क्रांति उपस्थित हो गई है। एक युग था जब मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों से भयभीत होकर प्राकृतिक शक्तियों को देवता समझकर उनकी पूजा-अर्चना किया करते थे, परंतु आज विज्ञान के कदम उन पर भी पहुँच गए हैं। आज किसी राष्ट्र की प्रभुता उसके विशाल क्षेत्रफल और जनसंख्या पर आधारित नहीं है, वरन् उसकी वैज्ञानिक प्रगति द्वारा आँकी जाती है। आज मानव ने विज्ञान की सहायता से समस्त भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है। सुख-सुविधाओं की प्रत्येक वस्तु का निर्माण कर जीवन की धारा ही बदल डाली है।

प्राचीन धर्मग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का उल्लेख किया गया है। विश्वामित्र ब्रह्मास्त्र का आविष्कार कर चुके थे। पुप्पक विमान की कहानी से सभी परिचित हैं। वर्षा करने वाले, आग लगाने वाले बाणों की कथाएँ हमारे धर्मशास्त्रों में भरी पड़ी हैं। समुद्र सोखकर भूमि निकालने वाले वैज्ञानिक ॠषि हमारे देश में निवास करते थे। महाभारत युद्ध के दृश्य को दूसरे स्थान पर सुनाने वाले व्यक्ति यहाँ थे। मध्यकाल में संभवतया लोग भक्ति भावना के वशीीूूत होकर, इन पर विश्वास कर लेते हों, परंतु आज विज्ञान ने इन्हें सत्य साबित कर दिया है। आज टेलेविजन, टेलीफोन, टेलीप्रिन्टर, मिसाइल, उपग्रह, अणुबम, गर्म-ठंड़ा करने के उपकरण, एक्सरे, राडार, दूरमारक यंत्र सभी धारणाओं और विश्वासों को सही सिद्ध करते हैं।

विज्ञान ने मनुष्य को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ-न-कुष दिया है। मनोविनोद के आधुनिक साधनों ने मनुष्य को अनेकानेक वस्तुएँ उपलब्ध कराई हैं। चलचित्र, रेडियो, टेलीविजन, ग्रामोफोन, टेपरिकार्डर जैसी मनोरंजन कराने वाली वस्तुएँ उपलब्ध कराई हैं। इनसे भी एक कदम आगे आज वीडियो के चलन से घर में सिनेमा कक्ष का निर्माण हो गया है। जहाँ मनचाही फिल्ें परिवार के साथ देखी जा सकती हैं। टेलीविजन और रेडियो शिक्षा प्रदान करने के अच्छे साधन हैं। विद्यार्थियों, गृहणियों, किसानों और कुटीर कारीगरों के लिए बहु-उपयोगी शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है।

विज्ञान ने मनुष्य को ध्वनि की गति से भी तेज चलने वाले साधन उपलब्ध कराए हैं। एक समय था जब मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऊँटों, घोड़ों और बैलगाड़ियों की सहायता से जाया करता था। गंतव्य स्थान तक पाहुँचने के लिए दिन, महीने और वर्ष लग जाया करते थे। अब वही दूरी मोटरसाइकिल, बस, कार, हवाई जहाजों और रेलों द्वारा कुछ ही समय में तय की जा सकती है। द्रुतगामी यानों से समय और दूरी घट गई है। समुद्र के वक्षस्थल को चीरते समुद्री जहाज कुछ ही दिनों में पूरे विश्व का चक्कर लगा लेते हैं। आज विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने भूगर्भ और समुद्र के तल में छिपे भंडरों का पता लगा लिया है। विभिन्न देशों से पारस्परिक मैन्ती और सद्भावना स्थापित करने में विज्ञान के साधनों ने बड़ा योगदान दिया है। संदेशवाहन के क्षेत्र में असाधारण प्रंगति हुई है। जो समाचार संदेशाहकों द्वारा कई-कई दिनों में पहुँचाए जाते थे, आज टेलीफोन द्वारा विश्व के किसी भी भाग में घर बैठे तुरंत पहुँचाए जा सकते हैं। मित्रों और संबंधियों से वार्तालाप किए जा सकते हैं। टेपरिकार्डर से मनुष्य की आवाज को वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

मनुष्य के लिए अत्यन्त लाभकारी उपकरण विज्ञान की देन हैं। हाथ में घ़ड़, आँखों का चशमा, लिखने का पेन, रसोई का स्टोव, सवारी की साइकिल, सौंदर्य प्रसाधन, कमरे का पँखा, हीटर, शीघ्र पकाने का प्रेशर कुकर, यद्यपि ये वस्तुएँ अत्यन्त साधारण वस्तुएँ हैं, परंतु इनका महत्व कितना अधिक है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

आज विज्ञान ने आकाश, भू-लोक और पाताल-लोक तक अपना राज्य जमा लिया है। मानव शरीर के अंग-अंग की जाँच करने के लिए एक्सरे मशीनें हैं, कृत्रिम अंग हैं, शरीर के खून तक को बदला जा सकता है, कैंसर जैसे असाध्य रोग का इलाज संभव है, हृदय, फेफड़े और आँखें बदली जा सकती हैं। कटे अंग जोड़े जा सकते हैं। प्लेग, चेचक, हैजा जैसे रोगों की औषधियाँ निकाली जा चुकी हैं। चुंबकीय और विद्युत तरंगों द्वारा इलाज किया जाना संभव हो गया है। युद्ध क्षेत्र के विनाशकारी एटम और हाइड्रोजन बम शांतिपूर्ण कार्यों के प्रयोग में लाकर विद्युत उत्पादन और रेगिस्तान में हरित क्रांति ला सकते हैं। आज चंद्रलोक की यात्रा संभव हो सकी है। ये वैज्ञानिक चमत्कार मनुष्य के जीवन में परिवर्तन लाने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं। विज्ञान ने मनुष्य जीवन में महानू परिवर्तन किए हैं।

विज्ञान के चमत्कारों से मनुष्य जीवन में सुख-सुविधा का विस्तार हुआ है। मनुष्य जीवन अधिक वैज्ञानिक वस्तुओं के प्रयांग का आदी हो गया है। विज्ञान ने मनुष्य को प्रयोग के लिए असंख्य उपकरण प्रदान किए हैं, परंतु विज्ञान केवल सुखदायक ही नहीं, वरन् सर्वनाश का कारण भी है। विज्ञान मनुष्य जीवन के लिए जहाँ अनेक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कराता है वहाँ ऐसी विनाशक वस्तुएं भी उपलब्ध कराता है जो संपूर्ण मानय जाति के विनाश का कारक सिद्ध होंगी। नागासाकी और हिरोशिमा की दुःखांत कथा कभी भी दोहराई जा सकती है। मनुष्य जाति ने दो भीषण विश्वयुद्ध देखे हैं और उनके परिणाम को भुगता है। तृतीय विश्वयुद्ध की कल्पना मात्र से भय के वातावरण की सृष्टि होती है। एक बार वैज्ञानिक आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि तृतीय विश्वयुद्ध के बारे में आपके क्या विचार हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया, तृतीय विश्ययुदूध के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ, चौथे विश्वयुद्ध की कल्पना की जा सकती है। यदि तृतीय विश्वयुद्ध में मनुष्य का अस्तित्व बचा तो अगला युद्ध हाथ पैरों व पत्थरों से होगा। तृतीय विश्वयुद्ध की संहारक क्षमता क्या होगी ? यह एक विचार करने योग्य प्रश्न है।

आज वैज्ञानिकों ने समुद्रों में गर्म धाराओं के निकट हिमखंडों को पिघलाकर जलप्लावन की स्थिति उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त कर ली है। वातावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ाकर भी शत्रु देशों को तबाह किया जा सकता है। चुंबकीय असंतुलन पैदा करके अयनमंडलों की ओजोन परतों में छेद करके रेडियोधर्मी विकिरण से जनजीवन का नामोनिशान मिटाया जा सकता है। शत्रु राष्ट्र में सूखे की स्थिति उत्पन्न कराई जा सकती है। कृत्रिम भूकंप से ज्वारीय लहरें पैदा की जा सकती हैं। आज अमेरिका प्रतिवर्ष करोड़ों डालर लेसर किरणों के प्रयोग और तकहीक के विकास पर खर्च कर रहा है। उसने लेसर गन भी बना ली हैं, जिनकी सहायता से लैसर किरणें फेंककर सर्वनाश किया जा सकता है। प्रकाश के वेग से चलने वाली इन किरणों को ‘मृत्यु किरण’ कहा गया है। आजकल संसार के सभी सागरों में ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों की पनडुब्यियाँ प्रक्षेपास्त्र और लेसर गन लिए घूम रही हैं।

22. मनोरंजन के आधुनिक साधन

मानव-जीवन में मनोरंजन की बहुत ही आवश्यकता है। यं शारीरिक और मानसिक थकान को दूर करने के लिए अनिवार्य है, क्योंकि मनोरंजन के क्षणों में शरीर के अवयव शिथिल पड़ जाते हैं। फलस्वरूप मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की थकान दूर होती है और अतिरिक्त शक्ति एकत्रित होने लगती है, जिससे स्फूर्ति आती है।

शरीर को स्फूर्तिवान व पुष्ट बनाने के लिए मनोरंजन आवश्यक है, मनोरंजन के अभाव में मनुष्य का स्वास्थ्य बिगड़ जाता हैं, कार्य करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। मनुष्य को जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। इसीलिए प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने अपना मनोरंजन करने के लिए मनोरंजन के विभिन्न साधनों की सहायता ली है।

प्राचीनकाल में मानव के मनोरंजन के साधनों में शिकार खेलना, मल्लयुद्ध, रथों की दौड़, पुश-पक्षियों की लड़ाई, चौपड़, शतरंज, नाच-गाना तथा नाटक-प्रहसन आदि प्रमुख थे।

मानव सभ्यता के विकास और वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ नए-नए मनोरंजन के साधनों का भी विकास होता गया। आज विज्ञान ने मनोरंजन के लिए अत्यंत सस्ते साधन प्रदान किए हैं। इन साधनों में सर्वसुलभ एवं प्रमुख हैं टेलीविजन। टेलीविजन में घर बेठे चलचित्र, चित्रहार, फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन और फिल्मों की बातें देखिए। हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के नाटक-प्रहसन, नृत्य एवं संगीत के मनोरंजक कार्यक्रमों का आनंद लीजिए। नैटवर्क प्रोगामों के अंतर्गत हास्य-व्यंग्य एवं ज्ञानवद्धक नाटिकाओं द्वारा अपना मनोरंजन कीजिए। कवि-सम्मेलन और मुशायरे सुनिए और देखिए। टेलीविजन के अन्य कार्यक्रम भी आपका प्रतिदिन घर बैठे स्वस्थ मनोरंजन करने में पीठे नहीं हैं।

रेडियो में प्रत्येक व्यक्ति की अनुसार कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। रेडियो द्वारा संसार के किसी भी भाग के कार्यक्रम सुनकर अपना मनोरंजन कर सकते हैं। रेडियो में प्रायः पूरे दिन फिल्मी गाने, विविध भारतीय के कार्यक्रम, नाटक-प्रहसन, लोकगीत, कहानियाँ कविताएँ, खेलों का आँखों देखा हाल, भजन आदि कार्यक्रम मानव को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान कर, उनके जीवन में स्फूर्ति एवं उल्लास भरकर उसे पुनः कार्य करने के लिए समर्थ बना देते हैं।

मनोरंजन का एक अन्य सबसे प्रचलित एवं लोकप्रिय साधन है, चित्रपट-सिनेमा सस्ते दामों में ही तीन घण्टे एयर कंडीशंड सिनेमा हाल में बैठकर चलचित्र का आनंद लीजिए। चित्रपट को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का श्रेय प्राप्त है। इसमें चलचित्र देखने के साथ-साथ ही मनोंजन, गाने, नृत्य, नायक-नायिका के हावभाव तथा लड़ाई पर्दे पर देखकर हम झूम उठते हैं। यह मनोरंजन का सबसे सुलभ एवं सस्ता साधन है।

मनोंरंजन का एक अन्य अति आधुनिक साधन है वीडियो। वीडियो के द्वारा घर बेठे मन-पसंद कार्यक्रम तथा फिल्में देखिए। अब तो वीडियो गेम भी आ गए हैं। आठ आने या एक रुपए में एक घण्टे का मनोरंजन हो जाता है।

पत्र-पत्रिकाएँ भी मानव को मनोंजन प्रदान करने के साधनों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इनमें कहानी, नाटक, एकांकी, कविता, गज़ल, चुटकुले आदि पढ़कर व्यक्ति अपना मनोरंजन करता है, किंतु यह साधन केवल पढ़े-लिखे व्यक्तियों तक ही सीमित रहता है। मनोरंजन के आधुनिक साधनों में दिल्ली के प्रगति मैदान का ‘अप्पू घर’ भी अपना सानी नहीं रखता। अप्पू घर में बाल-वृद्धध, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी का भरूूर मनोरंजन होता है।सरकस, रंगमंचीय नाटक, ध्वनि प्रकाश कार्यक्रम एवं नृत्य-संगीत भी मनोरंजन के आधुनिक साधन हैं। सरकस के जोकर हंसा-हंसाकर लोट-पोट कर देते हैं और जानवर एवं युवक-्युवतियाँ आश्चर्यजनक साहसिक करतब दिखाकर हमारा मनोरंजन करते हैं। इसी प्रकार संगीत और नृत्य के कार्यक्रम भी मन को मोह लेते हैं।

क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल, टेनिस, बैडमिंटन, कुश्ती, शतरंज, बालीबाल, ताश, कैरम और नौका विहार, तैरना आदि भी मनोरंजन के आधुनिक एवं उत्तम साधन हैं। कुछ लोग खेल कर, कुछ लोग इन्हें देखकर अपना मनोरंजन करते हैं। पिकनिक और प्रातः कालीन सैर तथा अवकाश के दिनों में ऐतिहासिक एवं दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करना भी जनमानस को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करता है।

कवि सम्मेलन, मुशायरे, गीत-गजल, कब्वाली के कार्यक्रम भी मनुष्य को आनंद प्रदान करते हैं। वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ आज का मानव-जीवन भी अत्यन्त यांत्रिक होता जा रहा है। जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मानव को अत्यंत कठिन परिश्रम करना पड़ता है। दिन भर के परिश्रम से थका हुआ व्यक्ति जब घर लौटता है, तो उसे मन और शरीर को स्वस्थ एवं स्फूर्तिवान बनाने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता अनुभव होती है, तो रेडियो या टेलीविजन उसका मनोरंजन कर उसे पुनः उल्लास एवं स्फूरित से भर देते हैं। भविष्य में भी मनोरंजन के अन्य साधनों का आविष्कार होता रहेगा।

23. आधुनिक भारत के निर्माण में विज्ञान की भूमिका

वर्तमान युग विज्ञान का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान ने क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। विज्ञान के नवीन और अद्भुत चमत्कारों से विश्व में क्रांति उत्पन्न हो गई है। एक युग था जब मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों से भयभीत होकर, प्राकृतिक शक्तियों को देवता समझकर उनकी पूजा-अर्चना किया करता था परंतु आज विज्ञान के कदम चंद्रमा पर भी पहुँच गए हैं। आज किसी राष्ट्र की प्रभुता उसके विशाल क्षेत्रफल और जनसंख्या पर आधारित नहीं हैं, वरन् उसकी वैज्ञानिक प्रगति से आँकी’जाती है। आज मानव ने विज्ञान की सहायता से समस्त भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है। सुख-सुविधाओं की अनेक वस्तुओं का निर्माण कर उसने जीवन की धारा ही बदल डाली है।

आधुनिक भारत के निर्माण में विज्ञान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत को स्वतंत्र हुए लगभग 45 वर्ष हो गए हैं। स्वत्रंता के पश्चात् ही भारतीय कर्णधारों ने विज्नान के महत्व को भली-भाँति जान लिया था, अतः आधुनिक भारत के नव-निर्माण के लिए वैज्ञानिक संसाधनों के विकास पर बल दिया गया है। प्रत्येक क्षेत्र में नवीन वैज्ञानिकों को अपनाने और उनमें आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का प्रयास किया गया है।

आधुनिक भारत विज्ञान की सहायता से दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। यद्यपि विश्व ने विज्ञान के क्षेत्र में नित नए आविष्कारों के कारण अद्भुत तरक्की कर ली है, पर अब भारत भी इस दिशा में बहुत पीछे नहीं रह गया है। भारत में वैज्ञानिक उपकरणों का उत्पादन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अब हम विदेशी उपकरणों के मोहताज नहीं रह गए हैं। कम्प्यूटर का प्रयोग सभी क्षेत्रों में होता जा रहा है। टी.वी., वी..सी.आर, कैलकुलेटर अदि वस्तुओं का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा है। वस्तुओं की गुणवत्ता में निरितर सुधार हो रहा है। भारत के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में भी अपने यान भेजने में सफल रहे हैं। हमारे एक भारतीय पायलट राकेश शर्मा अतंरेक्ष का चक्कर भी लगा आए हैं। अणुशक्ति का शांतिपूर्ण कार्यों में भरपूर प्रयोग किया जा रहा है।

हमारा देश विकासशील देशों की श्रेणी में आता है। यह विकास की प्रक्रिया से गुजर रहा है। इसकी प्रगति को देखकर विदेशी भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। जिस देश के बारे में उन्होंने पढ़ा एवं सुना था कि वह अत्यंत गरीब देश है, उसी देश में आकर वे गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ देखते हैं, तो उन्हें सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। भारत की राजधानी दिल्ली भव्य इमारतों का नगर बनता जा रहा है। भारत के अन्य नगर भी प्रगति की दौड़ में पीछे नहीं हैं।

आधुनिक भारत की नींव पं. जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी। उन्होंने देश को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भाखड़ा बांध, दुर्गापुर और भिलाई के इस्पात कारखाने, चितरंजन में रेल के इंजनों का निर्माण आदि की शुरुआत उन्हीं के प्रयासों से हुई। आज वही योजनाएँ फलदायी सिद्ध हो रही हैं। भारत औद्योगिक विकास में किसी से भी पीछे नहीं है। हमारे यहाँ भरूूर कच्चा माल है, ख़निज पदार्थ हैं और हम उनका पूरा-पूरा लाभ उठा रहे हैं। आधुनिक भारत में आवागमन के साधनों में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। आज से 50 वर्ष पूर्व एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना अन्यंत कष्ट्पद हुआ करता था। आज के नवीनतम साधनों ने मानव की यात्रा को अत्यंत सुगम बना दिया है। सड़क परिवहन तो सरल हो ही गया है, वायुयान की यात्रा भी सर्वसुलभ हो गई है। संचार के साधनों का भी पर्याप्त जाल विछा दिया गया है। आज ‘इलेक्ट्रोनिक एक्सचेंजों’ की भरमार हो गई है। एक सामान्य नागरिक भी टेलीफोन का लाभ उठा रहा है।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत ने बहुत प्रगति की है। आज भारत में सभी असाध्य रोगों का इलाज संभव है। दिल, गुर्दे, कैंसर आदि बीमारियों के आपरेशन सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं। यद्यपि चिकित्सा व्यवस्था अभी तक महँगी बनी हुई है, पर उसकी उपलब्धता भी संतोषजनक है। समय के साथ-साथ यह सस्ती भी हो जाएगी। औषधियों का निर्माण तीव्रगति से चल रहा है।

आधुनिक भारत खाद्यान्नों के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर है। अब हमें अन्न के लिए दूसरे देशों का मुँह नहीं देखना पड़ता। हम अन्न का निर्यात करने की स्थिति में आ गएं हैं। दाल, दूध, घी, मक्बन आदि का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो रहा है। हमारा देश वस्त्र-निर्माण की दिशा में भी किसी से पीछे नहीं हैं। हमारे यहाँ आधुनिकतम श्रेणी के वस्त्र निर्मित हो रहे हैं। हमारे वस्त्रों की गुणवत्ता भी उच्चकोटि की है। हमारे देश के वस्त्र विदेशों में खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। भारत भारी मात्रा में सिले-सिलाए वस्त्रों का निर्यात करता है।

आधुनिक भारत में मनोरंजन के साधनों का भी अभूतपूर्व विकास हुआ है। दूरदर्शन की लोकप्रियता बढ़ती ही चली जा रही है। लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठा है। भारत में साक्षरों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। मृत्युदर में कमी आई है। अब तो भारत ने रक्षा के क्षेत्र में भी अग्नि, पृथ्वी प्रक्षेपास्त्र बनाने आरम्भ कर दिए हैं। लड़ाकू जहाज तथा पनडुब्बी निर्माण कार्य प्रगति पर है। भारत निर्मित कई जहाज सेना को सौंपे जा चुके हैं। सुपर-कम्पूटर प्रणाली विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं। हलके लड़ाकू विमानों पर भी काम हो रहा है। इस प्रकार भारत विज्ञान के क्षेत्र में नए आयामों को छू रहा है।

24. वैज्ञानिक उन्नति के नए आयाम

आधुनिक भारत विज्ञान की सहायता से दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। यद्यपि विश्व ने विज्ञान के क्षेत्र में नित नए आविष्कारों के कारण अद्भुत तरक्की कर ली है, पर भारत भी इस दिशा में बहुत पीठे नही रह गया। भारत में वैज्ञानिक उपकरणों का उत्पादन दिन–्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। अब हम विदेशी उपकरणों के मोहताज नहीं रह गए हैं। कम्यूटर का प्रयोग सभी क्षेत्रों में होता जा रहा है। टी.वी., वी.सी.आर, कैलकुलेटर आदि वस्तुओं का निर्माण भारी मात्रा में हो। रहा है। वस्तुओं की गुणवत्ता में भी निरंतर सुधार हो रहा है। भारत के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में भी अपने यान भेजने में सफल रहे हैं। हमारे राकेश शर्मा अंतरिक्ष का चक्कर भी लगा आए हैं। अणुशक्ति का शांतिपूर्ण कार्यों में भरपूर प्रयोग किया जा रहा है।

हमारा देश विकासशील देशों की श्रेणी में आता है। यह विकास की प्रक्रिया से गुजनर रहा है। इसकी प्रगति को देखकर विदेशी तक आश्चर्चचकित रह जाते हैं। जिस देश के बारे में उन्होंने पढ़ा एवं ंुुना था कि वह अत्यंत गरीब देश है, उसी देश में आकर वे गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ देखते हैं, तो उन्हें सहसा अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता। भारत की राजधानी दिल्ली भव्य इमारतों का नगर बनता जा रहा है। भारत के अन्य नगर भी प्रगति की दौड़ में पीछे नहीं हैं।

आधुनिक भारत की नींव पं. जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी। उन्होंने देश को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। भाखड़ा बांध, दुर्गापुर और भिलाई के इस्पात कारखाने, चितरंजन में रेल के इंजनों का निर्माण आदि की शुरुआत उन्हीं के प्रयासों से हुई। आज वही योजनाएँ फलदायी सिद्ध हो रही हैं। भारत औद्योगिक विकास में किसी से भी पीछे नहीं है। हमारे यहाँ भरपूर कच्चा माल है, खनिज पदार्थ हैं और हुम उनका पूरा-पूरा लाभ उठा रहे है। आधुनिक भारत में आवागमन के साधनों में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। आज से 50 वर्ष पूर्व तक एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना अत्यंत कष्टप्रद हुआ करता था। आज के नवीनतम साधनों ने मानव की यात्रा को अत्यंत सुगम बना दिया है। सड़क परिवहन तो सरल हो ही गया है, वायुयान की यात्रा भी सर्वसुलभ हो गई है। संचार के साधनों का भी पर्याप्त जाल विछा दिया गया है। आज ‘इलेक्ट्रोनिक एक्सचेंजों’ की भरमार हो गई है। एक सामान्य नागरिक भी टेलिफोन का लाभ उठा रहा है।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत ने बहुत प्रगति की है। आज भारत में सभी असाध्य रोगों का इलाज संभव है। दिल, गुर्दे, कैंसर आदि बीमारियों के आपरेशन सफलतापूर्वक किए जा रहे हैं। यद्यपि चिकिसा व्यवस्था अभी तक महँगी बनी है, पर उसकी उपलब्धता भी संतोषजनक है। समय के साथ-साथ यह सस्ती भी हो जाएगी। औषधियों का निर्माण तीव्र गति से चल रहा है।

आधुनिक भारत खाद्यान्नों के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर है। अब हमें अन्न के लिए दूसरे देशों का मुँह नहीं देखना पड़ता। हम अन्न का निर्यात करने की स्थिति में आ गए हैं। दाल, दूध, घी, मक्खन आदि का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो रहा है। हमारा देश वस्त-निर्माण की दिशा में भी किसी से पीछे नहीं है। हमारे यहाँ आधुनिकतम श्रेणी के वस्त्र निर्मित हो रहे हैं। हमारे वस्त्रों की गुणवत्ता भी उच्चकोटि की है। हमारे देश के वस्त विदेशों में खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। भारत भारी मात्रा में सिले-सिलाए वस्त्रों का निर्यात करता है।

आधुनिक भारत में मनोरंजन के साधनों का भी अभूतपूर्व विकास हुआ है। दूरदर्शन की लोकप्रियता बढ़ती ही चली जा रही है। लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठा है। भारत में साक्षरों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। मृत्युदर में कमी आई है। अब ती भारत ने रक्षा के क्षेत्र में भी अग्नि, पृथ्वी प्रक्षेपास्त्र बनाने आरम्भ कर दिए हैं। लड़ाकू जहाज तथा पनडुब्बी निर्माण कार्य प्रगति पर है। भारत निर्मित कई जहाज सेना को संँच जा चुके हैं। सुपर-कम्प्यूटर प्रणाली विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं। हलके लड़ाकू विमानों पर भी काम हो रहा है। इस प्रकार भारत विज्ञान के क्षेत्र में नए आयामों को छू रहा है।

25. समाचार-पत्र और उनके लाभ

मानव हृदय में स्थित कौतूहल और जिज्ञासा उसे संसार में नित्य घटित होने वाली नवीन घटनाओं से परिचित होने के लिए प्रोस्साहित करती रहती है। समाज में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति देशकाल की सीमाओं को लांघकर सारे विश्व के संबंध में ज्ञान अर्जित करना चाहता है। यह अलग बात है कि सभी लोगों का दृष्टिकोण पृथक्पृथक् होता है। व्यापारी व्यापार के विषय में वस्तुओं के मूल्यों के उतार-चढ़ाव को, समाजशास्त्री समाज की नई व्यवस्थाओं को, साहित्यिक वर्तमान युग की नई रचनाओं तथा सामूहिक रूप से सभी व्यक्ति विश्व राजनीति में होने वाले या हो रहे उत्थान-पतन को जानना चाहते हैं। वैज्ञानिक विश्व-विज्ञान-जगत में होने वाले नवीन अनुसंधान एवं आविष्कार के संबंध में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं। आधुनिक युग में विश्व के किसी-न-किसी कोने में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक नीति में उतार-चढ़ाव आता रहा है। किसी देश में सैनिक क्रांति के द्वारा तख्ता पलट दिया जाता है, तो किसी में जनता क्रांति करके शासन की बागडोर स्वयं सम्भाव लेती है। इसी प्रकार वैज्ञानिक क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए अनुसंधान और आविष्कार सामने आते हैं। इन सबको विस्तृत रूप में जानने का एक मात्र सुलभ साधन समाचार-पत्र ही है।

समाचार-पत्र आधुनिक प्रजातंत्रात्मक शासन में सरकार की आँखें और नाक का कार्य करते हैं। ये शासक और जनता के मध्य विचारों के आदान-प्रदान का काम करते हैं। विभिन्न सरकारों, राष्ट्रों एवं जातियों के उत्थान एवं पतन में समाचार-पत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राचीनकाल में एक समाचार को दूसरे व्यक्ति या राज्य तक पहुँचने में महीनों, वर्षों लग जाते थे, परंतु आज वैज्ञानिक साधनों के आगमन से समय और दूरी की सीमाएँ समाप्त हो गई है। समाचार-पत्रों ने विश्व की दूरी को समाप्त कर दिया है। संसार के दूरस्थ स्थानों में घटित घटना और दुर्घटना भी प्रातःकाल समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो जाती है।

सनू 1909 से पूर्व तक समाचार-पत्रों का विश्व में कोई नामोनिशान न था। केवल संदेश वाहक के माध्यम से हीं समाचार एक-दूसरे तक पहुँचते थे। समाचार-पत्र का जन्म सन् 1909 ई. में इटली में केवेनिस नगर में हुआ और इसका प्रचार दिन-पर-दिन बढ़ने लगा। इंग्लैण्ड में सत्रहवीं शताब्दी में महारानी एलिजाबेथ के शासन के प्रारम्भ में समाचार-पत्र का आरम्भ हुआ 17 वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत आए। उन्होंने यहाँ अनुभव किया कि भारत में ऐसा कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिसके द्वारा वे अपनी बात को जनता तक पहुँचा सकें। फलतः उन्होंने भारत में समाचार-पत्रों का सूत्रपात किया।

भारत में सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में ‘बंगाल गजट’ नामक समाचार-पत्र कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। उसके पश्चात् ‘समाचार-दर्पण’ नामक हिंदी समाचार-पत्र आरम्भ हुआ। इसके उपरांत विविध प्रान्तीय भाषाओं में समाचार-पत्रों का निकलना प्रारम्भ हुआ। आजकल ऐसा कोई नगर नहीं जिसमें दस-पाँच समाचार-पत्र प्रकाशित न होते हों। समाचार-पत्र के व्यवसाय में बहुत व्यक्तियों की आवश्यकता होती है और पूँजी की भी, इसलिए यह व्यवसाय पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली बना हुआ है। समाचार-पत्रों के लिए छपाई की मशीनें, मशीनमैन, कम्पोजिटर, सम्पादक तथा संवाददाता, सह-सम्पादक आदि व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

अब प्रायः भारत की लगभग सभी भाषाओं में पत्र निकलते हैं। समाचार-पत्र कई तरह के होते हैं-दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक तथा छैमासिक और वार्षिक। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपुर्ण दैनिक समाचार-पत्र हैं। इन समाचार-पत्रों की सफलता उनके संवाददाताओं की कार्यकुशलता पर निर्भर करती है। बड़े-बड़े समाचार-पत्रों के संवाददाता सारे विश्व के प्रमुख नगरों में फैले होते हैं। टेलीफोन, तार तथा पत्रों, टेलेक्स आदि के दूवारा ये लोग समाचार विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजते हैं। समाचार-पत्र का सम्पादकीय विभाव उनमें उचित संशोधन करके कम्पोजिटरों के पास प्रेषित करता है। इसके पश्चात मशीनमैन उन्हें छापते है और प्रूफरीडर उनकी अशुद्धियों को निकालते हैं और मशीनमैन उन्हें पुनः छापते हैं और फिर गाड़ियों, ट्रकों के द्वारा शहरों में फैले एजेंटों तक पहुँचाते हैं और फिर हॉकर घर-घर तक पहुँचाते हैं। जनता इनकी बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करती है, क्योंकि ये जनता को ताजे समाचार देते हैं। इनमें समस्त विश्व में विभिन्न प्रकार के समाचार होते हैं।

समाचार पढ़ने की तीव्र इच्छा प्रत्येक व्यक्ति की होती है। कुछ व्यक्ति खरीदकर पढ़ते हैं, कुछ माँगकर ही अपना काम चला लेते हैं, कुछ लोग पुस्तकालय या वाचनालय का सहारा लेते हैं। आप कहीं भी समाचार-पत्र लेकर बैठ जाएँ, माँगकर पढ़ने वाले वहीं आ धमकेंगे। इससे ही दैनिक समाचार-पत्र के महत्त्व का परिचय मिलता है।

दैनिक समाचार-पत्रों में चित्रपट संबंधी, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, विचारात्मक, आध्यात्मिक, दार्शनिक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, आलोचनात्मक एवं अन्वेषणात्मक विषयों के विश्लेषणात्मक लेख होते हैं। इससे हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। समाचार-पत्रों द्वारा सरकार को जन-भावना को जानने का अवसर मिलता है, अतः समाचार-पत्रों के माध्यम से जनमत को देखकर ही कानूनों का निर्माण करती है। समाचार-पत्रों के माध्यम से जनता के विचार सरकार तक और सरकार के विचार जनता तक पहुँचते हैं। इस तरह से जनता को राष्ट्रीय नीतियों के निर्माण में जनमत संग्रह और विभिन्न विपक्षी दलों की गतिविधियों को जानकारी उपलब्ध होती है।

