CBSE Class 11 Hindi Elective अपठित बोध अपठित गद्यांश
गंभीर अध्ययन के लिए आवश्यक है कि हम कही गई और लिखी गई बात को काम से कम समय में अधिक से अधिक समझ लें। निरंतर अभ्यास से ही यह संभव है। कुछ लोग अपनी जरा-सी बात को पूरी तन्मयता से दूसरों फो सुनाने के लिए उतावले रहते हैं, परंतु दूसरों की गंभीर बात को ध्यानपूर्वक सुनने के झमेले से वचते हैं। यही कारण है कि साधारण-सी बात भी कई बार बताने पर ही इनकी समझ में आ जाती है। जब कभी इन्हें किसी बात पर तुरंत निर्णय लेना होता है, तब इनकी हड़बड़ाहट इनसे कई त्रुटियाँ भी करा देती है। सुनने की एकाग्रता की कमी इसका मुख्य कारण है। इसी प्रकार अपठित वस्तु को यदि ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए तो अर्थग्रहण होगा। सरसरी दृष्टि से कई बार पढ़ने का भी गंभीर पठन की अपेक्षा कम लाभ है। विषयवस्तु को यथाशीघ्र समझने के लिए उसके प्रत्येक शब्द, वाक्य को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए। पढ़ने के बाद उस पर विच्चार करें।
1. लेखक ने किस भाव या विचार पर बल दिया है ? उस प्रमुख भाव या विचार को समझने का प्रयास करें।
2. यदि उन पंक्तियों में कल्पना का समावेश हुआ है तो उससे कथन में किस सुंदरता का समावेश हो सका है ?
3. किस प्रमुख बिंदु के इर्द- गिर्द पूरी बात का ताना-बाना बुना गया है ?
4. कौन-सा ऐसा शब्द या वाक्य है, जो सभी पंक्तियों को समझने के लिए सहायक है ?
5. अवतरण में आई बात को हम अपने श़ब्दों में विस्तारपूर्वक या संक्षेप में किस प्रकार कह सकते हैं ?
किसी लिखित अवतरण को समझने के लिए उपर्युक्त बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
शीर्षक – जिस प्रमुख बिंदु के इर्द-गिद्द पूरी बात का ताना बन्ग बुना गया है, वह शीर्षक होगा। यह ध्यान रहे कि शीर्पक संक्षिप्त हो एवं पूरे अवतरण में आई बात का प्रतिनिधित्व करे 1
आशय – आशय का संबंध सीधे शब्दार्थ से रहता हैं। शब्दार्थ को ठीक तरह से समझकर आशय संक्षेप में बताना चाहिए। भावार्थ-भाव और विचार को स्पष्ट करके न्यूनतम शब्दों में लिखा जाना चाहिए। भावार्थ लेखन के लिए अवतरण में आए शब्दों को नहीं दोहराना चाहिए। भावार्थ सरलार्थ से हटकर होता है। स्पष्टता एवं संक्षिप्तता इसकी विशेषता है। इसे समझने के लिए अवतरण को तीन-चार बार पढ़नम चाहिए।
आशय या भावार्थ लिखते समय अपनी ओर से कोई भाव या विचार जोड़ने की आवश्यकता नहीं। अवतरण में आए भाव या विचार की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए अर्थात् दिए गए विचार से अपनी असहमति नहीं प्रकट करनी चाहिए।
कभी – कभी कल्पना के द्वारा भावों को प्रभावशाली बनाया जाता है। जहाँ इस तरह की कल्पना आई हो उसे भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए।
प्रश्न – अपठित से संबंधित जो प्रश्न पूछे जाएँ, उनका उत्तर प्रदत्त अवतरण से ही दिया जाए। उसमें उसी तरह की यो डससे अतिरिक्त किसी सूचना का समावेश न किया जाए। उत्तर लिखते समय अपनी भाषा का प्रयोग करना चाहिए न कि अवतरण में आई भाषा का।
सूक्ति – यदि अवतरण में कोई सूक्ति आई हो तो उसे स्पष्ट करना जरूरी है। ऐसी स्थिति में भावार्थ एवं आशय अपेक्षाकृत बड़े हो सकते हैं।
सारांश – ‘सारांश’ किसी भी कथन का सार तत्त्व है। यहु दिए गए अवतरण से (गद्य में) एक तिहाई होना चाहिए। काव्य में `सारांश एक तिहाई से ज्यादा हो सकता है क्योंकि कभी-कभी एक पंक्ति में ही इतना अर्थ समाह्तित होता है कि उसका सार तत्त्व भी उस पंक्ति के बराबर जितना हो।
1. पृथ्वी के तीन-चौथाई भू-क्षेत्र पर पानी है, लेकिन इसमें से 97.3 प्रतिशत में समुद्र है। केवल 2.7 प्रतिशत ही इस्तेमाल योग्य पानी है। इसमें से भी 1.74 प्रतिशत हिमनद और बर्फ के रूप में है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 6 अरब आबादी में से डेढ़ अरब को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। करीब 26 देशों में पानी की जबरदस्त किल्लत है, जहाँ करीब 30 करोड़ लोग रहते हैं। जनसंख्या के बढ़ते दबाव और जीवन स्तर में सुधार के कारण पानी की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन सीमित जल संसाधनों की वजह से 2050 तक दुनिया की दो-तिहाई आबादी के समक्ष पानी का गम्भीर संकट उत्पन्न होने की आशंका है। सिंचाई के पानी की किल्लत के कारण कृषि उपज कम होने से गरीबों को दो जून की रोटी मिलनी मुश्किल हो जाएगी। पीने तथा सफाई आदि कामों के लिए साफ पानी न मिलने से वंचित तबके का स्वास्थ्य भी खराब होगा तथा पानी के बँटवारे को लेकर टकराव और संघर्ष बढ़ेगा।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गयांश का शीर्षक बताइए।
2. पृथ्वी पर इस्तेमाल योग्य पानी कितना है ?
3. पानी के बँटवारे को लेकर टकराव और संघर्ष क्यों बढ़ेगा ?
4. स्वच्छ पेयजल की स्थिति क्या है ?
5. पानी की माँग क्यों बढ़ रही है ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा ‘जल संकट’।
2. पृथ्वी पर केवल 2.7 प्रतिशतं जल ही इस्तेमाल के योग्य है।
3. जब पानी की आपूर्ति आवश्यकता के अनुसार नहीं होगी तो लोग अपने लिए जल प्राप्त करने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाने को बाध्य हो जायेंगे। पानी की कमी से फसलों की पैदावार में भी भारी कमी आ जाएगी।
4. आज सभी के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। कुल आबादी का $25 \%$ लोग दूषित जल पी रहे हैं। 26 देशों में स्वस्थ पेयजल का भीषण संकट है।
5. जनसंख्या के बढ़ते दबाव एवं जीवन स्तर में सुधारू लाने के लिए लोगों में बढ़ रही जागृति के कारण पानी की माँग बढ़ती ही जा रही है।
2. विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में अब भी हर वर्ष दो करोड़ पचास लाख लोग गंदे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से मरते हैं तथा विकासशील देशों में लगभग अस्सी प्रतिशत बीमारियाँ गंदे-पानी की वजह से होती हैं। एक अनुमान के अनुसार देश में कुल संक्रामक बीमारियों में से 21 प्रतिशत दूषित पानी से होती हैं। जलजनित बीमारियों से होने वाले रोगों एवं मौतों के कारण देश को हर वर्ष करीब 36.6 अरब रुपये का नुकसार हो जाता है।
राष्ट्रीय पर्याबरण अभियांत्रिकी अनुसंधान के अनुसार देश के अंदर 70 प्रतिशत पानी ऐसा है जो मनुष्यों के इस्तेमाल करने योग्य नहीं है। दूषित जल के उपयोग की वजह से उत्पन्न बीमारियों के कारण देश को हर वर्ष सात करोड़ 30 लाख कार्य दिवसों की हानि होती है। भारत में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली बीमारियों का एक बड़ा हिस्सा पार्ना से फैलने वाली बीमारियाँ हैं। इन बीमारियों में अतिसार, पेचिस, हैजा, हैपाटाईटिस, टाइफाइड, पीलिया आदि शामिल हैं। दूषित जल से उपजी ये वीमांरियाँ मौत का कारण बन सकती हैं।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक लिखिए।
2. गंदे पानी का क्या प्रभाव हो रहा है ?
