CBSE Class 11 Hindi Elective रचना जनसंचार माध्यम और लेखन

CBSE Class 11 Hindi Elective Rachana जनसंचार माध्यम और लेखन

प्रश्न 1.
जनसंचार क्या है ? जनसंचार की परिभाषा लिखते हुए जनसंचार के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
संचार का अर्थ एवं परिभाषा-‘संचार’ शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-चलना या एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। आपने विज्ञान में ताप संचार के बारे में पढ़ा होग़ा कि कैसे गरमी एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुँचती है। इसी तरह टेलीफोन के तार या बेतार के जरिये मौखिक या लिखित सदेश को एक जगह से दूसरी जगह भेजने को भी संचार ही कहा जाता है। लेकिन हम यहाँ जिस संचार की बात कर रहे हैं, उससे हमारा तात्पर्य दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सूचनाओं, विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान है। मशहूर संचारशास्त्री विल्बर श्रैम के अनुसार संचार अनुभवों की साझेदारी है।

दरअसल, एक-दूसरे से संचार करते हुए हम अपने अनुभवों को ही एक-दूसरे से बाँटते हैं। लेकिन संचार सिर्फ दो व्यक्तियों तक सीमित परिघटना नहीं है। संचार के तहत सिर्फ दो या उससे अधिक व्यक्तियों में ही नहीं, हज़ारों-लाखों लोगों के बीच होने वाले जनसंचार तक को शामिल किया जाता है। इस प्रकार सूचनाओं, विचारों और भावनाओं को लिखित, मौखिक या दृश्य-श्रव्य माध्यमों के ज़रिये सफलतापूर्वक एक जगह से दूसरी जगह पहुँचना ही संचार है और इस प्रक्रिया को अंजाम देने में मदद करने वाले तरीके संचार माध्यम कहलाते हैं।

संचार एक प्रक्रिया है। एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया जिसमें सूचना देने और पाने वाले की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। दोनों की सक्रिय भागीदारी से ही यह प्रक्रिया पूरी होती है। अगर दोनों में से कोई संचार के लिए अनिच्छुक है तो संचार-प्रक्रिया का आगे बढ़ना मुश्किल होता है। इस अर्थ में संचार अंतरक्रियात्मक (इंटरएक्टिव) प्रक्रिया है।

संचार का महत्व-संचार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। मनुष्य जब तक जीवित रहता है संचार प्रक्रिया चलती ही रहती हैं। यह अविरल प्रक्रिया है। एक अबोध शिशु भी रोकर अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है वह भी संचार का ही एक हिस्सा है। संचार मृत्यु पर्यन्त चलता रहता है। हर जीव संचार करते हैं परन्तु मनुष्य की संचार करने की प्रक्रिया और कौशल पशुओं से कहीं बेहतर है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर उसको संचार प्रक्रिया से निरंतर गुजरना पड़ता है।

परिवार और समाज में एक व्यक्ति के रूप में हम अन्य लोगों से संचार के ज़रिये ही संबंध स्थापित करते हैं और रोज़मर्रा की ज़रूतें पूरी करते हैं। संचार ही हमें एक-दूसरे से जोड़ता है। गीर से देखिए तो सभ्यता के विकास की कहानी संचार और उसके साधनों के विकास की कहानी है। मनुष्य ने चाहे भाषा का विकास किया हो या लिपि का या फिर छपाई का, इसके पोछे मूल इच्छा संदेशों के आदान-प्रदान की ही थी। दरअसल, संदेशें के आदान-प्रदान में लगने वाले समय और दूरी को पाटने के लिए ही मनुष्य ने संचार के माध्यमों की खोज की।

आज हम जिस संचार क्रांति की बात करते हैं, आखिर वह क्या है? संचार और जनसंचार के विभिन्न माध्यमों-टेलीफ़ोन, इंटरनेट, फ़ैक्स, समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा आदि के ज़रिये मनुष्य संदेशों के आदान-प्रदान में एक-दूसरे के बीच की दूरी और समय को लगातार कम से कम करने की कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि आज संचार माध्यमों के विकास के साथ न सिर्फ़ भौगोलिक दूरियाँ कम हो रही हैं बल्कि सांस्कृतिक और मानसिक रूप से भी हम एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं। शायद यही कारण है कि कुछ लोग मानते हैं कि आज दुनिया एक गाँव में बदल गई है।

दुनिया के किसी भी कोने में कोई घटना हो, जनसंचार माध्यमों के ज़रिये कुछ ही मिनटों में हमें खबर मिल जाती है। अगर वहाँ किसी टेलीविज़न समाचार चैनल का संवाददाता मौजूद हो तो हमें वहाँ की तसवीरें भी तुरंत देखने को मिल जाती हैं। टेलीविज़न के परदे पर हम दुनियाभर के अलग-अलग क्षेत्रों में घट रही घटनाओं को सीधे प्रसारण के ज़रिये ठीक उसी समय देख सकते हैं। आप क्रिकेट मैच देखने स्टेडियम भले न जाएँ लेकिन आप घर बैठे उस मैच का सीधा प्रसारण (लाइव) देख सकते हैं।

सच पूछिए तो आज संचार और जनसंचार के माध्यम हमारी अनिवार्य आवश्यकता बन गए हैं। हमारे रोज़मर्रा के जीवन में उनकी बहुत अहम भूमिका हो गई है। उनके बिना हम आज आधुनिक जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे हमारे लिए न सिर्फ़ सूचना के माध्यम हैं बल्कि वे हमें जागरूक बनाने और हमारा मनोरंजन करने में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। प्रश्न 2. संचार के कौन-कौन से प्रमुख तत्त्व होते हैं उनका उल्लेख कीजिए। उत्तर-संचार एक प्रक्रिया होती है इस प्रक्रिया में कई चरण या तत्व शामिल होते हैं। संचार के कुछ प्रमुख तत्त्व इस प्रकार है : (क) स्रोत या संचारक; (ख) कूटीकृत या एनकोडिंग; (ग) संदेश; (घ) माध्यम; (ङ) प्राप्तकर्ता; (च) फीड बैक।

(क) स्रोत या संचारक – संचार प्रक्रिया की शुरुआत स्रोत या संचारक से होती है। जब स्रोत या संचारक एक उद्देश्य के साथ अपने किसी विचार, संदेश या भावना को किसी और तक पहुँचाना चाहता है तो संचार-प्रक्रिया की शुरुआत होती है। जैसे आप स्वयं को स्रोत या संचारक मान लें। आपको किताब चाहिए लेकिन इसके लिए आपको अपनी कक्षा के एक मित्र से आग्रह करना पड़ेगा। इस तरह जैसे ही आप किताब माँगने की सोचते हैं, संचार की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ज़ाहिर है कि किताब माँगने के लिए आप अपने मित्र से बातचीत करेंगे या उसे लिखकर संदेश भेजेंगे। बातचीत या संदेश भेजने के लिए आप भाषा का सहारा लेते हैं।