इसके द्वारा ही हमें देश भर की मंडियों के भावों के उतार-चढ़ाव और बाजार के रुख के संबंध में ताजा जानकारी प्राप्त होती है। बड़े-बड़े कारखानों के नए उत्पादन, नए वैज्ञानिक आविष्कारों, नए प्रयोगों की जानकारी समाचार-पत्र ही हम तक पहुँचाते हैं। नौकरियों के संबंध में विज्ञापनों के माध्यम से विभिन्न गैरसरकारी संस्थानों में उपलब्ध खाली स्थानों की जानकारी मिलने के साथ-साथ उन संस्थानों को इच्छित कुशल कर्मचारी मिल जाते हैं।

खेल समाचारों के लिए भी समाचार-पत्रों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। देश-विदेश में होने वाले सभी खेलों की प्रतियोगिताओं के परिणाम हमें इनसे प्राप्त होते हैं, जिससे खिलड़ियों को अपना स्तर सुधारने में सहायता मिलती है। इनमें विभिन्न छविगृहों में कौन-सा चलचित्र चल रहा है, इसकी भी जानकारी मिलती है। वस्तुओं के विज्ञापनों के द्वारा व्यापार को बढ़ावा मिलता है।

समाचार-पत्रों के रविवारीय अंकों में कहानियाँ, नाटक, चुटकुले, पहेलियाँ, व्यंग्य-्लेख, पुस्तक समीक्षा आदि प्रकाशित होते हैं, जिससे हमारा मनोरंजन होने के साथ-साथ देश-विदेश की साहित्यिक गतिविधियों का परिचय भी प्राप्त होता है। इनके द्वारा ही राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है।

समाचार-पत्रों से देश में फैली अनेक सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों को दूर करने में सहायता प्राप्त होती है। भ्रष्ट गतनीतिज्ञों, अधिकारियों का भण्डा-फोड़ भी समाचार-पत्र ही करते हैं। वास्तव में समाचार-पत्र देश-विदेश के समाचारों का = मात्र ही नहीं हैं, वरन् जनता को सामाजिक बुराइयों, राजनीतिक छलकपटों, कालाबाजारी, असामाजिक तत्त्वों, गंकवादियों, राष्ट्रद्रोहियों के कार्यों से सावधान रहने के लिए सचेत भी करते हैं।

समाचार-पत्र देश के उत्थान-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जनमत तैयार करने तथा जनता की विचारधारा को सही दिशा देने तथा उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन करने में भी ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

स्वस्थ पत्रकारिता सच्चे समाचार निष्पक्ष सम्पादकीय टिप्पणियाँ समाज को, देश को उचित मार्ग की ओर अग्रसर करते है। पीली पत्रकारिता असत्य और मनगढ़त समाचार अथवा किसी राजनीतिक दल की गलत विचारधारा का अंधानुकरण अंधविश्वासों से भरे समाचारों को महत्व देना, समाज को, देश को विनाश के कगार की ओर भी ले जा सकते हैं। अतः समाचार-पत्र स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होने चाहिए।

26. जीवन में खेलों का महत्त्व

उछलते-कूदते, हंसते-खेलते बच्चे सबको अच्छे लगते हैं। खेल-कूद से शरीर में चुस्ती-फुर्ती तो बनी रहती है, शारीरिक वृद्धि तथा अच्छे स्वास्थ्य के लिए भी खेल-कूद आवश्यक होते हैं। किसी ने सच ही कहा है-“स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।”

कबड्डी, मल्लयुद्ध, गेंद-बल्ला, फुटबाल, तैराकी, हॉकी, टेनिस आदि अनेक प्रकार के खेल हैं। खेलों से मनोरंजन के साथ-साथ व्यायाम भी हो जाता है। जिस छात्र का मन कहीं पर भी एकाग्र न होता हो, उसका मन खेलों में पूरी तरह लग जाता है। खिलाड़ी कुछ समय के लिए अपने आप को भी भूल जाता है।

“शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” कहकर हमारे आर्य ग्रंथों में स्वस्थ शरीर को धर्म-साधन की पहली आवश्यकता माना गया है, इसलिए व्यायाम और खेल दोनों ही हमारे स्वस्थ और सफल जीवन के अनिवार्य अंग हैं।

खेल से मन-मस्तिष्क का भी विकास होता है। खेल के मैदान की मित्रता और भाईचारे का कोई जवाब नहीं होता। खेल भावना हमें जीत की खुशी और हार के दुःख से ऊपर उठाकर समरसता की ओर ले जाती है। यही समरसता व्यक्ति को जीवन में समुन्नत और सफल बनाती है। खेल, अनुशासन, संगठन, पारस्परिक सहयोग, साहस, विश्वास, आज्ञाकारिता, सहानुभूति, समरसता आदि गुणों का हममें विकास करके हमें देश का सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बनाते हैं। खेल हमारे अंदर निर्णय लेने की शक्ति का विकास करते हैं। ऐसा कोई गुण नहीं है, जो खेलों से प्राप्त न होता हो।

‘वाटरलू’ की विजय का रहस्य समझाते हुए एक अंग्रेज ने कहा था कि “विद्यार्थी जीवन में खेल की भावना से प्रशिक्षित होकर ही ‘एटन’ के मैदान में अंग्रेजों ने नेपोलियन को ‘वाटरलू’ के युद्ध में पराजित किया था।”

कई विद्यार्थी खेल को पढ़ाई में बाधक समझते हैं, परंतु यह सही नहीं है। खेल से बिलकुल विमुख रहने वाले, ‘किताबी-कीड़ा’ विद्यार्थी अपने स्वास्थ्य से हाथ धो बैठते हैं, किंतु हर समय खेलों में व्यस्त रहना भी उचित नहीं है। शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न करने के लिए तथा मस्तिष्क को ताजा रखने के लिए नियमपूर्वक खेलना आवश्यक है।

खेलों का सबसे अधिक लाभ यह है कि उससे लोगों में उदारता, बाँकापन और सहनशीलता, सामाजिकता की भावना बढ़ती है। ये गुण नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। खेलों से मनुष्य की संकुचित वृत्ति नष्ट हो जाती है।

27. विद्यार्थी और राजनीति

विद्यार्थी को राजनीति में भाग लेना चाहिए अथवा नहीं, इस संबंध में विद्वानों, शिक्षा-शास्त्रियों, चिंतकों और विचारकों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश शिक्षा-शास्त्रियों की मान्यता है कि विद्यार्थी को राजनीति से दूर रहकर शिक्षा प्राप्त करने की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए। दूसरी तरफ अनेकं विद्वान सोचते हैं कि विद्यार्थियों के सक्रिय सहयोग के अभाव में देश का राजनीतिक जीवन भँवर में फँस जाएगा। इस प्रकार विद्यार्थी का सक्रिय राजनीति में भाग लेना उचित है अथवा अनुचित बहुत विवादास्पद है।

विद्यार्थियों का राजनीति में भाग लेना उचित है अथवा अनुचित इसका निर्णय देशकाल की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष में ही किया जा सकता है। यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि विद्यार्थी का राजनीति में भाग लेना उसके लिए, देश के लिए तथा समाज के लिए हानिकारक है या लाभदायक।

विद्वानों के एक वर्ग का कहना है कि विद्यार्थियों को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए, क्योंकि वे ही आगे चलकर राष्ट्र के कर्णधार होंगे। उन्हें ही देश की जटिल समस्याओं का समाधान खोजना है, तथा उसे प्रगति के पथ पर बढ़ाना है। राजनीति विद्यार्थी को भविष्य के संघर्ष के लिए तैयार करती है। ऐसे समय में जब देश पर बाहरी संकट आ जाए और उसके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न मुँह बाए खड़ा हो, देश की स्वतंग्रता खतरे में हो, उस समय किसी भी व्यक्ति का या विद्ययर्थी का तटस्थ होकर देखते रहना अनुच्चित होगा। उसकी यह भूमिका कायरता ही समझी जाएगी।

वास्तव में विद्यार्थी में विपुल शक्ति होती है। उसकी अपूर्व शक्ति तथा क्षमता को ही ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी ने विद्ययार्थियों का आह्वान करते हुए कहा था-“राष्ट्र के आह्वान में सबसे पहले विद्ययार्थी को आना है। विद्यार्थी ही किसी नवीन राष्ट्र की नींव और गिरते जीर्ण राष्ट्र का सहारा बन सकते हैं। विद्यारार्थियों को असहयोग की लड़ाई में क्रियात्मक सहयोग देना है। विद्ययार्थी उत्साह और उमंग के साथ मरने का संकल्प लेकर आएँ।”

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विद्यार्थियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इतिहास साक्षी है कि विश्व की अनेक बड़ी क्रांतियों के सफल होने में विद्ययार्थियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। क्रांस, रूस, चीन तथा अनेक अन्य देशों की क्रान्तियों की सफलता का राज वहाँ के विद्यार्थियों का राजनीति में सक्रिय भाग लेने में निहित था। सत्य तो यह है कि विद्यार्थी वर्ग के सक्रिय सहयोग के अभाव में कोई भी राजनीतिक आंदोलन सशक्त या सफल नहीं होता। जब भी देश में कोई भी नई राजनीतिक चेतना सक्रिय हुई, उसके मूल में युवक-युवतियाँ ही रही हैं। 1977 का जयप्रकाश नारायण का आंदोलन इसका जीता-जागता उदाहरण है।

मानव-जीवन के विशाल और विस्तृत कर्त्तव्य क्षेत्र के लिए आवश्यक संबल विद्यार्थी जीवन में ही संचित करता है। हमारा स्वतंंच्रता-संग्राम बताता है कि हमारे देश के अधिकांश कर्णधारों ने विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। कुछ लोगों का कथन है कि उस समय की परिस्थितियों में और आज की परिस्थितियों में पर्याप्त अंतर है। उस समय हमारा देश परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। हमें स्वतंत्रता प्राप्त करनी थी, तो॰क्या स्वतंत्रता के बाद विद्यार्थी का राजनीति में भाग लेना अनुचित है ? हमारे विचार में तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात विद्यार्थियों का राजनीति में भाग लेना और भी आवश्यक है, क्योंकि देश की समस्याओं का अध्ययन कर, उनका समाधान खोजने की क्षमता न तो बच्चों में होती है, न ही वृद्धावस्था को प्राप्त राजनीतिजों में। कारण-वृद्धावस्था के कारण शारींरिक दृष्टि से कमजोर हो जाते हैं, तथा मानसिक रूप से कुंठित, अतः विद्यार्थी वर्ग ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा देश के निर्माण में महत्तपूर्ण भूमिका निभा सकता है और यह तभी हो सकता है जब विद्यार्थी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लें।

वर्तमान में राजनीति समूचे समाज को दूषित कर रही है।

आज राजनैतिक नेता अवसरवादिता, पदलोलुपता, स्वार्थपरता, हेर-फेर, छल-कपट की राजनीति का खेल-खेलते हुए भारत के दीन-हीन किसानों और मजदूरों को स्वतंत्रता से प्राप्त लाभों के दर्शन भी नहीं कराना चाहते। ऐसे समय में विद्ययार्थी वर्ग जिसकी शक्ति और बुद्धधि सक्रिय होती है, समाज को नई दिशा प्रदान कर सकता है। कुछ लोगों का यह तर्क है कि विद्यार्थी जीवन में बुद्धि अपरिपक्व होती है, इस विचार से सहमत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि विद्यार्थी समाज का जागरूक व्यक्ति होता है। वह राजनीतिज्ञों के दाँव-पेचों को समझकर षड्ययंत्रों का पर्दाफाश कर सकता है और राजनीति को नया मोड़ दे सकता है।

जो लोग विद्यार्थियों के राजनीति में भाग लेने के विरुद्ध हैं, उनके तर्क हैं कि इससे विद्यार्थियों के अध्ययन में बाधा पड़ेगी। विद्यांध्ययन के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। अध्ययन एक साधना है और कोई भी साधना एकाग्रता के अभाव में भली प्रकार नहीं हो सकती, परंतु कदाचित वे लोग यह नहीं जानते कि राजनीति भी मनुष्य को जीवन के संघर्षों से जूझने की कला में पारंगत करती है। यह भी तर्क दिया जाता है कि विद्यार्थी में जोश तो होता है, परंतु होश नहीं। विद्यार्थी की गतिविधियों का संचालन मन करता है मस्तिष्क नहीं, अत्: वे जोश में उचित-अनुचित का विचार नहीं करते और भेड़ चाल चलंने लगते हैं, जिसका लाभ स्वार्थी रानजीतिज्ञ उठाते हैं। उन्हें अपने स्वार्थों की पूर्ति का मोहरा बनाते हैं, अतः अनुभवहीन युवक वर्ग का सक्रिय राजनीति में आगमन जहाँ स्वयं उसके अपने लिए घातक होता है, वहीं देश के लिए भी हानिकारक होता है, किंतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि समाज को नया स्वरूप प्रदान करने के लिए उत्साह की आवश्यकता है।

दोनों पक्षों के तर्कों में पर्याप्त जान है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्यार्थी को राजनीति में भाग तो लेना चाहिए, लेकिन सक्रिय रूप से नहीं सीमित रूप से।

28. विद्यालयी पाठूयक्रमों में खेल का महत्त्व

आज का युग खेलों का युग है। मनुष्य के जीवन में खेलों ने महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। जीवन की सफलता के लिए शरीर एवं मन का स्वस्थ होना आवश्यक है। खेलों से हमारा शरीर स्वस्थ बनता है एवं मानसिक दृष्टि से भी चिंत्त में, दृढ़ता आती है। यद्यपि विद्यार्थी जीवन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करना है, फिर भी खेलों का उसके जीवन में महत्वपूूर्ण स्थान है। यदि हम यह कहें कि खेल भी शिक्षा का ही एक अंग है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। खेलों में विद्यार्थी में उन गुणों का समावेश होता है, जिन्हें शिक्षा के द्वारा अर्थात् पुस्तकीय ज्ञान के द्ववारा विद्यार्थी में भरने की कोशिश की जाती है।

एशियाड- 82 से देश भर में खेलों के प्रति रुचि जाग्रत हुई है। पहले खेलों को कुछ ही खिलाड़ियों तक सीमित माना जाता था, जबकि वर्तमान समय में अधिकांश व्यक्ति इससे जुड़े हुए हैं। जिन दिनों क्रिकेट-मैच हो रहे होते हैं, उन दिनों मैच की कमेंटरी सुनने वालों की भीड़ का सहज ही अनुमान लगाना कितना कठिन होता है। घरों, दफ्तरों सार्वजनिक स्थानों आदि हर स्थान पर यही चर्चा का विषय होता है।

खेलों का महत्त्व निर्विवाद है। खेल-भावना हममें अनेक गुणों का संचार करती है। खेल हमें संघर्ष करने, धैय रखने, पराजय को भी सहर्ष स्वीकार करने, साहस से कार्य करने, मिलकर चलने आदि गुणों को व्यावहारिक ढंग से सिखाते हैं। विद्यार्थी वर्ग के स्वास्थ्य-निर्माण में खेलकूद महत्वपूर्ण भूमिका निवाहते हैं। ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास’ होता है। खेल आलस्य को दूर भगाते हैं। खेल सहयोग की भावना उत्पन्न करते हैं। अपने कार्य को लगन एवं अनुशासनबद्ध तरीके से करने की भावना खेलों से आती है।

खेल कई प्रकार के होते हैं। कुछ खेल घर में बैठकर खेले जा संकते हैं। जिन्हें ‘इन्डोर गेम्स’ कहा जाता है, जैसे ताश, कैरम बोर्ड, शतरंज आदि। कुष खेल बाहर खेले जाते हैं, जिन्हें ‘आउट डोर गेम्स’ कहा जाता है जैसे-हॉकी, क्रिकेट, कबड्डी, फुटवाल, बैडमिंटन आदि। जिमनास्टिक भी शारीरिक मांसपेशियों के लिए अच्छा व्यायाम है। तैराकी, घुड़सवारी, विभिन्न प्रकार की कूदे, दौड़े, तीरंदाजी, निशानेबाजी, भाला फेंक, चक्का फेंक आदि खेल भी विश्वस्तर की प्रतियोगिताओं में सम्मिलित्र हैं। अभी भारत की खेल-उपलब्धि संतोषजनक नहीं कही जा सकती। हॉकी (पुरुष) में हमारा स्तर गिरता जा रहा है। हॉं, महिला हॉकी में हमारी स्थिति संतोषजनक है। अब तो विकलांग व्यक्तियों के लिए भी खेल-कूदों का आयोजन किया जा रहा है। लड़कियाँ भी खेल-कूदों के प्रति आकर्षित हो रही हैं।

खिलाड़ियों का उचित चुनाव एवं प्रशिक्षण आवश्यक है। अव हमारे देश में बेहतर खेल सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमें ग्राम-स्तर पर इनका प्रचार करना होगा। विद्यालयों में खेलों पर बल देना नितांत आवश्यक है। देश के युवकों का स्वास्थ्य खेलों के विकास पर ही निर्भर है।

निःसंदेह विद्यालयी पाठ्यक्रमों में खेलों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा विद्यार्जी में पढ़ाई के साथ-साथ अच्छे नागरिकों के गुण उत्पन्न होते हैं। उनमें ल्याग, तपस्या, श्रम, एकता, सहयोग, संघर्ष, स्वावलंबन एवं सहिष्णुता की भावना उत्पन्न होती है, जो हमारी राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ करते हैं।

29. देश के प्रति युवा पीढ़ी का दायित्व
या
आज का युवा देश का भावी कर्णधार

किसी भी समाज एवं राष्ट्र की प्राणशक्ति अथवा ऊर्जा वहाँ के युवा ही होते हैं। युवा समाज और राष्ट्र के प्राण तत्त्व हैं। देश के विकास की सारी संभावनाएँ युवापीढ़ी में ही अंतनिंहित होती हैं। वास्तव में जीवन का स्वर्णिम काल युवाकाल होता है। इस काल में मन में नवीन कल्पनाओं एवं भावनाओं का ज्वार उमड़ता रहता है। कोई भी कार्य युवाओं के लिए असंभव नहीं रहता। युवाशक्ति का संकल्प ही समाज एवं राष्ट्र को गति एवं दिशा देता है। देश एवं समाज के निर्माण एवं विनाश में युवाशक्ति का ही योगदान होता है।

यौवन जीवन का वसंत है, जो स्वयं को तो सजाता एवं सुंदर बनाता ही है, दूसरों को भी अपने सौंदर्य से आकर्षित एवं आनंदित करता है। युवाशक्ति के बारे में कठोपनिषद् में कहा गया है-यौवन की “ऊर्जा अक्षुण्ण, यश अक्षय, जीवन अंतहीन, पराक्रम अपराजेय, आस्था अडिग एवं संकल्प अटल होता है।” युवाकाल इतनी संभावनाओं से भरा काल होता है। केवल आवश्यकता इन सभी क्षमताओं को सही दिशा देना है। युवाशक्ति को रचनात्मकता एवं विकास के कार्यों से जोड़ना है। युवाशक्ति हमेशा नया मार्ग तलाशती है, परिवर्तनों की आकांक्षी होती है। देश एवं समाज में विद्यमान कुरीतियों एवं विसंगतियों का प्रतिकार करती है। युवाशक्ति अपने साहस एवं संकल्प के बलबूते पर हर असंभव को संभव कर देती है।

देश को नई दिशा युवाओं से ही मिलती है। देश की आजादी में युवा क्रांतिकारियों की भूमिका सर्वोपरि थी। आजादी के लिए क्रांति एवं शहादत का पथ युवाओं ने ही चुना। आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, गणेशशंकर विद्यार्थी आदि। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी शासन ब्यवस्था के नाकों चने चबबा दिए। युदाशक्ति ने बड़ी-से-बड़ी सत्ता को झुकने पर मजबूर कर दिया है।

कहा भी गया है- जिस ओर जवानी चलती है।
उस ओर जमाना चलता है।

युवा नचिकेता ने यमराज तक को हिला दिया। स्वार्थ एवं अनीति का आचरण करने वाले अपने पिता का विरोध नचिकेता ने ही किया, युवा प्रहलाद ने अपने ही पिता हिरण्यकश्यप का खुलकर विरोध किया।

वर्तमान समाज में अनेक कुरीतियाँ व्याप्त हैं। ये कुरीतियाँ पहले से ही जन्म ले चुकी हैं। युवावर्ग इन कुरीतियों को केवल भोक्ता है। इन कुरीतियों के जनक तो प्राचीन पीढ़ियाँ या वर्तमान समाज की अंग्रेज पीढ़ी है। भ्रष्टाचार, दहेज प्रथा, अशिक्षा, नारी उत्पीड़न आदि कुरीतियाँ समाज में बहुत पहले से ही हैं। युवा वर्ग को सही दिशा न मिलने के कारण वह भी इन्हीं कुरीतियों में फँस जाता है। विद्रोह तो करता है, लेकिन भ्रष्टाचार की जकड़ इतनी व्यापक एवं मजबूत है कि कोई परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता। दहेज प्रथा का निर्मूलन युवा पीढ़ी कर रही है। विरोध के स्वर असरदायक साबित हो रहे हैं। यह प्रथा वहीं चल रही है, जहाँ अभी भी निर्णय का अधिकार माता-पिता अथवा दादा-दादी क हाथों में है। ‘दहेज प्रथा’ रूपी विकट समस्या युवावर्ग के ही विरोध से समाप्त होगी।

पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण तथा समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का अंत युवा वर्ग ही कर सकता है। रचनात्मक कार्यों को गति युवाओं से ही मिलती है। परिवेश की स्वच्छता जल संरक्षण, वृक्षारोपण आदि योजनाएँ युवाओं के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। जिस समाज में, जिस देश में युवा वर्ग ने पर्यावरण की रक्षा संकल्प ले लिया है, वहाँ सुखद परिणाम सामने आ रहे हैं। कुरीतियों एवं अंधविश्वासों के प्रति आज युवावर्ग का आक्रोश दिखाई पड़ रहा है। यह एक सुखद संयोग है।

सबसे अधिक भ्रष्टाचार सरकारी कार्यालयों में दिखाई पड़ता है। इन भ्रष्टाचारों को युवा वर्ग ही मिटा सकता है। रिश्वतखोरी आज सरकारी कार्यालयों में जड़ जमा चुकी है। अपने क्षणिक स्वार्थवश लोग रिश्वत देकर अपना कार्य कराने को तत्पर हो जाते हैं। इससे रिश्वतखोरों को बल मिलता है। वे और उत्साहित होते हैं, क्योंकि उनके इन अनाचारों का विरोध नहीं. होता। सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार का भौक्ता युवा वर्ग को ही होना पड़ता है, क्योंकि नौकरियों में होने वाले भ्रष्टाचार का सर्वाधिक प्रभाव युवाओं पर ही तो पड़ता है। कुष युवा भी अपने स्वार्थ के वशीभूत इन भ्रष्टाचारों से समझौता कर लेते है अथवा मूकदर्शक बने रहते हैं। अगर युवा वर्ग एक जुट होकर सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध करे, तभी इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

किसी भी देश की पहचान वहाँ के युवा वर्ग की सोच एवं उपलब्धियों पर ही निर्भर करती है। यह तो निश्चित है कि वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, लेकिन इन भ्रष्टाचारों का केवल राग अलापना कहाँ तक उचित है ? विरोध तो करना ही पड़ेगा। यदि युवावर्ग भी इन भ्रष्टाचारी व्यवस्था की कड़ी बन जाएगा, अथवा भ्रष्टाचार का मूकदर्शक रहेगा तो देश निश्चित ही पतन के गर्त में चला जाएगा। आज युवाओं से देश को बहुत आशाएँ है। जिस प्रकार युवा अपने घर, गाँव एवं परिवार में व्याप्त कुरीतियों का विरोध करता है। वेसे ही उसे एकजुट होकर समाज एवं देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध करना होगा। उसे जड़ से समाप्त करना होगा। वर्तमान में देश के प्रति युवा पीढ़ी का यही सबसे बड़ा दायित्व है।

30. युवा असंतोष

युवाकाल जीवन का सबसे स्वर्णिम काल होता है। इस अवस्था में मन में असीम कल्पनाएँ, अपार जोश एवं सुनहले स्वप्न भरे होते हैं। जीवन का यह काल असीम संभावनाओं का काल होता है। मन में ऊर्जा का ऐसा वेग होता है, जो रोके नहीं रुकता। कोई भी कार्य न तो कठिन लगता है और न ही असंभव। ऐसे काल में मन में भावनाओं का वेग होता है, लेकिन स्थिरता नहीं होती। ताक्कालिकता होती है, दूरदर्शिता नहीं। इसी कारण कभी-कभी युवा वर्ग अथवा कोई भी युवा भावुकता में कोई गलत निर्णय भी ले लेता है, जो उसे विनाश के मार्ग पर ले जाता है। सोच अथवा समझ की परिपक्वता के अभाव में लिया गया निर्णय किसी भी युवा के लिए हानिकारक होता है। यदि हम जीवन को एक उद्यान माने तो युवाकाल उस उद्यान का खिला पुष्प होता है, जो अपने सौंदर्य से दूसरों को आकर्षित ही नहीं करता, वरन् अपने सौराभ से दूसरों को सुरक्षित भी करता है।

किसी भी राष्ट्र के सही स्वरूप व सही दशा का ज्ञान वहाँ के युवा पीढ़ी की जीवन शैली के अध्ययन के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। युवा वर्ग देश का एक ऐसा जीवन्त निकस होता है, जिसमें हम समाज एवं देश के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों को एक ही साथ देख सकते हैं। युवा अतीत एवं वर्तमान से सीखकर भविष्य का पथ चुनता है। उसके निर्माण में वर्तमान की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि युवा अतीत जीवी तो नहीं होता। वह वर्तमान से प्रभावित होता है। वर्तमान में ही जीता है एवं भविष्य की योजनाएँ बनाता है। किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए युवा हमेशा तत्पर होता है। वह हर कुर्वानी देने के लिए तैयार रहता है। शर्त यही है कि उसे अतीत एवं वर्तमान का गौरवमय परिवेश मिलें।

आज का युवा वर्ग एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है। जहाँ से आगे बढ़ने के रास्ते बहुत कम ही दिखाई पड़ रहे हैं। वह दिगभ्रमित होकर अनिर्णय की स्थिति में है कि किधर जाए अथवा किधर न जाए। उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है। भविष्य की संभावनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं। आज के युवा वर्ग के असंतोष का मुख्य कारण यही है। तेजी से भागती इस जिंदगी में उसे कोई ऐसा ठोस आधार अथवा सहारा नहीं मिल पा रहा है, जिसके द्वारा वह संभावना से भरे हुए भविष्य की परिकल्पना करे। आगे बढ़ने के रास्ते जब बंद हों तो निराशा एवं असंतोष के अलावा क्या मिल सकता है ? युवा वर्ग किस आशा और विश्वास के बल पर अपने को संतुष्ट एवं खुशहाल रखे। उसे कोई तो निश्चित मार्ग, सहारा अथवा विश्वास मिलना चाहिए, जिसके द्वारा वह अपने भविष्य को सुरक्षित महसूस करे।

आज देश की वर्तमान दशा पर यदि हम ध्यान दें तो युवा वर्ग के लिए आदर्श स्थिति का सर्वथा अभाव है। वरिष्ठ पीढ़ी जो युवा वर्ग से काफी आशाएँ लगाती है। क्या कभी वह अपनी ओर ईमानदारी से देखती है। स्वस्थ मन से क्या वह आत्म विवेचन करती है, जो लोग नौकरी पेशा वाले हैं, जो राजनेता हैं, जिनके हाथ में शासन तंत्र है, जो न्याय एवं कानून व्यवस्था के पोषक हैं ; क्या वे सभी अपने-अपने कार्यों का निस्पादन सही ढंग से कर रहे हैं ? वर्तमान की भौतिकता की चकाचौंध में हर आदमी असंतुष्ट एवं भूखा दिखाई दे रहा है। स्वार्थ की अंधी दौड़ में वह विवेक शून्य होता जा रहा है, जबकि उसे जीने का सही आधार व अवसर मिला है।

सत्ता से जुड़ा हुआ, नौकरी पेशा एवं समाज सुधार की शपथ वाला यदि आज ईमानदार व असंतुष्ट है, तो वह अपने बाद की पीढ़ी युवा वर्ग से त्याग, ईमानदारी एवं संतोष की आशा क्यों करता है ? आज के युवा पीढ़ी को क्या स्वस्थ वर्तमान मिल रहा है। यह सबसे चिंता का विषय है। ऐसी स्थिति में युवा वर्ग का असंतुष्ट एवं दिशाहीन होना स्वाभाविक है। आज का परिवेश रचनात्मक कम, विध्वंशात्मक अधिक बनता जा रहा है। जिसका मुख्य कारण युवा वर्ग का असुरक्षित भविष्य है। आज का युवा वर्गअअपनी अग्रज पीढ़ी से कौन-सा आदर्श सीखे। चारों तरफ लूटपाट एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है। रोजगार के अवसर निरंतर घटते जा रहे हैं। जनसंख्या में बेतहाशा वृदृधि हो रही है। परिणाम स्वरूप बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षा एवं रोजगार का समान अवसर नहीं मिल पा रहा है। तात्कालिक लाभ एवं अपनी गदूदी तथा सरकार बचाने के लिए अविवेकपूर्ण नीतियाँ बनाई जा रही हैं। योग्य एवं उचित को अवसर नहीं मिल पा रहा है। यह सब युवा वर्ग के लिए हताशा का ही कारण है।

उपरोक्त सारी समस्याओं का समाधान संभव है, लेकिन उसके लिए सरकार को ठोस नीतियाँ बनाकर उस पर बहुत ही कड़ाई से अमल करना होगा। जनसंख्या वृद्धि को तत्काल रोकने के लिए सरकार को कड़े नियम बनाने होंगे। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाना होगा। सरकारी तंत्र में ब्याप्त भ्रष्टाचार को शीघ्र रोकना होगा। राजनेताओं को स्वयं कम खर्च करके अपने विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोककर एक आदर्श प्रस्तुत करना होगा। सरकारी आयोजनों, नेताओं अथवा मंत्रियों के कार्यक्रमों पर होने वाले बेतहाशा व्यय को रोककर उस राशि का प्रयोग युवा वर्ग की सही शिक्षा एवं रोजगार के नए अवसरों को सृजित करने में लगाना होगा। युंवा वर्ग को भी अपने लिए स्वरोजगार के अवसर तलाशने होंगे। ऐसी सरकारी नीति बनाई जाए एवं उसका सही अनुपालन किया जाए, जिसके द्वारा योग्य एवं कुशल युवाओं की प्रतिभाओं का सही उपयोग हो सके। नौकरियों में योग्यतम का चयन हो सके। अगर ऐसा होगा तो युवा वर्ग रचनात्मकता की ओर अग्रसर होगा, संतुष्ट होगा एवं देश का भविष्य भी सुनहला होगा।

31. प्रगति मैदान में आयोजित प्रदर्शनी

दिल्ली का प्रगति मैदान भारत में ही नहीं, अपितु संसार के अनेक देशों में अपनी ब्यापारिक प्रदर्शनियों के लिए विख्यात हो गया है। यहाँ पर समय-समय पर छोटे-बड़े मेलों का आयोजन होता रहता है। एक या दो वर्ष के अंतराल के पश्चात् यहाँ पर अंतर्राष्ट्रीय ब्यापार प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इन ब्यापार मेलों में राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली वेज्ञानिक, आर्थिक प्रगति की झलक देखने को मिलती है। प्रगति मैदान की टिकट खिड़कियों पर दर्शकों की लंबी पंक्तियाँ लग जाती हैं। शनिवार, रविवार और अवकाश के दिनों में प्रदर्शनी सुवह से ही खुल जाती है, तथा अन्य दिनों में दोपहर दो बजे खुलती है। अवकाश वाले दिन हम भी अपने परिवार के साथ प्रदर्शनी देखने गए। टिकट खिड़की पर लंबी-लंबी पंक्तियाँ लगी थीं। आधे घंटे की प्रतीक्षा के पश्चात् टिकट लेकर हम प्रदर्शनी के द्वार नंबर दो से अंंर घुसे।