3. दूषित पानी से उत्पन्न बीमारियों से कार्य की क्या हानि होती है ?
4. दूषित पानी से कौन-कौन सी वीमारियाँ होती हैं ?
5. जल जनित बीमारियों से देश को कितना नुकसान होता है ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक होगा ‘दूपित जल का दुष्प्रभाव’।
2. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वे के अनुसार विकासशील देशों में हर वर्ष लगभग 2 करोड़ 50 लाख लोग गंदे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से मरते हैं।
3. दूषित जल के पीने से लोग बीमार पड़ जाते हैं इस कारण से वे कार्य नहीं कर पाते। इस कारण देश की और स्वयं बीमार व्यक्ति की बहुत हानि होती है। देश को हर वर्ष सात करोड़ तीस लाख कार्य दिवस्रों की हानि दूषित जल पीने से बीमार हुए व्यक्तियों के कारण होती है।
4. दूपित पानी से अनेक जानलेवा बीमारियाँ जैसे अतिसार, पेचिस, हैजा, टाइफाइड, हैपाटाईटिस, पीलिया आदि अनेक बीमारियाँ होती हैं।
5. जल जनित वीमारियों से अनेक लोग हर साल मरते हैं। देश में कुल संक्रामक बीमारियों में से 21 प्रतिशत बीमारियाँ दूपित जल के कारण होती हैं। जल जनित बीमारियों से हमारे देश को प्रतिवर्ष लगभग 36.6 अरब रुपये का नुकसान हो जाता है।
3. औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न रासायनिक उपद्रव्य अक्सर क्लोरीन, अमोनिया, हाइड्रोजन-सल्फाइड, विभिन्न प्रकार के अम्ल और ताँबा, जस्ता, सीसा, निकल, पारा आदि जैसे विषैले पदार्थों से युक्त होते हैं। यदि ये पीने के पानी के जरिए या प्रदूषित पानी में पलने वाली मछलियों को खाने से शरीर में पहुँच गए तो गम्भीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। परिणामस्वरूप, अंधापन, लकवा मार जाना, रक्त संचार तथा श्वसन-प्रक्रिया में भी रुकावट आ सकती है। यदि इस प्रकार का प्रदूषित पानी कपड़े धोने या नहाने में नियमित रूप से प्रयोग में लाया जाए, तो त्वचा रोग हो जाते हैं। यदि इस पानी से खेतों की सिंचाई की जाए तो दूषित तत्व खेतों में उग रहै पौधों में प्रवेश कर जाते हैं। जिन्हें खाने से भयंकर बीमारियँ उत्पन्न हो सकती हैं। इस प्रकार का प्रदूषण भारत के औद्योगिक केंद्रों में सामान्य है, जहाँ सैकड़ों उद्योग अपने जहरीले निकासों को जल-स्रोतों में छोड़ते हैं।
गंदले पानी को जलाशय में छोड़ने से पूर्व उसका उचित उपचार आवश्यक है, ताकि उसमें मौजूद मलिन पदार्थ अलग किए जा सकें। सामान्यतः बड़े जलाशयों में छोड़े गंदले पानी को सीमित रूप से ही साफ किया जाता है, जबकि छोटे या ऐसे जल स्रोतों, जिन्हें पुनः उपयोग में लाया जाने वाला हो, में छोड़े जाने वाले गंदले पानी को अधिक साफ करने की आवश्यकता होती है। उद्योगों से निकलता पानी कई हानिकारक रासायनिक पदार्थों से युक्त होता है, जिनको आसानी से पानी से अलग नहीं किया जा सकता है। उद्योगों के ऐसे जहरीले पानी को नदी-नालों में छोड़ने से रोकने के लिए कड़े नियमों के निर्धारण की आवश्यकता है।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. रासायनिक उपद्रव्यों में कौन-कौन से पदार्थ होते हैं ?
3. विघे पदार्थ किन बीमारियों का कारण बनते हैं ?
4. प्रदूषित पानी से सिंचाई करने का क्या प्रभाव होता है ?
5. औद्योगिक केन्द्र जल को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्पक होगा ‘स्वच्छ पेयजल की समस्या’।
2. रासायानिक उपद्रव्यों में अक्सर क्लोरीन, अमोनिया, हाइड्रोजन-सल्फाइड, विभिन्न प्रकार के अम्ल और ताँबा, जस्ता, सीसा, निकल, पारा आदि जैसे विपैले पदार्थ मिले होते हैं ?
3. विषैले पदार्थों के परिणामस्वरूप अक्सर अंधापन, लकवा मार जाना, रक्त संचार एवं श्वास की अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं।
4. यदि प्रदूषित पानी से खेतों में फसल को सींचा जाए तो दूषित तत्त्व खेतों में उग रहे पौधों में प्रवेश कर जाते हैं जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों का कारण बनते हैं।
5. उद्योगों से दूषित जल निकल कर नदी-नालों में जाकर मिलता है। इस जल के कारण पूरा जल गंदा हो जांता है। उद्योगों से निकलने वाला पानी हानिकारक रासायनिक पदार्थों से युक्त होता है। इन रासायनों को आसानी से पानी से अलग नहीं किया जा सकता।
4. अमर शहीद बिस्मिल का जन्म 4 जून, 1897 को मैनपुरी (उ.प्र.) के एक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. मुरलीधर था। उनकी माता बहुत दृढ़ निश्चयी और धर्म परायण महिला थीं। उन्होंने बिस्मिल में बचपन से ही ऐसे संस्कार कूट-कूट कर भरे थे कि मात्र 30 वर्ष की आयु में उनकी वैचारिक परिपक्वता वृद्धों को लज्जित करती थी। अदालत में फाँसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश से उन्होंने कहा था कि हम जानते हैं कि आप हमें क्या सजा देंगे ? हम जानते हैं कि ये होंठ जो अब बोल रहे हैं, वे कुछ दिनों बाद बंद हो जाएंगे। हमारा बोलना, साँस लेना और काम करना, यहौँ तक कि हिलना और जीना भी इस सरकार के स्वार्थ के विरुद्ध है।
न्याय के नाम पर शीघ्र ही मेरा गला घोट दिया जायेगा। मैं जानता हूँ कि मैं मरूँगा। मैं मरने से नहीं घबराता। किन्तु क्या जनाब इससे सरकार का उद्देश्य पूरा हो जाएगा ? क्या इसी तरह हमेशा भारत माँ के वक्षस्थल पर विदेशियों का तांडव नृत्य होता रहेगा ? कदापि नहीं, इतिहास इसका प्रमाण है। मैं मरूँगा। किन्तु कब्र से फिर निकल आऊँंगा और मातृभूमि का उद्धार करूँगा। उनकी इस परिपक्वता में कुछ हाथ आर्य समाज का भी था, जो कि उस समय देश भक्ति की संस्था थी। आर्य समाज के प्रसिद्ध स्वामी सोमदेव से उनका किशोरावस्था में ही परिचय हो गया था। उनके वीतराग जीवन का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा और वे पूर्णतः देशभक्ति के रंग में रंग गये।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. बिस्मिल जी की माता जी कैसी महिला थीं ?