(ख) कूटीकृत या एनकोडिंग – भाषा संचार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। हम अपनी भाषा में अपने संदेश को कूटीकृत करते हैं। सफल संचार के लिए आवश्यक है कि जिसके पास हम संदेश भेज रहे हैं वह भी उस भाषा यानी कोड से परिचित है। सफल संचार के लिए संचारक का भाषा पर पूरा अधिकार होना आवश्यक है।

(ग) संदेश-संचार – प्रक्रिया में संदेश का बहुत अधिक महत्त्व है। किसी भी संचारक का सबसे प्रमुख उद्देश्य अपने संदेश को उसी अर्थ के साथ प्राप्तकर्ता तक पहुँचाना है। इसलिए सफल संचार के लिए ज़रूरी है कि संचारक अपने संदेश को लेकर खुद पूरी तरह से स्पष्ट हो। संदेश जितना ही स्पष्ट और सीधा होगा, संदेश के प्राप्तकर्ता को उसे समझना उतना ही आसान होगा।

(घ) माध्यम – संचार प्रक्रिया में माध्यम का बहुत महत्त्व है। हम जो भी संदेश भेजते हैं उसके लिए किसी न किसी माध्यम का होना आवश्यक है तभी संचार प्रक्रिया आगे बढ़ती है। संचार के अनेक माध्यम हो सकते हैं जैसे किसी को आवाज लगाकर कुछ कहना। स्पर्श या छूना तथा खाने की खुशबू से पता चल जाना कि क्या बना है। यह भी एक माध्यम है वैसे टेलीविज़न, टेलीफोन, रेडियो, समाचार-पत्र, इंटरनेट और फिल्म आदि विभिन्न माध्यमों के द्वारा संदेश का संचार किया जाता है।

(ङ) फीड बैक-संचार – प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की भी अहम भूमिका होती है, क्योंकि वही संदेश का आखिरी लक्ष्य होता है। प्र. उकर्ता कोई भी हो सकता है। वह कोई एक व्यक्ति हो सकता है, एक समूह हो सकता है, या कोई संस्था अथवा एक विशम्ल जनसमूह भी हो सकता है। प्राप्तकर्ता को जब संदेश मिलता है तो वह उसके मुताबिक अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह प्रतिक्रिया सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती है। यानी आपका मित्र कह सकता है कि वह किताब देगा या नहीं। संचार-प्रक्रिया में प्राप्तकर्ता की इस प्रतिक्रिया को फ़ीडबैक कहते हैं। संचार-प्रक्रिया की सफलता में फ़ीडबैक की अहम भूमिका होती है। फ़ीडबैक से ही पंता चलता है कि संचार-प्रक्रिया में कहीं कोई बाधा तो नहीं आ रही है। इसके अलावा फीडबैक से यह भी पता चलता है कि संचारक ने जिस अर्थ के साथ संदेश भेजा था वह उसी अर्थ में प्राप्तकर्ता को मिला है या नहीं ? इस फ़ीडबैक के अनुसार ही संचारक अपने संदेश में सुधार करता है और इस तरह संचार की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।

शोर-संचार प्रक्रिया में बाधक तत्व होता है। यदि शोर हो रहा है तो हम सफलतापूर्वक संचार नहीं कर सकते हैं। अतः संचार प्रक्रिया से शोर को हटाना आवश्यक है।

प्रश्न 3.
संचार के कौन-कौन से प्रकार होते हैं, उनका उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संचार के अनेक प्रकार होते हैं जैसे सांकेतिक संचार, मौखिक संचार व अमौखिक संचार, अंतर वैयक्तिक संचार, समूह संचार और जनसंचार आदि।
(क) सांकेतिक संचार व मौखिक, अमौखिक संचार – जब हम अपने किसी मित्र को इशारा करके बुलाते हैं या कुछ बताते हैं तो, यह सांकेतिक संचार है, इसी प्रकार हाथ जोड़कर प्रणाम करना मौखिक संचार के साथ-साथ अमौखिक संचार भी है। मौखिक संचार की प्रक्रिया में अमौखिक संचार काफी मदद करता है। हमारी महत्त्वपूर्ण भावनाएँ जैसे खुशी, दुःख, प्रेम, भय अमौखिक संचार के द्वारा ही व्यक्त होती हैं।

(ख) अंतःवैयक्तिक व अंतर वैयक्तिक संचार – जब हम अकेले में अपने आप से ही बातें करते रहते कैं स्वयं ही प्रश्न करते हैं और स्वयं ही उत्तर भी देते रहते हैं। इस प्रक्रिया में संचारक और प्राप्तकर्त्ता एक ही व्यक्ति होता है। इस प्रकार के संचार को अंतः वैयक्तिक संचार कहते हैं। यह संचार का बुनियादी रूप है क्योंकि संचार की शुरुआत यहीं से होती है। पूजा प्रार्थना आदि के समय अंतः वैयक्तिक संचार का ही प्रयोग होता है। लेकिन जब दो व्यक्ति आपस में और आमने-सामने संचार करते हैं तो इसे अंतरवैयक्तिंक (इंटरपर्सनल) संचार कहते हैं। इस संचार में फ़ीडबैक तत्काल प्राप्त होता है। अंतरैैयक्तिक संचार की मदद से ही हम आपसी संबंध विकसित करते हैं और अपनी रोज़मर्रा की जरूरतें पूरी करते हैं। संचार का यह रूप पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की बुनियाद है। अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता के लिए हमारा अंतरवैयक्तिक संचार का कौशल उन्नत और प्रभावी होना चाहिए। इस कौशल की ज़रूरत हमें कदम-कदम पर पड़ती है। नौकरी और दाखिले के लिए होने वाले इंटरव्यू में आपके इसी कौशल की परख होती है।

(ग) समूह संचार – इस संचार व्यवस्था में एक समूह आपस में विचार-विमर्श या चर्चा करता है। जैसे आपकी कक्षा समूह संचार का एक अच्छा उदाहरण है। इस संचार में हम जो कुछ भी कहते हैं, वह किसी एक या दो व्यक्ति के लिए न होकर पूरे समूह के लिए होता है। समूह संचार का उपयोग समाज और देश के सामने उपस्थित समस्याओं को बातचीत और बहस-मुबाहिसे के ज़रिये हल करने के लिए होता है। संसद में जब विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती है तो यह भी समूह संचार का ही एक उदाहरण है। इसी तरह गाँव की पंचायत या किसी समिति की बैठक भी समूह संचार का उदाहरण है, जहाँ गाँव के लोग या समिति के सदस्य आपस में चर्चा कर किसी निर्णय तक पहुँचते हैं।