उस अंतराष्ट्रीय व्यापार मेंले का भारत के उपराष्ट्रपति ने विधिवत् रूप से उद्धााटन किया था। इस अवसर पर एक शानदार कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया। इस मेले में अनेक प्रदेशों, जिनमें केन्द्रशासित प्रदेश भी सम्मिलित थे। इन सभी राज्यों.ने अपने-अपने प्रदेशों की ख्याति और संख्कृति के अनुरूप मंडपों को सजाया। इन मंडपों में अपने प्रदेशों में उत्पादित वैज्ञानिक, तकनीकी एवं कलात्मक वस्तुओं को प्रदर्शित किया था। इन वस्तुओं से इन प्रदेशों की प्रगति का सहज अनुमान लग जाता था। कुछ बड़े-बड़े उद्योग संस्थानों ने भी अपने मंडप लगाए थे। टाटा, बिड़ला, रिलायंस, मोदी आदि प्रमुख थे। इन्होंने अपने कारखानों में उत्पादित वस्तुओं का प्रदर्शन किया था, जिनमें अनेक बड़ी मशीनों से लेकर दैनिक उपयोग की घरेलू वस्तुएँ भी शामिल थीं। इनके अतिरिक्त 42 विभिन्न एशियाई, यूरोपीय, अफ्रीकन आदि महाद्ववीपों के देशों ने भी इस मेले में अपने मंडप लगाए। इन्होंने अपने-अपने देशों में निर्मित विभिन्न प्रकार की सामग्री का प्रदर्शन किया।

मेले में भाग लेने वाले देशों में आस्ट्रेलिया, ईरान, चीन, जापान, कोरिया, जर्मनी, हंगरी, ,्राजील, श्रीलंका, बांग्लादेश, तंजानिया के अलावा कई अफ्रीकी देशों ने प्रथम बार इस प्रदर्शनी में भाग लिया था। चीन और आस्ट्रेलिया के मंडप लोगों में विशेष आकर्षण के केंद्र बने हुए थे, क्योंकि इन देशों ने अनेक वर्षों के पश्चात् भारत में आयोजित किसी व्यापारिक प्रदर्शनी में भाग लिया था। चीन के मंडप में वहाँ के कालीनों की कला ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। चीन में निर्मित क्रॉकरी और कपड़ों ने जनता को उनके संबंध में जानकारी प्राप्त करने पर बाध्य कर दिया। रूस के मंडप ने तो प्रत्येक ब्यापारिक मेले के समान इस बार भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किए रखा। सोवियत मंडप में भारी इंजीनियरिंग मशीनों से लेकर अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों का भी प्रदर्शन किया गया था। अफ्रीकी देश भी अपनी प्रगति की झलक दे रहे थे। सभी देशों ने अपने यहाँ बनाई जाने वाली, तथा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के नमूनों का प्रदर्शन किया था।

मेले में कृषि, रक्षा, संचार, सूचना एवं प्रसारण, इस्पात एवं खनन, परिवहन और जहाजरानी आदि कई मंत्रालयों ने भी भाग लिया था। कृषि मंत्रालय ने देश में निर्मित कृषि के नवीनतम उपकरणों का प्रदर्शन किया था। देश के विभिन्न भागों से आए किसानों ने इस सुअवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया। अनेक कृषि औजारों का मोलभाव किया गया।

मंत्रालयों के मंडपों में सबसे अधिक जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला मंडप रक्षा मंत्रालय का रहा। मंडप के बाहर ही रखे मिग-21 लड़ाकू विमान और चेतक हेलीकॉप्टर दर्शकों को अनायास ही अपनी और खींच लेते थे। मंडप के अंदर भारतीय स्थल सेना से संबंधित स्वदेशी हथियारों तथा नौसेना के लिए बनाये गए विभिन्न जहाजों के मॉडल दर्शकों को बाँध लेने में सफल रहे। वायु सेना के विभिन्न प्रकार के लड़ाकू विमानों के मॉडल भी दर्शकों को आश्र्यचकित कर देते थे। मेले में कई विदेशी प्रतिनिधि मंडलों ने विभिन्न मंडपों में प्रदर्शित वस्तुओं को देखा और अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अनेक मशीनों और वस्तुओं में रुचि दिखाई। विभिन्न देशों ने अनेक वस्तुओं के निर्यात आर्डर प्राप्त किए।

प्रदश्शनी में मनोंजन के साधनों का भी पर्याप्त प्रबंध था। चलचित्र दिखाए जा रहे थे, तो कहीं नृत्य-नाटक और कहीं फैशन परेड लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। मेले में खाने-पीने की भी पर्याप्त व्यवस्था थी। मेले की सजावट ने प्रगति मैदान की सुंदरता में चार चाँद लगा रखे थे। डाक-तार तथा बैंक आदि की भी पूरी-पूरी सुविधा उपलब्ध कराई गई थी। इस प्रदर्शनी से देश-विदेश में विमिन्न क्षेत्रों में हुई प्रगति की झलक मिलती थी। इससे व्यापार को बढ़ावा मिला।

32. दिल्ली के दर्शनीय स्थल

दिल्ली प्राचीनकाल से ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र रही है। यह भारत की राजधानी रही है, और आज भी है। यहाँ अनेक दर्शनीय स्थल हैं जो अपने में कला, संस्कृति, इतिहास तथा सभ्यताओं को समेटे हुए हैं। दिल्ली का लालकिला ऐतिहासिक स्थल है। यह लाल पत्थरों का बना हुआ है। इसके अंदर नौबतखाना, रंगमहल, दीवाने खास और दीवाने आम देखने योग्य हैं। इसके संग्रहालय में रखी ऐतिहासिक वस्तुएँ अपनी कहानी कहती जान पड़ती हैं।

जंतर-मंतर ज्योतिषशास्त्र पर निर्मित एक अद्भुत चीज है। इसे राजपूत राजा सवाई मान सिंह ने बनवाया था। प्राचीन काल में इससे दिन में समय की जानकारी प्राप्त होती थी, तो रात के समय नक्ष्तों की गणना की जाती थी। पुराना किला, फिरोजशाह कोटला, तुगलकाबाद का किला, हुमायूँ का मकबरा भी ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल हैं। महौौली के समीप पृथ्वीराज चौहान द्वारा बनवाया गया विजयस्तंभ, जिसे बाद में मुगलों ने कुतुबमीनार में बदलकर, कुरान की आयतें खुदवा दीं, दर्शनीय स्थान है। इसके प्रांगण में स्थित लौह स्तंभ भी लोगों के कौतूहल का विषय है। यह अत्यन्त प्राचीन है और इस पर जंग नहीं लगता है।

चाँदनी चौक में स्थिर फब्बारा भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यहीं पर भाई मतिदास तथा गुरु तेग बहादुर को कल्ल किया गया था। फब्बारे के सामने बना गुरुद्वारा शीशगंज तथा चाँदनी चौक भी देखने योग्य हैं। यहीं पर गौरी शंकर का मंदिर, जैनियों का लाल मंदिर भी देखा जा सकता है। जामा मस्जिद को शाहजहाँ ने बनवाया था। यह दिल्ली की सबसे बड़ी मस्जिद है। नई दिल्ली में स्थित बिड़ला मंदिर में मूर्तियों की भव्यता तथा दीवारों पर निर्मित चित्रकला और साहित्य के नए-पुराने अमर वाक्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।

राष्ट्रपति भवन, आकाशवाणी भवन, संसद भवन, राष्ट्रीय संग्रहालय, इण्डिया गेट पर अमर जवान ज्योति, केंद्रीय सचिवालय, उसके समीप बने हरी-भरी घास के पार्क एवम् कृत्रिम सरोवर, झील आपका मन मोह लेंगे। कनाट प्लेस की गगनचुंबी इमारतें, उसमें बना फब्वारा अनायास आपको अपनी ओर खींच लेगा। दिल्ली का चिड़ियाघर भी दिल्ली के दर्शनीय स्थलों में अपना महत्त्रपूर्ण स्थान रखता है। इसमें देशी-विदेशी अनेक प्रकार के जानवरों को देखकर आपका मनोंजन होता है। यहाँ पर अनेक पिकनिक स्थल भी आपको अपने पास बुलाये बिना नहीं रहेंगे। इनमें मुख्य हैं-बुद्ध जयंती पार्क, हौजखास का डियर पार्क, रोशनआरा बाग आदि।

दिल्ली में स्थित अनेक विशाल औद्योगोक कल-कारखाने भी कपड़े से लेकर विशालकाय मशीनें तैयार करते हैं। बाल भवन एवं डॉल म्यूजियम भी बच्चों के लिए दर्शनीय स्थान हैं। इनको देखने से बच्चों के ज्ञान में वृद्धि. होती है। राष्ट्रिता महात्मा गाँधी की समाधि राजघाट, उसके समीप ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की समाधि शांतिवन और भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री की समाधि विजयधाट पर मस्तक श्रद्धा से स्वयं झुक जाता है।

रेल संग्रहालय को देखकर रेलों के इतिहास के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। तरह-तरह के इंजनों और डिब्बों को देखकर जिज्ञासु मन को शांति प्राप्त होती है। राजा-महाराजाओं के सैलूनों को देखकर उनकी विलासिता का अनुभव सहज ही हो जाता है।

वायु सेना संग्रहालय में विमानों के छोडे-बड़े लड़ाकू विमानों को देखकर तथा उनके कारनामों को सुनकर हृदय कौतूहल से भर जाता है।

तीन मूर्ति भवन पर स्थित नेहरू म्यूजियम तो आपको अपनी ओर जबरदस्ती खींच लेगा। इसमें स्थित अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित विभिन्न दृश्यों को बिलकुल अंतरिक्ष की तरह बनाया गया है। आप यहाँ पर बिलकुल ऐसा अनुभव करोगे जैसा अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में करता है। यहाँ चलने वाली अंतरिक्ष संबंधी फिल्म आपके दिल और दिमाग में स्थायी स्थान बना लेगी।

एशियाई खेलों से दिल्ली की दर्शनीयता में बढ़ोतरी हो गई है। इस अवसर पर नवनिर्मित जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम एशिया में अपने ढंग का अकेला है। इसमें रात के समय में भी खेल खेले जा सकते हैं। इंद्रप्थ स्टेडियम, जो ढका हुआ है, इसे कुछ ही मिनटों में दो बराबर भागों में बाँटा जा सकता है, देखने योग्य है। दिल्ली की सुंदरता दिन-पर-दिन बढ़ रही है। स्थान-स्थान पर फब्वारे और पेड़ों की हरियाली देखने योग्य है। दिल्ली में रहने वाले अमीर लोगों के लिए जहाँ अशोका होटल जैसी अनेक भव्य इमारतें हैं, वहीं झुुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले लोगों का अंधकारपूर्ण जीवन भी दर्शनीय है।

33. पर्वतीय स्थान की यात्रा

दिल्ली के स्कूल-कॉलेज ग्रीप्मावकाश के लिए 15 मई से बंद हो गए। दिल्ली का तापमान 45° सेंटीग्रेड तक जा पहुँचा। गर्मियों को कैसे ब्यतीत किया जाए यह समस्या मुँह बाए समुख उठ खड़ी हुई। हम लोग प्रायः ग्रीष्मावकाश में किसी-न-किसी पहाड़ी स्थल पर चले जाते हैं। कश्मीर, शिमला, ,ैनीताल, मसूरी, देहरादून आदि पर हम पहले ही जा चुके थे, अतः हमारा ध्यान अब की बार माउण्ट आबू पर गया और हमने रेल द्वारा माउण्ट आबू जाने का निर्णय लिया, ताकि गर्मियों को व्यतीत करने के साथ-साथ सौदर्य, कला और आस्था के एक साथ दर्शन हो जाएँ।

माउण्ट आबू राजस्थान की सीपा पर अरावली पर्वत भृंखलाओं में बसा हुआ सिरोही जिले का पर्वतीय स्थल है। हमने जाने के निश्चित दिन से लगभग 10 दिन पूर्व जोधपुर मेल के टिकट आरक्षण करवा लिए और यात्रा की तैयारी आरम्भ कर दी। सभी आवश्यक एवं उपयोगी वस्तुओं को हमने पैक कर लिया। 25 मई को हम टैक्सी के द्वारा स्टेशन पर पहुँचे और गाड़ी में अपने आरक्षित स्थान पर बैठ गए। गाड़ी निश्चित समय पर चल दी। हम जोधपुर पहुँचे और वहाँ से अहमदाबाद जाने वाली गाड़ी में सवार हुए, जिसने हमें सवेरे लगभग साढ़े पाँच बजे आबू रोड़ स्टेशन पर उतार दिया। आबू रोड स्टेशन पर हमने चाय पी और आबू रोड बस अड्डे से सुबह छह बजे चलने वाली पहली बस में सवार हुए। आबू रोड से आबू पर्वत 27 किलोमीटर दूर है।

यद्यपि सड़क पहाड़ी है, तथापि मसूरी या गंगोत्री के मार्गों की तरह खतरनाक नहीं है। तीखे मोड़ों को छोड़कर बस आराम से चली है। अरावली की प्राचीनतम पर्वत शृंखलाओं को पार करती हुई बस पर्वत की ओर बढ़ती है। इन पहाड़ों पर आम, आडू और बाँस के पेड़ तथा करेंदे की सघन झाड़ियों के दर्शन होते हैं। 12 कि.मी बाद बस एक विश्रामस्थल पर रुकती है, वहाँ हमें अत्यन्त धीरे बहता एक झरना, एक प्याऊ, एक चाय की दुकान दिखती है। यहाँ से चलने के बाद रास्ते में सबसे ऊँचे स्थान पर बना साधना भवन व फ्रॉस पर ईसा मसीह दिखाई देने लगे। हम आबू पर्वत पर पहुँचे। हमने खुनाथ जी के मन्दिर की धर्मशाला में अपना सामान रखा, फिर बैठकर घूमने का प्रोग्राम बनाया।

आबू पर्वत के चारों ओर अनेकानेक दर्शनीय स्थान हैं, लेकिन आबू में आकर्षण का मुख्य केन्द्र ‘नक्की झील’ है। यह लगभग एक कि.मी. लम्बी व आधा कि.मी. चौड़ी है, इसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिखर हैं। झील के साथ ही सटा गाँधी पार्क है, आकार में छोटा होने के बावजूद काफी आकर्षक है, झील के अंदर एक जलपानगृह है, पानी पूरा होने पर लगता है, जैसे जहाज तैर रहा हो। झील के दाएँ किनारे पर बने विवेकानन्द पार्क से झील का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। बत्तखों और जलमुर्गी के जलविहार का अद्भुत आनंद उठाया जा सकता है।

झील के ठीक बाई ओर खुनाथ जी का प्रसिद्ध मन्दिर अनायास अपनी ओर खींच लेता है। टोडॉॉक एक मेंड़क के आकार की एक विशाल चट्टान भी आप देखे बिना नहीं रह सकते। टोडरॉंक से नक्की झील और आबू पर्वत का जो विहंगम दृश्य मन को गुदगुदा जाता है, उसका.वर्णन नहीं किया जा सकता। नक्की झील का सन्ध्या का दृश्य अत्यंत सौंदर्यशाली होता है। अनादरा प्वाइण्ट व सनसेट प्वाइण्ट से सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य तो मन में बस जाता है।

उसके पश्चात् हम गऊमुख गए। गऊमुख एक धार्भिक स्थल है। गऊमुख से लगातार पानी बहता रहता है, जो पिछले सैकड़ों वर्षों से बह रहा है, इसी स्थान पर वसिष्ठ जी का मन्दिर भी दर्शनीय स्थान है। आबू से चार कि.मी. दूर दिलवाड़ा का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर में पत्थर को इतनी बारीकी से तराशा गया है कि उसका सौंदर्य देखते ही बनता है। यह स्थापत्य कला का अद्भूत प्रमाण है।

अधर देवी का मन्दिर एक बहुत बड़ी अकेली चट्टान के नीचे स्थिति है। मन्दिर तक हम घुटनों के बल रेंगकर पहुँचे । लोगों की मान्यता है कि अधर देवी की शक्ति के कारण ही आबू की सड़कों पर नाममात्र की दुर्घटनाएँ होती हैं। इसके बाद हम लोग गुरुशिखर पहुँचे। यह दक्षिण में नीलगिरि और उत्तर में हिमालय के बीच की सबसे ऊँची पर्वतीय चोटी है। इसकी ऊँचाई 5600 फुट है। गुरु शिखर राजस्थान की सबसे ऊँची पर्वतीय चोटी है। यहौं पर शंकर भगवान् का प्राचीन मन्दिर है। इसमें ढाई मन वजन का पीतल का घण्टा लगा हुआ है। जिसे बजाकर लोग अपनी विजय की घोषणा करते हैं।

इसके बाद बस द्वारा अचलगढ़ गए। यहाँ ऊँचाई पर बना जैन मन्दिर और उसमें स्थापित भगवान् महावीर की अष्टधातु से बनी एक मन वजन की प्रतिमा के सम्मुख अनायास मनुष्य नत-मस्तक हो जाता है। इस पर्वत-स्थल पर दस दिन व्यतीत करने के पश्चात् हमने घर वापस लौटने की तैयारी की और बस से आबू रोड स्टेशन पहुँचे, स्टेशन से गाड़ी द्वारा सीधे दिल्ली पहुँचे। इस प्रकार हमने माउण्ट आबू पर्वतीय स्थल की यात्रा में सौंदर्य, कला और आस्था का आनंद लिया।

34. एवरेस्ट विजेता : प्रथम भारतीय महिला

संसार की सबसे ऊँची चोटी पर्वत चोटी एवरेस्ट पर पहुँचना अंतरिक्ष में पहुँचने से कहीं ज्यादा कठिन है। इसीलिए उत्तरकाशी युवा पर्वतारोही बछेद्रीपाल की साहसिक यात्रा पर जाने वाले राकेश शर्मा से अधिक महत्तपपूर्ण एवं प्रेरणादायी है। बछेद्रीपाल ने एवरेस्ट पर फतह प्राप्त की।

बछेद्रीपाल का जन्म उत्तरकाशी के पास नाकुरी गांव में एक वीरान पहाड़ी से लगी झोंपड़ी में हुआ। पिता का नाम किसन सिंह पाल तथा माता का ना हंसदेवी पाल है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा डुंडा और हरसिल में हुई। बारहवीं कक्षा तक विज्ञान की छात्रा रहीं। गढ़वाल विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। विश्वविद्ययालय से सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान भी प्राप्त किया। सनू 1971 में बी. एड. पूरा करने के बाद नौकरी की तलाश में भटकती रहीं, अंत में एन. आई. एम. में दाखिला लिया। एवरेस्ट पर चढ़ने का गौरव इन्हें लगन और साहस से प्राप्त हुआ। बर्फीले पहाड़ों पर चढ़ने की शुरूआत नेहरू इन्स्टीट्यूट ऑफ माउंटनियरिंग उत्तरकाशी से हुई। 1981 में 30 मई से 28 जून तक बछेंद्रीपाल ने पर्वतारोहण का बेसिक कोर्स पूरा किया। इस कोर्स के दौरान एन. आई. एम. ने इन्हें विशेष सम्मान दिया। पर्वतारोहण का एडवांस कोर्स भी ‘ए’ ग्रेड से उत्तीर्ण किया।

एक लम्बे समय तक बेरोजगार रहने के बाद दिसम्बर, 1983 में टाटा आयरन एण्ड स्टील में सहायक खेल अधिकारी के पद पर कार्य करने लगीं । कुछ दिन नौकरी करने के बाद इन्हें एवरेस्ट पर चढ़ने की तैयारी में लगना पड़ा। 23 मार्च को काठमांडों पहुँचकर एवरेस्ट पर पहुँचने की तैयारियाँ आरम्भ हो गईं।

बठेद्रीपाल इससे पहले 1980 में नंदा देवी पर चढ़ चुकीं थीं। इनसे पहले एवरेस्ट पर चार महिलाएँ विजय प्राप्त कर चुकीं थीं। सबसे पहले चढ़ने वाली जापान की गृहणी जुंवो ताबेई थी। उसके 19 दिन बाद ही एक चीनी पर्वतारोही श्रीमती फालेंग ने भी शिखर छुआ। तभी फू दोरजी ने बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ने में सफलता प्राप्त की।

पूरे 19 साल बाद 1984 में भारत ने एवरेस्ट के लिए अपना दल भेजा। इस दल में महिला पर्वतारोही सम्मिलित थीं। इस दल का उद्देश्य एवरेस्ट पर चढ़ने के साथ-साथ यह भी था कि कोई भारतीय महिला भी एवरेस्ट शिखर पर अपने कदम रखे।

बछेद्रीपाल जिस दल के साथ गई थीं, उसमें 20 सदस्य थे। उनके अलावा दल में छह महिलाएँ थीं, जिनमें अर्जुन पुरस्कार विजेता रेखा शर्मा, चन्द्रप्रभा अटवाल, हर्षवती विष्ट, दो बार एवरेस्ट पर चढ़ने वाले नवांग गोंबू की लड़की रीता गोंबू, डॉ, मीना अग्रवाल और श्रावस्ती प्रभु । मुकाबला तगड़ा था। रेखा शर्मा नंदा देवी, बंदर पूँछ और हिमालय की कई नामी चोटियों पर जीत हासिल कर चुकी थीं। वह नंदा देवी पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला थीं।

बछेद्रीपाल की सफलता से एक सप्ताह पूर्व ही रेखा शर्मा दक्षिणी पोल से वापस लौट आईं थीं, क्योंकि तेज बर्फीली आँधी से उनका तीसरा कैम्प जो 7320 मीटर की ऊँचाई पर था, उड़ गया था। इसी बर्फीले तूफान में मि. एन. डी. शर्मा और तीन नेपाली शेरपा गाइड भी घायल हो गए, जिसके कारण एवरेस्ट पर चढ़ाई का कार्यक्रम एक सप्ताह के लिए रुक गया।

बछेद्रीपाल को एवरेस्ट पर चढ़ने का प्रयत्न करने वाले तीसरे दल में रखा गया था। 19 मई को यह अभियान दल बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से मौत के मुँह से बच सका। स्वयं बठेद्रीपाल भी मौत के मुँह में जाने से बाल-बाल बचीं। उस दिन बर्फ की चट्टाने खिसकने से तीसरा भारतीय कैम्प खस्ता हालत में हो गया था, तथा कैम्प का काफी रसद पानी भी नष्ट हो गया था। उसमें दल के सदस्य एन. डी. नाकई, एक शेरपा और दो नेपाली पर्वतारोही भी घायल हो गए थे। दल ने साहस से काम लिया। एवरेस्ट पर चढ़ने का अपना अभियान जारी रखा।

कुछ समय बाद ही वे चोटी से कुछ पल की दूरी पर पहुँच गए। मंजिल उनके समाने थी। अचानक ही शरीर में स्फूर्ति आ गई और वे दुनिया के सर्वोच्य शिखर पर पहुँच गए। बछेद्रीपाल 23 मई, 1984 बजकर सात मिनट पर 8848 मीटर ऊँची चोटी पर पहुँची। वे दक्षिणी रास्ते से गई थी। उनके साथ ल्हाटू दोर्जी और नेपाली शेरपा सरदार सांग दोरजी भी थे। 14 मिनट तक ये लोग चोटी पर रहे। थोड़ा ही देर में सोमन पालुजर भी शिखर पर पहुँच गए। थोड़ी हिम्मत करके चारों ने चोटी पर 40 मिनट और बिताए और भारतीय तथा नेपाली झंडे वहाँ फहराए तथा उनके फोटो खींचे। उसके बाद उन्होंने दक्षिणी रास्ते से अपनी वापिसी की यात्रा शुरू की। बछेद्रीपाल की सफलता एवरेस्ट पर भारतीय महिलाओं के कदम रखने की शुखूआत भर है। दल के साथ गईं बाकी छह महिलाओं में भी इतनी क्षमता है कि वे आगे अवसर मिलने पर विश्व के सर्वोच्य शिखर पर अपने कदम रखने में सफल होंगी।

35. जीवन की अविस्मरणीय घटना

जीवन विचित्रताओं का खेल है। संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसके जीवन में बहुरूपता न हो। सुख-दुःख, उन्नति-अवनति, हानि-लाभ, खोना-पाना, मिलन-बिछड़ना हर एक के जीवन में लगा रहता है। सपाट जीवन भी क्या जीवन है। कवि जगदीश गुप्त ने सपाट जीवन के बारे में कहा भी है-
वह जिंदगी क्या जिंदगी जो सिर्फ पानी सी बहे …….।

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार की घटनाएँ प्रायः घटती रहती हैं। इन घटनाओं में से कुछ ऐसी होती हैं, जो अपनी अमिट छाप छोड़ जाती हैं। जिनसे आदमी कुछ सीखता है अथवा जो हमेशा-हमेशा के लिए अविस्मरणीय हो जाती हैं। ऐसी ही अविस्मरणीय घटना जो मेरे जीवन में घटी उसका वर्णन मैं यहाँ करने जा रहा हूँ।

जीवन की पहली घटना जो मेरे जीवनं में घटी, उस समय में कक्षा आठवीं में पढ़ता था। परीक्षा की तैयारियों में पूरे मन से लगा था और इस विश्वास के साथ अध्ययन में लगा था कि मुझे कक्षा आठवीं प्रथम श्रेणी में पास करनी है। उस समय कक्षा आठवीं की परीक्षा भी बोर्ड से होती थी। मेरी तैयारी भी अच्छी हो चुकी थी। एक दिन सुबह-सुबह में अपने साथियों के साथ विद्यालय जा रहा था। रास्ते में एक साधु मिले। बालमन में जिज्ञासा उठी कि हम लोग महात्मा जी को जरा अपना-अपना हाथ तो दिखा लें। महात्मा जी ने भी हम बच्चों के सामने अपने ज्ञान का झूठा प्रदर्शन करते हुए सबका भविष्य बतलाना शुरू किया। उन्होंने मेरा भी हाथ देखा, तथा बताया की परीक्षा में तुम फेल हो जाओगे। महात्मा जी के इस कथन का मेरे मन पर बड़ा ही दु:खद प्रभाव पड़ा। में पूरी तरह डर गया एवं चिन्तित रहने लगा।

लेकिन मेरा अध्ययन निर्वाध रूप से जारी रहा। परीक्षा की तैयारी पूर्ववत् चलती रही। लगभग दो माह बाद परीक्षा शुरू हुईं। प्रश्न-पत्र भी अच्छे बने, लेकिन परीक्षा फल आने का बेसब्री से इंतजार शुरू हुआ। महात्मा जी द्वारा कही गई अनुत्तीर्ण होने की बात मन को डराती रही। लगभग एक माह की प्रतीक्षा के बाद समाचार-पत्र में परिणाम प्रकाशित हुआ और में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। तब जाकर मेरे भीतर समाया डर दूर हुआ। परीक्षा देने एवं परिणाम प्रकाशित होने तक मेरे मन में शंका एवं डर बना रहा। तब से मैंने संकल्प किया कि मैं अपना हाथ किसी भी महात्मा को नहीं दिखाऊँगा, और आज तक मैंने ऐसा ही किया है।

मैं भाग्य रेखा देखने वाले ज्योतिषियों पर दोष नहीं मढ़ रहा है, लेकिन उन ढ़ोंगी साधुओं तथा महात्माओं को दोषी अवश्व मानता हूँ, जो स्वार्थवश दूसरों को गुमराह कर देते हैं। ऐसे महात्माओं दूवारा कही गई झूठी बातें कितना अनिष्ट करा सकती हैं-इसकी कल्पना शायद ये ढोंगी साधु, महात्मां नहीं करते हैं। वैसे न जाने हाथ में भाग्य रेखा होती है नहीं और यदि होती है तो क्या कहती है, इसका सही ज्ञान तो मुड़े नहीं है, लेकिन इतना तो मैं अवश्य कह सकता हूँ कि मनुष्य का भाग्य बहुत कुछ उसके कर्मों पर आधारित होता है। मनुष्य के हाथ में तो केवल कर्म होता है। फल तो दूसरे के हाथ में होता है। गीता में भी कहा गया है-

कर्मण्येवादिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

दूसरी घटना उस समय की है जब में बी. एड. की फाइनल शिक्षण की परीक्षा देने जा रहा था। मेरे साथ मेरी ही कक्षा के एक सहपाठी महोदय थे, जो पढ़ाने जा रहे थे। उस दिन उनके शिक्षण की प्रायोगिक परीक्षा थी। सहपाठी महोदय ज्योंही छात्रावास के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहे थे, उनसे उन्हीं की कक्षा का एक ऐसा छात्र सामने मिला, जिसकी एक आँख खराब थी। सहपाठी महोदय अब बाहर न जाकर वापस लौटने लगे। मैंने उनसे पूछा क्यों आप वापस जा रहे हैं ? उन्हींने कहा “सामने एक आँख वाला आदमी पड़ गया। मेरी परीक्षा ठीक नहीं हो पाएगी।” सहपाठी महोदय की इन बातों व ऐसी सोच को जानकर मुझे बहुत ग्लानि हुई। बहुत समझाने के बाद वे महोदय शिक्षण की परीक्षा देने गए परीक्षा अच्छी हुई एवं प्रथम श्रेणी के अंक मिले। इस घटना ने भी मुझे एक नई शिक्षा दी कि अगर आदमी पढ़ने-लिखने के बाद भी ऐसे अंधविश्वासों में जीता है, तो उस पढ़े-लिखे और एक अनपढ़ में कोई अंतर नहीं है। उस आदमी का क्या दोष जिसकी दुर्घटनावश एक आँख जाती रही, जीवन में वह तो प्रतिदिन अनेकों लोगों के सामने पड़ता होगा, तो क्या सारे लोग वापस लौट जाते होंगे ? कदापि नहीं, यह केवल एक अंधविश्वास है।

इस प्रकार घटनाओं से भरे इस जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जो अविस्मरणीय बन जाती हैं, जो आदमी को एक नया अनुभव और नई सीख देती हैं।

36. बढ़ती जनसंख्या : समस्या और समाधान

किसी भी देश का आर्थिक विकास और सुख-समृद्धि एक बड़ी सीमा तक जनसंख्या के आकार एवं उसकी कोटि पर निर्भर करते हैं। जनसंख्या ही श्रम संगठन और उद्यम का स्रोत है। जनसंख्या उत्पादन में एक प्रमुख एवं क्रियाशील साधन है। देश का कुल उत्पादन, वितरण और वस्तुओं का बाजार जनसंख्या पर ही निर्भर करता है। देश में जो कुछ उत्पादन होता है, उसका वितरण देश की जनसंख्या में ही होता है। यदि जनसंख्या कम है, तो प्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा अधिक आती है, यदि जनसंख्या अधिक है, तो उत्पादन का भाग प्रति व्यक्ति बहुत कम आता है। अधिक जनसंख्या निम्न जीवन-स्तर, अल्प पोषण, कम बचत और निवेश, अल्प उत्पांदन का कारण बनते हैं। निर्धनता, बेरोजगारी और अभाव भी अधिक जनसंख्या का ही परिणाम होता है। स्वतंत्र भारत को जिन समस्याओं से जूंदना पड़ रहा है, उनमें जनसंख्या की समस्या एक प्रमुख समस्या है। बाकी सभी समस्याएँ जनसंख्या से ही संबंधित हैं। भारत की जनसंख्या चीन को छोड़कर विश्व में दूसरे नंबर पर आती है। यह विश्व की कुल जनसंख्या का सातवां भाग है। विश्व में हर सातवां व्यक्ति भारतीय है। यद्यपि भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 15 प्रतिशत है, परंतु विश्व के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत ही भागत के हिस्से में आता है।

भारत में जनगणना का कार्य 1891 में आरंभ हुआ था। प्रति दस वर्ष के पश्चात् भारत की जनसंख्या की गणना की जाती है। 1921 तक भारत की जनसंख्या अनियमित रूप से घटती-बढ़ती रही है : 1921 के पश्चात् भारतीय जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। लगभग एक करोड़ बीस लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष इस जनसंख्या में और शामिल हो जाते हैं, जो आस्ट्रेलिया की जनसंख्या के बराबर होते हैं। भारतीय जनसंख्या में अत्यन्त भयावह गति से वृद्धि हो रही है, तथा देश जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से गुजर रहा है।