3. मरने के बारे में बिस्मिल ने क्या कहा था ?
4. बिस्मिल जी पर किस संस्था और व्यक्ति का प्रभाव पड़ा ?
5. फॉंसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश से बिस्मिल ने क्या कहा ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक होगा ‘अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल’।
2. रामप्रसाद बिस्मिल की माता बहुत ही दृढ़ निश्चयी एवं धर्मपरायण महिला थीं। उन्होंने बचपन में ही ऐसे संस्कार भर दिए थे कि उनकी 30 वर्ष में वैचारिक परिपक्वता वृद्धों को भी लज्जित करती थी।
3. मरने के बारे में बिस्मिल जी ने कहा था कि हम जानते हैं कि ये जो होंठ जो अब बोल रहे हैं वे कुछ दिनों बाद बंद हो जाएंगे। हमारा बोलना, साँस लेना, काम करना और यहाँ तक कि हिलना भी इस सरकार के स्वार्थों के विरुद्ध है। न्याय के नाम पर शीी्र ही मेरा गला घोट दिया जएगा। मैं मरने से नहीं घबराता परन्तु क्या इससे सरकार का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।
4. बिस्मिल जी पर आर्य समाज का बहुत गहरा प्रभाव था। वे बचपन में ही स्वामी सोमदेव के सम्पर्क में आ गए थे। बिस्मिल पर स्वामी सोमदेव का बहुत गहरा प्रभाव था।
5. फाँसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश से विस्मिल ने कहा मैं जानता हूँ कि न्याय के नाम पर मेरा गला घोट. दिया जाएगा। में मरने से नहीं डरता परन्तु क्या इससे सरकार का उद्देश्य पूरा हो जाएगा ? क्या इसी तरह भारत-माता के वक्षस्थल पर विदेशियों का तांडव नृत्य होता रहेगा ? कदापि नहीं, इतिहास इसका प्रमाण है। मैं मरूँगा किन्तु कब्र से फिर निकल आऊँगा और मातृभूमि का उद्धार करूँगा।
5. समाज में सर्वांधिक सक्रिय युवाओं को तथा महिलाओं को प्रचार के माध्यम से सहकारिता से जोड़ा जा सकता है। उनकी समस्याएँ सुलझ सकती हैं। भुखमरी, कुपोषण, सर्दी तथा गर्मी के कारण हर साल होने वाली मौतें बताती हैं कि अभी हमारे देश में गरीबी बाकी है। स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद से अब तक गरीबी उन्मूलन की दिशा में अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए गए। ऋण एवं अनुदान वितरण में विपुल धनराशि खर्च की गई। रोजगार के अवसर बढ़ाने वाली योजनाएँ शुरू की गईं। नतीजा यह हुआ कि गरीब लोग कदम-कदम पर सहकारिता सहायता चाहते हैं। सीमित साधनों के कारण समस्या आड़े आती है ।
ऐसे में सहकारिता एकमात्र विकल्प है जो सहयोग के आधार पर सामूहिक उत्थान का पाठ पढ़ाती है। कर्मण्यता का रास्ता दिखाती है और परस्पर विश्वास के नैतिक मार्ग पर ले जाती है। आज की उदारवादी व्यवस्था में पूँजीवाद दर्शन-लोकप्रिय हो रहा है। ऐसे में श्रम अर्थात् मनुष्य की महत्ता केवल सहकारिता में ही शेष बची है। अतः सहकारिता को प्रचारित करना अनिवार्य है।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गयांश का शीर्षक बताइए।
2. हमारे देश में अभी-गरीबी है, केसे ?
3. गरीबी दूर करने के क्या-क्या उपाय किए गए ?
4. गरीबी दूर करने में सहकारिता ही एकमात्र विकल्प क्यों है ?
5. युवाओं को सहकारिता से कैसे जोड़ा जा सुकता है ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का शीर्षक होगा ‘विकास और संचार’।
2. हमारे देश में अभी-भी कुपोषण एवं भुखमरी से लोग मर रहे हैं, इसका सीधा-सीधा कारण गरीबी है। अतः हम कह सकते हैं कि हमारे देश से अभी गरीबी नहीं हटी है।
3. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में गरीबी दूर करने के लिए अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए गए। ऋण एवं अनुदान के लिए एक बहुत बड़ी राशि खर्च की गई। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया गया है।
4. सहकारिता परस्पर सहयोग के बल पर सामाजिक उत्थान का पाठ पढ़ाती है। सहकारिता हमें कर्मशील बनाकर विश्वास के नैतिक मार्ग पर ले जाती है। आज की उदारवादी व्यवस्था में पूँजीवाद दर्शन लोकप्रिय हो रहा है ऐसे में श्रम अर्थात् मनुष्य की महत्ता केवल सहकारिता में ही बची है।
5. युवाओं को प्रचार के माध्यम से सहकारिता से जोड़ा जा सकता है। यदि युवाओं को इससे जोड़ दिया जाए तो शीप्र ही वांछित उपलब्धियों को प्राप्त कर लेंगे।
6. व्यक्ति चाहे वह शहर में रहता हो या गाँव में, महल में रहता हो या झोपड़ी में, बहुमंजिली इमारत के फ्लैट में रहता हो या स्वतंत्र बंगले में, वह किसी न किसी का पड़ोसी अवश्य है और कोई उसका पड़ोसी है। विना पास-पड़ोस के मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
एक समय था जब एक ही गाँव, शहर अथवा गली मुहल्ले में रहने वालों के बीच इतनी घनिष्ठता थी कि वे एक दूसरे के यहाँ बाहर से आए लोगों को उनके गंतव्य तक पहुँचा देते थे अथवा उनका पता बता देते थे। क्योंकि वे मिलनसार थे, उनके बीच अपनापन था, वे एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते थे। लेकिन आज परिदृश्य पूरीं तरह बदला हुआ है। एक ही इमारत में रहने वाले यह नहीं जानते कि पास वाले फ्लैट में कौन रहता है ? तो गली मोहल्लों में रहने वालों से जान पहचान होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
वे रहते तो पास-पास हैं, लेकिन अजनबियों की तंरह। क्या इसी का नाम पड़ोस है ? आज व्यस्त और भागमभाग की शहरी और महानगरीय जिंदगी में व्यक्ति अपने पास रहने वाले तक को नहीं पहचानता। आखिर पास रहकर भी यह दूरी क्यों ? आज महानगरों में रहने वाले लोग अपने आप में मस्त रहते हैं। उनका अपना एक सर्कल होता है, उसी में उनकी बैठक है, आना-जाना है। उनकी दुनिया वहीं तक सीमित है। उन्हें अपने आसपास की दुनिया से कोई सरोकार नहीं। पास-पड़ोस में अथवा अपने बहुमंजले भवन में कौन रहता है ? कौन नया व्यक्ति रहने आया है ? और कौन छोड़कर चला गया है इससे किसी को कोई मतलब नहीं।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. किसके बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं कर सकते ?