(घ) जनसंचार – संचार का सबसे महत्त्वपूर्ण और आखिरी प्रकार है-जनसंचार (मास कम्युनिकेशन)। जब हम व्यक्तियों के समूह के साथ प्रत्यक्ष संवाद की बजाय किसी तकनीकी या यांत्रिक माध्यम के ज़रिये समाज के एक विशाल वर्ग से संवाद कायम करने की कोशिश करते हैं तो इसे जनसंचार कहते हैं। इसमें एक संदेश को यांत्रिक माध्यम के ज़रिये बहुगुणित किया जाता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसके लिए हमें किसी उपकरण या माध्यम की मदद लेनी पड़ती है-मसलन : अखबार, रेडियो, टी.वी., सिनेमा या इंटरनेट। अखबार में प्रकाशित होने वाले समाचार वही होते हैं लेकिन प्रेस के ज़रिये उनकी हज़ारों-लाखों प्रतियाँ प्रकाशित करके विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचाई जाती हैं।

प्रश्न 4.
जनसंचार की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए जनसंचार के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जनसंचार में फ़ीडबैक तुरंत प्राप्त नहीं होता। जनसंचार के श्रोताओं और दर्शकों का दायरा बहुत बड़ा होता है। जनसंचार के श्रोता, पाठक और दर्शक हर वर्ग के होते हैं तथा विभिन्न स्थानों से जुड़े होते हैं। जनसंचार की एक प्रमुख विशेषता यह है कि जनसंचार माध्यमों के ज़रिये प्रकाशित या प्रसारित संदेशों की प्रकृति सार्वजनिक होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अंतरवैयक्तिक या समूह संचार की तुलना में जनसंचार के संदेश सबके लिए होते हैं।

जनसंचार का संचार के अन्य रूपों से एक फ़र्क यह भी है कि इसमें संचारक और प्राप्तकर्ता के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता है। प्राप्तकर्ता यानी पाठक, श्रोता और दर्शक संचारक को उसकी सार्वजनिक भूमिका के कारण पहचानता है। संचार के अन्य रूपों की तुलना में जनसंचार के लिए एक औपचारिक संगठन की भी ज़खरत पड़ती है। औपचारिक संगठन के बिना जनसंचार माध्यमों को चलाना मुश्किल है। जैसे समाचारपत्र किसी न किसी संगठन से प्रकाशित होता हैं या रेडियो का प्रसारण किसी रेडियो संगठन की ओर से किया जाता है।

जनसंचार माध्यमों की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनमें ढेर सारे द्वारपाल (गेटकीपर) काम करते हैं। द्वारपाल वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह है जो जनंसचार मांध्यमों से प्रकाशित पर प्रसारित होने वाली सामग्री को नियंत्रित और निर्धारित करता है। किसी जनसंचार माध्यम में काम करने वाले द्वारपाल ही तय करते हैं कि वहाँ किस तरह की साम्रगी प्रकाशित या प्रसारित की जाएगी। जैसे किसी समाचारपत्र में संपादक और उसके सहायक-समाचार संपादक, सहायक संपादक, उपसंपादक आदि यह तय करते हैं कि समाचारपत्र में क्या छपेगा, कितना छपेगा और किस तरह छपेगा। इसी तरह टी.वी. और रेडियो. में भी द्वारपाल होते हैं जो उससे प्रसारित होने वाली सामग्री को निर्धारित करते हैं।

जनसंचार माध्यमों में द्वारपाल की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह उनकी ही ज़िम्मेदारी है कि वे सार्वजनिक हित, पत्रकारिता के सिद्धांतों, मूल्यों और आचार संहिता के अनुसार सामग्री को संपादित करें और उसके बाद ही उनके प्रसारण या प्रकाशन की इजाज़त दें।

जनसंचार के कार्य : जनसंचार का हमारे जीवन में खूब प्रयोग होता है। जनसंचार के अनेक कार्य हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

1. सूचना देना – जनसंचार माध्यमों का प्रमुख कार्य सूचना देना है। हमें उनके ज़रिये ही दुनियाभर से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। हमारी ज़ररतों का बड़ा हिस्सा जनसंचार माध्यमों के ज़िये ही पूरा होता है।
2. शिक्षित करना – जनसंचार माध्यम सूचनाओं के ज़रिये हमें जागरूक बनाते हैं। लोकतंत्र में जनसंचार माध्यमों की एक महत्वपूर्ण भूमिका जनता को शिक्षित करने की है। यहाँ शिक्षित करने से आशय उन्हें देश-दुनिया के हाल से परिचित कराने और उसके प्रति सजग बनाने से है।
3. मनोरंजन करना – जनसंचार माध्यम मनोरंजन के भी प्रमुख साधन हैं। सिनेमा, टी.वी., रेडियो, संगीत के टेप, वीडियो और किताबें आदि मनोंजन के प्रमुख माध्यम हैं।
4. एजेंडा तय करना – जनसंचार माध्यम सूचनाओं और विचारों के ज़रिये किसी देश और समाज का एजेंडा भी तय करते हैं। जब समाचारपत्र और समाचार चैनल किसी खास घटना या मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हैं या उन्हें व्यापक कवरेज देते हैं तो वे घटनाएँ या मुद्दे आम लोगों में चर्चा के विषय बन जाते हैं। किसी घटना या गुद्दे को चर्चा का विषय बनाकर जनसंचार माध्यम सरकार और समाज को उस पर अनुकूल प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य कर देते हैं।
5. निगरानी करना – किसी लोकतांत्रिक समाज में जनसंचार माध्यमों का एक और प्रमुख कार्य सरकार और संस्थाओं के कामकाज पर निगरानी रखना भी है। अगर सरकार कोई गलत कदम उठाती है या किसी संगठन/संस्था में कोई अनियमितता बरती जा रही है तो उसे लोगों के सामने लाने की ज़िम्मेदारी जनसंचार माध्यमों पर है।
6. विचार-विमर्श के मंच – जनसंचार माध्यमों का एक कार्य यह भी है कि वे लोकतंत्र में विभिन्न विचारों को अभिव्यक्ति का मंच उपलब्ध कराते हैं। इसके ज़रिये विभिन्न विचार लोगों के सामने पहुँचते हैं। जैसे किसी समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर किसी घटना या मुद्दे पर विभिन्न विचार रखने वाले लेखक अपनी राय व्यक्त करते हैं। इसी तरह संपादक के नाम चिड्ही स्तंभ में आम लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का मौका मिलता है। इस तरह जनसंचार माध्यम विचार-विमर्श के मंच के रूप में भी काम करते हैं।

प्रश्न 5.
भारत में जनसंचार के माध्यमों के विकास पर प्रकाश डालते हैं, प्रमुख जनसंचार माध्यमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारत में आज जनसंचार के आधुनिक माध्यम जिस रूप में मौजूद हैं, उसकी प्रेरणा भले ही पश्चिमी जनसंचार माध्यम रहे हों लेकिन हमारे देश में भी जनसंचार माध्यमों का इतिहास कम पुराना नहीं है। बड़ी सहजता के साथ इसके बीज पौराणिक काल के मिथकीय पात्रों में खोजे जा सकते हैं। देवर्षि नारद को भारत का पहला समाचार वाचक माना जाता है जो वीणा की मधुर झंकार के साथ धरती और देवलोक के बीच संवादस्सेतु थे। उन्हीं की तरह महाभारत काल में महाराज धृतराष्ट्र और रानी गांधारी को युद्ध की झलक दिखाने और उसका विवरण सुनाने के लिए जिस तरह संजय की परिकल्पना की गई है, वह एक अत्यंत समृद्ध संचार व्यवस्था की ओर इशारा करती है।