भारत में जनसंख्या की तीव्र गति से होने वाली वृद्धिि के लिए कई कारण उत्तरदायी हैं। जन्मदर में ंृदधि और मृत्युदर में कमी तो मूल कारण हैं हीं, इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी जनवृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। जन्मदर की वृद्धि के पीछे अनेक आर्थिक और आर्थिकोत्तर बातों का ह्राथ रहा है। निर्धनता, अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता आदि विशेष रूप से जनसंख्या-वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। निर्धन व्यक्तियों का कोई विशेष जीवन-स्तर नहीं होता और न उनके बच्चों के पालन-पोषण, शिक्षा आदि पर कोई विशेष लागत आती है, अतः अधिक बच्चे होने पर जीवन-स्तर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। निर्धन परिवार के लिए बच्चे आर्थिक दृष्टि से लाभकारी रहते हैं। निर्धन समाज में बंच्चे भगवान् की देन समझे जाते हैं। भारत में विवाह एक अनिवार्य सामाजिक बंधन है। संतानहीन व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती अथवा वंशवृद्षि के लिए पुत्र का होना आवश्यक है, ऐसी भ्रामक बातें अनिवार्य विवाह पर बल देती हैं।

विवाह प्रथा के व्यापक चलन के अतिरिक्त अल्प आयु में विवाह होने पर प्रजनन का कार्य शीप्र आरंभ हो जाता है। भारत में काफी लम्बे समय से जन्मदर में कमी न होने के कारण तथा मृत्युदर घट जाने के कारण जनसंख्या में तीत्र गति से वृद्धि हो रही है। आय के बढ़ने से जब जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, तो जनसंख्या की वृद्धि की दर कम होने लगती है। अनेक उन्नत देशों का उदाहरण हमारे सामने है, परंतु भारत में विकास का अधिकांश लाभ ग्राम जनता तक नहीं पहुँच पाया है। जनसाधारण की आय और जीवन-त्तर में कोई विर्शेष सुधार नहीं आया है।

भारत में निर्धनता, अशिक्षा, अंधविश्वास, छोटी आयु में विवाह, स्वास्थ नियमों की उपेक्षा, चिकिस्सा सुविधाओं की कमी आदि के कारण मृत्युदर ऊँचे स्तर पर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् चिकिस्सा सेवाओं में सुधार और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण मृत्युदर में कमी आई है। अकाल, बाढ़ या महामारियों से होने वाली मृत्यु को काफी सीमा तक टाला गया है।

जिन क्षेत्रों में जनसंख्या कम होती है, वहाँ आर्थिक विकास के कार्यों को चलाना कठिन रहता है। देश के प्राकृतिक साधनों का विकास करने का कार्य तीव्र गति से नहीं हो पाता लेकिन भारत की विशेष परिस्थितियों में अधिक जनसंख्या के कारण कृषि भूमि पर जनसंख्या का दबाव तेजी से बढ़ा है, इससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न की माँग तेजी से बढ़ रही है। माँग के अनुपात में खाद्यान्न की पूर्ति घट रही है। आर्थिक विकास के लिए पूँजी का अभाव, स्वास्थ्य और कार्यक्षमता का निम्न-स्तर, ऊँचची और बढ़ती हुई कीमतें इस बढ़ती हुई जनसंख्या का स्पष्ट प्रमाण हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक उपभोग ब्यय तेजी से बढ़ रहे हैं। रोजगार के अतिरक्त साधनों को जुटाने की समस्या सामने है। श्रमिकों की कार्यक्षमता को बनाए रखने की भी कठिनाई सामने आ रही है। जनसंख्या में भारी वृद्धि के कारण राष्ट्रीय व्यय अधिकाधिक लोगों के बीच विभाजित करना पड़ रहा है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि इस बढ़ती हुई जनसंख्या पर तेजी से अंकुश लगाया जाए। इस कार्य में सफलता मिलने पर ही बेरोजगारी-भुखमरी, भीख माँगना जैसी सामाजिक-आर्थिक बुराइयों का अंत किया जा सकेगा। जनसंख्या पर अंकुश लगाए बिना कोई भी सामाजिक-आर्थिक प्रगति का कार्य अधूरा रह जाएगा, अतः जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए विवेकपूर्ण जनसंख्या नीति की आवश्यकता है। जनसंख्या वृद्धिि के नियंत्रण का तत्काल लाभ यह होगा कि जन्मदर घटने से प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी। यह बढ़ी हुई बचत निवेश के काम आ सकेगी और आर्थिक विकास में सहायता मिलेगी। भारत में जनसंख्या की समस्या का समाधान तीव्र गति से आर्थिक विकास,शिक्षा के प्रचार-प्रसार, अधिक आयु में विवाह तथा परिवार नियोजन कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे परिवार के महत्व को समझाना आवश्यक है। नसबंदी, गर्भनिरोधक उपायों की अधिक ब्यवस्था की जाए। लोगों को परिवार नियोजन की ओर उन्मुख करने की आवश्यकता है। बाल-विवाह को समाप्त करना आवश्यक है।

37. बेकारी : एक समस्या

भारत को स्वतंत्र हुए पाँच दशक से अधिक हो गए हैं। इसी बीच अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। विश्व में भारत का दर्जा भी बढ़ा है और अपने पैरों पर खड़ा होने के प्रयल में काफी सफलता मिली है, परंतु बेकारी या बेरोजगारी की समस्या स्वतंत्रता से पूर्व भी विद्ययमान थी और अब उससे भी अधिक भयंकर रूप में विद्यमान है। यद्यपि इस समस्या को हल करने के अनेक प्रयल्ल हुए हैं, तथापि यह विकराल रूप धारण करती जा रही है। नौ पंचर्षीय योजनाओं के पूरा होने के बाद भी यह समस्या विद्यमान है।

बेकारी का अर्थ है-किसी व्यक्ति को जो कार्य करने की इच्छा रखता हो, किंतु उसकी योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार काम न मिलना। अर्थशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार-“जब काम की कमी और काम करने वालों की अधिकता हो जाती है तो बेकारी का जन्म होता है।” प्राचीन काल में लोग अपने-अपने पैतृक काम में लगे रहते थे, परंतु आज प्रत्येक व्यक्ति अपना पैतृक व्यवसाय छोड़कर सरकारी नौकरी प्राप्त करने की दौड़ में लगा है।

भारत में बेकारी के अनेक रूप मिलते हैं। इनमें सबसे पहला वर्ग है-शिक्षित बेरोजगारों का। आज अनेक शिक्षित नवयुवक रोजी-रोटी की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं। उनके पास न काम है और न ही आजीविका का कोई अन्य साधन। इन शिक्षित बेरोजगारों में-उपाधिधारी डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, कृषि पंडित, कला विशेषज्ञ हैं। दूसरा वर्ग अशिक्षित तथा अल्पशिक्षित बेकारों का है और तीसरा वर्ग ग्रामीण युवकों या कृषक वर्ग में फैली बेकारी का है। देश की जनसंख्या का आधे से भी अधिक भाग गरीबी की सीमा रेखा के नीचे का जीवन व्यतीत कर रहा है। उसे एक समय का भर पेट भोजन भी नहीं मिलता।

किसी भी समस्या का समाधान करने से पूर्व उसके कारण जानना आवश्यक हैं। जब हम अपने देश की बेकारी के कारणों पर विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि भारत में बेकारी अपने मूलरूप में अंग्रेजों की देन है। अंग्रेजों ने देश के आर्थिक ढाँचे को बदल डाला। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए ग्राम-उद्योगों तथा उद्योग-धंधों को नष्ट कर दिया।

वे देश का कच्चा माल इंग्लैंड ले जाने लगे, तथा वहाँ से बना माल भारत में लाने लगे। इस प्रकार भारतीय कारीगर और मजदूर बेकार हो गए। इसका दूसरा कारण है हमारी आधुनिक शिक्षा-पद्धति। यह शिक्षा-पद्धति अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु आरंभ की थी। लार्ड मैकाले ने यहाँ जिस शिक्षा-पद्धति का प्रचलन किया, उसका लक्ष्य कुछ ऐसे काले अंग्रेज तैयार करना था, जिससे वे लम्बी अवधि तक यहाँ शासन कर सकें। उन्हें दफ्तरों में अंग्रेजी पढ़े-लिखे व्यक्तियों की आवश्यकता थी, जो दफ्तरों में कार्य कर सकें। वही शिक्षा पद्धति आज भी प्रचलित है, जो नवयुवकों को शारीरिक श्रम से दूर कर देती है। यही कारण है शिक्षित बेरोजगारों की एक बड़ी भीड़ एकत्र हो गई है, जो हाथं का काम करने में अपना अपमान समझते हैं।

तीसरा कारण है जनसंख्या में वृद्धि। हमारे देश की जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। सरकार रोजगार के नये-नये अवसर प्रदान कर रही है, लेकिन वे अवसर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कम पड़ जाते हैं और समस्या बढ़ती ही जाती है। एक अनुमान के अनुसार 35 लाख बेरोजगारों की संख्या प्रति वर्ष बढ़ जाती है इसके अतिरिक्त बेकारी के कारणों में-घरेलू उद्योगों के स्थान पर बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन देना। इन बड़े कारखानों ने चमार, लुहार, तेलियों तथा बुनकरों आदि को बेकार कर दिया।

बेकारी की समस्या अत्यन्त व्यापक और विषम है, जिसका समाधान खोजना सरल नहीं है। इस समस्या का समाधान करने के लिए सरकार को ग्रामोद्योगों तथा घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए। विदेशी वस्तुओं के आयात पर रोक और मिलों द्वारा उत्पादित कपड़े पर अधिक कर लगाकर कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित सामान की खपत को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कृषि के समुचित विकास के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। गाँव में खेती के साथ अनेक छोटे पैमाने के उद्योग कम पूंजी से चलाए जा सकते हैं।

बेकारी की समस्या से निपटने के लिए शिक्षा-प्रणाली में समयानुसार आमूल परिवर्तन व सुधार करना चाहिए। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली भारत के लिए अनुपयोगी है। यह शिक्षा केवल पारिभाषिक है। यह पुस्तकीय शिक्षा श्नमपूर्ण कार्यों के प्रति उदासीनता उत्पन्न करती है। इसीलिए आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली को रोजगारोन्मुख बनाया जाए। शिक्षा के साथ-साथ ही विद्यालयों में लघु उद्योगों के लिए तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंध किया जाए। देश की विकास योजनाओं के साथ शिक्षा-प्रणाली का समन्यय स्थापित किया जाए, जिससे नवयुवक शिक्षा पूरी करने के पश्चात् नौकरी की खोज में न भटकें, अपितु वह लघु उद्योग चलाकर स्वतंत्र रूप से आजीविका कमा सकें।

देश में तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर काबू पाना अत्यन्त आवश्यक है। एक अनुमान के अनुसार इक्कीसवीं सदी के अंत तक भारत की जनसंख्या एक अरब से अधिक हो जाएगी। इस बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण सभी कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा, अतः हमें जनसंख्या पर अंकुश लगाना होगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि सारी अर्थव्यवस्था को रोजगारोन्मुख बनाया जाए। इसके लिए आवश्यक है, सरकार की नीतियाँ व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर बनाई जाएँ।

38. साम्प्रदायिकता

भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। प्रत्येक धर्मावलंबी भारत में अपने मतानुसार पूजा-आराधना एवं धर्माचरण कर सकता है। भारतीय संविधान में प्रत्येक सम्प्रदाय को धार्मिक कृत्यों की स्वायत्तता का अधिकार है। ‘सम्प्रदाय’ जाति एवं धर्म पर आधारित विशाल जन समुदाय या वर्ग को कहा जाता है। भारतवर्ष में मुख्य रूप से हिंदू, मुस्लिम, सिख एवं ईसाई चार सम्र्रदाय हैं। इन सम्प्रदायों के लोग अपने-अपने मतानुसार पूजा, अर्चना करते हैं।

राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते कुछ राज्य सरकारें धर्म एवं सम्प्रदायों के उस लौ़क्रिक एवं मौलिक अधिकार पर नियंत्रण लगा रही हैं। वे अपने लाभ के लिए विभिन्न धर्मों के बीच कानूनी अड़चनें खड़ी कर रही हैं। भारतवर्ष में कोई भी सरकार किसी धर्म विशेष के विकास के लिए न तो धन एकत्र कर सकती है और न ही धर्म पर आधारित शिक्षण संस्थाओं को प्रश्नय दे सकती है। आजकल साम्प्रदायिकता को विशेष हवा धार्मिक गुरुओं तथा राजनेताओं के द्वारा भी मिल रही है। यदि सरकारें अपने अनुसार दूसरे धर्मों के क्रियाकलापों को रोकने के लिए कानून बनाएंगी एवं अपने धर्म के विस्तार हेतु सरकारी तंत्र का प्रयोग करेंगी, तो इस कारण साम्प्रदायिकता को बल मिलता है।

भारतीय संविधान में यह स्पष्ट उल्लेख है कि किसी भी धर्मावलंबी अथवा सम्प्रदाय के मनुष्य के धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप न किया जाए। किसी धर्म विशेष की शिक्षा सरकारी तंत्र द्वारा न दी जाए। राज्य एव केन्द्र सरकार के सभी विभागों में एवं सभी सेवाओं में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। अल्पसंख्यक वर्ग अथवा धर्मसम्प्रदायों को अपने-अपने शिक्षा संस्थान चलाने के अधिकार हैं, लेकिन यह शिक्षा राष्ट्र के विरुद्ध न हो। लोकोपयोगी एवं एकता के उद्देश्यों को ऐसी शिक्षा संस्थाएँ महत्त्य दें, अन्यथा राज्य सरकारें हस्तक्षेप कर सकती हैं। धर्म के बारे में धर्म निरपेक्षता से अलग यदि गाँधी जी के विचारों को अमल में लाया जाए, तो साम्प्रदायिक सौहार्द अवश्य कायम रहेंगा। गाँधी जी ने सर्वधर्म समभाव की बात कही थी।

भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने धर्म निरपेक्षता को भारतीय प्राचीन धर्म परम्परा के संदर्भ में देखने की बात कही है। भारतीय धर्म निरपेक्षता जो संविधान के अनुसार है, उस पर विचार किया जाए तो भारतीय संविधान धर्म की स्वतंत्रता तो देता है, लेकिन धार्मिक नियंत्रण एवं नियमन का अधिकार भी देता है। कोई भी राज्य लौकिक स्वास्थ्य, नैतिकता व राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए किसी धर्म पर नियंत्रण लगा सकता है। बहुजातीय, बहुधर्मी एवं अनेक संस्कृतियों वाले इस देश में साम्प्रदायिक विद्वेष समय-समय पर फैलते रहते हैं।

जातीय “दंगे, साम्प्रदायिक हिंसा इस देश के लिए सबसे बड़ी समस्या है। धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले समय-समय पर अपने स्वार्थों के लिए धार्मिक दंगे फैला देते हैं। गुजरात में पिछले वर्षों फैले दंगों से हमें सीख लेनी चाहिए कि यह देश एवं मानवता के लिए कितना बड़ा कलंक है। साम्प्रदायिकता का जहर देश की आंतरिक शांति एवं समृद्धि के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वास्तव में धर्म भले अलग-अलग हों, उपासना पद्धतियाँ भले ही अलग-अलग हों, लेकिन सबकी मंजिल एक ही है। धर्म को केवल बाहय रूप में देखना, आडम्बरों को ही प्रमुखता देना, यह तो केवल भ्रम एवं अज्ञानता है। इसी अज्ञानता के कारण साम्प्रदायिक लड़ाइयाँ होती है।

धर्म का वास्तविक रूप एवं ब्रह्म की सही सत्ता जानने वाला तो सारी संकीर्णताओं एवं स्वार्थों से परे रहता है। अज्ञानी एवं कट्टरवादी ही आपस में द्वेष घृणा फैलाते हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट करते हैं। साम्प्रदायिक समस्या देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। भारत के लिए साम्र्रदायिकता तो अभिशाप बन चुकी है। यह कहा गया है कि जितने लोग युद्ध एवं बीमारियों से नहीं मरे, उससे अधिक लोग साम्प्रदायिक दंगों में मारे गए। जितनी बरबादी एवं आर्थिक क्षति साम्प्रदायिक दंगों में होती है, यदि उस धन का राष्ट्रीय विकास में उपयोग किया जाए तो देश कितना प्रगति कर सकता है। इन दंगों के द्वारा देश आंतरिक रूप से कमजोर होता है।

जब तक हमारे समाज में वर्ण भेद, जातिवाद एवं सामाजिक संकीर्णता रहेगी, तब तक देश में साम्प्रदायिक सद्भाव नहीं कायम हो सकता। सामाजिक संकीर्णता के लिए तो अशिक्षा और अज्ञानता भी जिम्मेदार है। घर-घर में शिक्षा की रोशनी फैलानी होगी। जाति, धर्म एवं साम्प्रदायिकता की सोच से ऊपर उठना होगा। मानव मात्र को एक समान मानना होगा। सही अर्थों में मानव धर्म की स्थापना करनी होगी। पूरे देशवासियों के भीतर राष्ट्रीय चेतना एवं भावात्मक एकता का संचार करना होगा, तभी हम साम्प्रदायिक के अभिशाप से लड़ सकते है-कहा गया है-

मजबह नहीं सिखाता आपस में बैर करना

धर्म और मजहब तो जीवन की एक शैली है। कोई शाश्वत सत्य अथवा आचार संहिता नहीं। यह शैली मानव निर्मित है। सही एवं शाश्वत धर्म तो मानव धर्म है। कवि कुल गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है-सबसे ऊपर मानुष ता ऊपर कुछ नाहि”। हमें जाति धर्म एवं भाषा के कृत्रिम भेदों को तोड़कर मनुष्य से मनुष्य के रूप में मिलना चाहिए, सबको सम्मान एवं आदर करना चाहिए। मानवधर्म की प्रतिष्ठा करनी चाहिए, तभी हम साम्प्रदायिकता को द्रेश एवं समाज से समूल नष्ट्र कर सकते हैं।

39. दहेज-प्रथा एक अभिशाप

‘दहेज’ शब्द का नाम सुनते ही आँखों के सामने उन अभागी लड़कियों के चित्र, चलचित्र की भाँति घूम जाते हैं, जिनके विवाह दहेज के अभाव में नहीं हो पाए या जिनको कम दहेज लाने के कारण ससुराल में तरह-तरह की यातनाओं को भोगना पड़ा या आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया या फिर जलाकर मार डाला गया। आज प्रतिदिन समाचार-पत्रों के कॉलम ऐसे समाचारों से रंगे रहते हैं।

दहेज-प्रथा भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर एक कलंक है। दहेज का सामान्य अर्थ है-पुत्री के विवाह के अवसर पर दी जाने वाली सामग्री। भारतीय प्राचीन परम्पराओं के अनुसार नव-दम्पति को अपना घर बसाने के लिए कुछ आवश्यक घरेलू उपयोग की सामग्री दी जाती थी। उस सामग्री के देने का अभिप्राय यह था कि कन्या को अपने प्रारंभिक गृहस्थ जीवन में कोई कष्ट न हो। वस्तुतः दहेज एक सात्विक प्रथा थी। कन्या खाली हाथ पतिगृह में न जाए, क्योंकि खाली हाथ जाना अपशकुन माना जाता था।

अपनी सामर्थ्यानुसार स्वेच्छा से दिया गया दहेज धीरे-धीरे समाज के लिए अभिशाप बन गया। अब न कोई सामर्थ्य को देखता है, न स्वेच्छा की पवित्र भावना को। अब तो विवाह संबंधों पर दहेज का शिकंजा कसता चला जा रहा है। अब कन्या के गुणों के महत्व की अपेक्षा दहेज का महत्व बढ़ गया है। खुलेआम वरों की बोली लगने लगी है। दहेज में दी जाने वाली राशि से परिवारों का मूल्यांकन होने लगा है। कन्या की श्रेष्ठता, शील और सौंदर्य की बजाय दहेज से तोली जाने लगी है। कन्या के समस्त अवगुण दहेज की चकाचौंध में दिखाई नहीं देते।

जिन माता-पिता में दहेज देने की सामर्थ्य नहीं होती दे विवश होकर अपनी कन्या का हाथ अयोग्य, अपंग, दुश्चरित्र, दूजवर, अनपढ़ या अधिक वायु वाले के हाथ में थमा देते हैं। स्वस्थ, सुंदर कन्याएँ कुसंगी तथा आयु में उनसे बहुत अधिक बड़े पुरुषों की पत्नी बनने को मजबूर होने लगी हैं। जहौं कन्या को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की वेदना झेलनी पड़ती है। एक ओर जहाँ ऐसी कन्याएँ जीवन भर दहेज की बलि चढ़ती हुई अंधकारपूर्ण जीवन व्यतीत करती हैं, वहीं दूसरी ओर वर को प्राप्त करने के लिए लड़की वाले मुँह-माँगे दहेज को पूरा करने के लिए अपनी चल-अचल सम्पत्ति को गिरवी रखकर जीवन भर ब्याज की चक्की में पिसते रहते हैं।

दहेज के लोभी सास-ससुर की धन-पिपासा बढ़ती जाती है। वे कन्या को तरह-तरह के साधनों से यातना देना आरंभ कर देते हैं। बात-बात पर उसे ताने सुनने को मिलते हैं, जिससे उसकी मानसिक स्थिति डावाँडोल हो जाती है। दहेज न लाने या कम लाने पर वधू के साथ छोटी-छोटी बातों को लेकर गृह कलह का रूप दे दिया जाता है। उसे समय पर खाना नहीं दिया जाता। बच्चों से बोलने नहीं दिया जाता। उसके बच्चों को मारा-पीटा जाता है। बच्चों से ही क्यों उससे भी मारपीट की जाती है। अंत में धक्के देकर घर से बाहर निकाल दिया जाता है। जबरदस्ती मायके भेज दिया जाता है। उसे चारों तरफ अंधकार- ही-अंधकार दिखाई देता है। मानसिक चिंता से घिरे रहने के कारण वह शारीरिक रूप से कमजोर हो जाती है, तथा तरह-तरह के रोग उसके शरीर में घर कर लेते हैं।

शारीरिक रूप से गुप्त चोट पहुँचाना या अंग-भंग कर देना, मिट्टी का तेल डालकर जलाना आदि दहेज दानव के कूरतम रूप हैं। प्रतिदिन के व्यंग्य-बाणों और मारपीट से तंग आकर वह आत्महत्या की और अग्रसर होती है, या घर की चारदीवारी को लाँघकर अपना रास्ता स्वयं खोजने निकल पड़ती है और असामाजिक तत्चों के हाथ पड़कर अपना सर्वस्व लुटा देती है।

अब समय आ गया है कि समाज को इस दानव से मुक्ति दिलाने के लिए गंभीरता से ठोस कार्य किए जाएँ। केवल कानून बनाने मात्र से इस कलंक को नहीं मिटाया जा सकता। इसके लिए समाज को जागरूक होना होगा। दहेज की माँग करने वालों का बहिष्कार करना होगा, तथा लड़कियों को स्वयं आत्मनिर्भर बनना होगा। उन्हें ऐसे लड़कों से विवाह का डटकर विरोध करना होगा जो दहेज की माँग करते हैं। माता-पिता के दूसरे जाति में विवाह करने के लिए तैयार रहने से भी इस समस्या में अवश्य ही कमी आएगी।

इसके अतिरिक्त जो भी दहेज-विरोधी कानून बनाया जाए, उसमें दहेज की माँग करने वालों को कड़ी सजा देने की व्यवस्था होनी चाहिए। उस कानून को पूरी ईमानदारी तथा सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। प्रेम-विवाह और सामूहिक विवाह पद्धति को बढ़ावा देना चाहिए। शिक्षित नवयुवकों को आगे आकर दहेज का स्वयं विरोध करने पर ही समाज से इस कुप्रथा को समाप्त किया जा सकता है।

40. प्रदूषण की समस्या

वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ प्रदूषण की समस्या भी बढ़ती जा रही है। भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए आवश्यकता या औद्योगीकरण और औद्योगीकरण के चक्कर में अनेक छोटे-बड़े कल-कारखानों और उद्योगों की स्थापना की गई। जनसंख्या में अनवरत् वृद्दिध के कारण ग्राम, नगर और महानगरों का विस्तार हुआ। बिना किसी पूर्व-निर्धारित योजना के नगर बसने लगे। इसके लिए जंगलों को काटकर साफ कर दिया गया। कल-कारखाने दिन-रात धुआँ उगलने लगे जिससे प्रदूषण होने लगा। इन उद्योगों में उत्पादित बेकार पदार्थों को नदियों में डाला जाने लगा। फलस्वरूप दूषित वातावरण का निर्माण होने लगा और जन स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी। कल-कारखानों के निरंतर स्थापित होते जाने और जंगलों की अंधा-धुंध कटाई के कारण जीव-जन्तु समाप्त हो रहे हैं, कुछ प्राणी तो प्रायः लुप्त हो गए हैं। यही कारण है कि प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में असंतुलन उत्पन्न होने लगा है और उसकी शोधक क्षमता शिथिल ‘हो गई है।

कल-कारखाने दूषित और अनियन्त्रित जल तथा अन्य बेकार पदार्थ बाहर निकाल, दुर्ग्धयुक्त गैस फैलाकर वायु को दूषित कर रहे हैं। वायु-प्रदूषण से मानव के अस्तित्य के लिए एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। दूषित वायु में सांस लेने के कारण फेफड़ों के रोग पनपते हैं, आँखें खराब होती हैं। यातायात के साधनों और मशीनों के शोर से ध्वनि प्रदूषण फैलता है, जिससे कान बहरे हो जाते हैं। इस तरह मनुष्य अनेक शारीरिक, मानसिक रोगों से ग्रस्त होता जा रहा है। मानव सभ्यता का यह अनियन्त्रित विस्तार बड़ी तीव्र गति से जंगलों, जलाशयों और नदियों को निगलता जहा रहा है। यह दूषित वातावरण मानव के मन और शरीर को दूषित कर रहा है। उसके लिए सांस लेना भी दूभर हो गया है।

भारत में ही नहीं, संसार के अन्य देशों में भी पर्यावरण की समस्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही है। यद्यपि वैज्ञानिक उन्नति के साथ औद्योगीकरण का विकास भी आवश्यक है। औद्योगीकरण के विकास से राष्ट्रीय आय ओर जीवन स्तर पर प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय आय बढ़ती है, जीवन स्तर ऊँचा उठता है, किंतु आधुनिक सभ्यता में वैज्ञानिक प्रगति से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधाओं की अनिवार्यता को कुछ सीमा तक नियन्त्रित करना आवश्यक है, अन्यथा कृत्रिम ध्वनि-विस्तार यंत्र, कपड़े खाद्य पदार्थ, दवाइयाँ आदि हमारे स्वाभाविक जीवन को नष्ट कर देंगे।

वैज्ञानिक उन्नति और औद्योगीकरण के वर्तमान वातावरण में हम एक तरफ तो प्राकृतिक साधनों को नियन्त्रित कर रहे हैं और दूसरी ओर स्वयं कृत्रिमता की चकाचौंध से अंधे होकर उसके पीछे भागते जा रहे हैं, अतः इससे बचने के लिए हमें प्राकृतिक और मानव-निर्मित कृत्रिम वातावरण में समन्वय व संतुलन कायम करना होगा, ताकि प्रकृति का सुंदर स्वरूप भी बना रहे और मानव सभ्यता के विकास की सम्भावनाएँ भी बनी रहें। हमें प्राकृतिक साधनों से होने वाले लाभ प्राप्त होते रहें। हमें शहरीकरण की प्रक्रिया को रोकना पड़ेगा अन्यथा शहरों में भीड़ एकत्र होगी, जिससे गाँव और ग्रामीण जीवन नष्ट हो जाएगा। ग्रामीण जीवन की खुशहाली पर महानगरों का जीवन आश्रित है। ग्रामीण संस्कृति को भी, नगरीय संस्कृति के समान फलने-फूलने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। कल-कारखानों को शहरों, नगरों से दूर स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे उनसे निकलने वाला धुआँ, दुर्गन्ध और जहरीली गैसों का प्रभाव उन तक न पहुँचे। मानव को सांस लेने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन मिलती रहे। महानगरों में निवास, चिकिसा, शिक्षा, जल-मल का निष्षासन और सफाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। वायु प्रदूषण को रोकने के लिए खाली पड़ी भूमि पर अधिकाधिक संख्या में ंृृक्षारोपण करना चाहिए। लोगों को अपने आवास के आप-पास पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सीर ऊर्जा का प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए। यातायात के नियमों का सख्ती से पालन किया जाए, जिससे अनावश्यक शोर से मुक्ति प्राप्त हो।

औद्योगीकरण के साथ-साथ बढ़ती हुई प्रदूषण की समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर विच्चार कर, उसके निराकरण के उपाय किए जाने चाहिए।

41. महँगाई के बढ़ते कदम

महँगाई. या मूल्यवृद्धिध से आज समस्त विश्व ग्रस्त है। भारत बढ़ती महँगाई की चपेट में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। जीवनोपयोगी वस्तुओं के दाम दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। जिससे जन-साधारण को अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। महँगाई से देश के आर्थिक ढाँचे पर अत्यधिक दवाव पड़ रहा है। महँगाई के निर्मम चरण अनवरत् रूप से अग्रसर हैं, पता नहीं वे कब ? कहाँ रुकेंगे ?