3. आजकल पड़ोस का परिदृश्य किस प्रकार बदल गया है ?
4. व्यस्तता और शहरी जीवन का क्या प्रभाव पड़ा है ?
5. आज का महानगरीय जीवन कैसा है ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक होगा ‘महानगरीय जीवन’।
2. बिना पास-पड़ोस के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसे हर कदम पर दूसरे का सहयोग चाहिए।
3. आज एक ही इमारत में रहने वाले नहीं जानते कि पास वाले मकान में कौन रहता है ? गली मुहल्ले की पहचान की बात तो बहुत दूर की है। सब आपस में अजनबियों की तरह रहते हैं।
4. व्यस्तता और शहरी जीवन शैली के कारण व्यक्ति किसी को न तो अपने पास लगाता है और न ही वह किसी के पास लगता है। सभी व्यस्त और भागते हुए नज़र आते हैं। वे अपने ही सर्कल में कैद रहते हैं। आस-पास क्या घटित हो रहा है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है।
5. आज का महानगरीय जीवन दौड़-धूप भरा है, लोग दौड़ रहे हैं। बहुमंजिले भवनों में कौन आया है ? कौन जा रहा है ? उनको कुछ पता नहीं। वे अपनी दुनिया में ही सीमित रहते हैं।
7. मित्रता को निभाना भी मुश्किल कार्य है। इसे ईष्य्या, द्वेष, अपमान, तिरस्कार, उपहास, मानसिक व हार्दिक संकीर्णता तथा संदेह से बचाना जर्री है। दोस्ती की सौंधी-सी सुगंध से आजीवन संराबोर रखना है, तो कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा। मित्र ऐसा हो जो सही मार्गदर्शन कर सके, आपके लिए सही अर्थों में हमदर्द वन सके, जो आपको नेक सलाह दे और आपके दुख-दर्द में सम्मिलित हो सके, जो आपको निराशा व हताशा का शिकार न बनने दे, वल्कि आशावान व ऊर्जावान बनाने में सहायता करे। सच्चाई, इंमानदारी, परस्पर समझदारी, प्रम-विश्वास, निःस्वार्थ-भावना एक दूसरे के लिए हरं पल सर्वस्व त्याग की भावनां मित्रता को सफलता के उच्चतम पायदान तक पहुँचा देते हैं। अतः इनको ध्यान में रखें :
मित्रता में “धन” को कभी न आने दें, पैसा वक्त आने पर सभी सम्बन्धों को तोड़ने में अहम् भूमिका अदा करता है। दोस्ती में कभी भी झूठ नहीं घोलना चाहिए। दोस्ती जहाँ तक सम्भव हो अपनी बराबरी वालों से ही करनी चाहिए अन्यथा कभी-कभी वातों में किसी प्रकार का अहम मित्रता को जार-जार कर सकता है।
सच्ची मिंत्रता में एहसान और मेहरवानी का कोई स्थान नहीं होता, सिर्फ मित्रता होती है। ऐसी वैसी कोई वात घटित हो जाये तो उसका जिक्र तीसरे के सामने नहीं करें। संदेह व अविश्वास को कभी पनपने ही न दें।
मित्रता कितनी ही अटूट व घनिष्ठ क्यों न हो कभी भी मित्र को किसी गलत कार्य के लिए प्रेरित या उत्साहित न करें। हमेशा सही कार्य के लिए प्रेरित करें। यदि किसी परिस्थितिवश या अन्य कारण विशेष से वह कोई अनैतिक व गलत राह पर जा रहा हो तो तत्काल मार्ग प्रशस्त करें व नेक सलाह व उचित मार्गदर्शन दें।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गयांश का शीर्षक लिखिए।
2. मिन्रता को किस-किस से बचाना जरूरी है ?
3. मित्र केसा होना चाहिए ?
4. कौन-कौन से गुण मित्रता को सफल बनाते हैं ?
5. सही कार्य और मित्रता का क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का उचित शीर्षक होगा ‘मिन्रता’।
2. मित्रता को इष्यां, द्वेप, अपमान, तिरस्कार, उपहास, मानसिक व हार्दिक संकीर्णता तथा संदेह से बचाना जरूरी है।
3. मित्र चुनना बहुत ध्यान का काम है। मित्र ऐसा होना चाहिए जो हमारा सही मार्गदर्शन कर सके। वह हमारा हमदर्द हो, वे हमको नैक सलाह दे सके, वह हमारे सुख-दु:ख का साथी हो। वह हमको निराशा व हताशा से बचाकर आशावान व ऊर्जावान बनने में हमारी सहायता करे।
4. सच्चाई, ईमानदारी, परस्पर समझदारी, प्रेम-विश्वास, निःस्वार्थ भावना, एक दूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना मित्रता को सफल बनाने वाले गुण हैं।
5. सही कार्य और मित्रता का गहरा संबंध है सही कार्य से मित्रता प्रगाढ़ होती जाती है। सच्चा मित्र वही है जो अपने मित्र को सही कार्य करने के लिए प्रेरित करता है।
8. जो लोग प्रंबन्ध और प्रशासन के काम से परिचित हैं, वे जानते हैं कि दप्तर के आधे से भी अधिक काम का आधार ठीक से सुनने या सुने जाने पर है। ज्यादा गलतियाँ और गलतफहमियाँ ठीक से न सुनने के कारण होती हैं। हमारी मौखिक वातचीत तभी कारगर हो सकती है, जब उसे ध्यान से सुना जाए। साथ ही कुछ काम तो ऐसे हैं, जिनमें सुनना ही सब कुछ है, जैसे न्यायालय में ज्यूरी का काम।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि औसत आदमी केवल 25 प्रातेशत बाते मनोयोग सें सुनता है। इसका कारण यह है कि हमारी सारी शिक्ष नेत्राश्रित बन गई है। जब मुद्रण कला इतनी विकसित नहीं हुई थी, तव शायद ऐसी वात नहीं थी। किन्तु वर्तमान शिक्ष्त में कानों की बड़ी उपेक्षा को जाती है।
सौभाग्व से कु शिक्षाविदों और मानवशास्त्रियों का ध्यान इस दोष की और गया और कहों-कहों इस कमी को दूर करन का यत्न भी किया जा रहा है। अमेरिका व यूरोप के कई प्रतिष्ठित शिक्षणालयों में अब सुनने की कला का अभ्यास सब विद्यार्थियों को कराया जाने लगा है।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गयांश का शीर्षक बताइए।
2. दफ्तर में आधे से अधिक काम का आधार क्या है ?
3. गलतफहमियाँ क्यों पैदा होती हैं ?
4. वर्तमान शिक्षा में कानों की उपेक्षा किस प्रकार हो गई है ?