जनभावनाओं को राजदरखार तक पहुँचाने और राजा का सदेश जनता के बीच प्रसारित करने की समृद्ध व्यवस्थाओं के उदाहरण बाद में भी दिखाई पड़ते हैं। चंद्रगुप्त मीर्य, अशोक जैसे सम्राटों के शासन-काल में स्थायी महत्व के सददशों के लिए शिलालेखों और सामयिक या तात्कालिक संदेशों के लिए कच्ची स्याही या रंगों से संदेश लिखकर प्रदर्शित करने की व्यवस्था और मज़बूत हुई। तब बाकायदा रोज़नामचा लिखने के लिए कर्मचारी नियुक्त किए जाने लगे और जनता के बीच संदेश भेजने के लिए भी सही व्यवस्था की गई।

लेकिन भारतीय संचार परंपरा की खासियत यह भी रही है कि राजदरबारों के समानांतर हमारे यहाँ लोक माध्यमों की भी सुलझी व्यवस्था मौजूद रही है। इसके संकेत प्रागैतिहासिक काल से ही मिलते हैं। भीमबेटका के गुफाचित्र इसके प्रमाण हैं। यह समानांतर व्यवस्था बाद में कठुपतली और लोकनाटकों की विविध शैलियों के रूप में दिखाई पड़ती है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विविध नाट्यरूपों-कथावाचन, बाउल, सांग, रागनी, तमाशा, लावनी, नौटंकी, जात्रा, गंगा-गौरी, यक्षगान आदि का विशेष महत्त्व है। इन विधाओं के कलाकार मनोरंजन तो करते ही थे, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक संदेश पहुँचाने और जनमत निर्माण करने का काम भी करते थे।

लेकिन जनसंचार के आधुनिक माध्यमों के जो रूप आज हमारे यहाँ है, वे निश्चय ही हमें अंग्रेज़ों से मिले हैं। चाहे समाचारपत्र हों या रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, सभी माध्यम पश्चिम से ही आए। हमने शुरूआत में उन्हें उसी रूप में अपनाया लेकिन धीरे-धीरे वे हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग बनते चले गए। चाहे फिल्में हों या टीं.वी. सीरियल, एक समय के बाद वे भारतीय नाट्य परंपरा से परिचालित होने लगते हैं। इसलिए आज के जनसंचार माध्यमों का खाका भले ही पश्चिमी हो, लेकिन उनकी विषयवस्तु और रंगरूप भारतीय ही हैं। चूँकि उसकी भूमिका भी कहीं अधिक बढ़ चली है, इसलिए जहाँ वह शासक वर्ग के लिए राष्ट्र निर्माण की दिशा तय करता है, वहीं जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करता है।

प्रमुख जनसंचार माध्यम-जनसंचार माध्यमों के वर्तमान प्रचलित रूपों में प्रमुख है-समाचारपत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा और इंटरनेट। इन माध्यमों के ज़रिये जो भी सामग्री आज जनता तक पहुँच रही है, राष्ट्र के मानस का निर्माण करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

(क) समाचारपत्र-पत्रिकाएँ

जनसंचार की सबसे मज़बूत कड़ी पत्र-पत्रिकाएँ या प्रिंट मीडिया ही है। हालाँकि अपने विशाल दर्शक वर्ग और तीव्रता के कारण रेडियो और टेलीविज़न की ताकत ज़्यादा मानी जा सकती है लेकिन वाणी को शब्दों के रूप में रिकार्ड करने वाला आरंभिक माध्यम होने की वजह से प्रिंट मीडिया का महत्त्व हमेशा बना रहेगा। आज भले ही प्रिंट, रेडियो, टेलीविज़न या इंटरनेट, किसी भी माध्यम से खबरों के संचार को पत्रकारिता कहा जाता हो, लेकिन आरंभ में केवल प्रिंट माध्यमों के ज़रिये खबरों के आदान-प्रदान को ही पत्रकारिता कहा जाता था। इसके तीन पहलू हैं-पहला समाचारों को संकलित करना, दूसरा उन्हें संपादित कर छपने लायक बनाना और तीसरा पत्र या पत्रिका के रूप में छापकर पाठक तक पहुँचाना। हालाँकि तीनों ही काम आपस में गहरे जुड़े हैं लेकिन पत्रकारिता के तहत हम पहले दो कामों को ही लेते हैं क्योंकि प्रकाशन और वितरण का कार्य तकनीकी और प्रबंधकीय विभागों के अधीन होते हैं जबकि रिपोर्टिंग और संपादन के काम के लिए एक विशेष बौद्धिक और पत्रकारीय कौशल की अपेक्षा होती है।

आजादी के आंदोलन में पत्र-पत्रिकाओं का बहुत योगदान रहा है इनके कारण लोगों में जाग्रति आई। गांधी जी को हम समकालीन भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कह सकते हैं; क्योंकि आज़ादी दिलाने में उनके पत्रों ने महत्तपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ादी के पहले के प्रमुख पत्रकारों में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, प्रताप नारायण मिश्र, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी और बालमुकुंद गुप्त हैं। उस समय के महत्त्वपूर्ण अखबारों और पत्रिकाओं में ‘केसरी’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘सरस्वती’, ‘वीणा’, ‘हंस’, ‘कर्मवीर’, ‘आज’, ‘प्रताप’, ‘प्रदीप’ और ‘विशाल भारत’ आंदि प्रमुख हैं।

लेकिन जहाँ आज़ादी से पहले पत्रकारिता का लक्ष्य स्वाधीनता की प्राप्ति था, वहीं आज़ादी के बाद पत्रकारिता का लक्ष्य बदलने लगा। शुरूआती दो दशकों तक पत्रकारिता राष्ट्र-निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध दिखती थी। लेकिन उसके बाद उसका चरित्र व्यावसायिक और प्रोफेशनल होने लगा। यही कारण है कि कुछ लोग कहते हैं कि आज़ादी से पहले पत्रकारिता एक मिशन थी लेकिन आज़ादी के बाद वह एक व्यवसाय बन गई। आज़ादी के बाद अधिकतर पुरानी पत्रिकाएँ बंद हो गई और कई नए समाचारपत्रों और पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ।