महँगाई का अर्थ है किसी वस्तु का पहले से अधिक दरों पर मिलना। उदाहरणार्थ आज से एक माह पूर्व कोई वस्तु चार रुपए की मिलती थी, आज वही वस्तु सात रुपए की मिलती है, अर्थात् उस वस्तु के दामों में तीन रुपए की वृद्दिध हो गई। यही तीन रुपए महँगाई है।

आज कोई भी वस्तु बाजार में सस्ते दामों पर उपलब्ध नहीं है। समाज का प्रत्येक वर्ग महँँगाई की मार को अनाहूत अतिथि की तरह सहन कर रहा है। इसका सर्वग्राही प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर पड़ रहा है। सरकारी योजनाओं पर अत्यधिक खर्च हो रहा है। धार्मिक, सामाजिक तथा नैतिक मान्यताएँ पीछे छूट जाती हैं और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाताहै।

मूल्यवृद्धि के अनेक कारण हैं। अर्थशास्त की मान्यता है कि यदि किसी वस्तु की माँग उत्पादन से अधिक हो तो मूल्यों में स्वाभाविक रूप से वृद्धिध हो जाती है। सरकारी औँकड़ों के अनुसार उत्पादन बढ़ा है, फिर भी मूल्यों में हुई व्यापक वृद्धिध आश्चर्यचकित करने वाली है। इस मूल्यवृद्विध के कारण हैं व्यापारी वर्ग द्वारा मुनाफाखोरी और जमाखोरी करना। व्यापारी उपमोक्ता वस्तुओं का अवैध रूप से स्टॉक कर लेते हैं, तथा बाजार में वस्तुओं का कृत्रिम अभाव उत्पन्न हो जाता है। उपभोक्ता विवश हो बढ़े हुए मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदता है।

रुपए के मूल्य में निरंतर कमी हो रही है। आज रुपए की कीमत ग्यारह पैसे है। रुपए की क्रय-शक्ति के ह्रास ने भी महँंगाई को बढ़ाने में सहायता दी है।

मूल्यवृद्दिध का सबसे अहम् कारण भारत की जनसंख्या में तेजी से हो रही बढ़ोतरी है। अधिक जनसंख्यां के लिए अधिक अन्न व वस्त्रादि की आवश्यकता होती है। यद्धपि स्वतंत्रता के पश्चात् खाद्ययान्न के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई हैं तथापि बढ़ती जनसंख्या के कारण वह सब प्रगति ब्यर्थ हो गई। भारत की विशाल जनसंख्या को उसकी आवश्यकता से कम वस्तुएँ उपलव्ध होने के कारण मूल्यों में वृद्धिध होना आवश्यक व स्वाभाविक है।

देश में उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण भी उचित ढंग से नहीं हो पाता, उचित समय पर उचित वस्तुएँ उपलब्ध नहीं हो पातीं। बहुत-सी वस्तुएँ गोदामों में या मार्ग में नष्ट हो जाती हैं, जिससे वस्तुओं की कमी हो जाती है और महँगाई बढ़ जाती है। लोगों में कर्त्तय-भावना की अपेक्षा स्वार्थ की भावना अधिक है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए आश्यकता से अधिक वस्तुओं को इकट्ठा कर लेत हैं। बाजार में वस्तुओं के अभाव के कारण महँगाई जोर पकड़ लेती है।

महँगाई के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। जब मध्यवर्गीय मानव अपनी प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाता, तो वह भ्रष्ट साधनों के द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है, रिश्वत लेता है तथा अन्य भी नियम-विरुद्ध कार्य करता है। मुनाफाखोरी की मनोवृत्ति के कारण काले धन का बोलबाला हो जाता है। वस्तुओं की माँग बढ़ जाती है और वस्तुओं के मूल्यों में वृद्दिध हो जाती है।

इन्हीं सब कारणों से मूल्यों में वृद्धिध होती है, जिसके परिणामस्वरूप जनसाधारण को जीवन-यापन करना दूभर हो जाता है।

महँगाई के भयंकर परिणामों को देखकर इस पर काबू पाना आवश्यक है। महँगाई पर काबू पाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं :
महँगाई की समस्या से निपटने के लिए हमें सबसे पहले जनसंख्या पर नियंत्रण करना होगा, तभी सभी तो दैनिक उपयोग की वस्तुएँ आवश्यकता के अनुसार उपलब्ध हो सकेंगी। वस्तुओं की कमी नहीं पड़ेगी तो मूल्यवृद्विध भी नहीं होगी।

सरकार को कृषि तथा कारखानों में उत्पादन बंढ़ाना होगा, जिससे बाजार में बस्तुएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होंगी तो कीमतें अपने आप कम हो जाएँगी।

हमें आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने की प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए, तथा घर में वस्तुओं की खपत पर नियंत्रण करना चाहिए। इससे मूल्यों पर अंकुश लगेगा।

सरकार मुनाफाखोरों तथा जमाखोरों के विरुद्ध कड़े कानून बनाए और उनको ईमानदारी तथा सख्ती से लागू किया जाए। सरकार बाजार में कृत्रिम अभाव पैदा कर काला धन कमाने वालों को सख्त दण्ड दे। हमारे देश में काले धन के रूप में एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। एक अनुमान के अनुसार देश में सात हजार करोड़ रुपया काले धन के रूप में सक्रिय है, जिसके बल पर ही जमाखोरी एवं तस्करी जैसे अपराध चल रहे हैं। सरकार तस्करों के विरुद्ध कार्यवाही करने में असमर्थ है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल तथा विरोधी दल दोनों ही उनसे आर्थिक सहायता प्राप्त करते हैं।

हमारी सरकार महँगाई को रोकने के लिए अनेक कदम उठा रही है। उद्योगों या कृषि के विकास के लिए योजनाएँ बन रही हैं। सरकार वितरण प्रणाली को भी सुदृढ़ कर रही है, इसके लिए सुपर बाजार तथा सहकारी उपभोक्ता भण्डार खोले जा रहे हैं। सरकार मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए कदम उठा रही है। इन उपायों के साथ-साथ लोगों में भी चारित्रिक भावना उत्पन्न करना आवश्यक है, क्योंकि बिना आंतरिक भाक्ना के उत्पन्न हुए स्वार्थ की प्रवृत्ति पर काबू नहीं पाया जा सकता। महँगाई के विरोध में जनमत जाग्रत करना होगा, तभी महँगाई के बढ़ते चरणों में बेड़ियाँ डाली जा सकती हैं।

42. निरक्षरता : एक अभिशाप
“सबतें भ्ले विमूढ़, जिन्हें न व्यापै जगत् गति”

मूर्खों के लिए तुलसीदास जी का उक्त कथन सर्वथा सार्थक है, क्योंकि संसार में समझदार और बुद्धिधमान व्यक्ति कदम-कदम पर ठोकरे खाता है, चिंताओं और कष्टों में उलझा रहता है, वहीं बुद्धिहीन व्यक्ति निशिचत होकर आराम से अपना जीवन व्यतीत करता है। उसे न अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों, न अपने व घर के मान-अपमान से, न समाज और देश से कोई. सरोकार है। वह तो जिस रास्ते पर चल पड़ा उसी रास्ते पर चलता हुआ अंपना जीवन व्यतीत कर देगा।

निरक्षरता हमारे समाज में प्राच्चीन काल से चली आ रही है। यह हमारी उस वर्ण व्यवस्था की देन है, जिसके अंतर्गत समाज के कुछ वर्गों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। महिलाओं को भी शिक्षा से दूर ही रखा गया। उसके पश्चात् हम दासता की बेड़ियों में शताब्दियों तक जकड़े रहे। हमारे विदेशी शासकों ने ।शक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य भारत पर राज्य करना था। वे तो यहाँ की भाषा और साहित्य को समाप्त करना चाहते थे। उनका विचार था कि जितने अधिक-से-अधिक अशिक्षित लोग होंगे, उनका शासन उतना ही अधिक मजबूत और दीर्घकालीन होगा। अंग्रेजों ने अवश्य अपना प्रशासनिक कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिए शिक्षा की ओर ध्यान दिया। उस शिक्षा का उद्देश्य भी केवल चपरासी, चौकीदार, क्लर्क आदि पैदा करना था। मुश्किल से एक शहर में एक स्कूल होता था और उसमें भी धनी-मानियों के बच्चे पढ़ने जाते थे।

निरक्षरता के कारण ही हम लम्बे समय तक अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सके। निरक्षर लोगों के पास स्वतंत्र चेतना-शक्ति और परिमार्जित संस्कारों का प्रायः अभाव रहता है। शिक्षा के अभाव में न मनुष्य में उद्बोधन शक्ति रहती है और न जागृति। वह न तो राष्ट्र के कल्याण के सम्बन्ध में सोच पाता है और न ही अपने सामाजिक एवं जातीय विकास के सम्बन्ध में। न वह अपने देश के प्राचीन साहित्य और गौरवपर्ण इतिहास को पढ़कर प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति न अपने घर का वातावरण शिष्ट बना सकता है, न अच्छे मित्र बना पाता है और न ही वह अपने बच्चों के भविष्य का ठीक प्रकार से निर्माण कर पाता है। इस प्रकार निरक्षरता के कारण देश को आदर्श नागरिक नहीं मिल पाते हैं और न ही आत्म-कल्याण और राष्ट्र-कल्याण के सम्बन्ध में सोचने वाले व्यक्ति। दूसरे शब्दों में निरक्षरता के कारण देशवासियों को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक यहाँ तक कि वैयक्तिक कष्टों का सामना भी करना पड़ता है। इसी अशिक्षा का लाभ हमारे देश के साहूकार और जमींदारों ने भरपूर उठाया और अनपढ़ किसानों का जी भरकर शोषण किया।

कालांतर में देश में कुंछ शिक्षित लोगों ने ही देश में राष्ट्रीय स्वतंत्रता के प्रति जागृति की भावना उत्पन्न की और उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ-साथ शिक्षा के महत्व को भी लोगों के सम्मुख स्पष्ट किया। देश की निरक्षरता को दूर करने के लिए साक्षरता आंदोलन आरम्भ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन के परिणामस्वरूप सन् 1937 ई. में जब प्रांतों में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना हुई, तो देश के असंख्य नर-नारियों को साक्षर बनाने का प्रयास आरम्भ हुआ। गाँव-गाँव में प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र तथा रात्रिकालीन पाठशालाएँ खोली गईं। पुस्तकालय, वाचनालय खोले गए। ग्रामीणों को समझाया गया कि पुलिस, पटवारी, जमींदार, साहूकार और व्यापारी उन्हें इसलिए लूटते हैं, क्योंकि वे निरक्षर हैं। सन् 1939 ई. में प्रांतीय असेम्बली भंग हो गई, किंतु साक्षरता प्रसार आंदोलन सन् 1947 ई. के पश्चात् इस आंदोलन को और अधिक व्यापक रूप दिया गया। गाँवों में अशिक्षितों को शिक्षित करने के साथ-साथ अनेक मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान की वृद्धिध के उपाय किए गए। उनके पारिवारिक तथा आर्थिक जीवन को उन्नत बनाया गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी निरक्षरता को दूर करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए गए, परंतु फिर भी यह समस्या अभी बनी हुई है। ग्रामीणों में और पिछड़े हुए वर्गों में अभी भी यह समस्या बनी हुई है। सात पंचवर्षीय योजनाओं के पश्चात् भी भारत की तीन चौथाई से भी अधिक जनसंख्या आज भी अशिक्षित है। आज भी करोड़ों लोगों के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है।

निरक्षरता के कारण प्रजातंत्र का निर्वाह सफलतापूर्वक नहीं हो पाता, क्योंकि वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति जागरूक नहीं रह पाते और अपने मत का मूल्य नहीं समझते। अज्ञानता के कारण अपना मत जाति, धर्म या अपने क्षुद्र स्वार्थों में रखकर अयोग्य व्यक्ति को दे देते हैं या थोड़े-से पैसों के लालंच में बेच देते हैं। अज्ञानतावश बे आधुनिक वैज्ञानिक साधनों को नहीं अपनाते और कूपमण्डूक ही बने रहते हैं। उन तक देश के विकास का लाभ नहीं पहुँचता।

निरक्षरता देश के माथे पर कलंक और देश, समाज और स्वयं व्यक्ति के लिए एक अभिशाप है। सरकार इसे समाप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही है। 6 से 14 वर्ष की आयु के लड़के-लड़कियों की शिक्षा अनिवार्य और निःशुल्क कर दी गई है। प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम पर भी बल दिया जा रहा है। इस योजना से निश्चित ही भारत में निरक्षरता में कुछ कमी अवश्य आई है। सरकार निरक्षता को बिलकुल समाप्त कर देना चाहती है। आशा है, सरकार का भागीरथ प्रयत्न सफल होगा। देश और समाज को इस अभिशाप से छुटकारा मिलेगा।

43. भारत में आतंकवाद और हिंसा की राजनीति

वर्तमान समय में भारत आतंकवाद और हिंसा की राजनीति का प्रचलन जोर-शोर से हो रहा है। देश के विभिन्न भागों में अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुष राजनीतिज्ञ और असामाजिक तत्व अपनी शक्ति से जनता के हुदय में भय की भावना का निर्माण करने में संलिप्त हैं। आतंकवाद और हिंसा के दूवारा प्रत्यक्ष युद्ध के बिना जन-साधारण और सत्ता पर अपने प्रभाव का दबाव डालक़र राजनैतिक सत्ता हथियाने का प्रयास हो रहा है।

भारत में आतंकवाद और हिंसा की राजनीति का प्रचलन सन् 1967 ई. में नक्सलवादी आंदोलन से प्रारम्भ हुआ था। बंगाल के नक्सलवाद से आरम्भ हुए हिंसक आंदोलन ने एक नए प्रकार की राजनीतिक विचारधारा का प्रार्भ किया। इस आंदोलन ने गाँव के कुष मध्यम श्रेणी के किसानों को अपनी हिंसा का शिकार बनाया है। यह आंदोलन सनू 1974 ई. तक चलता रहा। इस आंदोलन ने हजारों वेगुनाह लोगों को भी अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए मीत की नींद सुला दिया।

इसके पश्चात् तो हिंसात्मके राजनैतिक जैसे आंदोलनों की बाढ़ आ गई। पंजाब में अपनें राजनैतिक स्वार्थ अर्थात खालिस्तान की स्थापना के लिए, कश्मीर में स्वतंत्र राज्य की स्थापना के लिए, असम में अल्फा आंदोलन, बिहार में जातिवादी हिंसा आंदोलन, नागालैण्ड में एन.सी.एम.एन मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, तमिलनाडु में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) आतंकवादी व हिंसा की राजनीति के ज्वलंत प्रमाण हैं।

पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद को पाकिस्तान से निश्चित रूप से आश्रय मिल रहा है। आंतकवादियों के पास आधुनिकतम शस्त्रों का मिलना तथा उन्हें अच्छा प्रशिक्षण मिलना पाकिस्तान के सहयोग से ही संभव हुआ है। पाकिस्तान को भारत की एकता एवं प्रगति फूटी आँख भी नहीं सुहाती है। वह बंगलादेश बनवाने का बदला खालिस्तान बनवा कर लेना चाहता है। पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टों ने 13 मार्च, 1990 को पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों को खुले समर्थन की घोषणा की थी। सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों ने स्थिति पर नियंत्रण करने का पूरा प्रयास किया था, पर राजनीति का प्रपंच उनके किए-कराए पर पानी फेर देता है।

नई राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के साथ ही नई आशाएँ जगी हैं। हमारे प्रधानमंत्री अपनी पूरी सदाशयता का परिचय दे रहे हैं, पर हालात कुछ ऐसे लग रहे हैं कि आतंकवादी सरकार की शिष्ट भाषा को उसकी कमजोरी मान बैठे हैं। वे प्यार की भाषा समझने को कतई तैयार नहीं दिखाई देते हैं। वे अभी भी बंदूक-राइफल का प्रयोग कर रहे हैं और यह दिखा रहे हैं कि हम अपना लक्ष्य पाकर रहेंगे। पंजाब समस्या का समाधान अभी बहुत दूर है। इस समस्या ने पंजाब की प्रगति की राह में काँटे बो दिए हैं। ये आतंकवादी न पंजाब के हितैषी हैं और न सिख धर्म के सच्चे अनुयायी। इस समस्या से निपटने के लिए सख्त कदम उठाना अत्यंत आवश्यक है।

वर्तमान समय में कश्मीर की स्थिति अत्यंत विस्फोटक है। इसकी भयंकरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सर्वदलीय शिष्टमंडल को वहाँ की यात्रा करनी पड़ी। इसके लिए एक कार्य योजना बनाई गई है, कश्मीर के लिए पृथक् मंत्रालय बनाया गया तथा जार्ज फर्नाडीज़ को इस विभाग का मंत्री बनाया गया है। कश्मीर में राजनीतिक दशा को पुनः बहाल करने का भरपूर प्रयास किया जा रहा है। आशा की जाती है कि यह समस्या शीघ्र ही हल हो जाएगी। आतंकवादी संगठन विदेशी इशारों पर कार्य कर रहे हैं। उनमें पशुत्व की प्रयृत्ति है।

आपरेशन ब्लू स्टार के परिणामस्वरूप सिखों में काफी रोष पनपा है। इसकी चरम परिणति इन्दिरा गाँधी की हत्या में हुई। इस हत्या के फलस्वरूप सारे देश में दंगे भड़क गए जिनमें जान-माल की काफी हानि हुई। लिट्टे विरोधी प्रयासों के फलस्वरूप राजीव गाँधी की हत्या हुई। आतंकवादियों ने एक तरह का अघोषित युद्ध छेड़ रखा है। वे निर्दोष यात्रियों तक को भी नहीं छोड़ते हैं। सारे देश में उनको प्रति नफरत का भाव पाया जाता है। अकाली दल के अनेक सदस्यों की सहानुभूति भी इनके साथ है। वे उनके द्वारा की गई हिंसाओं की निंदा तक नहीं करते हैं। उनमें से कुछ व्यक्ति भयवश आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं।

इस प्रकार भारत में आतंकवादी, हिंसक राजनीति दिन-प्रतिदिन फल-फूल रही है। यदि समय रहते इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सका, तो देश की एकता व अखंडता समाप्त हो जाएगी।

44. मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना

मजहब, धर्म, सम्प्रदाय आदि इस अर्थ और भाव के बोधक सभी शब्द अपनी मूल अवधारणाओं में अत्यंत पवित्र शब्द हैं। किसी भी मजहब या धर्म के वास्तविक स्वरूप, आदर्श और आदेशों को सच्चे अर्थों में मानकर चलने वाला व्यक्ति अपनी अंतरात्मा में बड़ा ही पवित्र, उदार और उच्च भावनाओं से अनुप्राणित हुआ करता है। मजहब या धर्म का वास्तव में बाह्माचारों, स्थूल भौतिकताओं या रीति-नीतियों के साथ कोई सम्बंध नहीं रहता। वह तो अत्यंत सूक्ष्म और भावनात्मक सूझ, विश्वास एवं प्रक्रिया है। उसका सम्बंध केवल अंतःविश्वासों और मन:धारणाओं के साथ रहता है। वह तो सब प्रकार के अन्यायों, अत्याचारों, अंधविश्वासों आदि से ऊपर उठकर आत्म तत्त्व के साथ साक्षात्कार करने-कराने की एक अत्यंत सूक्ष्म धारणात्मक प्रविधा और प्रक्रिया मात्र है। वह स्थूल-भौतिक उपलब्धियों के लिए ईष्प्या-द्वेश करना, लड़ना-झड़ना या व्यर्थ के झझट-झमेलों में पड़ना एकदम नहीं सिखाता। वह सिखाता है इन सब बातों से दूर रहकर आत्म-संस्कार के द्वारा प्राणी मात्र का हित-साधन करना।

इसी सब में उसकी सार्थकता, सफलता, उत्कर्ष एवं वास्तविक महत्त्व है। यही सब समझ-बूझकर ही तो स्वर्गीय शायर अलामा इकबाल ने भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष के दिनों में अपनी गौरवमयी वाणी में न केवल देशवासियों, बल्कि सारी मानवता को यह पवित्र संदेश दिया था कि :

“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
हिंदी हैं हम, वतन है, हिंदोस्तां हमारा।”

इस संदेश ने स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में सारे देश पर जादू का सा असर किया थां। सभी सच्चे मनुष्य मजहब या धर्म का वास्तविक अर्थ एवं महत्त्व समझने वाले जागरूक देशवासी सब प्रकार के भेद-भावों से ऊपर उठकर स्वतंत्रता-संग्राम में शामिल हो गए थे तभी तो हम लोग खण्डित ही सही, स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल तो हो गए। यह ठीक है कि देश का यह विभाजन और विखण्डन दो मजहबों या राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर ही हुआ था, पर सभी जानते हैं कि ऐसा मानने वाले लोग पथ-भ्रष्ट थे। वे देश को सदियों तक पराधीन बनाए रखने के इच्छुक विदेशी सरकार के हाथों के खिलौने बने हुए थे।

ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं या करने जा रहे हैं कर्बला के मैदान में प्राणों की आहुति बना देने वाले मुहम्मद साहब ने भी आखिरी सांस तक मानवता के कल्याण के लिए दुआएँ ही दीं और माँगी थी। महात्मा बुद्ध और जैन तीर्थकडरों ने अपने-अपने विश्वासों का प्रचार-प्रसार करते हुए भी किसी के प्रति घृणा, ईष्य्या-द्वेष आदि का कभी प्रदर्शन नहीं किया। राम-कृष्ण, आधुनिक काल के स्वामी दयानंद, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ, गाँधी जी और विनोबा भावे जैसे किसी भी महापुरुष ने किसी दूसरे मजहब के प्रति कभी भूलकर भी कोई अपशब्द नहीं कहा।

मध्यकाल में जो भी भक्ति आंदोलन चला, उसने न जाने कितने हिंदू भक्त और मुस्लिम सूफी संत इस देश को दिए, जिनके कलाम (वाणी) तो आदर के साथ आज भी सुने ही जाते हैं; बिना भेद-भाव के सभी मजहबोंधर्मों के लोग उनके नाम सुनकर अंतप्रेरणा से उनकी महानता के सामने नतमस्तक भी हो जाते हैं। सूफी अमीर खुसरो, हजरत निजामुद्दीन औलिया, अजमेर वाले ख्याजा, प्रसिद्ध संत और कवि मलिक मुहम्मद जायसी, कबीर, गुरु नानकदेव, संत तुकाराम, नामदेव आदि कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने “सर्वधर्म समन्वय” या मजहबी एकता बनाए रखने के लिए अपना सर्वस्व तक न्योछावर कर दिया, तभी तो धर्मों-मजहबों की तथा कथित सीमाओं से ऊपर उठकर सारी मानवता इनका सम्मान करती है। इसीलिए नहीं कि इनके सामने संकीर्ण धार्मिकता या साम्प्रदायिकता कभी नहीं रहती। इन्होंने सारी मानवता में प्रभु का नाम समान रूप से बाँटा, सारी मानवता के दर्द को अपना बनाकर उसे दूर करने का प्रयत्न किया। यदि ये सब न हुए होते, तो आज जिस रूप में हमारा अस्तित्व बना हुआ है, क्यों ऐसा सम्भव हो सकता था ?

किसी भी महान् धर्म का मजहब के महान् धार्मिक ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए। कहीं भी मानवों के प्रति इस कारण घृणा या बैर-विरोध करने की बात नहीं मिलेगी कि वह हमारे नहीं किसी अन्य धर्म या मजहब को मानने वाला है। सभी ने सभी के साथ मिल-जुलकर रहने की प्रेरणा दी है। सच्ची मनुष्यता का पहला लक्षण ही यह है कि अपने विश्वासों के अनुसार चलते हुए भी हम दूसरों की आस्थाओं को किसी भी तरह से ठेस न पहुँचाएँ। हम दूसरों का सम्मान करेंगे, तो निश्चय ही दूसरे हमें सम्मान के बदले अपमान नहीं, सम्मान देंगे। सच्चा मजहब तो दूसरों के झुकने से पहले ही झुक जाने की प्रेरणा देता है। नम्रता, सहिष्णुता, सभी के प्रति अपने में भी पहले सम्मान-मान का भाव, सत्य, प्रेम और अहिंसा, असंचय, अपरिग्रह-सभी सच्चे धर्म और मजहब इन्हीं उदात्त मानवीय आचरणों-व्यवहारों की सीख देते हैं; ईष्य्या, द्वेश, बैर-विरोध और असहिष्णुता आदि की नहीं। धर्म के इन आदेशों को मानने वाला ही धार्मिक या मुजहीब कहलाता है, न कि बैर विरोध सिखाने वाला।

इस प्रकार, उपरोक्त समूचे विवेचन विश्लेषण के निष्कर्ष स्वरूप हम स्वर्गीय अलामा इकबाल के स्वर में मिलाकर यही कहना चाहते हैं कि आदमी अपनी मूल चेतना और अवधारणा में भीतर बाहर से मूलतः और अंततः मात्र आदमी ही है। इसी कारण सारे मजहब धर्म उसे अन्य सारी बातें छोड़कर मात्र आदमी बने रहने, आदमीयता का विकास करने की प्रेरणा देते हैं। यही धर्म या मजहब का सार तत्त्व भी है। इसके अतिरिक्त हम जो कुछ करते हैं, वह या तो मात्र बाह्माचार होता है, या फिर मात्र भड़काव और बस।

45. हमारी प्रमुख राष्ट्रीय समस्याएँ

प्रत्येक राष्ट्र की कुछ-न-कुछ समस्याएँ होती हैं। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे देश में अनेक समस्याएँ अपने भ्यंकरतम रूप में विद्यमान हैं। कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं, जो राष्ट्र को प्रभावित करती हैं। ऐसी समस्याओं को राष्ट्रिय समस्याएँ कहा जाता है। हमारे देश में अनेक राष्ट्रीय समस्याएँ हैं, इनमें प्रमुख हैं-बढ़ी हुई जनसंख्या, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, जातीयता, गरीबी और निरक्षरता। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में जनसंख्या बड़ी तीव्र गति से बढ़ी है। अब हम संसार में जनंसख्या की दृष्टि से विश्व में दूसरे नम्बर पर आते हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या ने देश के सभी विकास कार्यक्रमों पर पानी फेर दिया है।

दूसरी हमारी समस्या बेरोजगारी की है। हमारे देश भारत की बेरोजगारी की समस्या अत्यंत गंभीर है। सन् 1972 ई. में पढ़े-स़खे बेरोजगारों में 1744.9 हजार मैट्रिक, 631.8 हजार हायर सैकंडरी तथा 60139 हजार स्नातक व्यक्ति थे। कोठारी आयोग ने सन् $1985-86$ ई. में 95.85 लाख शिक्षित बेरोजगारों की सही संख्या का आकलन संभव नहीं है। बेरोजगार व्यक्तियों को इन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-(1) शिक्षित एवं प्रशिक्षित बेरोजगार, (2) अशिक्षित एवं प्रशिक्षित बेरोजगार, (3) अद्धर्धबेकार अर्थात् जिन्हें कभी काम मिल जाता है और कभी नहीं तथा, (4) वे व्यक्ति जो अपनी योग्यतानुसार काम पाने में असमर्थ रहते हैं।

यदि हम बेकारी के कारणों पर विचार करें, तो हमें पता चलेगा कि देश की बढ़ती हुई जनसंख्या इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। भारत में प्रतिदिन 59 हजार बच्चे जन्म लेते है, तथा 26 हजार व्यक्तियों की मृत्यु होती है। इस प्रकार जनसंख्या में प्रतिदिन 33 हजार की वृदिध होती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है हमारी दूषित शिक्षा पद्धति। अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली दफ्तर के बाबू तैयार करती थी। हमारी सरकार ने परिवर्तन के दावे तो बहुत किए, पर अभी तक शिक्षा प्रणाली में कोई मूलभूत अंतर नहीं आ पाया है। यही कारण है कि शिक्षित वर्ग सरकारी अथवा गैरसरकारी क्षेत्र में नौकरी करना चाहता है, स्वयं कोई रोजगार करने का उसमें आत्मविश्वास नहीं झलकता। अभी तक शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी नहीं बनाया जा सका है।

स्कूलों में व्यावसायिक पाठ्यक्रम मात्र दिखावा होकर रह गए हैं। उनमें पढ़ा युवक व्यावहारिक क्षेत्र में कुछ नहीं कर पाता। इस समस्या का तीसरा प्रमुख कारण है, कृषि पर हमारी अत्यधिक निर्भरता और ग्रामोद्योग के विकास में कमी। भारत की 80% जनसंख्या गाँवों में बसती है। सीमित आय एवं महँंगे कृषि उपकरणों के कारण किसान का जीवन दूभर होता चला जा रहा है। पी.जे. थामस एवं सी.के रामकृष्णन का विचार है कि भारतीय कृषक औसतन पाँच महीने तक बेकार् रहता है। एक अन्य प्रमुख कारण है-अंधाधुंध औद्योगीकरण। इसके कारण कुशल दस्तकारों का काम प्रभावित हुआ है। मशीनों के सम्मुख उनका उत्पाद या माल बाजार में टिक नहीं पाता। शिक्षित बेरोजगारी का मुख्य है विभिन्न सरकारी विभागों में तालमेल का अभाव। कभी इंजीनियर बेकार हो जाते हैं तो कभी डॉक्टर डिग्रियाँ लिए बेकार घूमते रहते हैं। हमारा मिथ्याभिमान तथा संकुचित मनोवृत्ति भी हमारी बेकारी को बढ़ाने में योगदान करती है।

हमारी तीसरी प्रमुख समस्या साम्प्रदायिकता है। हमारे देश में विभिन्न धरों, जैसे-हिंदु, मुस्तिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि के मानने वाले लोग रहते हैं। इन विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में पूजा-पाठ करने की विभिन्न पद्यतियाँ प्रचलित हैं। सभी सम्प्रदायों के लोग अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरे धरों को निकृष्ट मानते हैं। भारत में समय-समय पर साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। साम्रदायिकता ने तो सन् 1947 ई. में भारत को दो भागों में विभाजित कर दिया था। आज तो यह समस्या अपनी भयंकरतम रूप में पनप रही है। पंजाब के सिख, सम्र्रदाय के नाम पर ‘खालिस्तान’ की माँग कर रहे और दूसरे धर्म विशेषकर हिंदुओं को पंजाब छोड़ने के लिए विवश करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद ने तो साम्प्रदायिकता को अत्यंत उग्र रूप प्रदान किया है। देश के कोने-कोने से साम्प्रदायिक दंंगे होने की खबरें आ रही हैं। लाखों करोड़ों रुपए की निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति इन दंगों के कारण नष्ट हो चुकी है। यह साम्प्रदायिकता देश की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है।

हमारी चौथी राष्ट्रीय समस्या जातीयता की है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था वर्ण-व्यवस्था पर आधारित थी। समाज अनेक जातियों और उपजातियों में बैंटा हुआ था। सभी जातियाँ स्वयं को एक-दूसरे से उच्च मानती थीं। ऊँच-नीच की यह भावना जोरों पर थी। जाति-प्रथा और ऊँच-नीच की यह भावना अमानवीय तथा अपमानजनक थी। इसके कारण समाज टुकड़ों में विभाजित था। इस कुरीति ने भारतीय समाज में सामाजिक विघटन के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक विघटन को भी जन्म दिया, जिससे समाज को अत्यधिक हानि पहुँची।

समाज सुधारकों ने जातिवाद पर तीव्र प्रहार किए। आधुनिक काल में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों ने तथा सुधार आंदोलनों ने इस जाति प्रथा को काफी हंद तक निरस्त कर दिया। अंग्रेजों के समय में आधुनिक उद्योगों तथा यातायात के साधनों के विकास, कानून के सम्मुख समानता, आधुनिक शिक्षा प्रणाली तथा लोकतंत्रात्मक राजनीतिक प्रणाली आदि ने एकता और समानता की भावना को जन्म दिया। समाज सुधारकों ने भी जाति-प्रथा को अमानवीय कहकर इसका विरोध किया, तथा लोगों में समानता की भावना उत्पन्न की। स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान में अस्पृश्यता को गैर कानूनी घोषित कर दिय़ा गया। शिक्षा के प्रचार और प्रसार ने भी जातिगत भेद-भावों को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि निम्न जातियों में जागृति उत्पन्न होने के कारण जाति-प्रथा नगरों तथा शहरों में काफी हद तक समाप्त हो गई है, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में यह अब भी प्रचलित है।

निरक्षरता हमारी पाँचवी समस्या है। निरक्षरता के कारण ही हम लम्बे समय तक अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सके। निरक्षर लोगों के पास स्वतंत्र चेतना-शक्ति और परिमार्जित संस्कारों का प्रायः अभाव रहता है। शिक्षा के अभाव में न मनुष्य में उद्बोधन शक्ति रहती है और न जागृति। वह न तो राष्ट्र के कल्याण के सम्बंध में सोच पाता है और न ही अपने सामाजिक एवं जातीय विकास के सम्बंध में, न वह अपने देश के प्राचीन साहित्य और गौरवपूर्ण इतिहास को पढ़कर प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति न अपने घर का वातावरण शिष्ट बना सकता है, न अच्छे मित्र बना पाता है और न ही वह अपने बच्चे के भविष्य का ठीक प्रकार से निर्माण कर पाता है।

इस प्रकार निरक्षरता के कारण देश को आदर्श नागरिक नहीं मिल पाते हैं और न ही आत्म कल्याण और राष्ट्र कल्याण के सम्बंध में सोचने वाले व्यक्ति। दूसरे शब्दों में, निरक्षरता के कारण देशवासियों को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक और यहाँ तक कि वैयक्तिक कष्टों का सामना करना पड़ता है। निरक्षरता के कारण प्रजातंत्र का निर्वाह सफलतापूर्वक नहीं हो पाता, क्योंकि वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति जागरूक नहीं रह पाते। वे अपने मत का मूल्य नहीं समझते। अज्ञानता के कारण मत, जाति, धर्म या अपने क्षुद्र स्वार्थों को दृष्टि में रखकर अयोग्य व्यक्ति को दे देते हैं या थोड़े-से पैसों के लालच में बेच देते हैं। अज्ञानतावश वे आधुनिक वैज्ञानिक साधनों को नहीं अपनाते और कूपमण्डूक ही बने रहते हैं। उन तक देश के विकास का लाभ नहीं पहुँचता। निरक्षरता देश के माथे पर कलंक और देश, समाज और स्वयं व्यक्ति के लिए एक अभिशाप है। सरकार इसे समाप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही है।