5. अमेरिका और यूरोप में क्या अभ्यास कराया जाने लगा है ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्पक होगा ‘सुनने की कला’।
2. दफ्तर में आधे से अधिक काम का आधार ठीक से सुनने या न सुनने पर निर्भर करता है।
3. ज्यादा गलतियाँ और गलतफहमियाँ ठीक से न सुनने के कारण होती हैं। अधिकतर काम ऐसे होते हैं जिनमें ठीक से सुनना ही सब कुछ होता है।
4. लोग किसी भी बात को पूरे मनोयोग से नहीं सुनते। मनोबैज्ञानिक पसीक्षणों से पता चला है कि लोग 25 प्रतिशत बातें ही मनोयोग से सुनते हैं। जद मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था तब ऐसी बात नहीं थी। किन्तु वर्तमान शिक्षा में कानों की उपेक्षा की गई है। इसका सीधा कारण है कि हमारी शिक्षा केवल आँखों पर आधारित हो गई है।
5. अमेरिका व यूरोप के कई शिक्षण संस्थानों में ठीक से सुनने की कला का अभ्यास कराया जाता है।
9. पृथ्वी का वायुमंडल ही नहीं अंतरिक्ष तक प्रदूषित हो गया है। अंतरिक्ष में इतना कचरा इकट्ठा हो गया है कि अगर ओजोन पर्त का छेद बढ़ गया तो सूर्य आदि ग्रहों से आने वाली विषैली और ज़हरीली किरणें आसानी से हमारी पृथ्वी पर आने लगेंगी तथा सारी पृथ्वी को ही तहस-नहस कर देंगी। भारतीय प्राचीन ऋषिगण तथा मनीषी इन सम्भावित खतरों को समझते थे इसलिये उन्होंने भारतीय जीवन शैली में ऐसी परम्पराओं, विश्वास और कार्यों को व्यक्ति की दिनचर्या में शामिल किया, जिससे कि अपने आप पर्यावरण का सन्तुलन बना रहे और वह प्रदूषित न होने पाये। हम भारतीयों की दिनचर्या ही प्रातः काल नदी-सरोवरों में स्नान से शुरू होती थी। नदी-सरोवरों के प्रति हमारे मन में विशेष पर्वों पर स्नान करने को पवित्रं कहा जाता है और इसे पुण्य का काम माना जाता रहा है।
अतः स्वाभाविक ही है कि जब हम नदी तालाबों को इतना पवित्र मानते थे, तो उनकी रक्षा के प्रति भी सचेष्ट थे। पानी को गड्ढ़ों में इकट्ठा किया जाता था तथा इसे बाग-बगीचों में सिंचाई के काम में लाया जाता था जिससे नदी तालाबों में गंदगी नहीं मिल पाती थी और उनका जल भी प्रदूषित नहीं हो पाता था। पर आज तो शहरों के गटरों तथा औद्योगिक क्षेत्रों से रासायन युक्त निकला जहरीला पानी भी बिना उपचार के नदियों में मिलाया ज़ा रहा है, जिससे नदियों का पानी जहरीला हो गया है। उनमें रहने वाले जीव-जन्तु, मछली, मगर, कछुए आदि मर रहे हैं।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक लिखिए।
2. ओजोन पर्त का छेद बढ़ने से क्या नुकसान होगा ?
3. भारतीय मनीषियों ने पर्यावरण के सम्भावित खतरों को समझकर क्या किया था ?
4. नदी तालाबों के प्रति हम किस प्रकार सचेष्ट थे।
5. नदियों का पानी जहरीला क्यों हो रहा है ?
उत्तर :
1. इस अवतंरण का शीर्षक होगा ‘पर्यावरण-संरक्षण’।
2. यदि ओजोन पर्त का छेद बढ़ गया तो सूर्य आदि ग्रहों से आने वाली विषैली और जहरीली किरणें हमारी पृथ्वी पर आकर पृथ्वी को तहस-नहस कर देंगीं।
3. भारतीय मनीषियों ने पर्यावरण के संभावित खतरे को समझते हुए भारतीय जीवन-शेली में परम्पराओं, विश्वास और कार्यों को व्यक्ति की दिनचर्या में शामिल किया जिससे कि पर्यावरण का संतुलन बना रहे।
4. विशेष पर्वों पर नदी तालाबों में स्नान करना पवित्र माना जाता है। उनके प्रति इस पवित्र भावना के कारण ही हम ङनकी रक्षा के लिए भी सचेष्ट थे। इस पानी को गड़ढ़ों में इकट्ठा करके सिंचाई के काम लाया जाता था। इस प्रकार गंदगी नदियों में नहीं मिल पाती थी।
5. शहरों में गटरों से निकला हुआ पानी तथा औद्योगिक क्षेत्रों से निकला हुआ रासायन युक्त पानी बिना उपचार किए नदियों में डाल दिया जाता है। इस कारण नदियों का पानी भी जहरीला हो गया है।
10. यदि हमारे वृक्ष स्वस्थ हैं तो निश्चित मानिए हम भी स्वस्थ हैं। हमें तो प्राणवायु उन्हीं से मिलती है। हम कार्बन डाई-ऑक्साइड छोड़ते हैं या उन्हें हेते हैं और वे बदले में ऑक्सीजन देते हैं। जो हमारे जीवन की हर गतिविधि के लिए आवश्यक है। हमारे स्वास्थ्य का हर बिन्दु ऑक्सीजन की उपलब्धता से अनुप्राणित है भले ही यह बात हमें कल्पना लोक की लगती हो लेकिन यह वैज्ञानिक प्रामाणिकता भी रखती है, इसमें रत्ती भर संदेह करने की गुंजाइश नहीं है।
हम यदि अपने इर्द-गिर्द खड़े वृक्षों की रक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठा लें तो निश्चित मानिए हमने अपने स्वास्थ्य को लंबे समय तक स्वस्थ रखने की गारंटी प्राप्त कर ली है।
वृक्षों की रक्षा में ही हमारे जीवन की सुरक्षा का रोज छिपा है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं होना चाहिए। वृक्षों की छाया में जिन व्यक्तियों को कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है, वे स्वयं तो स्वस्थ रहते ही हैं दूसरों को स्वस्थ रहने के तौर-तरीकों से भी परिचित कराते हैं। साथ ही उनकी सोच सही दिशा में क्रियाशील रहकर स्वस्थ विचारों को जन्म देती है।
कहा जाता है “एक स्वस्थ मन हजारों सोने के सिंहासनों से कहीं अधिक मूल्यवान होता है क्योंकि स्वस्थ मन ही स्वस्थ समाज और स्वस्थ देश की रचना करने में समर्थ है। कुत्सित विचारों वाले लोग अपना जीवन तो चला सकते हैं लेकिन समाज और देश को नहीं चला सकते । करोड़ों परिवारों के सुनहरे भविष्य के बारे में वही चिन्तन, मनन और सृंज कर सकता है जो व्यर्थ के झंझावातों से मुक्त हो और जिस पर किसी भी प्रकार का कोई अनुचित दबाव न हो।”
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. हमारा स्वस्थ्य वृक्षों पर क्यों निर्भर है ?
3. हम लम्बे समय तक स्वस्थ केसे रह सकते हैं ?
4. स्वस्थ मन का क्या महत्त्व है ?