आज़ादी के बाद के प्रमुख हिंदी अखबारों में ‘नवभारत टाइम्स’, ‘जनसत्ता’, ‘नई दुनिया’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘दैनिक जागरण’ और पत्रिकाओं में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ का नाम लिया जा सकता है। इनमें से कई पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं। आज़ादी के बाद के हिंदी के प्रमुख : पत्रकारों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र मांथुर, प्रभाष जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुरेन्द्र प्रताप सिंह का नाम लिया जा सकता है।

(ख) रेडियो

आज़ादी के बाद भारत में रेडियो एक बेहद ताकतवर माध्यम के रूप में विकसित हुआ। एक धर्मनिरेक्ष, लोकहितकारी राष्ट्र के जनमाध्यम के तौर पर देश के नवनिर्माण में आकाशवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सूचना और शिक्षा के अलावा देश की सामाजिक संस्कृति को उभारने और राष्ट्रीय नवनिर्माण के लिए शुरू किए गए कार्यक्रमों को एक आवाज़ देने का काम रेडियो ने किया।

आंज आकाशवाणी देश की 24 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। देश की 96 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुँच है। 1993 में एफएम (फ्रिक्ेेंसी मॉड्यूलेशन) की शुरूआत के बाद रेडियो के क्षेत्र में कई निजी कंपनियाँ भी आगे आई हैं। लेकिन अभी उन्हें समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों के प्रसारण की अनुमति नहीं है। 1997 में आकाशवाणी और दूरदर्शन को केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण से निकालकर प्रसार भारती नाम के स्वायत्तशासी निकाय को सींप दिया गया।

असल में, लंबे अर्से तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण रेडियो में आ गई जड़ता को तोड़ने की पहल 1995 में उच्चतम न्यायालय के एक फैसले ने की। इस फैसले में कहा गया कि ध्वनि तरंगों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए। एफ.एम. के दूसरे चरण के साथ देश के 90 शहरों में 350 से अधिक निजी एफएम चैनल शुरू हो रहे हैं। इसके साथ ही सामुदायिक या कम्युनिटी रेडियो केंद्रों के आने से देश में. रेडियो की नयी संस्कृति अस्तित्व में आ रही है।

रेडियो एक ध्वनि माध्यम है। इसकी ताल्कालिकता, घनिष्ठता और प्रभाव के कारण गांधी जी ने रेडियो को एक अदुभुत शक्ति कहा था। ध्वनि तरंगों के ज़रिये यह देश के कोने-कोने तक पहुँचता है। दूर-दराज़ के गाँवों में, जहाँ संचार और मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होते, वहाँ रेडियो ही एकमात्र साधन है, बाहरी दुनिया से जुड़ने का। फिर अखबार और टेलीविज़न के इलाकों में लोगों ने रेडियो क्लब बना लिए हैं। आकाशवाणी के अलावा सैकड़ों निजी एफएम स्टेशनों और बीबीसी, वॉयस ऑफ अमेरिका, डोयचे वेले (रेडियो जर्मनी), मास्को रेडियो, रेडियो पेइचिंग, रेडियो आस्ट्रेलिया जैसे कई विदेशी प्रसारण और हैम अमेच्योर रेडियो क्लबों (स्वतंत्र समूह द्वारा संचालित पंजीकृत रेडियो स्टेशन) का जाल बिछा हुआ है।

(ग) टेलीविज़न

आज टेलीविज़न जनसंचार का सबसे लोकप्रिय और ताकतवर माध्यम बन गया है। प्रिंट मीडिया के शब्द और रेडियो की ध्वनियों के साथ जब टेलीविज़न के दृश्य मिल जाते हैं तो सूचना की विश्वसनीयता कई गुना बढ़ जाती है। पश्चिमी देशों में रेडियो के विकास के साथ ही टेलीविज़न पर भी प्रयोग शुरू हो ग्गए थे। 1927 में बेल टेलीफोन लेबोरेट्रीज़ ने न्यूयॉर्क और वाशिंगटन के बीच प्रायोगिक टेलीविज़न कार्यक्रम का प्रसारण किया। 1936 तक बीबीसी ने भी अपनी टेलीविज़न सेवा शुरू कर दी थी।

भारत में टेलीविजन की शुरुआात यूनेस्को की एक शैक्षिक परियोजना के तहत 15 सितंबर, 1959 को हुई थी। इसका मकसद टेलीविज़न के ज़रिये शिक्षा और सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना था। इसके तहत दिल्ली के आसपास के गाँवों में 2 टी.वी. सेट लगाए गए जिन्हें 200 लोगों ने देखा। यह हफ़्ते में दो बार एक-एक घंटे के लिए दिखाया जाता था। लेकिन 1965 में स्वतंत्रता दिवस से भारत में विधिवत टी.वी. सेवा का आरंभ हुआ। तब रोज़ एक घंटे के लिए टी.वी. कार्यक्रम दिखाया जाने लगा। 1975 तक दिल्ली, मुंबई, श्रीनगर, अमृतसर, कोलकाता, मद्रास और लखनऊ में टी.वी. सेंटर खुल गए। लेकिन 1976 तक टी.वी. सेवा आकाशवाणी का हिस्ता थी। 1 अप्रैल 1976 से इसे अलग कर दिया गया। इसे दूरदर्शन नाम दिया गया। 1984 में इसकी रजत जयंती मनाई गई।

दूरदर्शन ने देश की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है, लेकिन लंबे समय तक सरकारी नियंत्रण में रहने के कारण इसमें ताज़गी का अभाव खटकने लगा ओर पत्रकारिता के निष्षक्ष माध्यम के तौर पर यह अपनी जगह नहीं बना पाया। अलबत्ता मनोरंजन के एक लोकप्रिय माध्यम के तौर पर इसने अपनी एक खास जगह बना ली है। टेलीविज़न का असली विस्तार तब हुआ, जब भारत में देशी निजी चैनलों की बाढ़ आने लगी। अक्टूबर, 1993 में ज़ी.टी.वी. के बीच अनुबंध हुआ। उसके बाद समाचार के क्षेत्र में भी ज़ी न्यूज़ और स्टार न्यूज़ नामक चैनल आए और सुन् 2002 में आजतक के स्वतंत्र चैनल के रूप में आने के बाद तो जैसे समाचार चैनलों की बाढ़ ही आ गई। जहाँ पहले हमारे सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण और सामाजिक उन्नयन था, वहीं इन निजी चैनलों का मकसद व्यावसायिक लाभ कमाना रह गया। इससे जहाँ टेलीविज़न समाचार को निष्षक्षता की पहचान मिली, उसमें ताज़गी आई और वह पेशेवर हुआ, वहीं एक अंधी होड़ के कारण अनेक बार पत्रकारिता के मूल्यों और उसकी नैतिकता का भी हनन हुआ। इसके बावजूद आज पूरे भारत में 200 से अधिक चैनल प्रसारित हो रहे हैं और रोज़ नए-नए चैनलों की बाढ़ आ रही है।