46. पर्यावरण की सुरक्षा

‘पर्यावरण’ से आशय हमारे चारों तरफ का आवरण अर्थात् हमारे चारों तरफ प्रकृति द्वारा प्रदत्त मूल्यवान उपहारों-हवा प्रकाश जल आदि का ऐसा आवरण जो हमारी रक्षा ही नहीं करता, बल्कि जो धरा पर मानव जाति एवं अन्य जीवों के अस्तित्य एवं उसकी सुरक्षा का प्रमुख घटक भी है, अतः हमें अपने चतुर्दिक फैले इस आवरण की रक्षा करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में अपने आस-पास के परिवेश अथवा वातावरण की रक्षा करना ही ‘पर्यावरण सुरक्ष” कहा जाता है।

आज पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सारा विश्व चिन्तित है। प्रकृति स्वतः अपने स्वभाव से शुद्ध व सुंदर होती है। उसे अशुद्ध एवं कुरूप बनाने का कार्य मनुष्य स्वयं अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए कर रहा है। वह अपने वातावरण या वायुमण्डल को अस्बस्थ एवं असंतुलित कर रहा है। प्रकृति को असंतुलित एवं प्रदूषित करके मानव जाति के विकास एवं सुरक्षा के लिए मनुष्य संकट खड़ा कर रहा है। प्रकृति के नियमों को बिगाड़ने का कार्य मनुष्य कर रहा है। प्रकृति के साथ मानवीय हस्तक्षेप के भयंकर परिणाम मौसमी असंतुलन एवं प्राकृतिक विपदा के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं, फिर भी हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके हैं कि उस आसन्न संकट को न देखकर प्रकृति के साथ मनमानी कर रहे हैं। इस धरा पर मानव के आगमन के पूर्व से प्रकृति रही है। मानव एवं अन्य जीवों का अस्तित्य इस धरा पर बाद में संभव हुआ। प्रकृति का एक निश्चित नियम है। जन्म, विकास एवं विनाश को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। इस धरा पर जिसने जन्म लिया है, उसे अंत में नष्ट होना है। प्रकृति एवं पर्यावरण तो शाश्वत है, लेकिन मनुष्य इतना स्वार्थी एवं महत्त्वकांक्षी हो चुका है कि वह प्रकृति पर अपनी इच्छाएँ थोपकर, उसे अपने अनुकूल बनाने का असंभव प्रयास कर रहा है। प्रकृति चुपचाप अनेकों मानवीय हस्तक्षेपों को बर्दाशत करती है। तत्पश्चात् कुछ समय बाद मानव द्वारा किए गए दानवीय कार्यों का बदला भी बाढ़, सूखा, भूकम्प एवं प्राकृति असंतुलन के रूप में लेती है।

प्राचीन आर्य संस्कृति में प्रकृति की पूजा की जाती थी। जल, वायु, प्रकाश, एवं पेड़-पोधों की पूजा की जाती थी। नदियों को देवी के रूप में मान्यता देना, उनके तटों पर मंदिरों का निर्माण करना, पर्व एवं त्योहार के समय नदियों में स्नान करना, ये परम्पराएँ, रीति-रिवाज आर्य संस्कृति की धरोहर के रूप में आज भी स्वीकृत हैं। कम-से-कम ये परम्पराएँ, रीति-रिवाज हमारे भीतर अभी भी ऐसे संस्कारों को जगाए हैं, जिनके द्वारा हुम नदी की पवित्रता एवं महत्ता को स्वीकारते हैं। समस्याएँ नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के चलते जरूर बढ़ रही हैं। नगरों का बढ़ते जाना, कल कारखानों का निर्माण होते जाना तथा उनसे निकलने वाले कचरों एवं गन्दे पदारों को नदियों में बिना सोचे समझे प्रवाहित कर देना, अब सबसे बड़ी समस्या बन गया है।

महानगर पालिका एवं नगर प्रशासन को इस दिशा में ध्यान देना होगा। बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाले ल्याज्य एवं जहरीले रसायनों तथा नगर की गंदगी को नदियों में न गिराकर उसे अन्यत्र गिराना ही अब इस समस्या का समाधान है। नदी जल का उपयोग पीने के पानी एवं सिंचाई के रूप में किया जाता है। इन जहरीले एवं गन्दे पदार्थों के मिल जाने से नदी जल पूर्णतः प्रदूषित होते जा रहे हैं। नदियाँ जो नगरों एवं महानगरों के लिए जल का सबसे बड़ा स्रोत हैं, यदि उनका जल ही जहरीला हों जाएगा, तो आदमी को पीने का पानी कहाँ से मिलेगा। अभी भी नदियों में मरे हुए पशुओं एवं अधजली लाशों को प्रवाहित कर दिया जाता है। जिससे जल पूर्णतः प्रदूषित हो जाता है।

जल प्रदूषण को रोकने के साथ-साथ जल संरक्षण पर भी ध्यान देना अधिक आवश्यक है। वर्षा के जल को एकत्र कर पेय जल एवं खेती हेतु सिंचाई की समस्या का समाधान किया जा सकता है। पृथ्वी के भीतर जल स्तर निरंतर घटता जा रहा है, जिसका मुख्य कारण धरातल पर जल का सही संरक्षण न होना है। वर्षा का जल बेकार हो जाता है। उसके सही संरक्षण न होने से बाढ़े आती हैं एवं बाद में जल की कमी हो जाती है।

बढ़ती जनसंख्या के कारण लोगों को बसाने के लिए निरंतर बड़े-बड़े आवास एवं कालोनियाँ बन रही हैं। उन स्थानों पर, जहाँ तालाब थे, बावली थी, जल इकट्ठा होता है। उसे पाटकर उस परं भवन निर्माण व कल कारखानों की स्थापना की जा रही है। जिसके परिणामस्वरूप धरातल पर अब जल संरक्षण नहीं हो पा रहा है, जिसका मुख्य प्रभाव पृथ्वी के भीतर जल स्तर का नीचे चला जाना है। यदि हम धरातल पर जल संरक्षण की व्यवस्था नहीं करेंगे तो कुछ वर्षों में कुएँ, हैण्डपम्प एवं ट्यूबवेल भी जल आपूर्ति नहीं कर पाएँगे।

पर्यावरण को दूसरी क्षति वृक्षों के कटाव के कारण हो रही है। वृक्ष जो पर्यावरण के संतुलन एवं संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, उन्हें बेतहाशा काटा जा रहा है। वर्षा का होना सूर्य से निकलने वाली पराबगनी किरणों के घातक असर को कम करना, भूमि के कटाव को रोकना आदि सब बृक्षों के कारण ही संभव है, लेकिन मनुष्य अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वृक्षों को निरंतर काट रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था भी वनों पर आधारित होने के कारण वनों का वहुविध दोहन किया जा रहा है। वृक्ष जो पचास, सौ सालों में तैयार होते है, उन्हें बिना सोचे समझे काटना पर्यावरण को भयंकर नुकसान पहुँचाना है। कल-कारखानों से निकलने वाली जहरीली गैस वातावरण को प्रदूषित कर रही है। मनुष्य को अनेकों किस्म की बीमारियाँ वायु के शुद्ध न होने के कारण हो रही हैं। रक्तचाप, श्वास सम्बंधी परेशानी, फेफड़ों की बीमारी, सभी वायु के प्रदूषित होने के दुष्परिणाम हैं। महानगरों की जिंदगी तो दूभर होती जा रही है।

लेकिन पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए देश एवं अंतराष्ट्रीय धरातल पर भी प्रयास हो रहे हैं। ‘पृथ्वी’ सम्मेलन के द्वारा विकसित एवं विकासशील दोनों प्रकार के देशों के लिए पर्यावरण की रक्षा हेतु कानून बनाए जा चुके हैं। इनका क्रियान्वयन भी हो रहा है। सरकारें इस दिशा में देश में कड़े कानून बना रही हैं। लेकिन भली प्रकार से पर्यावरण की सुरक्षा तभी हो सकेगी जब हर मनुष्य इसकी अनिवार्यता समझे। अपने-अपने धरातल पर पर्यावरण की रक्षा करे, वृक्षारोपण करे। साफ-सफाई पर ध्यान दे। किसी भी प्रकार के प्रदूषण न फैलें, इस पर ध्यान दे तभी सही मायने में पर्यावरण की सुरक्षा हो पाएगी।

47. भ्रष्टाचार के दुष्प्रभाव एवं उस पर रोक

आजादी के बाद इन अनेक वर्षों में देश ने चतुर्दिक प्रगति की है। कृषि, शिक्षा, विज्ञान, यातायात, संचार माध्यमों एवं उद्योग-धंधों के क्षेत्र में देश ने महत्त्पूर्ण प्रगति की है। आजादी के बाद पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा देश को विकास्र के पथ पर लाने का प्रयास किया गया। हरितक्रांति एवं श्वेत क्रांति के द्वारा कृषि एवं पशुपालन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। लेकिन पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा हर क्षेत्रों के विकास के लिए जिस मात्रा में पूँजी का विनियोग सरकार करती है, उसके अनुसार वांछित परिणाम नहीं मिल पाते। यदि इस तथ्य पर हम गहराई से विचार करें तो पाएँगे कि सरकार द्वारा लगाया जाने वाला धन पूर्ण रूप से विकास के क्षेत्रों में न पहुँचकर गलत लोगों के हाथों में पहुँच रहा है। फलतः रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, मिलावट एवं जमाखोरी जैसी कुरीतियाँ जन्म ले रही हैं एवं बढ़ रही हैं। भ्रष्टाचार अपने पाँव पसार रहा है।

‘भ्षष्टाचार’ शब्द का अर्थ है-निकृष्ट अथवा गिरा हुआ आचरण। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है-खराब, निकृष्ट अथवा गिरा हुआ और ‘आचार’ का अर्थ है आचरण। भ्रष्टाचार के वशीभूत होकर मनुष्य समाज एवं राष्ट्र के प्रति गद्दारी कर रहा है। आज स्वार्थ में अंधा मनुष्य भ्रष्टाचार के द्वारा लोगों का खून चूस रहा है। प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है ? वास्तव में भ्रष्टाचार आज की युगीन परिस्थितियों की देन है। आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य की महत्ता एवं श्रेष्ठता का पैमाना मनुष्य का ‘कर्म’ नहीं बल्कि ‘धन’ हो गया है। जिसके पास पैसा है, काफी धन है, आज समाज में उसी को श्रेष्ठ माना जा रहा है। लोग केवल धन एवं धनवानों को महत्त्व दे रहे हैं। यह नहीं देख रहें हैं कि यह धन किस प्रकार से अर्जित किया जा रहा है। एक ईमानदार एवं कर्मठ व्यक्ति यदि धनहीन है, तो समाज में उसे पूछने वाला कोई नहीं है। इस प्रकार आज मनुष्य के मूल्यांकन का आधार उसके सत्कर्म नहीं, बल्कि उसका धन है। इसी कारण भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोलबाला है।

भ्रष्टाचार के वशीभूत होकर मनुष्य समाज एवं राष्ट्र के प्रति कर्त्त्य भूलकर अनुचित रूप से धन की उगाही कर रहा है। भ्रष्टाचारी आज समाज और देश का रक्त चूस रहे हैं और वातावरण को विषाक्त बना रहे हैं। आज हम अपने प्रयोग की दैनिक वस्तुएँ जो बाजार से खरीद रहे हैं, वह शुदुध नहीं, बल्कि मिलावटी हैं। दूध, तेल एवं मसाले तथा दवाइयाँ तक इतनी मिलावटी हो गई हैं कि जिनसे हम विविध प्रकार के रोगों एवं कमजोरियों के शिकार हो रहे हैं। किस पर भरोसा किया जाए? सरकार कैसे इन गद्दारों को पकड़े ? इसके लिए आम जनता की जागरूकता जरूरी है।

भ्रष्टाचार के लिए कई अन्य कारण भी उत्तरदायी हैं, जिन पर राष्ट्र एवं समाज को ध्यान देना जरूरी है-भारतीय समाज में अभी शिक्षा का स्तर बंहुत नीच है। अधिकांश जनता तो इतनी निरक्षर है कि न तो वे कुछ लिख पाती है और न ही कुछ पढ़ पाती है। ऐसी जनता के पास विचार शक्ति का अभाव है। वह सही व गलत का निर्णय नहीं ले पाती। उसके लिए स्वार्थ सिद्धि ही सर्वोपरि है। वह यह सीच ही नहीं सकती है कि उसके स्वार्थ पूर्ति में समाज व देश का कितना अहित हो रहा है। अभी भी समाज में इतनी कुरीतियाँ हैं, जिसके कारण लाचारीवश मनुष्य को भ्रष्टाचार में शामिल होना पड़ता है-दहेज प्रथा, झूठी मान-मर्यादा, फैशन परस्ती आदि के कारण निम्न मध्यवर्गी ममुष्य न चाहते हुए भी समाज में अपनी हैसियत बनाने के लिए गलत तरीकों से धनोपार्जन करता है, जो कहीं-न-कहीं भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। आज लोगों का रूझान भौतिकंता की ओर बढ़ता जा रहा है। हर मनुष्य अपनी सुख-सुविधा के लिए दुर्लभ-से-दुर्लभ वस्तु को प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है। अगर उसके पास सुख-सुविधा की विलासितपूूर्ण वस्तुओं को क्रय करने की क्षमता नहीं है, तो वह भ्रष्ट तरीके अपना कर काला धन इकट्ठा कर रहा है।

मँहंगाई आंज बहुत बढ़ चुकी है। निम्न वर्ग एवं मध्य वर्ग इस मैंहगाई की मार से पीड़ित हैं। व्यवसायी वर्ग अपनी वस्तुओं की कीमत बढ़ाने के लिए उसकी जमाखोरी कर कालाबाजारी करते हैं, जिससे भ्रष्टाचार फैलता है। महँगाई के इस युग में गरीब वर्ग अपनी उदरपूर्ति एवं सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भ्रष्ट साधनों को अपनाता है।

भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण बढ़ती जनसंख्या है। साधन यदि सीमित हों और उनका उपभोग करने वाले लोग अधिक हों तो महँगाई एवं भ्रष्टाचार का जन्म होता है। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। आज देश की जनसंख्या सौ करोड़ से ऊपर पहुँच गई है। यदि सबको रोजगार एवं जीवन यापन का सही साधन नहीं मिलेगा तो भ्रष्टाचार तो बढ़ेगा ही।

भ्रष्टाचार को रोकने में आज सरकार विफल हो रही है। भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में भी प्रवेश कर चुका है। इसे रोकने के लिए सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। सरकार का हर विभाग प्रमुख संकल्पबद्ध होकर अपनी कुर्सी व सत्ता की चिंता छोड़कर यदि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कार्य करेगा, तो इस पर अवश्य काबू पाया जा सकता है। सरकार को अपनी गद्दी की चिंता के कारण सब कुछ जानबूझकर समझौता करना पड़ रहा है।

आम जागरूक नागरिक भी अपने चारों तरफ फल-फूल रहे भ्रष्टाचार के व्यापार का यदि विरोध एवं बहिष्कार करना शुरू कर दें, तो इसे मिटाया जा सकता है। हाँ इसके लिए हर एक को तैयार होना पड़ेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध समाज में व्यापक चेतना जगानी होगी एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनान्दोलन खड़ा करना पड़ेगा।

48. नशाबंदी

नशा हमारे देश की प्रमुख समस्या बन चुकी है, इसके कारण प्रतिदिन अनेक घर बरबाद हो रहे हैं। अंसमय ही कितने ही बच्चे अनाथ हो रहे हैं, कितनी बहने विधवा हो रही हैं। नशा करने वालों का जीवन बहुत अल्प होता है। राजा-महाराजा और श्रेष्ठ-वर्ग सुष्टि के आरम्भ से राजकीय पेय के नाते सुरा का उपयोग करते रहे हैं। राजकीय पेय जब जनता जनार्दन के मध्य पहुँचा, तो वही परिणाम हुआ, जो बंदर के हाथ माणिमाल लगने पर होता है। भारतीय गरीब और मध्यवर्गी जनता जीवन के दैनन्दिन ऊहापोह से तंग थी। उसे न दो समय का भरपेट भोजन मिलता था, न तन ढाँपने के लिए वस्त्र और न रहने को मकान। दैनन्दिन जीवन की निराशा और गम को कम करने के लिए उसने सुरा को अपनाया। निराशा के अंधकार को सुरा में डुबा देना चाहा, मगर नशे की मस्ती में वह अपने को सुखी अनुभव करने लगी। धीरे-धीरे सुरापान एक व्यसन बन गया।

परिणामतः सुरापान को भयंकर सामाज़िक बुराई तथा जीवन के लिए भारी अभिशाप माना जाने लगा। शराब के दुर्व्यसन में फँसे हुए व्यक्ति को शराब के लिए ऋण लेने अथवा नारी के आभूषण एवं घर की अनिवार्य वस्तुओं को बेच देने में कोई बुराई नजर नहीं आती। वह शराब के लिए नारी और बच्चों को भीख मँगवाने के लिए प्रेरित करने में भी नहीं हिचकिचाता। अच्छी शराब के लिए पैसे न जुटा पाने पर वह घटिया शराब पीकर यमलोक जाने में भी नहीं हिचकता। शराब पीकर नशे में धुत होकर शराबी आत्म-विस्तृत हो जाता है। बच्चों को पीटना, नारी की दुर्दशा करना, लड़खड़ाते चरणों से औंधे मुँह नाली में गिर पड़ना शराबी के कार्य हैं। शराब पीकर गाड़ी चलाने वाले न केवल स्वयं को अपितु दूसरों को भी मृत्यु-लोक का पथिक बनाते हैं। परिणामतः अनेक घर उजड़ जाते हैं। सैकड़ों परिवार बरबाद हो जाते हैं। शराब तो एक ऐसा रोग है, जो पीने वाले को समाप्त करके ही छोड़ती है।

युद्ध दुर्भिक्ष तथा महामारी इन तीनों ने मिलकर मनुष्य जाति को इतनी हानि नहीं पहुँचाई, जितनी कि अकेली मदिरा ने पहुँचाई है।

मादिरा को अभिशाप मानते हुए गाँधीजी के आह्वान पर नशाबंदी आंदोलन चला। लाखों नर-नारियों वे शराब की दुकानों पर धना दिया, जेल गए। राष्ट्रीय विकास की दुवितीय पंचवर्षीय योजना में एकमत से सदन में मद्य-निषेध की सिफारिश की गई। वेतन के दिन मदिरालय बंद रखने की व्यवस्था की एवं शिक्षण-संस्थाओं तथा धार्मिक स्थलों के समीप मदिरालय न होने का निर्देश था। दिन-प्रतिदिन इस दिशा में रोक लगाई जाने लगी, परंतु क्या यह सच नहीं है कि बहुसंख्यक नेता सुरापान के आदी हैं ? फिर मद्य निषेध की अनिवार्यता का क्या अर्थ है ? मद्य-निषेश को राष्ट्र जीवन के लिए अनिवार्य तत्त्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है।

सच्चाई यह है कि मदिरा राज्य-सरकारों और केन्द्रीय सरकार की आय का बहुत बड़ा साधन है। यदि यह साधन समाप्त कर दिया गया तो जनता जनार्दन पर भाँति-भाँति के नए कर लगेंगे। भारतीय जनता बढ़ते टैक्सों और चढ़ती महँंगाई से दान्हाकार कर रही है, तब नए टैक्सों से उसकी क्या दुर्दशा हो जाएगी, उसका प्रभु ही मालिक है।

जो वस्तु खुलेआम नहीं बिकती, वह काले बाजार की शरण में चली जाती है। काला बाजार अपराधवृत्ति का जनक है, पोषक है। अच्छी शराब मिलनी बंद हो जाए तो घर-घर में शराब की भट्टियाँ लगेंगी, देशी ठर्रा बिकेगा। घटिया शराब से लोग बिना परमिट परलोक गमन करने लगेंगे ; जो राष्ट्र के लिए घोर अनर्थ होगा, अतः ‘मद्य निषेध’ अनिवार्यता का विषय नहीं है।

सुरा पर भारी कर लगाकर सुरालयों की संख्या कम करके देशी भट्टिटयों को जड़मूल से नष्ट करके, सार्वजनिक स्थानों पर पीने तथा पीकर चलने पर कठोर प्रतिबंध लगाकर मद्य-पान को हतोत्साहित किया जा सकता है। यह तभी सम्भव है, जब पुलिस मद्य-निषेध कार्यालय और राजनीतिज्ञ चरित्रवान् होंगे, ईमानदार होंगे। प्रदर्शन के लिए मद्य-निषेध की अनिवार्यता का नारा लगाना राष्ट्र के साथ धोखा है।

49. महानगरीय समस्याएँ

दिल्ली जैसा नगर समस्याओं से भरा है, यहाँ रहने वाला व्यक्ति इन महानगरीय समस्याओं से घिरा हुआ है। जिनका निराकरण सहज सम्भव नहीं है। बरसात में उफनती हुई नदी के प्रवाह के समान नवीन कठिनाइयों की उग्रतर बाढ़ है, जो महानगर को ही आत्मसात् कर लेना चाहती है।

महानगर रोजगार प्रदान करने के महा केन्द्र हैं। नगर-निगम तथा राजकीय कार्यालय, औद्योगिक प्रतिष्ठान, व्यापारिक केन्द्र, कल-कारखाने रोजगार प्रदान करने का आहृवान करते हैं, अतः ग्रामीण जनता इन महानगरों की ओर खिंची चली आती है। इनकी जनसंख्या सुरसा के मुख की तरह प्रतिवर्ष फैलती जाती है। महानगरों की बढ़ती आबादी महानगरों की सबसे प्रमुख समस्या है। प्रदषण महानगरों की विकट समस्या है। वहाँ के कल-कारखाने, मिलें तथा सड़क पर अहर्निश दौड़ती बसें, ट्रक, कार, मोटरसाइकिल, स्कूटर, टैम्पो आदि पैट्रोल तथा डीजल से चलंने वाले वाहन जो प्रदूषण उत्पन्न करते है, उनसे वहाँ की वायु विषाक्त हो चुकी है। जिससे साँस लेने में भी दम घुटता है।

महानगरों की विभक्त शासन-प्रणाली में एकसून्नता का अभाव उनकी जटिल उलझन है। दिल्ली को ही लीजिए-कानून व्यवस्था और शिक्षा केन्द्र के हाथ में विकास का दायित्व दिल्ली विकास प्राधिकरण पर और बिजली, पानी, सफाई स्वास्थ रक्षा की जिम्मेदारी निमाते हैं, नगर-निगम तथा नई दिल्ली-नगर-पालिका। यातायात व्यवस्था के लिए अलग दिल्ली परिवहन निगम है। इनमें परस्पर कोई ताल-मेल नहीं है। बढ़ती आबादी को आभ्रय देने के लिए विकास प्राधिकरण जितनी व्यवस्था करता है, वह कम पड़ जाती है। मकानों की कमी, मकानों के किरायों में वृद्धि का कारण बनती है। महानगरों का अनियमित, अनियन्त्रित, अमर्यादित विकास तथा प्राचीन नगर की तंग गलियाँ, कल-कारखानों तथा औद्योगिक संस्थानों का कचरा नगर की शोमा के मुख पर कालिख पोत देता है। महानगरों के स्वास्थ्य को चौपट करने का ठेका पेय जल व्यवस्था ने ले रखा है। सभीं महानगरों का मल-मूल उनकी समीपस्थ नदियों में मिलता है, जो नदियों के जल को दूषित कर देता है। महानगरों में महारोगों के जानलेवा प्रकोप में बहुधा यही दूषित जल कारण बनता है।

महानगरों की यातायात व्यवस्था नगर-वासियों के लिए अपर्याप्त रहती है। बसें ही यातायात का मुख्य साधन हैं। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में लोकल ट्रेन की व्यवस्था भी है। बसों और ट्रेनों की अपार भीज़, धक्कम-धक्का अनियन्तित स्टेडिग बसें चालकों की मनमानी, रेजगारी के लिए कण्डक्टर से झगड़े तकरार सब मिलकर महानगर वासियों के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं।

महानगरों में विद्युत-आपूर्ति की कमी से औद्योगिक संस्थान उत्पादन की कमी से परेशान हैं, कार्यालय के बाबू प्रकाश के अभाव में काम करने से इनकार कर देते हैं। जनता गर्मी में पंखे और कूलर के बंद होने से तथा सर्दी में हीटर की हीट समाप्त होने से विद्युत प्राधिकरण को गालियाँ देती रहती है। महानगरों में शिक्षा संस्थाएँ बहुत हैं, पर श्रेष्ठ संस्थाएँ बहुत कम हैं। भारत का भावी नागरिक स्कूलों के गंदे स्थान अपर्याप्त सुविधा तथा विषाक्त वातारण में अपनी शिक्षा ग्रहण करता है। विद्यालयों में फटे-पुराने तम्बुओं में बना अध्ययन कक्ष विद्यार्थियों पर किस शिष्टता, सभ्यता की छाप छोड़ेगा ?

महानगरों की संचार व्यवस्था का प्रमुख साधन है-दूरभाष। दूरभाष व्यवस्था महानगरवासियों को जितना परेशान करती है तथा पीड़ा पहुँचाती है, वह अकथनीय है। ‘राँग नम्बर’ महानगर दूरभाष का स्वभाव है। लाइनों का अनचाहा मेल कराकर बात न करने देने तथा दूसरों की बात सुनने का अवसर प्रदान करना उसकी नीति है। डेड हो जाना उसका बहाना है।

जिस प्रकार क्षेत्र की दृष्टि से, जनसंख्या की दृष्टि से, रोजगार की दृष्टि से महानगर की महत्ता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। उसी प्रकार महानगरों में चोरी, ड़ाके, अपहरण, छीना-झपटी, हेरा-फेरी की अधिकता को भी झुठलाया नहीं जा सकता। महानगर की समस्याओं का निराकरण तभी सम्भव है, यदि हम सब मिलकंर दृढ़ विश्वास के साथ आपसी तालमेल बनाकर सहयोग करें। हमारे राज नेताओं को चाहिए कि अपने स्वार्थों को छोड़कर ईमानदारी से समस्याओं का हल खोजने में सहयोग करें।

50. हमारे त्यौहार

भारत त्यौहारों का देश है। प्रति वर्ष इस देश में अनेक त्यौहार मनाए जाते हैं। सभी त्यौहारों का धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक अथवा सांस्कृतिक महत्व है। कुछ त्यौहार देवी-देवताओं से संबंधित हैं, तो कुछ ऋतु-परिवर्तन से या हमारे देश के इतिहास से संबंध रखते हैं। त्यौहारों के अवसर पर बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष और युवक सभी नवीन वस्त्र पहनकर आनंद मनाते दिखाई देते हैं।

हमारे देश में दो प्रकार के त्यौहार मनाए जाते हैं। एक प्रकार के त्यौहारों में राष्ट्रीय त्यौहार जैसे-गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस तथा गाँधी जयंती आते हैं। दूसरे प्रकार के त्यौहारों को भारत में रहने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों के लोग अपनी-अपनी परंपराओं, विश्वासों और रीति-रिवाज के अनुरूप मनाते हैं। हिंदुओं के त्यौहारों के रूप में शिवरात्रि, जन्माष्टमी, होली, दीपावली, दशहरा, रक्षाबंधन, रामनवमी आदि पर्व मनाए जाते हैं। ईसाई नव वर्ष, गुड फ्राइड़े और मुसलमान ईद, शब्बेरात आदि उत्सव मनाते हैं।

राष्ट्रीय त्यौहार संपूर्ण देश में मनाए जाते हैं। तीनों राष्ट्रीय पर्वों के मुख्य समारोह दिल्ली में आयोजित किए जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस अर्थात् 15 अगस्त को दिल्ली के लालकिले पर प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं। गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति भवन से लालकिले तक भव्य परेड का आयोजन होता है। गाँधी जयंती के अवसर पर राजघाट पर मुख्य समारोह होता है। ये सभी त्यौहार हमारे इतिहास से संबंधित हैं। सभी त्यौहार भारतीय संस्कृति की विरासत हैं। पर्वों के आगमन से पूर्व ही इन्हें- मनाने की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। नए-नए वस्त्र सिलाए जाते हैं। घरों को रंग-रोगन और सफेदी से सजाया जाता है।

दीपावली के पावन पर्व पर लोग अपने-अपेने घरों को सजाते हैं। मिट्टी के दीपों तथा बिजली के बल्बों की रोशनी से अपने घरों को जगमगाते हैं। शाम के समय धन की देवी लक्ष्मी की पूजा बड़े उत्साह और श्रद्धा से करते हैं। होली का त्यौहार पुराने बैर-भावों को भुलाकर परस्पर मित्रता बढ़ाने का संदेश देता है। विजयादशमी का पर्व अन्याय और अत्याचार पर सत्य की विजय का प्रतीक है। जन्माष्टमी और रामनवमी क्रमशः भगवान् श्रीकृष्ण एवं भगवान् राम के जन्म दिवस हैं। ये दोनों पर्व हमें इन दोनों महापुरुषों के पद-चिह्नों पर चलने की प्रेरणा देते हैं। ये सभी त्यौहार मानव मात्र को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए अन्याय एवं अत्याचार का दृढ़ता से सामना करने तथा मन की विकृतियों को नष्ट करने और सत्य के मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं।

वसंत ऋतु के आगमन पर व्यक्ति में नए उत्साह और उमंग का संचार हो जाता है। फसलों के पकने, कटने पर जो हार्दिक प्रसन्नता होती है उसे पोंगल और बैसाखी पर्व पर ढोलक की थाप पर थिरकते कदमों से सहज ही जाना जा सकता है। खेतों में मिल-जुलकर खुशी मनाते पंजाब के किसान जब भंगड़ा करते हैं तो उनकी मस्ती देखते ही बनती है।

इसी प्रकार ईसाई क्रिसमस का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। यह त्यौहार प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनाया जाता है। इस दिन ईसामसीह का जन्म हुआ था। इस त्यौहार को मनाने के लिए कई दिन पूर्व तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। बाजार सजाए जाते हैं। घंरों में रोशनियाँ की जाती हैं। रात के बारह बजे गिरजाघरों में विशेष प्रार्थनाएँ होती हैं। इंद मुसलमानों का त्यौहार है। भारतवर्ष में रहने वाले सभी भारतीय इस त्यौहार को मिल-जुलकर मनाते हैं। इस दिन सभी मुसलमान नए-नए वस्त्र पहननते हैं। घर में सेवियाँ बनती हैं। यह त्यौहार एक महीने तक लगातार रोजा रखने के पश्चात् आता है। ईद के दिन सुबह के समय सभी गरीब-अमीर मुसलमान विभिन्न मस्जिदों व ईदगाहों में सामूहिक नमाज पढ़ते हैं, एक-दूसरे के गले मिलकर ईद मुबारक देते हैं, दान-पुण्य करते हैं।

मोहरम इनका दूसरा वड़ा त्यौहार है। यह गम का त्यौहार है। इस दिन बड़ी धूमधाम से ताजिए निकाले जाते हैं। फिर उन्हें कर्बला में दफना दिया जाता है।
बकरा ईद भी बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। सिख संप्रदाय के लोग गुरु पर्व का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। स्थान-स्थान पर मीठे पानी की छबीलें (प्याऊ) लगाई जाती हैं। गुरुद्वारों पर रोशनी की जाती है। एक बड़ा भारी जुलूस निकाला जाता है। स्थान-स्थान पर लंगर लयाए-जाते हैं, जहाँ हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई आदि सभी संप्रदायों और जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक पंक्ति में बैठकर भोजन करत है। इससे परस्पर भाईचारे, सद्भावना के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है।

भारत के पर्वों का सामाजिक, धार्भिक महत्त्य तो है ही, वहीं ये त्यौहार राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में भी महत्त्यपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बैर-भाव की समाप्ति, असत्य से सत्य की ओर अग्रसर होने की प्रेणा देते हुए ये ल्यौहार भारतीय जन-जीवन में उमंग और उत्साह उत्पन्न करते हैं। ये त्यौहार भारतीय संस्कृति की अमूल्य देन हैं।

51. दीपावली या दीवाली

दीपावली का अर्थ है “दीपों की पंक्ति।” भारत में अनेक त्यौहार मनाए जाते हैं, जैसे होली, दशहरा, रक्षाबंधन आदि। दीपावली भी एक प्रसिद्ध त्यौहार है।

यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। भारतीय जनता घर-घर में दीपकों की पंक्तियों, बिजली के रंग-बिंगे बल्बों की रोशनी द्वारा उसे पूर्णिमा से भी अधिक उजियाली बना देती है। वास्तव में दीवाली हर्ष और उत्साह का प्रतीक ज्योति-पर्व है।

यह त्यौहार कार्तिक-कृष्णा तेरस से शुक्ल पक्ष की दूज तक बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस तरह इस त्यौहार का उत्सव पाँच दिन तक चलता रहता है। दीपावली के पहले दिन धन-त्तेस का पर्व आता है। इस दिन लोग नए बर्तन खरीदते हैं। नए बर्तन खरीदना शुभ मानते हैं। यमराज की पूजा के लिए आज के दिन एक दीपक जलाकर घरों के दरखाजों पर रखा जाता है। अगले दिन छोटी दीवाली होती है। इस दिन शाम के समय दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन बड़ी दीवाली अर्थात् मुख्य त्यीहार आता है। उसके बाद में गोवर्धन पूजा होती है। उससे अगले दिन भैया दूज मनाया जाता है। इस दिन बहनें भाइयों की आरती उतारकर, तिलक लगाकर उनकी मंगल कामना करती है।

इस त्यौहार के साथ कई धार्मिक व ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। कहते हैं कि इस दिन अयोध्या के राजा रामचंद्र चौदह वर्ष के वनवास तथा लंका के राजा रावण को मारकर अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में अयोध्यावासियों ने अपने घरों को सजाया था, तथा रात के समय दीपमालिका की थी। जैन मतावलम्बियों के अनुसार जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान् महावीर को इसी दिन महानिर्वाण प्राप्त हुआ था। सिक्खों के छठे गुरु हगगोविन्द सिंह ने औरंगजेव की जेल से इसी दिन मुक्ति प्राप्त की थी। आधुनिक युग के महान् सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती और सांस्कृतिक नेता स्वामी रामतीर्थ ने इसी दिन मोक्ष प्राप्त किया था।

पौराणिक गाथाओं के अनुसार इसी दिन समुद्र मंथन से धन की देवी लक्ष्मी का अवतार हुआ था। कहते हैं कि इसी दिन विण्यु ने नर सिंह का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद.की रक्षा की थी, तथा भगवान कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध भी इसी दिन किया था। इस त्यौहार का संबंध ऋतु परिवर्तन से भी है।

दीवाली कृषि से भी संबंधित है। शरद् की सुहावनी ठंड और सुनहरी धूप के बीच फसल पककर, कटकर घर आती है तो चारों ओर आनंद और उल्लास छा जाता है। पूरे वर्ष के कड़े परिश्रम के पश्चात् ‘अन्न-धन’ के रूप में घर आई लक्ष्मी का स्वागत घर को साफ करके तथा दीपक जलाकर किया जाता है।

दीपावली का वैज्ञानिक आधार भी है। दीपावली से पहले घर में मच्छों, खटमलों, तिलचट्टों तथा अन्य जहरीले कीटाणुओं की अधिकता हो जाती है। अनेक बीमारियों के फैलने का भय रहता है। दीपावली के अवसर पर गरीब-अमीर सभी अपने-अपने मकानों-दुकानों, घरों की सफाई करते हैं, तथा सफेदी और रंग-रोगन द्वृारा सजाते हैं। सफेदी से मच्छर मर जाते हैं। सरसों के तेल के दीये जलाने से रोगादि के कीटाणु समाप्त हो जाते हैं।

दीपावली के दिन की शोभा तो देखते ही बनती है। सभी मकानों पर रंग-बिंगे बल्बों की रोशनी होती है। बाजार सजे हुए होते हैं। हलवाइयों की दुकानों पर मिठाइयों की पंक्तियाँ लगी रहती हैं। खील और चीनी के खिलौनों के ढेर लगे रहते हैं। लोग इस दिन पटाखे, मोमबत्ती, मिट्टी के खिलौने आदि खरीदते हैं। बाजारों में खरीदारों की भीड़ रहती है। दीपावली के दो-तीन दिन पहले से बाजार सारी रात खुले रहते हैं।

इस दिन रात्रि के समय घरों में दीये, मोमबत्ती व विजली के बल्बों की पंक्तियाँ जलाकर रोशनी की जाती है। झिलमिल करती दीप-पंक्तियाँ व बिजली के बल्बों की रोशनी को देखकर लगता है मानो आज अरावस्या की रात्रि नहीं है, वरन् महापूर्णिमा हो।

रात्रि के समय धन की देवी लक्ष्मी का पूजन किया जाता है। पूजन के उपरांत पूजा की मिठाई बाँटते हैं। अपने संबंधियों, मित्रों व पड़ोसियों में भी मिठाई के डिबे भेजे जाते हैं। ब्यापारी आज के दिन नया बहीखाता आरंभ करते हैं। इस प्रकार यह त्योहार बड़े उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

कुछ लोग इस दिन जुआ खेलते हैं, जो एक बुरी बात है। पटाखे आदि जलाने से भी कई घरों में आग लग जाती है। या कोई घायल हो जाता है, अतः हमें सभी बातों का ध्यान रखते हुए त्योहार को पवित्रता एवं सादगी से मनाना चाहिए।

52. वसंत ऋतु

पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा करने से ऋतुओं में परिवर्तन होता है। प्रकृति सदैव अपने रूप-रंग में परिवर्तन करती रहती है और परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। यही कारण है कि भारतवर्ष में पूरे वर्ष में छह खतुएँ होती हैं। सभी ॠतुएँ अपनाअपना महत्त्व रखती हैं, सभी की अपनी-अपनी शोभा होती है। किंतु वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत और ग्रीष्म में से वसंत ऋतु का विशेष महत्व है। ग्रीष्प अपने भीषण ताप से सबको तपाती है, तो वर्षा अपने ठडे-ठंडे जल से सींचकर शीतल और खाद्ययान्न से भरपूर करती है। शरद और हेमंत अपनी सर्द हवाओं से कंपन उत्पन्न करती हैं।

शिशिर पेड़-पौधों के प्त्तों को ही झटक लेती है, जबकि वसंत सर्वत्न सौंदर्य और उल्लास को बिखेर कर मानव मन को प्रसन्नता तथा मस्ती से भर देती है। वसंत ऋतु शिशिर तथा पतझड़ के बाद आती है। चैत और बैसाख के दो मास वसंत ऋतु के होते हैं। वसंत ऋतु में न अधिक गर्मी होती है न अधिक सर्दी। जलवायु बड़ी सुहावनी होती है। इस ॠतु में प्रकृति की शोभा निराली होती है। पेड़-पौधों पर नई कोंपलें आनी शुरू हो जाती हैं। फूल खिलने लगते हैं। संत्वर्त पेड़-पौधे रंग-बिंगे फूलों से लदे दिखाई देते हैं। शीतल-पंद बयार बहती है। फूलों पर रंग-बिंगी तितलियाँ मैडराती दिखाई पड़ती हैं। रस के लोभी भ्रमर भी पुष्षों पर मंडराने लगते हैं। आम के वृक्ष पर बौर आता है। कोयल की मधुर कू-कू भी इसी ऋतु में सुनाई देती है।

कहीं टेसू के पीले-नारंगी फूलों की पंक्तियाँ तो कहीं नींबू आलूबुखारे के पौधों पर सफेद फूल शोभायमान होते हैं। गुलाब, चमेली, चंपा, गेंदा आदि के फूल अपनी ओर मन को अनायास खींच लेते हैं और उनकी सुर्ंधित सुगंध तो सारे वातावरण में एक प्रकार की मस्ती भर देती है। पीली-पीली सरसों से लदे खेतों की शोभा तो देखते ही बनती है। पृथ्वी का आँचल हरियाली से भर जाता है। उसे देखकर लगता है मानो किसी ने पृथ्वी पर हरा मखमली कालीन बिछा दिया हो। सर्वत्र उमंग, आनंद, मादकता व्याप्त हो जाती है।

वसंत ऋतु उल्लास एवं मादकता का प्रतीक है। वसंत पंचमी के दिन लोग पीले वस्त्र पहनकर सामूहिक नृत्य और संगीत के द्वारा अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। यह माना जाता है कि इसी दिन बिद्या, ज्ञान की देवी सरस्वती का जन्म हुआ था। वीर हकीकत राय ने इसी दिन अपने प्राणों की आहुति दी थी। महाकवि निराला की जयंती के रूप में भी यह दिन मनाया जाता है। अल्डड़ता और मस्ती से भरपूर होली का ल्योहार भी इसी ऋतु में मनाया जाता है। होली के दिन अबीर और गुलाल के बादल उड़ते दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे रंगों से पुते नर-नारियों, बाल-वृद्धों को देखकर लगता है मानो वसंत ने अपने रंग-बिंगे रूप को उन पर चढ़ा दिया हो। वसंत ऋतु के मनोहारी सौंदर्य ने भावुक कवियों के हृदय को भी बड़ा प्रभावित किया है। प्रायः प्रत्येक प्राचीन, नवीन कवि ने वसंत ऋतु के सौंदर्य का बड़ा प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत के शब्दों में-

नव वसंत आया
कोयल ने उल्लसित कण्ठ से
अभिवादन गाया।
रंगों से भर उर को डाली
अधर पल्लवों में रत लाली,
पंखुडियों के पंख खोल स्थित,
गृह वन में छाया।

वास्तव में वसंत ऋतु ऋतुराज है। इस ऋतु में नर-नारी, पशु-पक्षी सभी प्रसन्नता से भरे दिखाई देते हैं। प्रकृति तो नववधू की तरह सजी-संवरी दिखाई देती है। यह ऋतु जीवन में नवीन इच्छाओं और उमंगों का संचार करती है।

53. वर्षा ॠतु

भारत एक विशाल देश है। इस देश में छह ऋतुएँ होती हैं। षड्कतुओं का चक्र यहाँ सदा क्रियाशील रहता है। यहाँ वर्षा ॠतु के दो मास सावन व भादों होते हैं, किंतु वर्षा आषाढ़ के मध्य से शुरू होकर आश्विन के आरम्भ तक होती रहती है। ग्रीष्म ऋतु के ताप से जब भूतल तवे-सा जलता है। गर्म पवन के थपेड़ों से फूल, पौधे, वृक्ष और लताएँ झुलस जाते हैं प्राणीमात्र गर्मी से निढाल होकर त्राहि त्राहि करने लगता है। ऐसी स्थिति में सभी आकाश की ओर दृष्टि उठाए वर्षा की कामना करते हैं। सूर्य की प्रचण्ड किरणों से दुःखी तथा प्यासी पृथ्वी का किसान बादलों की ओर दृष्टि लगाए कहता जान पड़ता है’काले मेघा पानी दे।’ प्राणी मात्र को ग्रीष्म में मुक्ति दिलाने के लिए वर्षा रानी छमा-छम करती आती है।

आकाश में उमड़ते-घुमड़ते काले-काले बादल गड़गड़ाह के द्वारा वर्षा रानी के आगमन की सूचना देते हैं। किसान का मन-मयूर नाच उठता है। वह अपने बैलों को लेकर खेतों की ओर चल देता है। खेतों में हल चलाकर बीज बो देता है, थोड़े समय में ही वर्षारानी की कृपा से खेतों में हरियाली-छा जाती है।

मोर तो काले बादलों को देखकर ही पंखं फैलाकर नाचने लगता है और पपीहा पीहू-पीहू करता हुआ आकाश में उत्साहपूर्वक उड़ान भरता है। चातक वर्षा की दो बूंद प्राप्त करने हेतु आशावादी हो जाता है। वर्षा के आते ही बादलों ने झड़ी लगाई। चारों ओर हरियाली दिखाई पड़ने लगी। छोटे-छोटे नदी-नाले जल से लबालब भर गए। तालाबों-नदियों में मेढ़कों को टर्-टर्र के स्वर से, झींगरों की झंकार से रात्रि का आनन्द बढ़ गया। काले, सफेद, मटमेले बादल तरह-तरह की आकृति धारण किए आकाश में भागते-दौड़ते अठखेलयाँ करते मनोहारी दृश्य उपस्थित कर अनायास ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। बिजनी की चमक और उसके साथ बादलों की गर्जन भयावह वातावरण का निर्माण करती है, तो भी वह आकर्षक एवं सुहावनी लगती है।

प्रकृति में परिवर्तन आता है। पृथ्वी हरियाली मखमल के रूप में बिछ जाती है। पेड़-पौधों पर फूल खिल जाते हैं, प्रकृति से ग्रीष्म की उदासी आह्लाद में परिवर्तित हो जाती है।

वर्षाकाल में फलों के राजा आम की बहार आ जाती है। इसके साथ-साथ ही खीरे, अमरूद, नाशपाती, सेब आदि भी बाजार में आ जाते हैं। जामुन के पेड़ तो काले-काले जामुनों से लद जाते हैं। अनेक प्रकार की सबियाँ बाजार में दिखाई पड़ने लगती हैं।

ऐसे सुहावने वातावरण में तीजों का त्योहार आता है। स्थान-स्थान पर झूले डल जाते हैं। नवयौवनाएँ रग-बिरंगे वस्त्रों में सजी झूला-झूलते हुए मल्हार गाकर सावन मास का स्वागत करती हैं। उनका हुदय प्रसन्नता से खिल उठत्ता है। कभी-कभी आकाश में इन्द्रधनुष अपनी निराली छटा बिखेरता है। उसके सात रंग मन को लुभाते हैं। मक्का, ज्वार बाजरे के लहलहाते खेत, आकाशः में अठखेलियाँ करते बादल, बिजली की चमक, मेघों की कड़क, इन्द्रधनुष की झलक, फूल-फलों से लदे वृक्ष, रिमझिम बरसता पानी देख कवियों के हृदय भी मचल उठते हैं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास

ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए ‘रामचरितमानस्’ में लिखा है-

वर्षाकाल मेघ नभ छाए।
गर्जत लागत परम सुहाए।
दामिनि दमक रही घन माही।
खल की प्रीति यथा विर नाहीं ।।

महाकवि कालीदास ने तो पूरा महाकाव्य ‘मेघूदत’ ही रच डाला, तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने वर्षा को र्षषा सनी कहकर सम्मानित किया है-‘वर्षा ऋतुओं की रानी।’ प्रकृति के सुकुमार क्रवि पंत ने तो अपने काव्य में ‘पावस ॠतु’ का अत्यंत सुंदर चित्रांकन किया है।

वर्षा को यद्यपि वर्षा रानी कहना उचित है, किंतु वर्षो से एक ओर जहाँ लाभ है, वहीं दूसरी ओर हानि भी है। अधिक वर्षा के कारण स्थान-स्थान पर पानी भर जाता है। जिससे यातायात ठण्प पड़ जाता है। आवागमन में कठिनाई होती है। रेल की पटरियाँ उखड़ जाती हैं। अधिक वर्षा से नदी-नाले आपे से बाहर होकर बहने लगते हैं। जिससे बाढ़ आ जाती है। निर्धन लोगों के मकान गिर जाते हैं। रोजी-रोंटी की समस्या भी उनके सामने आ जाती है। जलप्लावन से बांध टूट जाते हैं। बड़े-बड़े भवन गिर जाते हैं। लाखों-करोड़ों की हानि होती है। सैकड़ों लोगों और पशुओं को जान से हाथ धोने पड़ते हैं। वर्षा ऋतु में अनेक प्रकार के मक्खी, मच्छर और जह़रीले कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। जिनसे भयंकर रोग फैलते हैं।

कुछ भी हो वर्षा फिर भी जीवनदायिनी है। वर्षा का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। वर्षा न हो तो देश में अकाल पड़ जाता है, जिससे लाखों लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर जाते हैं। वर्षा से ही बड़ी-बड़ी नदियों, तालाबों में पानी आता है, जिसके परिणामस्वरूप हमें बिजली मिली है। जिससे उद्योग-धंधे चलते हैं। इस पानी से खेतों की सिंचाई होती है और पानी पीने के काम आता है, अतः वर्षा वास्तव में वर्षा रानी है।

54. राष्ट्र-निर्माण में नारी का योगदान

राष्ट्र-निर्माण का कार्य एक महान् कार्य है। इसमें जितना भी योगदान दिया जाए, कम ही है। राष्ट्रीय हित के लिए प्रत्येक बलिदान कम है। राष्ट्रीय उन्नति के लिए प्रत्येक पग प्रशंसा का पात्र है। राष्ट्र की सुरक्षा में ही सभी की सुरक्षा है। राष्ट्र की उन्नति में ही सभी की उन्नति है। राष्ट्रीय कार्यों के लिए जब कभी भी आवश्यकता हुई है, भारतीय नारियाँ कभी भी पीछे नहीं रही हैं। भारतीय नारियों ने प्रत्येक वह बलिदान दिया है, जो पुरुषों ने दिया है। स्वतंत्रता संग्राम में वे पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर विदेशियों को भारत-भूमि से बाहर निकालने के लिए अग्रसर थीं। बलिदान दिए और जेलों के कष्टों को सहा और स्वतंत्रता के पश्चात् राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास कार्यों में भी जी-जान से जुटी हुई हैं।

भारतीय इतिहास के पृष्ठ नारियों की गौरवमयी कीर्ति से भरे पड़े हैं। उन्हें गृहलक्ष्मी और गृहदेवियों के नाम से संबोधित किया जाता था। परिवार में उनक़ा पद प्रतिष्ठापूर्ण था और गृहस्थी का प्रत्येक निर्णय उनसे बिना पूछे नहीं किया जाता था। भारतीय नारी के रक्त में आज भी वही परम्परागत भारतीय भावनाएँ काम करती हैं। पवित्रता, उदारता, ममता और स्नेहशीलता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई है। मनु ने कहा है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।।

परतंत्रता के उस युग में जब भारत पर विदेशियों का राज्य था, देश की स्वतंत्रता का तो हरण हुआ ही, इसके साथ ही स्त्रियों की स्वतंत्रता का भी हरण हुआ। समर्पण, प्रेम और बलिदान की भावना उनके लिए ही विनाशकारी बन गई। उन्हें परदे में रहने के लिए विवश किया गया और शिक्षां का अधिकार भी उनसे छिन गया। अर्थिक रूप से पिछड़ापन, अशिक्षा, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह और दहेज-समस्याओं से ग्रस्त भारतीय नारी का अपना वह प्राचीन गौरवशाली रूप कहीं खो गया। राजा राममोहन राय, महर्षि कर्वे, दयानंद सरस्वती और महात्मा गाँधी जैसे महान् समाज-सुधारकों और विचारकों ने नारी-उत्थान के लिए प्रयास किए और नारी को घर की चारदीवारी से मुक्त स्वतंत्रता के मुक्त वातावरण में निकालकर लाए।

समानाधिकार के इस युग में विश्व की जनसंख्या का आधा भाग विकास के मार्ग पर अग्रसर है। शिक्षा के विकास के साथ-साथ उनमें आत्मविश्वास जाग्रत हो रहा है। विश्व की अनेक विवेकशील स्त्रियों ने नारियों का पथ–प्रदर्शन किया है। दैन्य, दासता और कदम का चक्र अब विकास, विज्ञान और विवेक ने काट गिराया है। आज स्त्री स्वतंत्रता का युग है। नारियाँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं। आज की नारी शिक्षा प्राप्त कर रही है। वह प्राचीन नारी की भाँति अशिक्षित जीवन व्यतीत करना नहीं चाहती। शिक्षा ने आधुनिक नारी में जागतति पैदा कर दी है, इसलिए वह सभी क्षेत्रों में आगे आई है। राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय क्षेत्रों में उसका सम्मान बढ़ा है। आज महिलाएँ कार्यालयों, कर्मशालाओं, यंत्र और वेधशालाओं में सम्मानित पदों पर हैं। पुलिस, फौज और गुप्तचरों के साहसिक पदों पर भी कार्य कर रही हैं।

श्रीमती गाँधी ने एक बार कहा था, “ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर नहीं कर सकतीं। विश्व की समस्याओं के समाधान, एकता और आपर्सी सद्भावना हैं और यह महिलाओं के सहयोग के बिना संभव नहों है। जब तक महिलाओं को समाज में उनका उचित और आदसूर्ण स्थांन नहीं मिल ज्ञाता, तब तक कोई भी देश या समाज उन्नति नहीं कर सकता। कोई भी प्रगंबि तब तक असंभव है जब तक संसार की आधी जनसंख्या का उसमें पूर्ण सहयोग न हो।

साथ ही महिलाओं को भी चाहिए कि कोई भी अधिकार तब तक पूरा नहीं है जब तक कि हम अपने कर्त्तयों का ठीक ढंग से पालन नहीं करते। यह आवश्यक नहीं है कि महिलाएँ ऊँचे पदों पर जाकर बैठें अथवा उन्हें पुरुषों के बराबर वेतन मिले। यह भी आवश्यक है कि महिलाएँ समाज सेवा और देश के नवयुवकों व बच्चों को सही मार्ग दिखाए और उन्हें उस मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा.और प्रोत्साहन दें। यदि महिलाएँ अपने कर्त्तव्यों का पालन करती रहें, तो उनके अधिकारों से उन्हें कोई वंचित नहीं कर सकता।”

प्राचीनकाल में भारतीय नारियों ने समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाया था। प्राचीन ग्रंथ आज भी मैत्रेयी, गार्गी, अरुंधति और भारती के गुणगान करते हैं। मध्य युग में नूरजहाँ, रजिया सुत्ताना और झाँसी की रानी के नाम से कौन परिचित नहीं है। आजादी की लड़ाई में कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायदू, सुचेता कृपलानी जैसी महान् नारियों ने पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर कार्य किया।

राष्ट्रोत्थान में महिलाओं का योगदान निरंतर बढ़ रहा है। भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशशों में नारियाँ अव प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों जैसे ही कार्य कर रही हैं। नारियों ने सदैव ही महान् कार्य किए हैं। हेलन किलर, मारिया मांटससरी, भंडारनायके, मैडम क्यूरी, गोल्डामायर, माग्रिट थैचर, इंदिरा गाँधी सुपरिचित नाम हैं। जापान की जुको तवाई माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने में सफल हो गई । तेरेस्कोवा ने अंतरिक्ष-यात्रा की और विजयलक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र संघ में महासभा की अध्यक्षता करके नारियों के नाम को अमर बनाया।

चाहे अंतरिक्ष की उड़ान हो या हिमालय की चोटियों पर चढ़ाई, नारियाँ किसी भी क्षेत्र में आज पीठे नहीं हैं। नृत्य, संगीत, वादूयकला, खेल-कूद, राजनीति, सिनेमा, विज्ञान अथवा प्रशासन सभी क्षेत्रों में आज नारियों ने दिखा दिया है कि वे पुरुषों से पीछे नहीं हैं। आज की नारी ने चिकित्सा, शिक्षा-विभाग, परिचारिका, विमान संचालन, इंजीनियरी के क्षेत्र में पुरुषों से श्रेष्ठ कार्य करके दिखाया है।

आज भारतीय महिलाएँ राष्ट्रिर्माण के प्रत्येक कार्य में साहस, योग्यता, निष्ठा और देशभक्ति की भावना से कार्य कर रही हैं। आज वे विदेश सेवा, विश्वविद्यालयय, संसद, विधानसभा, न्यायालय और प्रशासन में कार्यरत हैं। श्रीमती किरन बेदी पुलिस अधिकारी, प्रेम माथुर वायु सुरक्षा अधिकारी, रोशन सोढ़ी महिला घुड़सवार, आरती शाहा इंगलिश चैनल तैराक, शीला सेठ महिला न्यायाधीश, माधुरी शाह विश्वविद्यालयय अनुदान आयोग की अध्यक्षा, गीता जुत्सी, वलसम्मा, रीता सेन महान् खिलाड़ी, डॉ. पद्मावती हृदयरोग विशेषज्ञ, महादेवी वर्मा महान् साहित्यकार, ऊषा खन्ना संगीत निर्देशिका के रूप में कीर्ति स्तंभ रही हैं। साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, प्रशासन, राजनीति, उद्योग ब्यवसाय में नारियों का योगदान महान् है।

55. आधुनिक नारी एबं समाज

आजादी के बाद शिक्षा के विकास ने नारी को पुरुषों के समान बाहर निकलने एवं अपने पैरों पर खड़ा होने का सुअवसर प्रदान किया है। नारी आज घर की चारदीवारी में बंद नहीं रहना चाहती। वह स्वावलंबी होकर हर क्षेत्र में परस्पर सहभागिता के लिए तैयार है। वैज्ञानिक सोच एवं आधुनिक विचारधारा ने नारी जगत के सामने भी संभावनाओं के नए क्षितिज खोले हैं। पुराने रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ धीरे-धीरे टूट रही हैं। यदि कहीं कोई पारम्परिक वंधन है, तो अज्ञानता के कारण। वह भी धीरे-धीरे एक दिन समाप्त अवश्य होगा।

56. साहित्य समाज का दर्पण है

साहित्य और समाज में अटूट सम्बंध है। ‘साहित्य’ समाज में ही फूलता-फलता है। वह जन-जीवन के सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद, आकर्षण आशा-निराशा के ताने-बाने से जाता है। उसमें मानव-जाति की आत्मा का स्पंदन रहता है। मानव सामाजिक प्राणी है। समाज में घटित घटनाओं का व्यक्ति के मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। साहित्यकार पर पड़े इसी प्रभाव को साहित्य के माध्यम से व्यक्त करता है अतः साहित्य मानव की अनुभूतियों, भावनाओं और कलाओं का साकार रूप है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है। साहित्यकार अपने युग की समस्याओं, मान्यताओं, भावनाओं को समुचित रूप से ग्रहण कर उसे अपने साहित्य में अभिव्यक्त करता है, यही कारण है कि साहित्य को अपने युग का प्रतिनिधि कहा जाता है। बाबू गुलाबराय के शब्दों में-“कवि या लेखक अपने समय का प्रतिनिधि होता है। उसको जैसा मानसिक खाद मिल जाता है-वैसी ही उसकी कृति होती है।

वह अपने समय के वायुमंडल में घूमते हुए विचारों को मुखरित कर देता है। कवि वह बात कहता है जिसे सब लोग अनुभव करते हैं, किंतु जिसको सब लोग कह नहीं सकते। सहदययता के कारण उसकी अनुभव-शक्ति औरों से बढ़ी-चढ़ी रहती है।” साहित्य को समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता। साहित्यकार समाज का मुख और मस्तिष्क दोनों होता है, इसीलिए वह समाज से अछूता नहीं रह सकता। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उस पर सामायिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों और विचारधाराओं का प्रभाव अवश्य पड़ता है। प्रत्येक युग का साहित्य इसका प्रमाण है। हमारे पौराणिक साहित्य में व्राह्मण धर्म की जय घोषणा की गई है।

बौद्ध युग और वैण्गव युग में भी साहित्य द्ववारा साहित्यकारों ने अपने सम्प्रदाय और महत्त्व का प्रचार किया था। हिंदी साहिल्य के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करें, तो हमें ज्ञात होगा कि वीरगाथाकाल में वीरत् और भक्तिकाल में धार्मिक तथा रीतिकाल में शृंगारिक भावना का बोल-बाला मिलेगा क्योंकि समाज में जिस प्रकार की भावना का बोल-बाला होगा या जिस प्रकार का समाज होगा, उसी का प्रतिबिम्ब साहित्य में अभिव्यक्त होगा। तुलसीदास ने ‘कवितावली’ में तत्कालीन समाज में फैली बेकारी का वर्णन करते हुए लिखा है-

खेती न किसान को, मिखारी को न भीख भली,
बनिक को न बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सद्यियमान सोच बस,
कहें एक एकन सोंकहाँ जाइ, का करी ॥

इसलिए यदि कोई साहित्यकार युग समस्या की उपेक्षा कर साहित्य की सुष्टि करता है, तो वह साहित्य मिथ्या, कृत्रिम और कल्याण मात्र होगा, जिसकी सामाजिक उपादेयता नगण्य होगी। समाज में उसका अस्तित्य समाप्त हो जाएगा। साहित्य और समाज निरंतर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। दोनों में आदान-प्रदान तथा क्रिया-प्रतिक्रिया भाव चलता रहता है। इसी से सामाजिक उन्नति की आधारशिला मजबूत होती है। विश्व में अब तक हुए सभी परिवर्तनों या विप्लवों के मूल में कोई-न-कोई विचारधारा अवश्य सक्रिय रहती आई है।

इन विचारधाराओं का चित्रण साहित्य द्वारा होता है। यह हमारे ज्ञान को विस्त्तित कर हमें वर्तमान के प्रति असंतुष्ट बनाता है। जब हम अपने को दूररे की तुलना में हीन पाते हैं, तो हमारे हृदय में असंतोष की भावना उत्पन्न होती है। फ्रांस्र की प्रसिद्ध राज्य-क्कांति के मूल में रूसों तथा बाल्टेयर के क्रांतिकारी विचार क्रियाशील थे। रूस की राज्य क्रांति भी रूसी लेखकों के उग्र विचारों का ही परिणाम थी। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन में स्वाधीन राष्ट्रों की विचाराधारा से प्रभावित साहित्य ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।

विश्व में रचित अधिकांश साहित्य मानव-जीवन में सुख और शांति की भावना का संचार करता आया है। कबीर और तुलसी का साहित्य इसका जीता-जागता प्रमाण है। ‘भानस’ ने कितने हतोस्साहित, डरपोक व्यक्तियों को सांत्वना देकर कर्म क्षेत्र में उतरने के लिए प्रोत्साहन दिया है। प्रेमचंद के साहित्य ने हमारी सामाजिक और राजनीतिक चेतना को कितना प्रभावित किया था। प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक साहित्यकारों ने हमारे हृदय में हमारे गौरवमय अतीत के प्रति गौरव की भावना उत्पन्न कर हमारी हीन-भावना को जड़ से उखाड़ फेंका था। इसी तरह साहित्य ने समाज में युग-युगांतरों से सुख-शांति का संदेश दिया है।

साहित्य का प्रभाव अत्यंत गहरा और व्यापक होता है, क्योंकि वह हमारे अमूर्त और अस्पष्ट भावों को मूर्त रूप प्रदान कर, उनको परिष्कृत कर, हमें प्रभावित करता है। हमारे अपने विचार ही साहित्य में दलकर समाज का नेतृत्व करते हैं। साहित्य

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी

नारी के लिए यह उक्ति अब पूरी तरह अपनी अर्थवता खो चुकी है। अध्यापन, चिकित्सा, सलाहकार एवं सचिव के क्षेत्र में नारी अपनी सार्थक उपस्थिति तो दर्ज करा ही चुकी थी, सुरक्षा के क्षेत्र में भी आज वह अंग्रेजी भूमिका निभा रही है। पुलिस के उच्च पदों पर पहुँचने के बाद अब वह सुरक्षा सेनाओं में भी प्रवेश कर चुकी है। ड्राइवर जैसे जटिल कार्य भी वह ठीक ढंग से कर रही है। ट्रक चालक पाइलट एवं अभी-अभी दिल्ली में चलने वाली मेट्रो ट्रेन के ड्राइवर के पद पर भी चयनित होकर अपने कार्यों का सही निष्पादन कर रही है। अब वह अबला नहीं बल्कि सबला है। वैसे नारी वास्तव में कभी अबला नहीं थी। पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमों एवं निषेधों ने उसे अवश्य अबला बनाने में योगदान दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद् यदि नारी की पूर्ण स्वतंत्रता की बात की जाए तो हम यह कह सकते हैं कि जब तक नारी आर्थिक दृष्टि से गुलाम है, तब तक देश की आजादी नारी स्वतंत्रता की दृष्टि से बेमानी है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनने के लिए नारी को कामकाज़ी होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त महँगाई के इस युग में गृहस्थी रूपी गाड़ी को सही चलाने के लिए नारी एवं पुरुष दोनों को अर्थोपार्जन करना होगा। सही स्तर एवं सुचारु रूप से जीवन जीने के लिए निम्न मध्य वर्ग एवं मध्य वर्ग परिवार की महिलाओं को घर-परिवार से बाहर निकल कर नौकरी करनी ही पड़ेगी।