5. वृक्षों की रक्षा करने से क्या होगा ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक होगा ‘वृक्षों की रक्षा, जीवन की सुरक्षा’।
2. हमें वृक्षों से ही प्राणवायु मिलती है। हमारे द्वारा छोड़ी गई कार्बन डाई-ऑक्साइड को वृक्ष ग्रहण करते हैं। वृक्ष हमें बदले में ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। यदि हमें साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु नहीं मिलेगी तो हमारा स्वास्थ्य खराब हो जाएगा।
3. यदि हम अपने आसपास अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर उनकी रक्षा करें तो हम लंबे समय तक स्वस्थ रह सकते हैं। इस बात में कोई शंका नहीं है।
4. यदि हमारा मन स्वस्थ है तो मस्तिष्क भी स्वस्थ रहेगा। स्वस्थ मन ही स्वस्थ समाज व स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण करने में प्रमुख भूमिका निभांता है।
5. वृक्षों की रक्षा करने से हमारा जीवन सुरक्षित होगा, हमारा स्वास्थ्य अच्छा होगा, हमारी कार्यक्षमता में बृद्धि होगी तभी स्वस्थ समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण होगा।
11. तुलसीदास एक प्रतिभा-सम्पन्न, सृजनशील कवि थे। उनकी काव्य-प्रतिभा अतुलनीय थी। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। उनका भाषा सामर्थ्य मात्र अवधि में ही सीमित नहीं था अपितु वे ब्रजभाषा, संस्कृत तथा भोजपुरी आदि के भी ज्ञाता थे।
उन्होंने अपनी रचनाओं में अरबी और फारसी भाषा के अनेक शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने काव्य-ग्रंथों में राष्ट्रभाषा के वर्तमान स्वरूप की कल्पना वर्षों पूर्व ही कर ली थी। भाषा की दृष्टि से गोस्वामी जी ने समाज के किसी भी वर्ग की उपेक्षा नहीं की। साथ ही अपनी कविता के लालित्य को भी कायम रखा।
यदि हम उनकी रचनाओं का साहित्यिक विवेचन करें तो हमें पता चलेगा कि अलंकार और छन्द प्रयोग की दृष्टि से उन्होंने अपनी कृतियों में अतुलनीय क्षमता का परिचय दिया है। उनकी कविता रसनिष्पत्ति और रससृष्टि के आधार पर भी पूर्ण सफल कही जा सकती है। अलंकार और छन्द के अनेक रूप हमें उनकी रचनाओं में देखने को मिलते हैं। यथा-चौपाई, दोहा, सोरठा, गीतिका, हरिगीतिका, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों से सम्पन्न उनकी रचनाएँ सहुदय पाठकों को सदा आकर्षित करती रही हैं। रामचरितमानस तथा अन्य रचनाओं में गोस्वामी तुलसीदास ने अलंकार योजना तथा रससृष्टि के अद्भुत चमत्कार प्रस्तुत किए हैं।
गोस्वामी तुलसीदास मूलतः एक भक्त कवि थे और उन्होंने रामचरित्र को आदर्श मानव चरित्र के रूप में प्रस्तुत करके उन्हें धीरता, वीरता, त्याग, पवित्रता तथा मर्यादा आदि गुणों से युक्त दिखाया है। तत्कालीन समाज को रामभक्ति के मार्ग पर लाकर उन्होंने एक बहुत बड़े यज्ञ को सम्पन्न किया, जिससे उसमें संजीवनी तथा नवीन प्राणों का संचार हुआ। उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म, भक्ति तथा मर्यादा का दर्शन युग-युगान्तर तक मानव मात्र को कल्याणकारी मार्ग की ओर ले जाता रहेगा। भक्ति की जो रसधारा तुलसीदासजी ने प्रवाहित की थी, वह आज भी हमारे लिए ग्राह्य बनी हुई है।
गोस्वामी विरचित ग्रंथ रामचरितमानस विश्व भर में इतना प्रसिद्ध है कि सैकड़ों वर्षों से अनेक दशों में इसका गुणगान किया जाता है। महात्मा गाँधी ने भी मानस की श्रेष्ठता को पूर्णतः स्वीकार किया था। यह ग्रंथ आम आदमी के लिए परम आदरणीय, पठनीय एवं संग्रहणीय है।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक लिखिए।
2. तुलसीदास जी ने राम को किस रूप में प्रस्तुत किया ?
3. रामचरितमानस का प्रभाव बताइए।
4. तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में किन-किन भाषाओं का प्रयोग किया ?
5. छन्द के कौन-कौन से रूप तुलसी की रचनाओं में मिलते हैं ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक होगा ‘गोस्वामी तुलसीदास’।
2. तुलसीदास जी ने राम को आदर्श मानव चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने राम को धीरता, वीरता, त्याग, पवित्रता, मर्यादा आदि गुणों से परिपूर्ण दिखाया है।
3. रामचरितमानस ने तत्कालीन समाज को रामभक्ति के मार्ग पर लाकर एक नहुत बड़े यज्ञ को सम्पन्न किया। उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म, भक्ति तथा मर्यादा समाज को कल्याणकारी मार्ग की ओर ले जाता रहेगा।
4. तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में, ब्रजभाषा, भोजपुरी, संस्कृत और अरबी-फाग्सी के अनेक शब्दों का खुलकर प्रयोग किया।
5. छंद प्रयोग की दृष्टि से तुलसीदास ने अपनी कृतियों में अतुलनीय क्षमता कं परिचय दिया उन्होंने चौपाई, दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया।
12. मानव व्यक्तित्व के समान ही उसकी वाणी का निर्माण दोहरा होता है। जैसे मनाँ की ब्यांक्तित्व बाह्य परिवेश के साथ उसके अन्तर्जगत के घात-प्रतिघात, अनुकूलता-प्रतिकूलता, समन्वय आटि विविध ४,रेस्स्रिंतयों द्वारा निर्मित होता चलता है, उसी प्रकार उसकी भाषा असंख्य जटिल-सरल, अन्तर-बाह्य प्रभावों में ढल-बल कर पारेणति पाती है। कालान्तर में हमारी सम्पूर्ण बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता शब्द-संकेतों से इस प्रकार संग्रथित हो जाती है के एक शब्ट संकेत अनेक अप्रस्तुत मनोराग जगा देने की शक्ति पा जाता है।
पां सीखना तथा भाषा जीन एक-दूसरे से भिन्न हैं तो आश्चर्य की बात नहीं। प्रत्येक भाषः अपने इान और भाव की समुद्धि के कारण ग्रहण करने योग्य है, परन्तु अपनी समग्र बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता के साथ जीना अपनी सांस्कृतिक भाषा के संदर्भ में ही सत्य है। कारण स्पष्ट है। ध्वनि का ज्ञान आत्मानुभव से तथा अर्थ का बुद्धि से प्राप्त होता है। शैशव में शब्द हमारे लिए ध्वनि-संकेत मात्र होते हैं। यदि हम ध्वनि पहचानने से पहले उसके अर्थ से परिचित हो जावें तो हम संभवतः बोलना न सीख सकें। अतः यह कहना सत्य है कि वाणी आत्मानुभूति की मौलिक अभिव्यक्ति है, जो समष्टि-भाव से अपने विस्तार के लिए भाषा का रूप धारण करती है।
मानव व्यक्तित्व जैसे प्राकृतिक परिवेश से प्रभावित होता है, उसी प्रकार उसकी भाषा भी अपनी धरती से प्रभाव ग्रहण करती है और यह प्रभाव भिन्नता का कारण हो जाता है। परन्तु भाषा संबंधी बाह्य भिन्नताएँ पर्वत की ऊँची-नीची अनमिल श्रेणियाँ न होकर एक ही सागर तल पर बनने वाली लहरों से समानता रखती हैं। उनकी भिन्नता समष्टि की गति को निरन्तरता बनाये रखने का लक्ष्य रखती है, उसे खण्डित करने का नहीं। प्रत्येक भाषा ऐसी त्रिवेणी है, जिसकी एक धारा ब्यावहारिक जीवन के आदान-प्रदान सहज करती है, दूसरी मानव के बुद्धि और हृदय की समृद्धि को अन्य मानवों के बुद्धि तथा हृदय के लिए सम्र्रेषणशील बनाती है और तीसरी अन्तःसलिला के समान किसी भेदातीत स्थिति की संयोजिकता है।
प्रश्न :
1. मनुष्य की भाषा कैसे परिणति पाती है ?