(घ) सिनेमा

सिनेमा के आविष्कार का श्रेय थॉमस अल्वा एडिसन को जाता है और यह 1883 में मिनेटिस्कोप की खोज के साथ जुड़ा हुआ है। सन् 1894 में फ्रांस में पहली फिल्म बनी ‘द अराइवल ऑफ ट्रेन’। सिनेमा की तकनीक में तेज़ी सें विकास हुआ और जल्दी ही यूरोप और अमेरिका में कई अच्छी फिल्में बनने लगीं। भारत में पहली मूंक फ़ल्म बनाने का श्रेय दादा साहेब फाल्के को जाता है। यह फिल्म थी 1913 में बनी-‘राजा हरिश्चंद्र’। 1931 में पहली बोलती फिल्म बनी-‘आलम आरा’। इसके बाद बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ।

सत्तर के दशक तक सिनेमा के मूल में प्रेम, फंतासी और एक कभी न हारने वाले सुपर नैचुरल हीरो की परिकल्पना रही। कहानियों में कुछ न कुछ संदेश देने की भी कोशिश हुई लेकिन बहुत ही अव्यावहारिक तरीके से। सत्तर और अस्ती के दशक में कुछ फ़िल्मकारों ने महसूस किया कि सिनेमा जैसे सशक्त संचार माध्यम का इस्तेमाल आम लोगों में चेतना फैलाने, उसे व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से जोड़ने और अन्याय के खिलाफ एक कलात्मक अभिव्यक्ति के तौर पर किया जाए। यही समानांतर सिनेमा का दौर था और इस दौरान ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘अर्धसत्य’ जैसी फिल्में बनी।

हालाँकि सत्यजित राय ने पचास के दशक में ही ‘पथेर पांचाली’ बनाकर इसकी शुरूआत कर दी थी लेकिन समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन की शक्ल ली साठ के दशक के आखिरी वर्षों और सत्तर के दशक में। यह आंदोलन अस्सी के दशक में भी जारी रहा। इस धारा में सत्यजित रांयं के अलावा श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, अदूर गोपालकृष्णन, एम.एस. सध्यू, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार शामिल हुए।

लेकिन बाज़ारवाद और व्यावसायिकता के दबाव में समानांतर या कला फ़ल्मों का दौर अस्सी के दशक में ही खत्म होने लगा। एक बार फिर लोकप्रिय मुंबइया फिल्में छाने लगीं। दरअसल, हिंदी सिनेमा पर शुरू से ही पॉपुलर या लोकप्रिय फिल्मों का दबदबा रहा है। कला फ़ल्मों को समानांतर सिनेमा इसलिए भी कहा गया क्योंकि वे अपनी अंतरवस्तु में लोकप्रिय फिल्मों के समानांतर चलती थीं। कला फिल्मों के कमज़ोर पड़ने के साथ एक बार फिर पॉपुलर या लोकप्रिय सिनेमा हावी हो गया और तकनीक कथानक पर भारी पड़ने लगी।

भारतीय सिनेमा में पारिवारिक फ़ल्मों की भी एक धारा लगातार चलती रही है। हलके-फुलके हास्य और एक आम आदमी के परिवार की खह्टी-मीठी कहानी पर बनी इन साफ-सुथरी फिल्मों को भी खूब पसंद किया गया। इस धारा के फिल्मकारों में राज कपूर, गुरुदत्त, बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी जैसे कई नाम हैं।

लेकिन अस्ती और नब्बे के दशंक में मुंबइया सिनेमा पर व्यावसायिकता का नशा इस कदर छाता गया कि फॉर्मूला फिल्में फिल्मकारों के लिए मुनाफा कमाने का सबसे बड़ा हथियार बन गईं। ऐसी फिल्मों के केंद्र में रोमांस, हिंसा, सेक्स और एक्शन को रखा जाता रहा है। कहने के लिए हर फिल्म में कोई न कोई सामाजिक संदेश देने की औपचारिकता निभाई जाती है लेकिन इनका मकसद महज पैसा कमाना है। ऐसी फिल्मों ने खासकर युवाओं के मन में बहुत गलत प्रभाव छोड़ा है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि सिनेमा जनसंचार के एक बेहतरीन और सबसे ताकतवर माध्यमों में से एक है। इसके कई और आयाम भी हैं। यह मनोरंजन के साथ-साथ समाज को बदलने का, लोगों में नयी सोच विकसित करने का और अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को सपनों की दुनिया में ले जाने का माध्यम भी है। मौजूदा समय में भारत हर साल लगभग 800 फिल्मों का निर्माण करता है और दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म निर्मात़ा देश बन गया है। यहाँ हिंदी के अलांवा अन्य क्षेत्रीय भाषा और बोली में फिल्में बनती हैं और खूब चलती हैं।

(ङ) इंटरनेट

इंटरनेट जनसंचार का सबसे नया लेकिन तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा माध्यम है। एक ऐसा माध्यम जिसमें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, किताब, सिनेमा यहाँ तक कि पुस्तकालय के सारे गुण मौजूद हैं। उसकी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है और उसकी रफत्तार का कोई जवाब नहीं है। उसमें सारे माध्यमों का समागम है। इंटरेट पर आप दुनिया के किसी भी कोने से छपनेवाले अखबार या पत्रिका में छपी सामग्री पढ़ सकते हैं। रेडियो सुन सकते हैं। सिनेमा देख सकते हैं। किताब पढ़ सकते हैं और विशव्यापी जाल के भीतर जमा करोड़ों पन्नों में से पलभर में अपने मतलब की सामग्री खोज सकते हैं।

यह एक अंतरक्रियात्मक माध्यम है यानी आप इसमें मूक दर्शक नहीं हैं। आप सवाल्-जवाब, बहस-ुुबाहिसों में भाग लेते हैं, आप चैट कर सकते हैं और मन हो तो अपना ब्लाग बनाकर पत्रकारिता की किसी बहस के सूत्रधार बन सकते हैं। इंटरनेट ने हमें मीडिया समागम यानी कन्वर्जेंस के युग में पहुँचा दिया है और संचार की नयी संभावनाएँ जगा दी हैं। हर माध्यम में कुछ गुण और कुछ अवगुण होते हैं। इंटरनेट ने जहाँ पढ़ने-लिखने वालों के लिए, शोधकर्ताओं के लिए संभावनाओं के नए कपाट खोले हैं, हमें विश्वग्राम का सदस्य बना दिया है, वहीं इसमें कुछ खामियाँ भी हैं। पहली खामी तो यही है कि उसमें लाखों अश्लील पन्ने भर दिए गए हैं जिसका बच्चों के कोमल मन पर बुऱा असर पड़ सकता है। दूसरी खामी यह है कि इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। हाल के वर्षों में इंटरनेट के दुरुपयोग की कई घटनाएँ सामने आई हैं।