आज के परिवेश में उच्चमध्यवर्गीय परिवार की नारियाँ भी नौकरी-पेशा में हैं। समाज में अपनी ऊँची हैसियत की इच्छा रखने वाली ये नारियाँ केवल समय पास करने के लिए नौकरी करती हैं। नौकरी करना इनकी मजबूरी नहीं बल्कि शौक है। नौकरी से मिलने वाली राशि को ये अपनी सुख-सुविधा में व्यय करती हैं। ऐसे उच्च परिवारों की नारियाँ समय काटने के लिए नौकरी को न कर यदि सामाजिक एवं सुधार के कार्यों में लगती तो अच्छा होता। बेरोजगारी के इस युग में उन लोगों को नौकरी की ज्यादा जरूरत है, जो अभावों एवं परेशानियों में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। अच्छे पदों को हासिल करना अथवा अच्छी नौकरी पाना आधुनिकता नहीं कही जा सकती। आधुनिकता का सही अर्थ भाव विचार एवं कार्यों के सम्पादन में सोच की आधुनिकता है, चेतना की स्वतंत्रता है।

वर्तमान समाज में नौकरी पेशा महिलाओं की जिम्मेदारियाँ पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा है। जिस संस्था अथवा विभाग में वे काम कर रही है, वहौँ तो अपनी ड्यूटी पूरी करनी ही पड़ती है, काम से लौटने के बाद घर की सम्पूर्ण जिम्मेदारियों का भी निर्वहन उन्हें करना पड़ता है। खाना बनाने से लेकर छोटे बच्चों की देखभाल, घर की आंतरिक व्यवस्था की देखभाल उन्हें करनी पड़ती है। जिस घर में नारी इन दायित्वों का सही निर्वाह कर रही है, वह घर सुखी, सम्पन्न एवं विकासशील है। आधुनिक समाज ने नारी की सार्थक उपस्थिति से रुढ़िवादी परम्पराएँ व रीति-रिवाज बहुत तेजी से समाप्त हो रहे हैं। यह एक अच्छा लक्षण है। नारी जब खुद आधुनिक सोच विचार वाली होगी तो उसकी संतान व परिवार अपने आप विकसित होगा। कहा भी गया है “बालक शिक्षा पाता है, तो स्वयं शिक्षित होता है, लेकिन यदि लड़की या नारी को शिक्षित किया जाता है तो परिवार शिक्षित होता है।” आधुनिकता की इस लहर में नारी की आधुनिक सोच का अधिक योगदान है।

भौतिकता की अंधी दौड़ में नारियों को आधुनिकता एवं उच्ृृंखलता में अंतर समझना होगा। कुछ नारियों ने भूल वश पाश्चात्य अंधानुकरण के कारण उच्थृंखलता को ही आधुनिकता समझ लिया है, जो उनके ही नहीं बल्कि परिवार व समाज के पतन का कारण साबित हो रहा है। अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर कुशल शासन करना, समाजोपयोगी नए विचारों का स्वागत करना, गाड़ी, कार, जहाज चलाना, सुरक्षा तंत्र में भागीदारी करना, यह सब तो आधुनिकता कहा जा सकता है, लेकिन देर रात तक क्लबों में नाचना-गाना, सिगरेट शराब पीना, शरीर पर कम कपड़े पहनकर बाहर घूमना यह कहौँ की आधुनिकता है। यह तो स्वभाव एवं चरित्र की उत्षृंखलता है, जो नारी को पतन के रास्ते पर ले जाती है।

आधुनिक नारी को यह ध्यान देना होगा कि हर पुराने के बाद जो नया आता है, वह आधुनिक नहीं हुआ करता। जो हमारी सभ्यता एवं संस्कृति से सम्बद्ध हो, जो वैज्ञानिक सोच पर आधारित हो, जो रूढ़ियों एवं वर्जनाओं को तोड़ता हो, ऐसे विचार एवं ऐसे प्रचलन को आधुनिक कहा जा सकता है। हर नौकरी पेशा वाली महिला आधुनिक नहीं हो सकती है। हर बाहर रहने वाली महिला आधुनिक नहीं हो सकती है। यह सर्वथा ध्यान रखना चाहिए कि-चाहे नारी घर के भीतर रहे अथवा घर के बाहर नौकरी करे, आधुनिकता उसकी सोच में होनी चाहिए। जिससे घर एवं परिवार में समृद्धि बनी रहे, जिससे नारी के समान की रक्षा हो एवं उसके व्यक्तित्य में निखार आए। वह कार्य, वह व्यवहार एवं ऐसी सोच आधुनिक है और ऐसी आधुनिकता का स्वागत हर समाज में होता है।

हमें एक संस्कृति और जातीयता के सूत्र में बांधता है। वाल्मीकि, कालिदास, सूर, तुलसी के साहित्य पर हमें गर्व है। वास्तव में जिस प्रकार का हमारा साहित्य होता है, उसी प्रकार की हमारी मनोवृत्तियाँ बन जाती हैं और उन्दीं के अनुकूल हम कार्य करने लगते हैं, तथा साहित्य हमारे समाज का केवल दर्पण न रहकर, उसका नियामक और उन्नायक भी बन जाता है।

प्रत्येक जाति सम्रद्रदाय या धर्म की अपनी-अपनी मान्यताएँ और विचार होते हैं, उन्हीं के आधार पर साहित्य का निर्माण होता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक जाति का अपना रहन-सहन, रीति-रिवाज और आचार-विचार होते हैं। साहित्य के द्वारा ही ये अपनी संस्कृति की विशेषताओं को अक्षुण्ण रखने में सफल होते हैं। साहित्य और समाज में चोली-दामन का सम्बंध होने पर भी सूक्ष्म अंतर रहता है। जीवन निरंतर गतिशील रहता है। साहित्य में उसकी जीवनदायिनी और रमणीय बूँदें एकत्रित होती रहती हैं। सामाजिक जीवन तो अनेक नियमित-अनियमित, ज्ञात-अज्ञात घटनाओं का पूँजीभूत रूप है। यह सत्य है कि तत्कालीन समाज साहित्य को प्रभावित करता रहता है, परंतु साहित्यकार का सम्बंध न केवल वर्तमान से ही होता है, अपितु भूतकाल और भविष्य से भी होता है।

महान् साहित्यकार तो देश और काल की सीमा से ऊपर उठकर सार्वभौम समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके लिए सामयिक जीवन को केवल इतना ही महत्व होता है, जितना वह उनके विराट सर्वकालीन यथार्थ जीवन की कल्पना में सहायता देता है। साहित्य में मानव जीवन ही नहीं, बल्कि उन इच्छाओं का भी वर्णन रहता है, जो सम्पूर्ण जीवन में पूर्ण नहीं होती। साहित्य जीवन की इन्हीं अपूर्णताओं को पूर्ण करता है, अतः हम कह सकते हैं-साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं।

57. गिरते जीवन मूल्य और साहित्यकार की भूमिका

वर्तमान समय में सर्वत्र जीवन मूल्यों का विघटन हो रहा है। जीवन मूल्यों से आशय मनुष्य के उन गुणों एवं कर्त्तयों से है, जो देश काल निरपेक्ष होते हैं अथवा जिनका नियम शाश्वत होता है, जो किसी भी स्थान एवं किसी भी समय में पूजनीय एवं अनुकरणीय होते हैं। प्रेम, दया, परोपकार, सत्य, ईमानदारी एवं ल्याग ऐसे मानवीय गुण हैं, जिन्हें हम उदात्त मानवीय मूल्य कहते हैं। कोई भी स्थान, कोई भी समय अथवा कोई भी देश ऐसा नहीं होगा, जहाँ इन मानवीय मूल्यों को महान एवं उत्तम न माना जाता हो। वास्तव में मानवीय मूल्य ही मनुष्य.जाति को सृष्टि की सर्वोत्तम रचना कहलाने का गौरव प्रदान करते हैं।

आज के इस भौतिकवादी युग में यदि हम समाज एवं राष्ट्र की वर्तमान दशा का अवलोकन करें, तो हमें चतुर्दिक मूल्य हीनता ही दिखाई देगी। ईमानदारी, त्याग एवं सत्यवादिता को आज मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। गलत तरीके से जीवन जीने वाले आज फल-फूल रहे हैं। लगता है ईमानदारी एवं सत्य आचरण तो केवल भीरू और डरपोक लोगों के अनुपालन के लिए हैं। तुलसीदास ने लिखा है-“समरख को नहिं दोष गुसाई”।

आज जिसके पास शक्ति, सत्ता व साधन है, वह जो कुछ भी करे, उसे गलत नही कहा जाएगा। समाज आज अर्थप्रधान बनता जा रहा है, जो धनवान एवं शक्ति सम्पन्न है, समाज में उसी को महत्व दिया जा रहा है। ईमानदार, सीधे-सादे एवं गरीबों को तो कोई पूछने वाला भी नहीं है। भौतिकतावादी इस युग में मनुष्य के मूल्याकंन का दृष्टिकोण ही बदल गया है। पहले मनुष्य का आकलन उसके कर्मों से किया जाता था, लेकिन आज मनुष्य की महत्ता के पीछृ ‘धन’ आ गया है। आज वही श्रेष्ठ एवं उत्तम है, जिसके पास पूँजी एवं शक्ति है। गिरते हुए मानवीय मूल्यों की रक्षा साहित्यकार कर सकते हैं।

रचनाएँ एवं साहित्य मनुष्य की रुचियों का परिष्कार करते हैं। साहित्य सत्यम, शिवम्, सुंदरम की स्थापना करता है। उसी रचनाओं द्वारारा साहित्यकार मनुष्य के भीतर देवत्व की प्रतिष्ठा करता है। मानवीय मूल्यों की रक्षा में साहित्यकार की भूमिका आज प्रमुख है। वह अपनी रचनाओं के द्वारा जिन विचारों की अभिव्यक्ति करता है, उसका असर पाठकों के मन पर पड़ता है। मन के परिष्करण द्वारा साहित्य विचारों में भी बदलाव लाता है।

साहित्य समाज का दर्पण है। समाज में जो कुछ घटता है उसका असर साहित्य में दिखाई देता है, बल्कि समय की धड़कन साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है। साहित्यकार अपनी रचनाओं में वर्तमान से संवेदना ग्रहण कर भविष्य के लिए संदेश देता है। वह कारणों के उत्स में जाता है। हर अव्यवस्था का विरोध साहित्य में दिखाई देता है। इसी कारण साहित्यकार को त्रिकालदर्शी भी कहा जाता है। वह प्रजापति की तरह अपनी रचना में अन्याय व अनाचार का विरोध करते हुए मूल्यों का सृजन करता है।

युद्रध के द्वारा हम बलपूर्वक किसी को बंदी तो बना सकते हैं। कुरीतियों एवं अनाचारों को शाक्ति के दूवारा कुछ-समय के लिए दबा सकते हैं, लेकिन हमेशा के लिए उसका मन परिवर्तन अथवा कुरीतियों का उन्मूलन तो नहीं कर सकते, परंतु साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा लोगों के हृदय को जीतता है और यही सबसे बड़ी जीत है। वास्तय में समाज में परिवर्तन लाने की शक्ति साहित्य में छिपी होती है। घूरोप में साहित्यकारों ने धार्मिक रूढ़ियों को जड़ से उखाड़ा एवं पुर्जागरण लाने में सहयोग प्रदान किया। साहित्य ने गिरी हुई चेतनाओं को सँवारने का कार्य किया है।

प्रेमचन्द ने साहित्यकार एवं कलाकार को स्वभाव से प्रगतिशील माना है। व्यापक जनता की वाणी को साहित्य द्वारा मुखरित करने की बात कहीं है। त्याग, भक्ति, मयांदा, करुणा एवं दया से भरा भक्तिकालीन साहित्य आज भी व्यापक जनता की रुचियों का परिष्कार कर रहा है। कबीर, तुलसी, नानक एवं रविदास की व्राणी एवं उनका साहित्य आज भी मानवीय मूल्यों की रक्षा कर रहा है। प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विविदीं ने साहित्यकारों के लिए लिखा है-“साहित्यकार को मुनष्यता का उन्नायक होना चाहिए। जब तक मानव मात्र के मंगल के लिए नहीं लिखता, तंब तक वह अपने दायित्व से पलायन करता है।”

रचनाकार को स्वान्त सुखाय के लिए लेखन नहीं करना चाहिए। उसे समाज सुधार की भी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। साहित्य से ही मनुष्य का पूर्ण विकास होता है। मनुष्य को सही अर्थों में साहित्य ही इंसान बनाता है। यदि साहित्य नहीं होता तो देश और समाज की क्या स्थिति होती ? साहित्यकार हमेशा समाज के पथ प्रदर्शक रहे हैं। जीवन मूल्यों के रक्षक रहे हैं। समस्या केवल यही है कि आज साहित्य कम फड़ा जा रहा है। भागती जिंदगी में लोग मनोरंजन की ओर एवं सस्ती रचनाओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। फिर भी पुस्तकों के निरंतर प्रकाशन एवं रचनाकारों एवं साहित्यकारों के सतत प्रयल्नों से मानवीय मूल्यों का विघटन रुकेगा ऐसा विश्वास है।

58. उपभोक्तावादी संस्कृति
अथवा
उपभोक्तावाद का हमारे जीवन पर प्रभाव

आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मानव को एक से बढ़कर एक तकनीकी प्रदान की है। प्रचार माध्यम भी इसी की देन है। प्रचार माध्यम ने उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया है। आज चारों ओर उपभोक्तावाद का जोर है। देशी एवं विदेशी अनगिनत कंपनियाँ अपने-अपने उत्पाद लेकर बाजार में हैं। आपस में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगी हुई हैं। उत्पादन बढ़ाने पर अधिक से अधिक बल दिया जा रहा है। मनुष्य का चरित्र एवं सुख की परिभाषा पूरी तरह बदल गई हैं। सुखी उसी को माना जा रहा है जिसके पास आधुनिकतम साधन उपलब्ध हैं। बाजार में चारों ओर सुख-सुविधा की नए सिरे से व्याख्या करने वाली सामग्री भरी पड़ी है। मनुष्य के सामने विकट समस्या उपस्थित हो रही है कि वह क्या करे?

उच्च वर्ग तो सामर्थववान है, ये उत्पादन उनकी क्रय क्षमता की सीमा में होते हैं परन्तु सबसे अधिक प्रभावित मध्यम वर्ग हो रहा है। उसकी क्रय क्षमता इतनी नहीं है, परन्तु दूरदर्शन पर लालायित कर देने वाले विज्ञापनों को देखकर वह अपने को रोक नहीं पाता। आजकल बाजार में क्रेडिट कार्ड का प्रचलन भी जोरों, पर है। हमारी जेब में पैसा नहीं होता फिर भी हम बाजार से अपनी मन पसंद वस्तुएँ ं क्रेडिट कार्ड के माध्यम से खरीद लेते हैं परन्तु जब बिल चुकता करना पड़ता है तब पता चलता है।

अभी तक सौंदर्य-प्रसाधन की वस्तुओं की खरीददार महिलाओं को ही माना जाता था परन्तु इस दौड़ में आज पुरुष भी पीछे नहीं रहे। बाजार में ऐसे अनेक उत्पादन आ गए हैं जो केवल पुरुषों के लिए हैं। आजकल पुरुषों के लिए भी ब्यूटी पार्लर खुल गए हैं। आजकल वस्तुएँ उप्पयोग के लिए ही नहीं खरीदी जातीं बल्कि प्रदर्शन के लिए अधिक खरीदी जाती हैं। संगीत का शौक हो या न हो घर में मँहगा म्यूजिक सिस्टम होना ही चाहिए। साल में चाहे गाड़ी सो किलोमीटर भी न चले परन्तु समाज में प्रतिष्ठित दिखाई देने के लिए गाड़ी का होना जरूरी है।

जो संस्कृति आज हमारे देश में फैल रही है इसका परिणाम क्या होगा कोई नहीं जानता। विदेशी कंपनियों की निगाह में भी भारत विश्व का सबसे तेजी से उभरता हुआ बाजार है। इससे हमारा जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इसका सबसे बड़ा दुःष्पभाव हमारी सामाजिक जीवन शैली पर पड़ रहा है। हमारे समाज में अनेक वर्ग हैं। इन वर्गों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। इसका कारण समाज में एक तरह का असंतोष पनप रहा है। यह असंतोष यदि इसी प्रकार बढ़ता रहा तो एक दिन इसका परिणाम बहुत ही भयानक रूप में सामने आने की आशंका है। जैसे-जैसे दिखाये की यह संख्कृति फैलेगी हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हास होता जाएगा।

विकास के लिए जो उद्देश्य होते हैं वे पीछे छूट रहे हैं। हमारी मर्यादाएँ तार-तार हो रही हैं। नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन होता जा रहा है व्यक्ति के अंदर स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है। वह अपने पीड़ित पड़ोसी को भी देखकर आँख बंद करके निकल जाता है। परमार्थ की भावना समाप्त हो रही है। उपभोक्तावादी संस्कृति भोग को बढ़ावा दे रही है इस कारण से परिवार टूट रहे हैं। यह दौड़ समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। उपभोक्तावाद की इस संस्कृति ने हमारे जीवन को बहुत प्रभावित किया है। हमारी सामाजिक नींव पूरी तरह से हिल चुकी है। इससे हमारे समाज के लिए एक बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। आधुनिकता की दौड़ में हम अपने रीति-रिवाजों को भी भूल गए हैं। हम फिर भी आशा करते हैं कि आज का मानव उपभोक्तावाद के इस चक्रव्यूह से निकल कर अपनी संस्कृति की ओर उन्मुख होगा। हमारा सुख उसी में निहित है। हमें इस दिखावें के भ्रम जाल को तोड़ना होगा।

59. भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार

आज हमारे देश में अनेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। इन समस्याओं के बीच एक और समस्या है जो हमारे देश को दीमक की तरह चाट रही है, वह है भारतीय राजनीति में दिनोंदिन बढ़ता भ्रष्टाचार। हमारे देश में राजनीति धन एकत्र करने का शार्ट कट रास्ता है। राजनीति में प्रवेश के साथ ही नेता की किस्मत चमकनी शुरु हो जाती है। देखते ही देखते उसके पास वे सभी साधन हो जाते हैं जिनकी कल्पना कोई जीवन भर परिश्रम करके भी नहीं कर सकता। दो चार साल कोई मंत्री रह जाए तो हजारों करोड़ की उसकी सम्पत्ति हो जाती है। राजनीति के भ्रष्ट होने का प्रभाव पूरे शासन तंत्र पर पड़ता है। इनको देखकर अधिकारी एवं कर्मचारी भी इसी राह पर चल पड़ते हैं। भ्रष्टाचार के कारण आज लोग राजनेताओं को हेय दृष्टि से देखते हैं। उन्के प्रति आम लोगों के हृदय में कोई सम्मान नहीं है। यदि कहीं ऐसा कुछ दिखाई देता भी है तो वह भय या स्वार्थ के कारण है। हैंगरे देश के लिए यह स्थिति चिंता का विषय है।

भ्रष्टाचार भारतीय राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है। राजनीति में सुचिता की बात अब बेईमानी हो गई है। मनुष्य ‘की इच्छाएँ इस सीमा तक बढ़ गई हैं कि उनका अंत कहीं नज़र ही नहीं आता। करोड़ों की सम्पत्ति इकट्ठा करने के बाद अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करने में लग जाता है। उसको यह पता नहीं कि मनुष्य के जीवन और राजनीति में सुचिता का क्या महत्व है। क्या अब हमारी राजनीति में कोई लाल बहादुर जैसा पैदा नहीं होगा? क्या हमें इन भ्रष्ट आचरण वाले राजनेताओं के भरोसे ही देश को विकास के रास्ते पर ले जाना होगा? यह सम्भव दिखाई नहीं देता। राजनीति में यदि सिद्धान्त, विचारधारा और संगठन के बजाय धन ही प्रभावी होता जाएगा तो पार्ीी के लिए अपनी पूरी निष्ठा से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जाएगा।

ऐसा होने पर सार्वजनिक जीवन में अं्छे मूल्यों की स्थापना कैसे हो पाएगी। आजकल राजनीति में सादगी, तप, त्याग, निष्ठा एवं पार्टीं के कार्यक्रम में आस्था आदि वातें और गाँधीवादी शैली मानो गौण हो गई हैं। पार्टी में जो व्यक्ति जितना अधिक धन देता है उसे उसी के अनुसार पद दिया जाता है। पार्टी के टिकट मोटी-मोटी रकम के बदले बेचे जाते हैं। पार्टियों में जब दल-बदल होता है जो एक-एक सांसद और विधयक करोड़ों-करोड़ों रुपये में खरीदा जाता है। जब बात यहाँ तक हो तो फिर राजनीति को भ्रष्टाचार से कैसे छुटकारा मिल सकता है ?

इस निराशा के वातावरण में भी हमें आशा की किरण दिखाई देती है। आज हमारे देश में जहाँ प्रष्ट नेताओं की बहुत बड़ी पंक्ति हैं वहीं, आज हमारे देश के प्रधानमंत्री निहायत ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति हैं। वहीं हमारे देश के महामहिम राष्प्रपति जिनका एक ही संपना है भारत को विकसित राष्ट्र बनाना। क्या हमारे नेतागण इन महापुरुषों से कोई सबक नहीं ले सकते? ऐसी स्थिति मै क्या किया जाए। हमें भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई अनेक मोचों पर लड़नी है। भ्रष्टाचारी की हमें सरेआम निंदा करनी चाहिए और ईमानदार व्यक्ति को सम्मानित करना चाहिए। छात्रों का पाठ्यक््रम ऐसा हो जिससे उनके मन में ईमानदारी के बीज़ बहुत गहराई तक बैठ जाएँ।

देश को सुधारना है, राजनीति से भ्रष्टाचार को मिटाना है तो हमें अपने चरित्र में सुचिता लाने के साथ-साथ अपनी आने वाली पीढ़ी को ईमानदारी, परिश्रम, कर्त्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ाना होगा। यह काम शुरु हो चुका है। हमारे महामहिम राष्ट्रपति जहाँ भी जाते हैं, वे बच्चों को ईमानदारी व परिश्रम की सीख अवश्य देते हैं। यदि हम भी संत्याचरण की ओर उन्मुख हो जाएं तो वह दिन दूर नहीं जब हम गर्व से सिर उठाकर अपने राजनेताओं की प्रशंसा कर सकेंगे।

60. यदि में शिक्षा मंत्री होता

शिक्षा के क्षेत्र में भारतवर्ष सदा से अग्रणी रहा है परन्तु कुछ दिनों से हमारे देश में शिक्षा की सबसे अधिक दुर्गति हो रही है। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोष-्युक्त है। शिक्षा के इन दोषों से सभी लोग परिचित हैं।

एक विद्यार्थी होने के कारण मैंने वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अनेक दोषों को निकट से जाना है। शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने का कार्य सरकार का है। बिना सरकारी हस्तक्षेप के इसे ठीक नहीं किया जा सकता। मेंने अपने मन में ठानी है कि मैं भविष्य में राजनीति में प्रवेश करूँगा और अपनी पार्ीी के सत्ता में आने पर शिक्षा मंत्री बनूँगा। शिक्षा मंत्री बन कर में कुष सुधार करना चाहूँगा।

मेरा सबसे पहला कार्य होगा वर्तमान परीक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करना। वर्तमान प्रणाली विद्ययार्थी का सही मूल्यांकन नहीं कर पाती। छात्रों में सीखने के बजाय रटने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। मैं पेपर आउट होने जैसी समस्या का निराकरण अवश्य करूँगा। इस वर्ष देखने में आया है कि चंद लोग अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए पेपर आउट कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पेपर कैंसिल करना पड़ता है, जिसका खामियाजा सभी छात्रों को भुगतना पड़ता है। में ऐसी व्यवस्था कराऊँगा जिससे इस प्रकार की घटना न घटे। इस प्रकार के निंदनीय कार्य करने वालों के लिए न्यायालय द्ववारा सख्त सजा का प्रावधान कराने का प्रयास करूँगा। ‘मैं परीक्षा प्रणाली को बहुवैकल्पिक बनाने का प्रयास करूँगा’ जिससे छात्र का सही मूल्यांकन हो सके।

मेरा दूसरा प्रयास होगा कि शिक्षा छात्रों के लिए रोजगारोन्मुखी बने। क्योंकि हमारे देश में छात्रों को इस तरह के विषय पढ़ाए जाते हैं जिसका उसके भावी जीवन में कोई उपयोग नहीं होता। पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को शामिल किया जाएगा जो छात्रों के लिए कल्याणकारी हों।

में शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का भरसक प्रयास करूँगा। इसके लिए मैं शिक्षा को नि:शुल्क तथा अनिवार्य बना दूँग।। सभी बालक व बालिकाओं को पढ़ाने की व्यवस्था की जाएगी।

मैं शिक्षा का माध्यम मातुभाषा को ही बनाऊँगा क्योंकि छत्र अपनी भाषा में: कही गई बात को जल्दी सीखता है। बच्चा अपनी मातुभाषा में ही अपने विचारों को अच्छी प्रकार व्यक्त कर सकता है।

शिक्षा में सुधार के लिए योग्य शिक्षकों का होना अनिवार्य है। शिक्षकों के चुनाव के लिए उनकी अध्यापन के प्रति रुचि पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। भौतिकवाद का असर शिक्षा पर भी पड़ा है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ट्यूशन आदि कार्य करता है। इससे उसकी ऊर्जा ट्यूशन में खर्च हो जाती है, वह छात्रों को विद्यालय में उतना ज्ञान नहीं दे पाता जितना देना चाहिए। अतः मैं ऐसी व्यवस्था करूँगा जिससे शिक्षक की आर्थिक स्थिति में सुधार हो और वह अपना पूरा ध्यान अपने छात्रों के सवांगीण विकास की ओर लगाए। मैं समय-समय पर अध्यापकों के लिए भी ‘एप्टिट्यूट टैस्ट’ की व्यवस्था करूँगा। जिससे अध्यापकों में अपने विषय के प्रति रुचि बनी रहे।

मैं पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा को अवश्य शामिल करूँगा क्योंकि आज हमारे नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। यदि ऐसे ही चलता रहा तो भारत को भविष्य में अनेक विकट समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। देश के भविष्य का निर्माण हमारे विद्यालयों में ही होता है। अतः छात्रों को ऐसी शिक्षा दी जाएगी जिससे उनका चरित्र निर्माण हो सके। अच्छा चरित्र ही देश की मजबूती का आधार होता है।

मैं यह भी चाहूँगा कि हमरे देश की शिक्षा केंद्र सरकार के अधीन रहे तथा पूरे देश में एक जैसा पाठ्यक्रम व एक जैसी परीक्षा-प्रणाली रहे। एक छात्र कहीं भी शिक्षा ग्रहण करे जब वह किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठे या किसी अन्य विद्ययालय या कॉलेज में जांकर प्रवेश ले तो उसके सामने पाठ्यक्रम की कोई समस्या न आए।

अंत में में यह चाहूँगा कि हमारी शिक्षा प्रणाली बहुंउद्देशीय बने। जो छात्र को चरित्र-निर्माण करने के साथ-साथ उसके लिए रोजगार के अवसर भी प्रदान करे। छात्रों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रम प्रारम्भ किए जाएँ। शिक्षा में एक साथ इतने सुधार करना आसान कार्य नहीं है परन्तु दृढ़-निश्चय के साथ यदि व्यक्ति कुछ करने की ठान लेता है तो ऐसा क्या कार्य है जो संभव नहीं हो सकता। स्वतंत्रता प्राप्ति के पचास वर्षों के बाद भी हमारी शिक्षा प्रणाली उपेक्षित है। इसमें वांछित सुधार नहीं हो पाए हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि भविष्य में मुझे कभी शिक्षा-मंत्री बनने का अवसर मिला तो मैं शिक्षा में परिवर्तन करके इसे सर्वसुलभ व उपयोगी बनाने का भरसक प्रयंल्ल करूँगा।

61. इंटरनेट युग में परम्परागत शिक्षकों की प्रासंगिकता

आज का युग इंटरनेट का युग है। इंटरनेट ने हमारे जीवन में अभूतपूर्व क्रांति ला दी है। आज जीवन के अधिकतस क्षेत्रों में इंटरनेट का बोल-बाला है। रेल का टिकट बुक कराना हो या हवाई जहाज का, इंटरनेट से आप घर बैठे अपनी सीट रिजर्व करा सकते हैं। इंटरनेट ने जिस संचार क्रांति को जन्म दिया है उसकी उपयोगिता किसी से छिपी हुई नहीं है।

शिक्षा के क्षेत्र में तो इंटरनेट ने क्रांति ही ला दी है। सरकारी विद्यालयों में प्रवेश लेना हो या विद्यालय छोड़ने का प्रमाण पत्र लेना हो बिना इंटरनेट के न आपका प्रवेश होगा न आपको विद्यालय छोड़ने का प्रमाण-पत्र मिलेगा। आजकल बड़े-बड़े विद्यालयों में इंटरनेट के माध्यम से पढ़ाया जा रहा है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि छात्रों को भारी-भारी बस्तों से निजात मिल गई। इंटरनेट पर ही छात्रों को गृह-कार्य उपलब्ध रहता है। इंटरनेट चाहे हमें कितनी ही सुविधाएँ प्रदान क्यों न करे; लेकिन परम्परागत शिक्षण का स्थान वह कभी नहीं ले सकता। परम्परागत शिक्षक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं; जितने वे कल थे। आने वाले समय में भी शिक्षकों की प्रासंमिकता कम नहीं होगी। इंटरनेट हमें नई से नई शिक्षण तकनीक के बारे में तो बता सकता है; परन्तु वह छात्रों को संस्कारित तो नहीं कर सकता। हमारा शिक्षक वर्ग छात्रों में नए-नए संस्कार भरता है। वह हम्मरे छात्रों के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए उनकी भावनाओं को नज़दीक से समझता है। क्या यह सब इंटरनेट के माध्यम से हो सकता है ? कभी नहीं। शिक्षक के बारे में कबीरदास जी ने कहा है-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥

छात्र के लिए उसके चरित्र का निर्माण होना शिक्षा की पहली जरुरत होती है। चरित्र-निर्माण का कार्य शिक्षक ही कर सकता है। हमारा चरित्र ही हमें महान बनाता है और यदि हम दुश्चरित्र हो जाएं तो हमें पग-पग पर अपमानित होना पड़ता है। हमको सदाचार की शिक्षा हमारे शिक्षक ही दे सकते हैं, इंटरनेट नहीं। हमारे अंदर साहस, नैतिक गुण एवं अन्य गुणों का विकास तभी होगा जब हम अच्छे शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करेंगे। इंटरनेट शिक्षक की तरह छात्रों से सीधा संवाद स्थापित नहीं कर सकता और न छात्रों को स्तरानुकूल शिक्षा दे सकता है।

शिक्षक हमारे लिए कहीं माता-पिता के समान हैं तो कहीं बड़े भाई-बहिन के समान, हमारा मार्ग दर्शन करता है। शिक्षक के सामने सभी छात्र एक समान बुद्धि वाले नहीं होते। शिक्षक उनको उनकी ग्रहण शक्ति के अनुसार शिक्षित करता है। शिक्षक हमारी सीखने की क्षमताओं का विकास करता है। शिक्षक हमें भावी जीवन के लिए तैयार करता है। छात्र और शिक्षक का संबंध भावात्मक होता है। शिक्षक अपने छात्र को अपने पुत्र से भी बढ़कर स्नेह करता है। शिक्षक अपने छात्र में वे सभी गुण और क्षमताएँ देखना चाहता है; जो उसमें नहीं हैं। अच्छे शिष्य के लिए रामकृष्ग परमहंस को कितना तप करना पड़ा; तब जाकर विवेकानंद जैसा शिष्य मिल पाया। क्या इंटरनेट विवेकानंद, दयानंद या अब्दुल कलाम जैसे महापुरुष पैदा कर सकता है? कभी नहीं। विवेकानंद, दयानंद और अब्दुल कलाम जैसी विभूतियों को पैदा करने के लिए तो, रामकृष्ण परमहंस, गुरु विरजानंद और सुब्रहमण्य अय्यर जैसे शिक्षकों की आवश्यकता है। इंटरनेट शिक्षक का स्थान कभी नहीं ले सकता।

11th Class Hindi Book Antra Questions and Answers