2. भाषा सीखना तथा भाषा जीना एक-दूसरे से किस प्रकार भिन्न है ?
3. भाषा परिवेश से कैसे प्रभावित होती है ?
4. प्रत्येक भाषा को त्रिवेणी किस आधार पर कहा गया है ?
5. उपर्युक्त अवतरण का शीर्षक बताइए।
उत्तर :
1. मनुष्य की भाषा असंख्य जटिल-सरल अंतर-बाह्य प्रभावों में ढल-ढलकर परिणत होती है।
2. प्रत्येक भाषा अपने ज्ञान और समृद्धि के कारण ग्रहण करने योग्य है परन्तु अपनी समग्र बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता के साथ जीना अपनी सांस्कृतिक भाषा के संदर्भ में सत्य है। ध्वनि का ज्ञान आत्मानुभव से तथा अर्थ बुद्धि से सीखा जाता है।
3. जो भाषा जिस परिवेश में बोली जाती है उस परिवेश का उस पर गहरा प्रभाव पड़ता है तभी तो हर क्षेत्र की भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता देखने को मिलती है।
4. भाषा की एक धारा व्यवहारिक जीवन के आदान-प्रदान को प्रभावित करती है। दूसरी मानव की बुद्धि एवं हृदय की समृद्धि को अन्य मानवों की बुद्धि तथा हृदय के लिए सम्प्रेषणशील बनाती है। तीसरी किसी नदी के समान किसी भेदातीत स्थिति को संयोजित करती है।
5. इस गद्यांश का शीर्षक होगा ‘भाषा’।
13. समय मुट्ठी में दबी रेत-सा है। उसे जितना जोर से दबाकर रखना चाहोगे, वह उतनी ही तेजी से मुट्डी से फिसलता लगेगा । ख्याति के पंखों पर सवार इंसान आसमान में तो उड़ सकता है परन्तु अपनी धरिणी माँ की सौंधी सुगंध में अपने पंखों को फड़-फड़ाकर उसे अपने अबोध शिशु की किलकारियों से आनंदित नहीं होने दे सकता। यह कैसी विडम्बना है ? यह कैसा देश है कि भौतिक प्रगति के सामने शेष सबको गौण मानकर चल रहा है। प्रगति में न्याय-अन्याय, अधिकार-अनाधिकार, सत्य-असत्य आदि किसी की भी चिन्ता नहीं कर रहा है ?
स्वतंत्रता की कल्पना ही मुक्ति की सच्ची कल्पना है, हर वस्तु से स्वतंत्रता, संवेदनाओं से स्वतंत्रता, चाहे वे सुख की हैं या दुःख की, शुभ से और अशुभ से भी। बल्कि इससे भी अधिक । हमें मृत्यु से मुक्त होना चाहिए और मृत्यु से मुक्त होने के लिए हमें जीवन से मुक्त होना चाहिए। जीवन केवल मृत्यु का सपना है। जहाँ जीवन है, वहाँ मृत्यु है, इसलिए मृत्यु से मुक्त होना हो तो जीवन से दूर होना चाहिए। हम सदा मुक्त हैं, यदि हम केवल इस पर विश्वास भर करें, केवल पर्याप्त श्रद्धा। तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चिरमुक्त, चिर पवित्र। अभीष्ट श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे। हर वस्तु देश, काल, कार्य-कारण से बँधी है। आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है। जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्मा नहीं। इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो, सदा मुक्त, सदा पवित्र।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. समय को लेखक ने मुट्री में दबी रेत क्यों बताया है ?
3. भौतिक प्रगति का दुष्प्रभाव बताइए।
4. मुक्ति की सच्ची कल्पना क्या है ?
5. हम सदा मुक्त कैसे रहें ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का शीर्षक होगा ‘मुक्ति’।
2. जिस प्रकार हम रेत को मुट्ठी में बाँधकर नहीं रख सकते उसी प्रकार हम समय को भी नहीं पकड़ सकते। मुट्ठी को हम जितना दबाने का यत्न करते हैं रेत उतनी ही तेजी से फिसल जाता है इसी प्रकार समय भी किसी के रोके नहीं रुकता।
3. भौतिक प्रगति के सामने देश सभी को गौण समझने लगता है। प्रगति की अंधी दौड़ में न्यय-अन्याय, अधिकार, अनाधिकार, सत्य-असत्य किसी की भी चिंता नहीं है।
4. स्वतंत्रता ही मुक्ति की सच्ची कल्पना है। हर वस्तु से स्वतंत्रता चाहे वह शुभ हो या अशुभ, संवेदनाओं से भी स्वतंत्रता ही मुक्ति की सच्ची कल्पना है।
5. सदा मुक्त होने के लिए मृत्यु से मुक्त होना पड़ेगा, मृत्यु से मुक्त होने के लिए जीवन से भी दूर होना पड़ेगा क्योंकि जीवन है तो मृत्यु भी है और मृत्यु है तो जीवन भी है।
14. इस देश में किसी समय विद्या की जो धारा साधना के दुर्गम तुंग-श्रंग से निर्झरित होती थी, उस एक ही धारा ने संस्कृति के रूप में देश के समस्त स्तरों को अभिषिक्त किया है। इसके लिए उसे यांत्रिक नियम से शिक्षा विभाग का कारखाना नहीं खोलना पड़ा; शरीर में जैसे प्राण शक्ति की प्रेरणा से मोटी धमनियों की रक्तधारा छोटी-बड़ी नाना आयतनों की शिराओं के द्वारा समस्त अंग-प्रत्यंगों में प्रवाहित होती रहती है, उसी तरह हमारे देश के सम्पूर्ण समाज-शरीर में एक ही शिक्षा स्वाभाविक प्राण क्रिया से निरन्तर संचारित हुई है, उसका नाड़ी रूप वाहन कोई स्थूल था तो कोई बहुत ही सूक्ष्म; किन्तु फिर भी वे नाड़ियाँ एक कलेवर की ही थीं और रक्त भी उसका अपना प्राण पूर्ण रक्त था।
अरण्य स्वयं जिस मिट्टी से प्राण ग्रहण करके जीवित हैं, उसी मिट्टी को वह खुद भी प्रतिदिन प्राणों का उपादान पर्याप्त रूप में देता रहता है। उसे बराबर प्राणमय बनाये रखता है। ऊपर की डाली पर वह जो फल देता है, नीचे की मिह्टी में उसकी तैयारियाँ भी उसकी अपनी ही की हुई हैं। अरण्य की मिट्टी इसीलिए आरण्यिक बनी रहती है; नहीं तो, वह हो जाती विजातीय मरुभमि। जिस भूमि में वह उभिद्-खाद परिब्याप्त नहीं है, वहाँ पेड़-पौधे शायद ही पैदा होते हैं, और हो भी जाएँ तो वे उपवास के मारे टेढ़े-ेेढ़े और मरे-से हो जाते हैं। हमारे समाज की वनभूमि में किसी जमाने में उच्चशीर्ष वनस्पति का दान नीचे की भूमि पर नित्य ही बरसा करता था।
आज देश में पाश्चात्य शिक्षा चल रही है, मिट्टी को उसने बहुत ही कम दान दिया है, भूमि को वह अपने उपादानों से उपजाऊ नहीं बना रही है। जापान आदि देशों के साथ हमारा यही लज्जाजनक और दुःखप्रद भेद है। हमारा देश अपनी शिक्षा की भूमिका बनाने के विषय में उदासीन है। यहाँ देश की शिक्षा और देश का विशाल हृदय या मन एक दूसरे से विच्छिन्न है। प्राचीन काल में हमारे देश के बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ विद्वानों के साथ निरक्षर ग्रामवासियों की मनःः्रकृति का ऐसा परस्पर विरोध नहीं था। उस शास्त्र्जान के प्रति उनके मन में अनुकूल अभिमुखता तैयार हो गई थी; उस भोज में उनका भी अर्द्ध-भोजन था नित्य; और वह केवल प्राण से ही नहीं, बल्कि बचें हुए भोंग के रूप में।
प्रश्न :
1. उपर्युक्त गयांश का शीर्षक लिखिए।
2. विद्या की धारा ने संस्टृति का रूप धारण किया, कैसे ?