प्रश्न 6.
जनसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित किया है ? जनसंचार माध्यमों से क्या-क्या संभावनाएँ और खतरे हैं ?
उत्तर :
जनसंचार माध्यमों के बिना हम आज जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। हमारी जीवनशैली पर संचार माध्यमों का ज़डरदस्त असर है। अखबार पढ़े बिना हमारी सुबह नहीं होती। जो अखबार नहीं पढ़ते, वे रोज़मर्रा की खबरों के लिए रेडियो या टी.वी. पर निर्भर रहते हैं। हमारी महानगरीय युवा पीढ़ी समाचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट का उपयोग करने लगी है। खरीद-फरोल्त के हमारे फैसलों तक पर विज्ञापनों का असर साफ देखा जा सकता है। यहाँ तक कि शादी-ब्याह के लिए भी लोगों की अखबार या इंटरनेट के मैट्रिमोनियल पर निर्भरता बढ़ने लगी है। टिकट बुक कराने और टेलीफोन का बिल जमा कराने से लेकर सूचनाओं के आदान-्रदान के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ा है। इसी तरह फुससत के क्षणों में टी.वी.सिनेमा पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों और फिल्मों के ज़रिये हम अपना मनोरंजन करते हैं।

अपनी सेहत से लेकर धर्म-अध्यात्म तक के बारे में जानकारी जनसंचार माध्यमों से मिल रही है। आप मानें या न मानें, जनसंचार माध्यम आज एक उत्पाद की तरह हमारे घरों में घुस आए हैं। वे हमारी जीवनशैली को प्रभावित कर रहे हैं और हम उन्हें चाहते हुए भी रोक नहीं सकते। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि जनसंचार माध्यमों ने हमारे जीवन को और ज़्यादा सरल, हमारी क्षमताओं को और ज़्यादा समर्थ, हमारे सामाजिक जीवन को और अधिक सक्किय बनाया है। साथ ही उन्होंने हमारे राष्ट्रीय जीवन को गतिशील और पारदर्शी बनाया है। सूचनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से लेकर लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने तक और बहस तथा विचार-विमर्श से लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़ूूत बनाने तक में जनसंचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका है।

आज राष्ट्रीय स्तर पर हमारी राजनीति और हमारी अर्थनीति तक जनसंचार माध्यमों से प्रभावित होती है। खासकर आपातकाल के बाद जनसंचार माध्यमों की ताकत लगातार बढ़ी है और राष्ट्रीय जीवन में उनका हस्तक्षेप भी बढ़ा है।। वे न सिर्फ सरकार के कामकाज की निगरानी करते हैं बल्कि सरकार के गलत फैसलों के खिलाफ आवाज़ भी उठाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर फैलते भ्रष्टाचार आदि मामलों को जनसंचार माध्यमों ने लगातार उठाया है।

जनसंचार माध्यम-संभावनाएँ और खतरे

सामाजिक विकास और आधुनिकीकरण के संदर्भ में यदि संचार के इन प्रकारों पर हम विचार करें तो इस क्षेत्र में उसकी कई संभावनाएँ स्पष्ट होंगी। संचार-साधनों को उचित दिशा देकर नए मूल्य प्रतिक्ठित कराए जा सकते हैं, समाज को परंपरा से प्रगति की ओर मोड़ा जा सकता है। उनकी सहायता से जन-मानस को आधुनिकीकरण के लक्ष्यों और कार्यक्कमों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। जनसंचार के साधन उनके सम्मुख नए जीवन का एक आकर्षक विकल्प प्रस्तुत कर उन्हें जड़ता का मार्ग छोड़ सक्रियता की राह अपनाने की प्रेरणा दे सकते हैं। जाग्रत जनमत प्रगति की अनिवार्य शर्त है और इसे तैयार करने में जनसंचार के साधनों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मनोंरंजन के साथ-साथ विकास का सदेश बड़े सार्थक ढ़ंग से जनसाधारण तक पहुँचाया जा सकता है। इन प्रभावशाली संभावनाओं के साथ संचार की सीमाओं पर ध्यान रखना भी आवश्यक है।

संचार एक अस्त्र है, उसका सदुपयोग भी हो सकता है, दुरुपयोग भी। मूल प्रश्न है-यह अस्त्र किसके हाथ में है ? क्या उनमें इन साधनों का कल्पनाशील और सार्थक उपयोग करने की कितनी क्षमता है ? दूसरे शब्दों में इन साधनों का उपयोग कौन, किस उद्देश्य से और कितनी क्षमता से कर रहा है ? कुछ हाथों में यदि संचार प्रगति का प्रेरक बन सकता है, तो दूसरे हाथ उसे परंपरा का पोषक बना सकते हैं। उनका उपयोग देश का ध्यान महत्त्वपूर्ण समस्याओं से हटाकर अर्थहीन प्रश्नों में उलझाए रखने के लिए भी किया जा सकता है। कभी-कभी संचार प्रगति का स्थान ले लेता है, वास्तविक प्रगति कम होती है। पर उसे और काल्पनिक प्रगति को संचार के साधन इतने आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि जनता शब्दों के मोहक इंद्रजाल में दिशा-प्रमिंत हो जाती है। इसके विपरीत अयोग्य संचारकर्ता आशायुक्त सदेशों को कल्पनाहीन तथा अनाकर्षक ढंग से प्रस्तुत कर उतकी हत्या कर सकते हैं। संचार वस्तुतः दुधारी अस्त्र है, जिसका उपयोग बड़ी ही सावधानी से होना चाहिए।

(प्रो. श्यामांचरण दुबे के भाषण पर आधारित पुस्तिका संचार और विकास, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नयी दिल्लीं से साभार)।

प्रश्न 7.
प्रमुख जन-संचार माध्यम कौन-कौन से हैं ? इन माध्यमों की खूबियों एवं खामियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
प्रमुख जन-संचार माध्यम प्रिंट, टी.वी,, रेडियो और इंटरनेट हैं। इन सभी माध्यमों की अपनी-अपनी विशेषताएँ तथा कमियाँ हैं। हम यह बिल्कुल भी नहीं कह सकते कि कोई एक माध्यम सबसे अच्छा है या कोई एक दूसरे से कम। कहने की जरूरत नहीं है कि अखबार में समाचार पढ़ने और रुककर उस पर सोचने में एक तरह की अलग संतुष्टि मिलती है जबकि टी.वी. पर घटनाओं की तसवीरें देखकर उसकी जीवंतता का एहसास मिलता है। इस तरह का रोमांच अखबार या इंटरनेट पर नहीं मिल सकता। इसी तरह रेडियो पर जितना उन्मुक्त होकर खबरें सुनी जाती हैं उतनी किसी और माध्यम में संभव नहीं है। इन सभी माध्यमों की खूबियों व खामियों का संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है।

(क) प्रिंट माध्यम
खूबियाँ-

  1. प्रिंट माध्यम में समाचार को स्थायित्व मिलता है। हम अपनी सुविधा से पढ़ सकते हैं।
  2. लिखित भाषा का विस्तार होता है। शब्द ज्ञान बढ़ता है।
  3. प्रिंट माध्यम चिंतन शक्ति, विचारों की अभिव्यक्ति एवं विचारों को विश्लेषित करने का सशक्त माध्यम है।

खामियाँ-

  1. समाचार-पत्र निरक्षर व्यक्तियों के लिए अनुपयोगी है।
  2. पाठकों के भाषा-ज्ञान व शैक्षिक ज्ञान का पूरा ध्यान नहीं रह पाता।
  3. पाठकों को वही सामग्री पड़नी पढ़ती है जो प्रकाशित होती है। पाठकों की रुचि का पूरा ध्यान नहीं रह पाता
  4. समाचार-पत्र अपनी निश्चित अवधि पर ही प्रकाशित होते हैं अतः प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
  5. प्रिंट माध्यम में समाचार लेख आदि में शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि स्पेस (जगह) के अनुसार ही सामग्री प्रकाशित होती है।

(ख) रेडियो

खूबियौँ –

  1. रेडियो केवल कानों से सुनने का साधन है।
  2. रेड़यो मूलतः एक रेखीय माध्यम है जहाँ शब्दों और ध्वनियों का महत्व है।
  3. रेडियो निरक्षरों के लिए सबसे उपयुक्त एवं सशक्त साधन है।

खामियौँ –

  1. एक समाचार निकल जाने पर उसको फिर से सुनने की सुविधा नहीं है।
  2. समाचार के प्रसारण का इंतजार करना पड़ता है।

(ग) टेलीविजन
खूबियौं –

  1. दृश्यों का महत्त्व होता है। यह दृश्य एवं श्रव्य साधन है।
  2. निरक्षरों के लिए उपयोगी।
  3. आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग होता है जिसको आसानी से समझा जा सकता है।

खामियाँ-

  1. टी.वी. समाचार में भाषा और शैली के स्तर पर काफी सावधानी रखनी पड़ती है।
  2. टी.वी. के लिए खबर समय बाइट का ध्यान रखा जाता है, जो वॉयस ओवर या दृश्यों का अंतराल भरने के लिए पुल का भी काम करते हैं।

(घ) इंटरनेट
खूबियाँ –

  1. इंटरनेट की सुविधा चौबीसों घंटे उपलब्ध रहती है। हम जहाँ जाते हैं वहीं उसको पाया जा सकता है।
  2. दुनिया भर की चर्चाचों व परिचर्चाओं में शामिल हुआ जा सकता है।
  3. अखबारों की पुरानी फाइलें उपलब्ध रहती हैं। यदि पहले प्रकाशित कोई समाचार देखना हो तो देख सकते हैं। समाचार-पत्र की तरह शब्द सीमा का कोई बंधन नहीं।
  4. सूचनाओं के आदान-प्रदान का सर्वोत्तम साधन है।
  5. खबरों के बैकग्राउंड तैयार करने में तत्काल सहायता मिलती है।

खामियाँ –

  1. इंटरनेट अश्लीलता, दुष्प्रचार और गंदगी फैलाने का भी जरिया बन गया है।
  2. कम्प्यूटर साक्षर व्यक्ति के लिए ही उपयोगी है निरक्षर के लिए महत्त्वहीन है।
  3. हिंदी फौंट (की-बोड) की कमी के कारण अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। फौंटों के कारण हिंदी में इसका पूरा उपयोग नहीं हो पाता।

प्रश्न 8.
प्रिंट माध्यमों (मुद्रण माध्यमों) में लेखन के लिए ध्यान में रखने योग्य किन्हीं पाँच बातों का उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मुद्रण माध्यमों में लेखन के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. मुद्रित माध्यम के लिए लेखन करने वालों को अपने पाठकों के भाषा-ज्ञान के साथ-साथ उनके शैक्षिक ज्ञान और योग्यता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2. पाठकों की जरूरतों और रुचियों का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए कि कौन-से पाठक क्या पढ़ना पसंद करते हैं जैसे कोई कहानी पसंद करता है तो कोई कविता आदि।
3. इस माध्यम के लिए लिखने वालों को समय सीमा का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि कोई पत्र साप्ताहिक तो कोई पाक्षिक या मासिक होता है। समय से पहले ही सामग्री संपादन कार्यालय में पहुँच जानी चाहिए।
4. मुद्रित माध्यमों के लिए लिखते समय जगह (स्पेस) का पूरा ध्यान रखना चाहिए। शब्द सीमा का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि पत्रिका में सीमित जगह होती है यदि उससे अधिक सामग्री होगी तो प्रकाशित करने में दिक्कत आएगी।
5. इस माध्यम के लेखक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि छपने से पहले आलेख में सभी गलतियों और अशुद्धियों को दूर कर दिया जाए क्योंकि एक बार जो गलती हो जाएगी छपने के बाद उसका कोई हल नहीं होता। भूल सुधार के लिए अगले अंक तक इंतजार करना पड़ेगा।

प्रश्न 9.
जनसंचार के माध्यमों में प्रिंट, रेडियो और टी.वी. की क्या-क्या प्रमुख विशेषताएँ और सीमाएँ हैं ? यह भी स्पष्ट कीजिए कि इन माध्यमों के समाचार लेखन में किन-किन विशिष्ट बातों का ध्यान रखा जाना अपेक्षित है ?
उत्तर :
संचार के विभिन्न माध्यमों में प्रिंट, रेडियो और टी.वी. की अपनी-अपनी विशेषताएँ और सीमाएँ हैं। इन सभी माध्यमों में समाचारों की लेखन-शैली, भाषा और प्रस्तुति में काफी अंतर है जहाँ अखबार पढ़ने के लिए है तो रेडियो सुनने के लिए, टी.वी. देखने व सुनने दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। अखबार में समाचार पढ़ने और रुककर उस पर सोचने में एक अलग तरह की संतुष्टि मिलती है। जबकि टी.वी. पर घटनाओं की तस्वीरें देखकर उसकी जीवंतता का एहसास होता है। इस तरह का रोमांच अखबार या इंटरनेट में नहीं मिल सकता। इसी प्रकार रेडियो पर खबरें सुनते हुए आप जितना उन्मुक्त होते हैं, उतना किसी और माध्यम में नहीं। ये सभी माध्यम हमारी अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं और इन सभी की हमारे दैनिक जीवन में उपयोगिता है। यही कारण है कि अलग-अलग माध्यम होने के बावजूद इनमें से कोई समाप्त नहीं हुआ न हो सकता है। सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। रेडियो श्रव्य माध्यम है इसमें सब कुछ ध्वनि, स्वर और शब्दों का खेल है। इन सब वजहों से रेडियो को श्रोताओं से संचालित माध्यम माना जाता है। रेडियो में अखबार की तरह पीछे लीटकर सुनने की सुविधा नहीं है। टेलीविजन में दृश्यों की अहमियत सबसे ज्यादा है। टी.वी. खबरों के विभिन्न चरण होते हैं।

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