3. अरण्य की विशेषता बताइए।
4. पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बताइए।
5. शिक्षा के विषय में उदासीनता क्या प्रभाव डालती है ?
उत्तर :
1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक होगा ‘शिक्षा का स्वरूप’।
2. जिस प्रकार से शरीर में प्राण शक्ति की प्रेरणा से मोटी धमनियों में रक्त की धारा शरीर के समस्त अंगों में प्रवाहित होती है उसी प्रकार प्राचीन काल में विद्या की धारा सम्पूर्ण देश में फैल गई जिसने संस्कृति का रूप धारंण कर दिया। हमारे सम्पूर्ण समाज में एक ही शिक्षा स्वाभाविक प्राण-क्रिया से संचारित हुई।
3. अरण्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह जिस मिट्टी से जीवन ग्रहण करता है वह उस मिट्टी को प्रतिदिन प्राणों का उपादान लौटाता रहता है। इससे भूमि की शक्ति निरंतर बनी रहती है। उसकी डाली पर जो फल लगता है उसकी तैयारी के लिए वह पहले ही मिट्ीी को उर्वर बना लेता है। कहने का भाव यह है कि वह भूमि की जितनी शक्ति को अपने लिए प्रयोग करता है उससे कहीं अधिक शक्ति उसको लौटा देता है।
4. आज पाश्चात्य शिक्षा का यह प्रभाव है कि वह लेना तो जानती है परन्तु बदले में कुछ देना नहीं जानती इससे शिक्षा की भूमि की उर्वरता समाप्त हो रही है।
5. शिक्षा के विषय में उदासीनता शिक्षा की भूमि को बाँझ बनाने का कार्य कर रही है। इसके कारण देश की शिक्षा एवं देश का विशाल हृदय एक-दूसरे से अलग हो रहे हैं।
15. जीवन की सरसता इस बात पर अवलम्बित है कि सहजता और स्वाभाविकता को अपनाये रखा जाये । विचारों एवं भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर यथासम्भव मिलता रहे। उन्हें इस ढंग से पोषण मिलता रहे जिससे उनकी क्षमता सत्रयोजनों में नियोजित हो सके। मन:शास्त्री मानवीय विकास प्रक्रिया से उपर्युक्त संत्य को असाधारण महत्त देते हुए कहने लगे हैं कि मनुष्य के ब्यक्तिगत जीवन की बढ़ती समस्याओं का एक सबसे प्रमुख कारण है-उसका ‘रिजर्व नेचर’ । मानवीय स्वभाव में यह विकृति तेजी से वढ़ रही है। यही कारण है कि संसार में मनोरोगियों का बाहुल्य होता जा रहा है तथा कितने ही प्रकार के नये रोग पनप रहे हैं।
नदियों के पानी को बाँधकर रोक दिया जाए तो वह महाविप्लव खड़ा करेगा। रास्ता न पाने से फूट-फूट कर निकलेगा तथा अपने समीपवर्ती क्षेत्रों को ले डूवेगा। भावनाओं को दबा दिया जाये तो वे मानवीय व्यक्तित्व में एक अदृश्य कुहराम खड़ा करेंगे, जो नेत्रों को दिखाई तो नहीं पड़ता पर मानसिक असंतुलन के रूप में उसकी प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं। अपना आपा खण्डित होता प्रतीत होता है। दिशा दे देने पर नदियों के पानी ,से विभिन्न कार्य किए जाते हैं। बिजली उत्पादन से लेकर सिंचाई आदि का प्रयोजन पूरा होता है। भावों एवं विचारों को दिशा दी जा सके तो उनसे अनेक प्रकार के रचनात्मक काम हो सकते हैं। कला, साहित्यं, कविता, विज्ञान के आविष्कार इन्हीं के गर्भ में पकते तथा प्रकट होते हैं।
भावनाओं एवं विचारों में से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी अभिव्यक्ति हानिकारक है। पर उन्हें दबाव से तनाव की स्थिति आती है ? इससे बचाव का तरीका यह है कि भावनाओं को दूसरे रूप में अभिव्यक्त होने दिया जाए।
प्रश्न :
1. उपयुक्त गद्यांश का शीर्षक बताइए।
2. जीवन की सरसता का क्या आधार है ?
3. मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं का कारण क्या है ?
4. भावों और विचारों को दिशा केसे दी जा सकती है ?
5. संसार में मनोरोगी क्यों बढ़ते जा रहे हैं ?
उत्तर :
1. इस गद्यांश का शीर्षक होगा ‘भावनाओं की अभिब्यक्ति आवश्यक’।
2. जीवन की सरसता का आधार सहजता एवं स्वाभाविकता है। साथ ही अपने विचारों एवं भावनाओं को समय-समय पर अभिव्यक्त करते रहें।
3. मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं का सबसे बड़ा कारण ‘रिजर्व नेचर’ है । रिजर्व नेचर का तात्पर्य अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त न करना। जो लोग अपनी भावनाओं को दबाए रखते हैं वे अक्सर दु:खी रहते हैं। ऐसे व्यक्ति अक्सर मनोरोगी हो जाते हैं।
4. भावों और विचारों का अभिव्यक्त होना अति आवश्यक है। अभिव्यक्ति मिलने पर ही भावों और विचारों को नई दिशा प्रदान की जा सकती है। दिशा देने पर ही रचनात्मक कार्य होते हैं।
5. संसार में मनोरोगी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण उनका ‘रिजर्व नेचर’ है। जब भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं होती वरन् उनको दबाकर रखा जाए तो वे ही मनोरोग का कारण बनती हैं। वे विकराल रूप धारण करके कुहराम मचा देती हैं। मानसिक असंतुलन के रूप में उसकी प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं।