Shabd Roop – शब्द रूप, Sanskrit Shabd Roop

Shabd Roop – शब्द रूप, Sanskrit Shabd Roop

Shabd Roop – शब्द रूप – सुबंत प्रकरण – संस्कृत व्याकरण

  • परीक्षा में शब्द रूप निम्न प्रकार से पूछे जाते हैं; जैसे-
  • ‘राम’ शब्द का तृतीया विभक्ति एकवचन में रूप लिखिए।
  • प्रश्न का उत्तर निम्न प्रकार से लिखना चाहिए-
  • ‘राम’ शब्द, तृतीया विभक्ति एकवचन में रूप-रामेण।
  • कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित शब्दों के रूप निर्धारित हैं। इन्हें याद करें।
  • संस्कृत में तीन वचन होते हैं-एकवचन, द्विवचन और बहुवचन।
  • तीन लिंग होते हैं-पुंलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग।
  • कारक सम्बन्ध प्रदर्शित करनेवाली सम्बोधनसहित आठ विभक्तियाँ होती हैं।
  • वचन, लिंग और विभक्ति के आधार पर संज्ञा-शब्दों के रूप परिवर्तित होते रहते हैं।
  • जिन शब्दों का अन्तिम स्वर ‘अ’ होता है, वे अकारान्त कहलाते हैं; जैसे-बालक, राम आदि; जिनका अन्तिम स्वर ‘ई’ होता है, वे इकारान्त कहलाते हैं; जैसे—मति, हरि आदि और जिनमें अन्तिम स्वर ‘उ’ होता है, वह उकारान्त कहलाते हैं; यथा—शिशु, भानु आदि।
  • नपुंसकलिंग के केवल अकारान्त एवं पुंलिंग तथा स्त्रीलिंग के सभी शब्दों के द्वितीया एकवचन के अन्त में ‘म्’ आता है।
  • नपुंसकलिंग में प्रथमा और द्वितीया विभक्ति में एक-से रूप होते हैं।
  • प्रायः प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन; तृतीया, चतुर्थी और पंचमी के द्विवचन तथा षष्ठी और सप्तमी के द्विवचन एक-से होते हैं। सर्वनाम तथा संख्यावाचक विशेषण और अकारान्त पुंलिंग शब्दों को छोड़कर अन्य शब्दों के पंचमी और षष्ठी के एकवचन एक-से होते हैं।
  • सम्बोधन के द्विवचन और बहुवचन प्रायः प्रथमा के द्विवचन और बहुवचन की भाँति होते हैं। प्रायः सभी सर्वनाम शब्दों के रूप एक-से होते हैं।
  • चतुर्थी और पंचमी के बहुवचन में रूप एक-से होते हैं।
  • षष्ठी के बहुवचन के अन्त में ‘नाम्’ अथवा ‘णाम्’ आता है।
  • सप्तमी के बहुवचन के अन्त में ‘सु’ अथवा ‘षु’ का प्रयोग होता है।
  • अकारान्त पुंलिंग शब्दों के प्रथमा एकवचन में अकारान्त शब्दों के पंचमी, षष्ठी के एकवचन तथा द्वितीया बहुवचन के अन्त में विसर्ग लगता है।

रूप चलाने के नियम

संस्कृत के सभी शब्दों के रूप कण्ठस्थ नहीं किए जा सकते; अत: नए-नए शब्दों के विभिन्न रूप बनाते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

  1. विभिन्न प्रकार के कुछ शब्दों अथवा धातुओं के रूप अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए। फिर जब दूसरे शब्द अथवा धातु के रूप चलाने हों तो उनसे उसे मिलाकर, उनके अन्तर को समझकर, तब उसके समवर्गी शब्द की भाँति उसके रूप चलाने चाहिए।
  2. नए शब्द के रूप बनाते समय उसके लिंग और शब्दान्त के स्वर अथवा व्यंजन का विचार अवश्य करना चाहिए। फिर उसी लिंग के उसी स्वर अथवा व्यंजन को अन्त में रखनेवाले शब्दों की भाँति उसके रूप बना देने चाहिए। जैसे—यदि ‘राम’ शब्द के रूप याद हैं तो राम की भाँति ही जनक, छात्र, बालक, अश्व, वानर, हंस, चन्द्र, मेघ, अनल, ईश्वर, नृप, काक, देव आदि शब्दों के भी रूप बनेंगे।

संज्ञा शब्दों के रूप

फल (अकारान्त नपुंसकलिंग)
Shabd Roop - शब्द रूप, Sanskrit Shabd Roop 1

(नोट-नवीन पाठ्यक्रमानुसार केवल ‘फल’, ‘मति’, ‘मधु’ और ‘नदी’ के संज्ञा शब्द रूप ही निर्धारित हैं।)

मति (इकारान्त स्त्रीलिंग)
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मधु (उकारान्त नपुंसकलिंग)
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नदी (इकारान्त स्त्रीलिंग)
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नोट-गौरी, पार्वती, जानकी, देवकी, सावित्री, गायत्री, पृथ्वी आदि ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप नदी के समान होते हैं।

सर्वनाम
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तद् (वह) स्त्रीलिंग
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तद् (वह) नपुंसक लिंग
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‘युष्मद् (तुम)
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नोट-

  1. सर्वनाम शब्दों में सम्बोधन नहीं होता है।
  2. युष्मद् शब्दों के रूप तीनों लिंगों में समान होते हैं।

निम्नलिखित में से किन्हीं दो शब्द रूपों के सम्बन्ध में बताइए कि वे किस शब्द के किस विभक्ति और वचन के रूप हैं-
Shabd Roop - शब्द रूप, Sanskrit Shabd Roop 9

Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द)

तत्सम-तद्भव शब्द(Pure and Modified Words)

शब्द- एक अथवा एकाधिक ध्वनियों की उस लघु इकाई को शब्द कहते हैं जो सार्थक हो तथा प्रयोग की दृष्टि से जिसकी स्वतन्त्र सत्ता हो। शब्दों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जाता है, जैसे-रचना के आधार पर, अर्थ के आधार पर तथा इतिहास के आधार पर। तत्सम, तद्भव, विदेशी, देशज तथा संकर शब्द आदि भेद इतिहास के आधार पर ही किए गए हैं।

तत्सम शब्द संस्कत भाषा के वे मल शब्द होते हैं जिन्हें बिना किसी ध्वन्यात्मक परिवर्तन के हिन्दी में प्रयोग कर लिया जाता है। ‘तत् + सम’ इन दो शब्दों से यह तत्सम शब्द बना है जिसका अर्थ है-तत् = वह, उस (संस्कृत); सम = समान। इस प्रकार उसके समान (संस्कृत के समान)। हिन्दी भाषा में संस्कृत के शब्द प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इनसे विकसित अथवा निकले हुए शब्द तद्भव (उससे पैदा हुए) शब्द कहलाते हैं। यहाँ पर छात्रों के निर्धारित पाठ्यक्रमानुसार कुछ तत्सम शब्द दिए जा रहे हैं साथ ही तद्भव शब्द भी हैं जिनसे छात्रों को समझने-सीखने में सुविधा रहेगी। शुद्ध लेखन हेतु इनका ज्ञान परमावश्यक है।

हिन्दी भाषा का मूलाधार संस्कृत भाषा है। इसके अधिकांश शब्द या तो संस्कृत के मूलशब्द हैं अथवा उनका विकृत रूप हैं। हिन्दी में संस्कृत के मूल अथवा विकृत शब्दों के आधार पर इसके दो भेद किए जाते हैं-

तत्सम शब्द

संस्कृत के वे शब्द, जो ज्यों-के-त्यों हिन्दी में प्रयोग होते हैं, तत्सम शब्द कहलाते हैं; जैसे-वायु, अग्नि, पुस्तक आदि।

तद्भव शब्द-

वे शब्द जो तत्सम न रहकर उसी शब्द से बिगड़कर बने हैं, उन्हें तद्भव शब्द कहते हैं।जैसे- चाँद, सूरज, रात, नाक, मुँह आदि। संस्कृत के ऐसे शब्द, जो थोड़े परिवर्तन के साथ हिन्दी में प्रयोग होते हैं अर्थात् संस्कृत के वे शब्द, जो प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी आदि से गुजरने के कारण आज हिन्दी में परिवर्तित रूप में मिल रहे हैं अर्थात् अपने मूल रूप से विकृत हो गए हैं तद्भव शब्द कहलाते हैं; जैसे-तत्सम-गौ, तद्भव-गाय, तत्सम-अग्नि, तद्भव-आग आदि।

कुछ प्रमुख तत्सम तद्भव शब्द इस प्रकार हैं-
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 1
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 2
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 3
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 4
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 5
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 6
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 7

निम्नलिखित के तत्सम सूप लिखिए-
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 8
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 9
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 10
Pure and Modified Words(तत्सम-तद्भव शब्द) 11

Pratyaya(Suffix)(प्रत्यय) In Hindi

Pratyaya in Hindi

प्रत्यय (pratyay) (Suffix)की परिभाषा

किसी शब्द के अन्त में जोड़े जाने वाले वे शब्दांश जो शब्द के साथ जुड़कर नए अर्थ का बोध कराते हैं प्रत्यय कहलाते हैं। इन शब्दांशों का न अलग से (स्वतन्त्र) प्रयोग होता है और न इनका कोई अर्थ होता है।

विशेष-

  1. प्रत्यय सदा शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं।
  2. प्रत्ययों के योग से शब्द नए अर्थ का बोध कराते हैं।
  3. प्रत्ययों का न स्वतन्त्र (शब्दों से अलग) प्रयोग होता है और न वे स्वतन्त्र रूप में सार्थक होते हैं।

प्रत्यय के भेद

प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं-

  1. कृत प्रत्यय, तथा
  2. तद्धित प्रत्यय।

1. कृत प्रत्यय-वे प्रत्यय जो मूल क्रिया के अन्त में जुड़कर नए अर्थयुक्त शब्दों का निर्माण करते हैं, ‘कृत’ प्रत्यय कहलाते हैं, जैसे-‘पढ़ना’ क्रिया की मूल धातु है ‘पढ़’ जिसके अन्त में ‘आई’ प्रत्यय जोड़कर बना ‘पढ़ाई जिसका अर्थ है पढ़ने की क्रिया। इन्हें जोड़कर संज्ञा, विशेषण और अव्यय बनाये जाते हैं।

2. तद्धित प्रत्यय-जो प्रत्यय धातु शब्दों के अतिरिक्त संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के साथ जोड़े जाते हैं वे ‘तद्धित’ प्रत्यय कहलाते हैं, जैसे-‘सुन्दर’ के साथ ‘ता’ जोड़कर बना ‘सुन्दरता’।

छात्रहित में पाठ्यक्रमानुसार सात प्रत्ययों का परिचय नीचे दिया जा रहा है-
pratyay in hindi
Pratyaya(Suffix)(प्रत्यय) 2
निम्नलिखित प्रत्ययों का प्रयोग करके एक-एक नए शब्द बनाइये
1. आइन – पंडिताइन
2. आई – भलई
3. आकू – लड़ाकू
4. आनी – मर्दानी
5. आस – मिठास
6. औती – बुढ़ौती, कठौती
7. इक – सामाजिक
8. ई – भली
9. ईय – माननीय
10. क – वाहक
11. त्व – महत्व
12. ता – समता
13. पा – बुढ़ापा
14. पन – बचपन
15. मान – प्रकाशमान
16. या – पराया
17. वट – बनावट
18. वान – गाड़ीवान
19. वा – बुलावा
20. वैया – गवैया
21. स – मिठास
22. हट (आहट) – घबराहट, जगमगाहट
23. हारा – लकड़हारा

Nibandh lekhan (Essay-writing)-(निबन्ध-लेखन)

निबन्ध-लेखन (Essay-writing)की परिभाषा

प्रश्न-ज्ञान : परीक्षा की प्रश्न-पत्र योजना के अनुसार इस प्रकरण के अन्तर्गत विज्ञान, वाणिज्य, शिक्षा, कृषि तथा राजनैतिक एवं सामाजिक चेतना पर आधारित जनसंख्या, स्वास्थ्य शिक्षा व पर्यावरण से सम्बन्धित विषयों पर निबन्ध पूछे जाएंगे, जिनमें से किसी एक विषय पर निबन्ध लिखना होगा। यह प्रश्न कुल 9 अंकों का होगा।

उत्तम निबन्ध कैसे लिखें? निबन्ध का अर्थ-चुने हुए सीमित शब्दों में किसी विषय पर क्रमबद्ध रूप अपने विचार प्रकट करने को निबन्ध कहते हैं। निबन्ध के विषयों की कोई निश्चित सीमा नहीं होती, चींटी से लेकर स्पुतनिक तक किसी भी विषय पर निबन्ध लिखे जा सकते हैं।

निबन्ध का आरम्भ-निबन्ध का आरम्भ ऐसे आकर्षक ढंग से होना चाहिए कि इसको पढ़नेवाले की उत्सुकता आरम्भ में ही बढ़ जाए और वह उसे पूरा पढ़ने को बाध्य हो जाए। मौलिकता, मनोरंजकता तथा विचारपूर्णता निबन्ध के आवश्यक गुण हैं।

साधन-पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन निबन्ध-लेखन का सर्वोत्तम साधन है। जितना अधिक अध्ययन किया जाएगा, उतना ही विषयों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होगा। इससे निबन्ध-लेखन में अधिक कठिनाई नहीं रह जाती।

निबन्ध के अंग-निबन्ध के तीन प्रमुख अंग होते हैं-

  1. प्रस्तावना,
  2. प्रसार,
  3. उपसंहार।

(1) प्रस्तावना– प्रस्तावना में निबन्ध की भूमिका रहती है। इसमें विषय का परिचय दिया जाता है; अर्थात् इस शीर्षक के अन्तर्गत लेखक यह स्पष्ट करता है कि वह विषय के सम्बन्ध में क्या कहना चाहता है।

(2) प्रसार–इसमें निबन्ध का कलेवर या शरीर रहता है। यह निबन्ध का सबसे विस्तृत तथा महत्त्वपूर्ण अंश. होता है। इसमें निबन्ध-लेखक को विषय के सम्बन्ध में अपना पूरा ज्ञान संक्षिप्त, संयत तथा मनोरंजक शैली में प्रस्तुत करना होता है।

(3) उपसंहार-निबन्ध का अन्तिम भाग उपसंहार है। इसमें निबन्ध के आरम्भ से अन्त तक का संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। इस स्थल पर निबन्ध का सिंहावलोकन-सा किया जाता है।

निबन्ध के प्रकार-निबन्ध प्रमुख रूप से तीन प्रकार के होते हैं-

  1. वर्णनात्मक,
  2. आख्यानात्मक,
  3. विचारात्मक।

(1) वर्णनात्मक निबन्ध-वर्णनात्मक निबन्ध में किसी वस्तु, पदार्थ, स्थान, यात्रा, घटना या दृश्य आदि का वर्णन किया जाता है। इसमें प्रमाण आदि नहीं दिए जाते, केवल वर्ण्य-विषय का यथार्थ चित्रण किया जाता है।

(2) आख्यानात्मक निबन्ध–इस प्रकार का निबन्ध किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन को आधार बनाकर लिखा जाता है। आख्यानात्मक निबन्ध में व्यक्ति का शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक परिचय ही नहीं दिया जाता; वरन् उसके व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला जाता है और उसके गुण-दोषों का संक्षिप्त विवेचन भी किया जाता है।

(3) विचारात्मक निबन्ध–विचारात्मक निबन्ध में किसी विचार अथवा भाव को लेकर निबन्ध की रचना की जाती है। दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, विज्ञान, इतिहास आदि से सम्बन्ध रखनेवाले विषय विचारात्मक निबन्ध के अन्तर्गत आते हैं।

विचारात्मक निबन्ध के दो भेद हैं-

(क) भावनाप्रधान निबन्ध,
(ख) तर्कप्रधान निबन्ध।

(क) भावनाप्रधान निबन्ध-इस प्रकार के निबन्धों के अन्तर्गत अपने मन की भावनाओं में बहता हुआ लेखक भावुक शैली में अपनी बात कहता है। वह अपने भावों को सही मानते हुए, जो कुछ मन में तरंग आए, उसी को अपनी शब्दावली में व्यक्त कर देता है।

(ख) तर्कप्रधान निबन्ध-तर्कप्रधान निबन्ध में विचार को तर्क अथवा युक्ति-प्रमाणों के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। कभी-कभी किसी विचार का विश्लेषण या विवेचन भी किया जाता है। इसमें किसी भाव या विचार पर वाद-विवाद भी किया जाता है। इसके अन्तर्गत किसी वस्तु, विषय अथवा रचना की आलोचना अथवा प्रत्यालोचना भी की जाती है।

विशेष योग्यता प्राप्त करने के सूत्र

यहाँ हम संस्कृत तथा अंग्रेजी की कुछ महत्त्वपूर्ण उक्तियाँ दे रहे हैं। आप इनका निबन्ध में प्रसंगानुकूल प्रयोग करके अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं।

1. संस्कृत की महत्त्वपूर्ण उक्तियाँ

(1) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। (जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं अथवा जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से महान् हैं।)
(2) उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। (उदार चरित्रवालों के लिए संसार ही परिवार है।)
(3) अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति। (बिना चले गरुड़ भी एक पग नहीं चलता है अर्थात् बिना परिश्रम शक्तिमान् भी कुछ नहीं कर सकता।)
(4) शीलं हि सर्वस्य नरस्य भूषणम्। (शील ही सभी मनुष्यों का आभूषण है।)
(5) बुभुक्षितः किं न करोति पापम्? (भूखा क्या पाप नहीं करता?)
(6) शठे शाठ्यं समाचरेत्। (दुष्ट के साथ दुष्टता करनी चाहिए।)
(7) शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। (शरीर ही धर्म का सबसे पहला साधन है।)
(8) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः। (दुराचारी को वेद भी पवित्र नहीं करते।)
(9) अहिंसा परमो धर्मः। (अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है।)
(10) सुलभा रम्यता लोके दुर्लभो हि गुणार्जनम्। (संसार में सुन्दरता तो सरलता से मिल जाती है, किन्तु गुण ग्रहण करना कठिन है।)
(11) महाजनो येन गतः सो पन्थाः । (महान् पुरुष जिस मार्ग से गए हैं, वही श्रेष्ठ मार्ग है।)
(12) आत्मज्ञानं परमज्ञानम्। (अपने को पहचानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है।)
(13) ज्ञानमेव परमो धर्मः। (ज्ञान ही सबसे बड़ा धर्म है।)
(14) स्वाध्यायान् मा प्रमदः। (अध्ययन में आलस्य न करो।)
(15) अति सर्वत्र वर्जयेत्। (किसी भी प्रकार की अति का परित्याग कर देना चाहिए।)
(16) मा ब्रूहि दीनं वचः। (दीन वचन न बोलो।)।
(17) मानो हि महतां धनम्। (मान ही पुरुषों का धन है।)
(18) वीरभोग्या वसुन्धरा। (वीर ही पृथ्वी का उपभोग करते हैं।)
(19) वचने का दरिद्रता? (मधुर बोलने में क्या दरिद्रता दिखाना?)
(20) नास्ति क्रोधसमो रिपुः। (क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं।)

(21) शत्रोरपि गुणा वाच्याः । (शत्रु के भी गुणों को कहना चाहिए।)
(22) गतस्य शोचनं नास्ति। (बीती ताहि बिसार दे।)
(23) विनाशकाले विपरीत बुद्धिः। (बुरे दिन आने पर बुद्धि नष्ट हो जाती है।)
(24) आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।
(भोजन और व्यवहार में लज्जा त्यागनेवाला सुखी होता है।)
(25) सत्यमेव जयते नाऽनृतम्। (सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं।)
(26) कः परः प्रियवादिनाम्। (प्रिय बोलनेवालों के लिए पराया कौन है?)
(27) परोपकाराय सतां विभूतयः। (सज्जनों का धन दूसरों की भलाई के लिए होता है।)
(28) विद्यारत्नं महाधनम्। (विद्यारूपी रत्न सबसे बड़ा धन है।)
(29) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। (गुरु ब्रह्मा-विष्णु-महेश के समान हैं।)
(30) सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। (सभी सुखी हों, सभी नीरोग हों।)
(31) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। (कार्य परिश्रम करने से पूर्ण होता है, मनोरथ करने से नहीं।)
(32) दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति। (भाग्य देता है, ऐसा कायर कहते हैं, अथवा भाग्य के भरोसे कायर पुरुष रहते हैं।)
(33) यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः।। (यदि प्रयत्न करने पर भी सफलता न मिले तो देखना चाहिए कि दोष कहाँ है।)
अथवा
यदि प्रयत्न करने पर भी सफलता न मिले तो इसमें किसी का क्या दोष है।
(34) नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। (ज्ञान के समान इस संसार में और कुछ पवित्र नहीं है।)
(35) भोगो भूषयते धनम्। (धन की शोभा उसका उपभोग करने में है।)
(36) सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम्। (भरा हुआ घड़ा आवाज नहीं करता।)
(37) विद्या धर्मेण शोभते। (विद्या धर्म से शोभा पाती है।)
(38) सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम्। (सन्तोष मनुष्य का सबसे बड़ा धन है।)
(39) यस्तु क्रियावान् पुरुषः सः एव। (जो क्रियाशील है, वही पुरुष है।)
(40) मातृवत् परदारेषु। (दूसरे की स्त्री माँ के समान है।)

(क) साहित्यिक अभिरुचि के निबन्ध

1. साहित्य समाज का दर्पण है (2016, 17, 18)

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • मानव-जीवन और साहित्य,
  • साहित्य का उद्देश्य और शक्ति,
  • साहित्य और समाज, जीवन और साहित्य,
  • साहित्य और जीवन,
  • साहित्य और समाज का सम्बन्ध (2017),
  • साहित्य लोकजीवन का प्रहरी है [2018]।

“जो साहित्य मनुष्य को उसकी समस्त आशा-आकांक्षाओं के साथ, उसकी सभी सफलताओं और दुर्बलताओं के साथ हमारे सामने प्रत्यक्ष ले आकर खड़ा कर देता है, वही महान् साहित्य है।”

-डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. साहित्य का अर्थ,
  3. साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध,
  4. सामाजिक परिवर्तन और साहित्य,
  5. साहित्य की शक्ति,
  6. साहित्य पर समाज का प्रभाव,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-साहित्य अपने युग और परिस्थितियों पर आधारित अनुभवों एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। यह अभिव्यक्ति साहित्यकार के हृदय के माध्यम से होती है। कवि और साहित्यकार अपने युग-वृक्ष को अपने आँसुओं से सींचते हैं, जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ उसके मधुर फल का आस्वादन कर सकें।

साहित्य का अर्थ-साहित्य वह है जिसमें प्राणी के हित की भावना निहित है। साहित्य मानव के सामाजिक सम्बन्धों को दृढ़ बनाता है; क्योकि उसमें सम्पूर्ण मानव जाति का हित निहित रहता है। साहित्य द्वारा साहित्यकार अपने भाव और विचारों को समाज में प्रसारित करता है, इस कारण उसमें सामाजिक जीवन स्वयं मुखरित हो उठता है।

साहित्य और समाज का पारस्परिक सम्बन्ध-साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। साहित्य का सृजन जन-जीवन के धरातल पर ही होता है। समाज की समस्त शोभा, उसकी श्रीसम्पन्नता और मान-मर्यादा साहित्य पर ही अवलम्बित है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक अशान्ति या निर्जीवता एवं सामाजिक सभ्यता या असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य ही है। कवि एवं समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं; अत: साहित्य समाज से भिन्न नहीं है। यदि समाज शरीर है तो साहित्य उसका मस्तिष्क। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।”

साहित्य हमारे अमूर्त अस्पष्ट भावों को मूर्त रूप देता है और उनका परिष्कार करता है। वह हमारे विचारों की गुप्त शक्ति को सक्रिय करता है। साथ ही साहित्य, गुप्त रूप से, हमारे सामाजिक संगठन और जातीय जीवन के विकास में निरन्तर योगदान करता रहता है। साहित्यकार हमारे महान् विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए हम उन्हें अपने जातीय सम्मान और गौरव के संरक्षक मानकर यथेष्ट सम्मान प्रदान करते हैं। जिस प्रकार शेक्सपीयर एवं मिल्टन पर अंग्रेजों को गर्व है, उसी प्रकार कालिदास, सूर एवं तुलसी पर हमें भी गर्व है; क्योंकि इनका साहित्य हमें एक संस्कृति और एक जातीयता के सूत्र में बाँधता है। जैसा हमारा साहित्य होता है, वैसी ही हमारी मनोवृत्तियाँ बन जाती हैं। हम उन्हीं के अनुकूल आचरण करने लगते हैं। इस प्रकार साहित्य केवल हमारे समाज का दर्पणमात्र न रहकर उसका नियामक और उन्नायक भी होता है।

सामाजिक परिवर्तन और साहित्य-साहित्य और समाज के इस अटूट सम्बन्ध को हम विश्व-इतिहास के पृष्ठों में भी पाते हैं। फ्रांस की राज्य-क्रान्ति के जन्मदाता वहाँ के साहित्यकार रूसो और वाल्टेयर हैं। इटली में मैजिनी के लेखों ने देश को प्रगति की ओर अग्रसर किया। हमारे देश में प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में भारतीय ग्रामों की आँसुओं-भरी व्यथा-कथा को मार्मिक रूप में व्यक्त किया। उन्होंने किसानों पर जमींदारों द्वारा किए जानेवाले अत्याचारों का चित्रण कर जमींदारी-प्रथा के उन्मूलन का जोरदार समर्थन किया। स्वतन्त्रता के पश्चात् जमींदारी उन्मूलन और भूमि-सुधार की दृष्टि से जो प्रयत्न किए गए हैं; वे प्रेमचन्द आदि साहित्यकारों की रचनाओं में निहित प्रेरणाओं के ही परिणाम हैं। बिहारी ने तो मात्र एक दोहे के माध्यम से ही अपनी नवोढ़ा रानी के प्रेमपाश में बँधे हुए तथा अपनी प्रजा एवं राज्य के प्रति उदासीन राजा जयसिंह को राजकार्य की ओर प्रेरित कर दिया था नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल॥

साहित्य की शक्ति-निश्चय ही साहित्य असम्भव को भी सम्भव बना देता है। उसमें भयंकरतम अस्त्र-शस्त्रों से भी अधिक शक्ति छिपी है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। यूरोप में हानिकारक धार्मिक रूढ़ियों का उद्घाटन साहित्य ने ही किया है। जातीय स्वातन्त्र्य के बीज उसी ने बोए हैं, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के भावों को भी उसी ने पाला-पोसा और बढ़ाया है। पतित देशों का पुनरुत्थान भी उसी ने किया है।”

साहित्य पर समाज का प्रभाव-सत्य तो यह है कि साहित्य और समाज दोनों कदम-से-कदम मिलाकर चलते हैं। भारतीय साहित्य का उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि की जा सकती है। भारतीय दर्शन सुखान्तवादी है। इस दर्शन के अनुसार मृत्यु और जीवन अनन्त हैं तथा इस जन्म में बिछुड़े प्राणी दूसरे जन्म में अवश्य मिलते हैं। यहाँ तक कि भारतीय दर्शन में ईश्वर का स्वरूप भी आनन्दमय ही दर्शाया गया है। यहाँ के नाटक भी सुखान्त ही रहे हैं। इन्हीं सब कारणों से भारतीय साहित्य आदर्शवादी भावों से परिपूर्ण और सुखान्तवादी दृष्टिकोण पर आधारित रहा है। इसी प्रकार भौगोलिक दृष्टि से भारत की शस्यश्यामला भूमि, कल-कल का स्वर उत्पन्न करती हुई नदियाँ, हिमशिखरों की धवल शैलमालाएँ, वसन्त और वर्षा के मनोहारी दृश्य आदि ने भी हिन्दी-साहित्य को कम प्रभावित नहीं किया है।

उपसंहार- अन्त में हम कह सकते हैं कि समाज और साहित्य में आत्मा और शरीर जैसा सम्बन्ध है। समाज और साहित्य एक-दूसरे के पूरक हैं, इन्हें एक-दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं है; अत: आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यकार सामाजिक कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाकर साहित्य का सृजन करते रहें।

2. राष्ट्रभाषा हिन्दी

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • राष्ट्रभाषा का महत्त्व,
  • भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या,
  • देश के विकास में राष्ट्रभाषा की भूमिका,
  • राष्ट्रभाषा की समस्या और हिन्दी,
  • राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का योगदान,
  • निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

” है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।।”

-मैथिलीशरण गुप्त

रूपरेखा-

  1. राष्ट्रभाषा से तात्पर्य,
  2. राष्ट्रभाषा की आवश्यकता,
  3. भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या,
  4. राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता,
  5. राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में उत्पन्न बाधाएँ,
  6. हिन्दी के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी विचारधारा,
  7. हिन्दी के विकास सम्बन्धी प्रयत्न,
  8. हिन्दी के प्रति हमारा कर्त्तव्य,
  9. उपसंहार

राष्ट्रभाषा से तात्पर्य-किसी भी देश में सबसे अधिक बोली एवं समझी जानेवाली भाषा ही वहाँ की राष्ट्रभाषा होती है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसमें अनेक जातियों, धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं; अत: राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग राष्ट्र के सभी नागरिक कर सकें तथा राष्ट्र के सभी सरकारी कार्य उसी के माध्यम से किए जा सकें। ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कही जाती है। दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा से तात्पर्य है-किसी राष्ट्र की जनता की भाषा।

राष्ट्रभाषा की आवश्यकता-मनुष्य के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए भी राष्ट्रभाषा आवश्यक है। मनुष्य चाहे जितनी भी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर ले, परन्तु अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसे अपनी भाषा की शरण लेनी ही पड़ती है। इससे उसे मानसिक सन्तोष का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए भी राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है।

भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या-स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ विकराल रूप लिए हुए थीं। उन समस्याओं में राष्ट्रभाषा की समस्या भी थी। कानून द्वारा भी इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता था। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत एक विशाल देश है और इसमें अनेक भाषाओं को बोलनेवाले व्यक्ति निवास करते हैं; अत: किसी-न-किसी स्थान से कोई-न-कोई विरोध राष्ट्रभाषा के राष्ट्रस्तरीय प्रसार में बाधा उत्पन्न करता रहा है। इसलिए भारत में राष्ट्रभाषा की समस्या सबसे जटिल समस्या बन गई है।

राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता-संविधान का निर्माण करते समय यह प्रश्न उठा था कि किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए। प्राचीनकाल में राष्ट्र की भाषा संस्कृत थी। धीरे-धीरे अन्य प्रान्तीय भाषाओं की उन्नति हुई और संस्कृत ने अपनी पूर्व-स्थिति को खो दिया। मुगलकाल में उर्दू का विकास हुआ। अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजी ही सम्पूर्ण देश की भाषा बनी। अंग्रेजी हमारे जीवन में इतनी बस गई कि अंग्रेजी शासन के समाप्त हो जाने पर भी देश से अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त नहीं किया जा सका। इसी के प्रभावस्वरूप भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देने पर भी उसका समुचित उपयोग नहीं किया जा रहा है। यद्यपि हिन्दी एवं अहिन्दी भाषा के अनेक विद्वानों ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन किया है, तथापि आज भी हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका है।

राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में उत्पन्न बाधाएँ-स्वतन्त्र भारत के संविधान में हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया, परन्तु आज भी देश के अनेक प्रान्तों ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया है। हिन्दी संसार की सबसे अधिक सरल, मधुर एवं वैज्ञानिक भाषा है, फिर भी हिन्दी का विरोध जारी है। हिन्दी की प्रगति और उसके विकास की भावना का स्वतन्त्र भारत में अभाव है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की प्रगति के लिए केवल सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं होंगे; वरन् इसके लिए जन-सामान्य का सहयोग भी आवश्यक है।

हिन्दी के पक्ष एवं विपक्ष सम्बन्धी विचारधारा-हिन्दी भारत के विस्तृत क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा है, जिसे देश के लगभग 35 करोड़ व्यक्ति बोलते हैं। यह सरल तथा सुबोध है और इसकी लिपि भी इतनी बोधगम्य है कि थोड़े अभ्यास से ही समझ में आ जाती है। फिर भी एक वर्ग ऐसा है, जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करता। इनमें अधिकांशतः वे व्यक्ति हैं, जो अंग्रेजी के अन्धभक्त हैं या प्रान्तीयता के समर्थक। उनका कहना है कि हिन्दी केवल उत्तर भारत तक ही सीमित है। उनके अनुसार यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बना दिया गया तो अन्य प्रान्तीय भाषाएँ महत्त्वहीन हो जाएँगी। इस वर्ग की धारणा है कि हिन्दी का ज्ञान उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्रदान नहीं कर सकता। इस दृष्टि से इनका कथन है कि अंग्रेजी ही विश्व की सम्पर्क भाषा है; अत: यही राष्ट्रभाषा हो सकती है।

हिन्दी के विकास सम्बन्धी प्रयत्न-राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास में जो बाधाएँ आई हैं; उन्हें दूर किया जाना चाहिए। देवनागरी लिपि पूर्णत: वैज्ञानिक लिपि है, किन्तु उसमें वर्णमाला; शिरोरेखा, मात्रा आदि के कारण लेखन में गति नहीं आ पाती। हिन्दी व्याकरण के नियम अहिन्दी-भाषियों को बहुत कठिन लगते हैं। इनको भी सरल बनाया जाना चाहिए, जिससे वे भी हिन्दी सीखने में रुचि ले सकें। केन्द्रीय सरकार ने ‘हिन्दी निदेशालय’ की स्थापना करके हिन्दी के विकास कार्य को गति प्रदान की है। इसके अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी-साहित्य सम्मेलन आदि संस्थानों ने भी हिन्दी के विकास तथा प्रचार व प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

हिन्दी के प्रति हमारा कर्त्तव्य-हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, उसकी उन्नति ही हमारी उन्नति है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा था- निजभाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम हिन्दी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाएँ। हिन्दी के अन्तर्गत विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं की सरल शब्दावली को अपनाया जाना चाहिए। भाषा का प्रसार नारों से नहीं होता, वह निरन्तर परिश्रम और धैर्य से होता है। हिन्दी व्याकरण का प्रमाणीकरण भी किया जाना चाहिए।

उपसंहार- राष्ट्रभाषा हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। यदि हिन्दी-विरोधी अपनी स्वार्थी भावनाओं को त्याग सकें और हिन्दीभाषी धैर्य, सन्तोष और प्रेम से काम लें तो हिन्दी भाषा भारत के लिए समस्या न बनकर राष्ट्रीय जीवन का आदर्श बन जाएगी।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में कहा था- “मैं हमेशा यह मानता रहा हूँ कि हम किसी भी हालत में प्रान्तीय भाषाओं को नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रान्तों के पारस्परिक सम्बन्ध के लिए हम हिन्दी-भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिन्दी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वही भाषा राष्ट्रभाषा बन सकती है, जिसे सर्वाधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो।”

3. मेरा प्रिय कवि : तुलसीदास

अन्य सम्बन्धित शीर्षक–अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • लोकनायक तुलसीदास,
  • समन्वय के प्रतीक : तुलसीदास,
  • अपना ( मेरा) प्रिय कवि (2016, 17, 18)।

“प्रभु का निर्भय सेवक था, स्वामी था अपना
जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना।
प्रबल प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का,
अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का।।
राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस।
रामचरितमानस-कमल, जय हो तुलसीदास।।”

-जयशंकरप्रसाद
रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. जन्म की परिस्थितियाँ,
  3. तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में,
  4. तुलसी के राम,
  5. तुलसी की निष्काम भक्ति-भावना,
  6. तुलसी की समन्वय-साधना-
    • (क) सगुण-निर्गुण का समन्वय,
    • (ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय,
    • (ग) युगधर्म-समन्वय,
    • (घ) साहित्यिक समन्वय,
  7. तुलसी के दार्शनिक विचार,
  8. तुलसीकृत रचनाएँ,
  9. उपसंहार।

प्रस्तावना-मैं यह तो नहीं कहता कि मैंने बहुत अधिक अध्ययन किया है, तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर और तुलसी तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का आस्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

जन्म की परिस्थितियाँ-तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फँस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्राय: विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई उचित आदर्श नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरमसीमा पर पहुँची। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का तांण्डव नृत्य हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय की दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसकी जीवन-नौका की पतवार को सँभाल ले।

गोस्वामी तुलसीदास ने अन्धकार के गर्त में डूबी हुई जनता के समक्ष भगवान् राम का लोकमंगलकारी रूप प्रस्तुत किया और उसमें अपूर्व आशा एवं शक्ति का संचार किया। युगद्रष्टा तुलसी ने अपने ‘श्रीरामचरितमानस’ द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त विभिन्न मतों, सम्प्रदायों एवं धाराओं का समन्वय किया। उन्होंने अपने युग को नवीन दिशा, गति एवं प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे लोकनायक के समान वैमनस्य की चौड़ी खाई को पाटने का सफल प्रयत्न किया।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि “लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके; क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। भगवान् बुद्ध समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।”

तुलसी के राम-तुलसी उन राम के उपासक थे, जो सच्चिदानन्द परमब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था

जब-जब होई धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

तुलसी ने अपने काव्य में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की है, लेकिन अन्त में वे यही कहते हैं

माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥

तुलसी के समक्ष ऐसे राम का जीवन था, जो मर्यादाशील थे और शक्ति एवं सौन्दर्य के अवतार थे।

तुलसीदास की निष्काम भक्ति-भावना–सच्ची भक्ति वही है, जिसमें आदान-प्रदान का भाव नहीं होता है। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार-

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु बिषम भव भीर॥

तुलसी की समन्वय-साधना-तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाए। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय-ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित रहे हैं, इस पर तुलसीदास ने कहा

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय-तुलसी की भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनाने वाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देनेवाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं। जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने सद्कर्म करने पर बल दिया है

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करई सो तस फल चाखा।

तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के धागे में राम-नाम का मोती पिरो दिया है–

हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥

(ग) युगधर्म-समन्वय-भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और इन्हीं को युगधर्म की संज्ञा दी जाती है। तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वंय प्रस्तुत किया है-

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग॥

(घ) साहित्यिक समन्वय साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं। विभिन्न छन्दों में रचनाएँ की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार–तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गए। वस्तुत: तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक और राम को अपना स्वामी मानते हैं।

तुलसीकृत रचनाएँ–तुलसी के 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं–’श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामललानहछू’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘जानकीमंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञाप्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

उपसंहार-तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं।

4. मेरी प्रिय पुस्तक : ‘श्रीरामचरितमानस’

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-. मेरा सर्वप्रिय ग्रन्थ,

  • हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक,
  • श्रीरामचरितमानस’ का महत्त्व,
  • तुलसीदास की अमर कृति,
  • रामचरितमानस की प्रासंगिकता।

“श्रीरामचरितमानस विचार-रत्नों का भण्डार है। ‘मानस’ का प्रत्येक पृष्ठ भक्ति से भरपूर है। ‘मानस’ अनुभवजन्य ज्ञान का भण्डार है।”

-महात्मा गांधी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. ग्रन्थ-परिचय,
  3. ‘श्रीरामचरितमानस’ की विशेषताएँ-
    • (क) सदाचार के सूत्र,
    • (ख) वेद और पुराणों का संगम,
    • (ग) विश्व-प्रेम के सूत्र,
    • (घ) मानव-जीवन के आदर्श,
    • (ङ) रामराज्य की कल्पना,
    • (च) ‘श्रीरामचरितमानस’ में नीति,
    • (छ) समन्वय की भावना,।
    • (ज) भक्ति-भावना,
    • (झ) उच्चकोटि का महाकाव्य,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-आकाश में असंख्य तारे चमकते हैं, किन्तु व्यक्ति की आँखें ध्रुव तारे को ही खोजती हैं। उपवन में कितने ही पुष्प विकसित होते हैं, किन्तु दृष्टि सुकोमल और सुगन्ध-भरे गुलाब पर ही टिकती है। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्य की सैकड़ों पुस्तकों में मुझे गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ‘श्रीरामचरितमानस’ ही सबसे अधिक प्रिय है। यह वह ग्रन्थ है, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को उचित दिशा प्रदान करता है। आज से चार-सौ वर्ष पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने जिस ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना की, वह आज भी एक विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है। लगभग चार शताब्दियों से न केवल हिन्दी-भाषी जनता में, वरन् उन सभी लोगों में जो हिन्दी-भाषियों से सम्बन्धित रहे हैं, ‘श्रीरामचरितमानस’ एक महान् ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत एवं लोकप्रिय बना हुआ है।

ग्रन्थ-परिचय-‘श्रीरामचरितमानस’ में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के पावन चरित्र की झाँकी प्रस्तुत की गई है। महाकवि तुलसीदास ने संवत् 1631 में ‘श्रीरामचरितमानस’ को लिखना आरम्भ किया और यह महान् ग्रन्थ संवत् 1633 में लिखकर पूरा हुआ। इस ग्रन्थ की रचना अवधी भाषा में की गई है। इसकी कथा सात काण्ड (अंकों) में विभाजित है, जिनका क्रम इस प्रकार है–बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धा- काण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड।

तुलसीदास का ‘श्रीरामचरितमानस’ एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसके अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति को सन्तुष्ट, सुखी और सर्वहितकारी जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा मिलती है।

श्रीरामचरितमानस’ की विशेषताएँ–तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण है। इस ग्रन्थ की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है

(क) सदाचार के सूत्र–’श्रीरामचरितमानस’ सदाचार की शिक्षा देनेवाला महाकाव्य है। ‘श्रीरामचरितमानस’ के प्रारम्भ में ही कवि ने यह बता दिया है कि सदाचार क्या है। कवि के अनुसार वे ही व्यक्ति वन्दनीय हैं, जो दुःख सहकर भी दूसरे के दोषों को प्रकट नहीं करते जे सहि दुख परछिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहिं जग जस पावा॥ ‘श्रीरामचरितमानस’ में सामाजिक मर्यादा से सम्बन्धित अनेक प्रसंग प्रस्तुत किए गए हैं और स्पष्ट किया गया है कि ईश्वर का वास उन्हीं व्यक्तियों के हृदय में होता है; जो काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, राग, द्वेष, कपट और दम्भ से दूर रहते हैं; जो पर-नारी को अपनी माता के समान समझते हैं और दूसरे के धन को मिट्टी समान मानते हैं; जो दूसरे की सम्पत्ति को देखकर प्रसन्न होते हैं और दूसरे के दुःख को देखकर दु:खी हो जाते हैं।

(ख) वेद और पुराणों का संगम–’श्रीरामचरितमानस’ वेद, शास्त्र, स्मृति और पुराणों का सार-ग्रन्थ है। इसमें तुलसी ने हिन्दी-भाषा के माध्यम से भारतीय दर्शन के विभिन्न तत्त्वों को व्यक्त किया है। इस विषय में तुलसी ने लिखा है-‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् , रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥

(ग) विश्व-प्रेम के सूत्र-विश्व में जितने भी युद्ध होते हैं, उनका जन्म मानव के मन में होता है। तुलसीदासजी का मत है कि अभिमान और क्रोध से विरोध और हिंसा का जन्म होता है। इसीलिए उन्होंने ‘श्रीरामचरितमानस’ में इन दोनों दोषों को दूर करने का सुझाव दिया है। उनकी मान्यता है कि जो स्वयं को प्रभु का भक्त समझते हैं, उन्हें किसी से वैर नहीं करना चाहिए।

(घ) मानव-जीवन के आदर्श–’श्रीरामचरितमानस’ में तुलसीदास ने जिन पात्रों की सृष्टि की है, वे मानव-जीवन के आदर्श पात्र हैं। ‘श्रीरामचरितमानस’ में आदर्श भाई, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्र, आदर्श माता, आदर्श पिता, आदर्श सेवक, आदर्श राजा एवं आदर्श प्रजा को प्रस्तुत करके तुलसी ने उच्चस्तरीय मानव-आदर्श की कल्पना की है।

(ङ) रामराज्य की कल्पना-‘श्रीरामचरितमानस’ में एक ऐसे राज्य की कल्पना की गई है, जिसमें कोई किसी से वैर नहीं करता, जिसमें सब प्रेम के साथ रहते हैं और अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं, जहाँ सब उदार हों, कोई भी निर्धन न हो, कोई भी अज्ञानी न हो, किसी को भी दुःख न हो, किसी को रोग न हो; आधुनिक युग में गांधीजी ने भारत में ऐसे ही रामराज्य की कल्पना की थी।

(च) श्रीरामचरितमानस’ में नीति–’श्रीरामचरितमानस’ एक श्रेष्ठ नीति-ग्रन्थ है। इसमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि व्यक्ति को कब, किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। नीति के अन्तर्गत परोपकार, सन्त-असन्त का परिचय, शत्रु से व्यवहार करने की पद्धति और मित्रता के लक्षणों पर विचार किया गया है। एक स्थान पर बताया गया है कि यदि सचिव, गुरु और वैद्य किसी भय अथवा लाभ की आशा से चापलूसी करते हैं तो उस राजा के राज्य, धर्म और शरीर का शीघ्र ही नाश हो जाता है

सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगही नास।

(छ) समन्वय की भावना-‘श्रीरामचरितमानस’ की सबसे बड़ी विशेषता है–समन्वय की भावना। इस महान् ग्रन्थ में धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में व्याप्त गतिरोध को मिटाकर
समन्वयात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है।

(ज) भक्ति-भावना–’श्रीरामचरितमानस’ उज्ज्वल भक्ति पर आधारित काव्य है। इसमें भक्ति की भावना पूरी व्यापकता और मार्मिकता के साथ व्यक्त हुई है। तुलसी की भक्ति दास्य-भाव की है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में तुलसी के इसी दास्य-भाव की पुष्टि हुई है

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहों निरवान।
जनम-जनम रति राम पद, यह बरदान न आन॥

(झ) उच्चकोटि का महाकाव्य-‘श्रीरामचरितमानस’ उच्चकोटि का महाकाव्य है। काव्य-कला की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ काव्य-कृति है। प्रबन्ध-सौष्ठव, भाषा-सौष्ठव, छन्द-सौष्ठव और अलंकार- सौष्ठव की दृष्टि से यह ग्रन्थ अद्वितीय है। वस्तुत: भाव और कला दोनों दृष्टिकोणों से यह विश्व का एक महान् ग्रन्थ है।

उपसंहार-इस प्रकार ‘श्रीरामचरितमानस’ विश्व-साहित्य की अनुपम कृति है। प्रसिद्ध भक्त और ‘मानस’ के व्याख्याता श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार ने ‘श्रीरामचरितमानस’ की विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया है- ‘श्रीरामचरितमानस’ का स्थान हिन्दी-साहित्य में ही नहीं, जगत् के साहित्य में निराला है। इसके जोड़ का ऐसा ही सर्वांगसुन्दर, उत्तम काव्य के लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रसों का आस्वादन करानेवाला, काव्य-कला की दृष्टि से भी सर्वोच्च कोटि का तथा आदर्श गार्हस्थ्य-जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पातिव्रत-धर्म, आदर्श भ्रातृ-धर्म के साथ-साथ सर्वोच्च भक्ति-ज्ञान, त्याग-वैराग्य तथा सदाचार की शिक्षा देनेवाला, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध-युवा-सबके लिए समान उपयोगी एवं सर्वोपरि सगुण-साकार भगवान् की आदर्श मानव-लीला तथा उनके गुण, प्रभाव, रहस्य और प्रेम के गहन तत्त्व को अत्यन्त सरस, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करनेवाला कोई दूसरा ग्रन्थ हिन्दी भाषा में ही नहीं, कदाचित् संसार की किसी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया।

5. मेरा प्रिय उपन्यासकार : प्रेमचन्द

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • कथा-साहित्य और प्रेमचन्द,
  • साहित्य के गौरव : प्रेमचन्द,
  • कलम का सिपाही : प्रेमचन्द,
  • मेरा प्रिय लेखक,
  • मेरा प्रिय उपन्यासकार,
  • मेरा प्रिय कहानीकार,
  • मेरा प्रिय साहित्यकार (2016, 17, 18)।

“प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित और अपमानित कृषकों की आवाज थे। वे परदे में कैद, पद-पद पर लांछित और अपमानित असहाय नारी-जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे।”

-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. संक्षिप्त परिचय,
  3. कथा-साहित्य में प्रेमचन्द का आगमन : एक नए युग का सूत्रपात,
  4. प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में विषय की विविधता,
  5. आदर्शोन्मुख यथार्थवाद,
  6. शाश्वत जीवन-मूल्य,
  7. भारतीयता पर आधारित दृष्टिकोण,
  8. क्रान्तिद्रष्टा साहित्यकार,
  9. राष्ट्रवादी दृष्टिकोण।]

प्रस्तावना- प्रेमचन्द हिन्दी-साहित्य के एक ऐसे कथाकार का नाम है, जिससे सामान्य-से-सामान्य साक्षर व्यक्ति भी परिचित है। उनके साहित्य की पहुँच झोपड़ी से लेकर राजमहल तक है। झोपड़ी से लेकर राजमहल तक जो कुछ भी प्रेमचन्द के दृष्टिपथ में आया, उनके साहित्य का विषय बन गया। कैसा होगा वह साहित्यकार, जो अपने जीवन-पथ में सब-कुछ स्वीकारता तथा अपनाता चला गया। किसी को भी उससे उपेक्षा नहीं मिली, चाहे वह राह का पत्थर था या मन्दिर का देवता। प्रेमचन्द की दृष्टि में सब समान थे। वे दीन-दुःखियों के पक्षधर, कृषकों के मित्र, अन्याय के विरोधी, शोषण के शत्रु और साहित्य के पुजारी थे। भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था! तू धन्य है कि तेरी छत्रच्छाया में इस जैसे महान् साहित्यकार का जन्म हुआ।

संक्षिप्त परिचय- प्रेमचन्द का जन्म वाराणसी के निकट लमही गाँव में 31 जुलाई, 1880 ई० को हुआ था। निरन्तर साहित्य-सेवा करते हुए और भारत की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हुए उपन्यास-सम्राट् प्रेमचन्द भारत के स्वाधीन होने से दस-ग्यारह वर्ष पहले 8 अक्टूबर, 1936 ई० को हमसे सदा के लिए विदा हो गए।

कथा-साहित्य में प्रेमचन्द का आगमन : एक नए युग का सूत्रपात- हिन्दी-कथा-साहित्य में प्रेमचन्द के आगमन से एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उन्होंने हिन्दी-कथा-साहित्य को नया आयाम दिया और उसे अनन्त विस्तारमय क्षितिजों का संस्पर्श कराया।

प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में विषय की विविधता- प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में विषय की विविधता है। वे कहानी को मानव-जीवन का चित्रण मानते हैं। मानव-जीवन विविधतापूर्ण है; अत: उनकी कहानियों और उपन्यासों में जीवन के विविध मार्मिक पक्षों का उद्घाटन हुआ है। उनमें कहीं पर जीवन का सामाजिक पक्ष उभरा है, कहीं आर्थिक, कहीं नैतिक तो कहीं मनोवैज्ञानिक।

आदर्शोन्मुख यथार्थवाद– प्रेमचन्द शिव (कल्याण) के उपासक थे। उनकी रचनाओं में यथार्थ जीवन का चित्रण हुआ है; किन्तु जीवन के आदर्श रूप की ओर मुड़ती हुई ये रचनाएँ हमारे मन पर मंगलमय प्रभाव छोड़ती हैं। इस प्रकार उनकी रचनाएँ यथार्थ की पृष्ठभूमि पर प्रतिष्ठित होते हुए भी आदर्श की ओर उन्मुख हैं। यह आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनकी रचनाओं की अपनी विशेषता है।

शाश्वत जीवन-मूल्य- प्रेमचन्द शाश्वत जीवन-मूल्यों के लेखक थे। उनकी धारदार दृष्टि ने जीवन की वास्तविकता को देखा और परखा था। उन्होंने पराधीनता की कठोरताओं को देखा और भोगा था। उनका साहित्य इन परिस्थितियों और अनुभवों का सच्चा दस्तावेज है। जिन जीवन-मूल्यों को प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में उद्घाटित किया है, वे आज भी हमारे समाज के लिए पूर्ण रूप से मूल्यवान् हैं।

भारतीयता पर आधारित दृष्टिकोण–प्रेमचन्द की सम्पूर्ण रचनाएँ भारतीयता से ओत-प्रोत हैं। उनके साहित्य में स्वतन्त्रतापूर्व भारतीय परिवेश की जीती-जागती झाँकी प्रस्तुत हुई है। उसमें सामाजिक जीवन के विविध रूप व व्यापक दृश्य आज भी ज्यों-के-त्यों बोलते-से दिखाई देते हैं।

क्रान्तिद्रष्टा साहित्यकार– गांधीजी ने देश की स्वाधीनता के लिए जिस विचार-क्रान्ति की वकालत की थी, उसे प्रेमचन्द ने अपने साहित्य द्वारा विकसित किया। इस दृष्टि से प्रेमचन्द क्रान्तिद्रष्टा साहित्यकार कहे जा सकते हैं। उनके साहित्य में समाज-सुधार की भावना व्यक्त हुई है। अपने समाज का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब उनके समूचे साहित्य की मर्यादा है। सामाजिक शोषण, अन्याय और धनी-निर्धन के अन्तर को उद्घाटित करने के लिए प्रेमचन्द ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण– प्रेमचन्द राष्ट्रवादी लेखक थे। उनकी पहली कहानी से लेकर अन्तिम कहानी ‘कफन’ तक के सम्पूर्ण कथा-साहित्य में उनके अन्दर एक राष्ट्रभक्त का मन प्रतिबिम्बित होता है। देश की निर्धनता और शोषित वर्ग की उन्नति के लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे। अपनी ‘गोदान’ जैसी महान् औपन्यासिक कृति में वे देशकी जन-संस्कृति से जुड़कर चले हैं। इस प्रकार उनके साहित्य में उनका राष्ट्रवादी रूप ही मुखरित हुआ है। उनके द्वारा रचित कृतियाँ मात्र हिन्दी-साहित्य अथवा भारत की ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व-साहित्य की गौरव निधि हैं।

(ख) सूक्तिपरक निबन्ध 6. जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना [2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना (सुमति से आशय),
  2. कुमति से तात्पर्य,
  3. विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ,
  4. सम्पत्ति का साधन : सुमति,
  5. सुमति एवं नैतिकता,
  6. सुमति और एकता,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना (सुमति से आशय)-बुद्धि के कारण मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। बुद्धि के साथ विवेक केवल मनुष्य में पाया जाता है। विवेक और बुद्धि के समुचित समन्वय को ही सुमति के नाम से जाता है। विवेक के बिना बुद्धि का कोई महत्त्व नहीं है। क्योंकि विवेक ही मनुष्य को उचित-अनुचित का ज्ञान कराता है। मनुष्य को किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यही विवेक कहलाता है। विवेकपूर्वक किया गया कार्य न केवल व्यक्ति-विशेष, अपितु प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी होता है। बुद्धि विवेकपूर्वक किए जानेवाले कार्य की दशा और दिशा का निर्धारण करके उसे और अधिक कल्याणकारी बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करती है। आशय यही है कि सुमति संसार में सुख-समृद्धि लाने का एक अकेला उपाय है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ के सुन्दरकाण्ड में कहा है जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।

जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

कुमति से तात्पर्य– विवेक के अभाव में अर्थात् अविवेक से समन्वित बुद्धि बिगडैल हाथी के समान होती है, जो केवल तोड़-फोड़, विध्वंस एवं संहार कर सकती है। इसी संहारक बुद्धि को कुमति कहा जाता है। जब मनुष्य अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाता है तो उसे बुद्धिमान् कहते हैं और कहते हैं कि वह बड़ा सबद्धिवाला है। सुबुद्धि या सुमति की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, वह अच्छे कार्यों में लगा होता है। कुमति का प्रभाव व्यक्ति पर शीघ्र पड़ता है और उससे उसकी सुमति कुमति में परिवर्तित हो जाती है; अतः मनुष्य निकृष्ट कार्यों को करता है और ये निकृष्ट कार्य ही उसके लिए दुःख का कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा गया है कुमति कुंज तिन जेहि घर व्यापै सुमति सुहागिन जाय विलापै।

विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ-किसी कार्य को बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिए; क्योंकि अविवेक के कारण मनुष्य बड़ी विपत्ति (मुसीबत) में फँस जाता है। इसके विपरीत सोच-समझकर अर्थात् विवेक या सुमति से कार्य करने पर व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। जिससे उसके जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इन्हीं सुख-समृद्धियों को सम्पत्ति कहा जाता है। सम्पत्ति से आशय केवल धन-दौलत से नहीं होता, अपितु मन का चैन, शान्ति और सन्तोष भी सम्पत्ति के अभिन्न अंग हैं। कबीरदासजी ने तो सन्तोष को सबसे बड़ा धन (सम्पत्ति) कहा है–

गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जौ आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान॥

सम्पत्ति का साधन : सुमति-संसार में जो व्यक्ति सोच-समझकर अर्थात् विवेक अथवा सुमति से कार्य करता है, उसके पास विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने आप आती हैं। स्पष्ट है कि जहाँ सुमति का साम्राज्य होता है, वहाँ सम्पत्ति स्वयं घर बनाकर रहती है। सुमति के अभाव में मनुष्य सोच-विचारकर कार्य नहीं करता; परिणामस्वरूप उसे अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण–प्रेमचन्द राष्ट्रवादी लेखक थे। उनकी पहली कहानी से लेकर अन्तिम कहानी ‘कफन’ तक के सम्पूर्ण कथा-साहित्य में उनके अन्दर एक राष्ट्रभक्त का मन प्रतिबिम्बित होता है। देश की निर्धनता और शोषित वर्ग की उन्नति के लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे। अपनी ‘गोदान’ जैसी महान् औपन्यासिक कृति में वे देशकी जन-संस्कृति से जुड़कर चले हैं। इस प्रकार उनके साहित्य में उनका राष्ट्रवादी रूप ही मुखरित हुआ है। उनके द्वारा रचित कृतियाँ मात्र हिन्दी-साहित्य अथवा भारत की ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व-साहित्य की गौरव निधि हैं।

(ख) सूक्तिपरक निबन्ध

6. जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना
[2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना (सुमति से आशय),
  2. कुमति से तात्पर्य,
  3. विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ,
  4. सम्पत्ति का साधन : सुमति,
  5. सुमति एवं नैतिकता,
  6. सुमति और एकता,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना (सुमति से आशय)-बुद्धि के कारण मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। बुद्धि के साथ विवेक केवल मनुष्य में पाया जाता है। विवेक और बुद्धि के समुचित समन्वय को ही सुमति के नाम से जाता है। विवेक के बिना बुद्धि का कोई महत्त्व नहीं है। क्योंकि विवेक ही मनुष्य को उचित-अनुचित का ज्ञान कराता है। मनुष्य को किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यही विवेक कहलाता है। विवेकपूर्वक किया गया कार्य न केवल व्यक्ति-विशेष, अपितु प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी होता है। बुद्धि विवेकपूर्वक किए जानेवाले कार्य की दशा और दिशा का निर्धारण करके उसे और अधिक कल्याणकारी बनाने में उत्प्रेरक का कार्य करती है। आशय यही है कि सुमति संसार में सुख-समृद्धि लाने का एक अकेला उपाय है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ के सुन्दरकाण्ड में कहा है

जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥

कुमति से तात्पर्य–विवेक के अभाव में अर्थात् अविवेक से समन्वित बुद्धि बिगडैल हाथी के समान होती है, जो केवल तोड़-फोड़, विध्वंस एवं संहार कर सकती है। इसी संहारक बुद्धि को कुमति कहा जाता है। जब मनुष्य अपनी बुद्धि को श्रेष्ठ कार्यों में लगाता है तो उसे बुद्धिमान् कहते हैं और कहते हैं कि वह बड़ा सबद्धिवाला है। सुबुद्धि या सुमति की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, वह अच्छे कार्यों में लगा होता है। कुमति का प्रभाव व्यक्ति पर शीघ्र पड़ता है और उससे उसकी सुमति कुमति में परिवर्तित हो जाती है; अतः मनुष्य निकृष्ट कार्यों को करता है और ये निकृष्ट कार्य ही उसके लिए दुःख का कारण बन जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-

कुमति कुंज तिन जेहि घर व्यापै सुमति सुहागिन जाय विलापै।

विपत्ति एवं सम्पत्ति का अर्थ-किसी कार्य को बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिए; क्योंकि अविवेक के कारण मनुष्य बड़ी विपत्ति (मुसीबत) में फँस जाता है। इसके विपरीत सोच-समझकर अर्थात् विवेक या सुमति से कार्य करने पर व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं। जिससे उसके जीवन में सुख-समृद्धि आती है। इन्हीं सुख-समृद्धियों को सम्पत्ति कहा जाता है। सम्पत्ति से आशय केवल धन-दौलत से नहीं होता, अपितु मन का चैन, शान्ति और सन्तोष भी सम्पत्ति के अभिन्न अंग हैं। कबीरदासजी ने तो सन्तोष को सबसे बड़ा धन (सम्पत्ति) कहा है–

गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन-धन खान।
जौ आवै सन्तोष-धन, सब धन धूरि समान॥

सम्पत्ति का साधन : सुमति-संसार में जो व्यक्ति सोच-समझकर अर्थात् विवेक अथवा सुमति से कार्य करता है, उसके पास विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने आप आती हैं। स्पष्ट है कि जहाँ सुमति का साम्राज्य होता है, वहाँ सम्पत्ति स्वयं घर बनाकर रहती है। सुमति के अभाव में मनुष्य सोच-विचारकर कार्य नहीं करता; परिणामस्वरूप उसे अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है

बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है-
जाको विधि दारुन दुख देई, ताकी मति पहलेहि हर लेई। अर्थात् जिसे ईश्वर घोर कष्ट देना चाहता है, उसकी बुद्धि को वह पहले ही छीन लेता है। जब किसी व्यक्ति की बुद्धि उससे छिन जाती है तो वह कुबुद्धि के प्रभावस्वरूप अनैतिक आचरण करता है, जो उसके लिए महान् दु:ख का कारण बन जाता है। इसलिए इस बात में कोई संशय नहीं रह जाता है कि सुखों की प्राप्ति सुमति से ही सम्भव है।

सुमति हमें मानव-मूल्यों के पालन और संरक्षण की प्रेरणा देती है। प्रेम, मेल-मिलाप, भाईचारा, एकता, परोपकार, दया, करुणा आदि ऐसे ही जीवन-मूल्य हैं, जिन्हें सुमति पोषित करती है। जिस देश में लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं, उस देश में सर्वत्र सुख-समृद्धि फैली होती है। इसलिए हम सुमतिरूपी तलवार से दरिद्रता के बन्धनों को काट सकते हैं। सुमति हमारे कुविचारों पर नियन्त्रण रखती है, जिससे हम कोई अनुचित कार्य नहीं कर पाते। निकृष्ट कार्यों की जड़ कुमति होती है, इसलिए हमें सदैव सुमति से काम करना चाहिए।

जिस देश और समाज में लोग सुमति से काम करते हैं, वह धन-धान्य एवं अनेक सुख से परिपूर्ण हो जाता है। जिस परिवार में पति और पत्नी सुमति से काम करते हैं, वह परिवार स्वर्ग के तुल्य हो जाता है, किन्तु जिन परिवारों में सुमति का अभाव होता है, उन परिवारों का वातावरण अत्यधिक तनाव एवं क्लेश के कारण नरकतुल्य हो जाता है।

सुमति एवं नैतिकता–यदि हम यह कहें कि सुमति ही शक्ति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिस देश या जाति में सुमति होती है, वही उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं और उनका यश चारों दिशाओं में फैलता है। सुमति सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी सुमति का आश्रय नहीं छोड़ते हैं, वे ही जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं। सत्य बोलना, मीठा बोलना, बड़ों का आदर करना आदि मानवोचित गुण हमें सुमति द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्ति में सुमति का अभाव होता है, उसमें अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष आदि दोष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। मनुष्य में सुमति का न होना उसके लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। जहाँ सुमति नहीं होती, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ आदि का साम्राज्य होता है। सुमति के अभाव में मनुष्य ऐसे-ऐसे कार्य कर डालता है, जो उसके एवं समाज दोनों के लिए हानिकारक होते हैं। कुमति के कारण लोग परस्पर संघर्ष करते हैं एवं अपने आचरण से दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं। दूसरों को कष्ट पहुँचाकर कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता; अत: कुमति के कारण दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर व्यक्ति स्वयं भी अपार पीड़ा को भोगता है।

सुमति और एकता-सुमति समाज को एकता के सूत्र में बाँधती है। एकता सुख एवं समृद्धि की जननी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एकता से समाज में शक्ति का संचार होता है और आपसीफूट तथा भेदभाव उसे छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसीलिए हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है

घटे ते हेल-मेल हा! बढ़े न भिन्नता कभी,
अतयं एक पन्थ के सतर्क पान्थ हों सभी।

उपसंहार-आज कुमति एवं अविवेक के कारण ही सम्पूर्ण संसार विनाश के ज्वालामुखी पर बैठा है। परमाणु अस्त्रों की होड़ ने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। उसकी कुमति अथवा अविवेक ने ही संसार में आतंकवाद को फैलाकर उसके मन का सुख-चैन एवं शान्ति भंग कर दी है। भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक कार्य भी उसकी कुमति का ही परिणाम हैं। सुमति द्वारा ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। हम आज के समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, द्वेष एवं घृणा पर विजय केवल सुमति द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। सुमति ही हमें अनीति, अन्याय एवं अत्याचार से निपटने का उपाय सुझाती है। इसी के द्वारा हम समाज में न्याय एवं नैतिकता की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। यदि मनुष्य सुमति का आश्रय ले तो समाज में सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के साम्राज्य की स्थापना होगी, इसमें किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है।

7. परहित सरिस धर्म नहिं भाई

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • परोपकार,
  • परोपकार का महत्त्व,
  • मानवता का आधार : परोपकार,
  • परहित बस जिनके मन माहीं,
  • वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे,
  • परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

“वह शरीर क्या जिससे जग का, कोई भी उपकार न हो।
वृथा जन्म उस नर का जिसके, मन में दया-विचार न हो।।”

-आरसीप्रसाद सिंह

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. सभी मनुष्य समान हैं,
  3. प्रकृति और परोपकार,
  4. परोपकार के अनेक उदाहरण,
  5. परोपकार के लाभ,
  6. परोपकार के विभिन्न रूप,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-मानव एक सामाजिक प्राणी है; अतः समाज में रहकर उसे अन्य प्राणियों के प्रति कुछ दायित्वों का भी निर्वाह करना पड़ता है। इसमें परहित अथवा परोपकार की भावना पर आधारित दायित्व सर्वोपरि है। तुलसीदासजी के अनुसार जिनके हृदय में परहित का भाव विद्यमान है, वे संसार में सबकुछ कर सकते हैं। उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है

परहित बस जिनके मन माहीं। तिन्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

सभी मनुष्य समान हैं– भगवान् द्वारा बनाए गए समस्त मानव समान हैं; अत: इनमें परस्पर प्रेमभाव होना ही चाहिए। किसी व्यक्ति पर संकट आने पर दूसरों को उसकी सहायता अवश्य करनी चाहिए। दूसरों को कष्ट से कराहते हुए देखकर भी भोग-विलास में लिप्त रहना उचित नहीं है। अकेले ही भाँति-भाँति के भोजन करना और आनन्दमय रहना तो पशुओं की प्रवृत्ति है। मनुष्य तो वही है, जो मानव-मात्र हेतु अपना सबकुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहे

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

-मैथिलीशरण गुप्त –

प्रकृति और परोपकार–प्राकृतिक क्षेत्र में सर्वत्र परोपकार-भावना के दर्शन होते हैं। सूर्य सबके लिए प्रकाश विकीर्ण करता है। चन्द्रमा की शीतल किरणें सभी का ताप हरती हैं। मेघ सबके लिए जल की वर्षा करते हैं। वायु सभी के लिए जीवनदायिनी है। फूल सभी के लिए अपनी सुगन्ध लुटाते हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदियाँ अपने जल को संचित करके नहीं रखतीं। इसी प्रकार सत्पुरुष भी दूसरों के हित के लिए ही अपना शरीर धारण करते हैं-

वृच्छ कबहूँ नहीं फल भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर॥

-रहीम

परोपकार के अनेक उदाहरण–इतिहास एवं पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनको पढ़ने से यह विदित होता है कि परोपकार के लिए महान् व्यक्तियों ने अपने शरीर तक का त्याग कर दिया। पुराण में एक कथा आती है कि एक बार वृत्रासुर नामक महाप्रतापी राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी। उसका वध दधीचि ऋषि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही हो सकता था। उसके अत्याचारों से दु:खी होकर देवराज इन्द्र दधीचि की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे उनकी अस्थियों के लिए याचना की। महर्षि दधीचि ने प्राणायाम के द्वारा अपना शरीर त्याग दिया और इन्द्र ने उनकी अस्थियों से बनाए गए वज्र से वृत्रासुर का वध किया। इसी प्रकार महाराज शिबि ने एक कबूतर के प्राण बचाने के लिए अपने शरीर का मांस भी दे दिया। सचमुच वे महान् पुरुष धन्य हैं; जिन्होंने परोपकार के लिए अपने शरीर एवं प्राणों की भी चिन्ता नहीं की।

संसार के कितने ही महान् कार्य परोपकार की भावना के फलस्वरूप ही सम्पन्न हुए हैं। महान् देशभक्तों ने परोपकार की भावना से प्रेरित होकर ही अपने प्राणों की बलि दे दी। उनके हृदय में देशवासियों की कल्याण-कामना ही निहित थी। हमारे देश के अनेक महान् सन्तों ने भी लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही अपना सम्पूर्ण जीवन ‘सर्वजन हिताय’ समर्पित कर दिया। महान् वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों से जन-जन का कल्याण किया है।

परोपकार के लाभ-परोपकार की भावना से मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है। परोपकार की भावना का उदय होने पर मानव ‘स्व’ की सीमित परिधि से ऊपर उठकर ‘पर’ के विषय में सोचता है। इस प्रकार उसकी आत्मिक शक्ति का विस्तार होता है और वह जन-जन के कल्याण की ओर अग्रसर होता है।

परोपकार भ्रातृत्व भाव का भी परिचायक है। परोपकार की भावना ही आगे बढ़कर विश्वबन्धुत्व के रूप में परिणत होती है। यदि सभी लोग परहित की बात सोचते रहें तो परस्पर भाईचारे की भावना में वृद्धि होगी और सभी प्रकार के लड़ाई-झगड़े स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे।

परोपकार से मानव को अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। इसका अनुभव सहज में ही किया जा सकता है। यदि हम किसी व्यक्ति को संकट से उबारें, किसी भूखे को भोजन दें अथवा किसी नंगे व्यक्ति को वस्त्र दें तो इससे हमें स्वाभाविक आनन्द की प्राप्ति होगी। हमारी संस्कृति में परोपकार को पुण्य तथा परपीड़न को पाप माना गया है-

‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्’

परोपकार के विभिन्न रूप–परोपकार की भावना अनेक रूपों में प्रकट होती दिखाई पड़ती है। धर्मशालाओं, धर्मार्थ औषधालयों एवं जलाशयों आदि का निर्माण तथा भूमि, भोजन, वस्त्र आदि का दान परोपकार के ही विभिन्न रूप हैं। इनके पीछे सर्वजन हिताय एवं प्राणिमात्र के प्रति प्रेम की भावना निहित रहती परोपकार की भावना केवल मनुष्यों के कल्याण तक ही सीमित नहीं है, इसका क्षेत्र समस्त प्राणियों के हितार्थ किए जानेवाले समस्त प्रकार के कार्यों तक विस्तृत है। अनेक धर्मात्मा गायों के संरक्षण के लिए गोशालाओं तथा पशुओं के जल पीने के लिए हौजों का निर्माण कराते हैं। यहाँ तक कि बहुत-से लोग बन्दरों को चने खिलाते हैं तथा चींटियों के बिलों पर शक्कर अथवा आटा डालते हुए दिखाई पड़ते हैं।

परोपकार में ‘सर्वभूतहिते रतः’ की भावना विद्यमान है। गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाए तो संसार के सभी प्राणी परमपिता परमात्मा के ही अंश हैं; अत: हमारा यह परम कर्त्तव्य है कि हम सभी प्राणियों के हित-चिन्तन में रत रहें। यदि सभी लोग इस भावना का अनुसरण करें तो संसार से शीघ्र ही दुःख एवं दरिद्रता का लोप हो जाएगा।

उपसंहार-परोपकारी व्यक्तियों का जीवन आदर्श माना जाता है। उनका यश चिरकाल तक स्थायी रहता है। मानव स्वभावतः यश की कामना करता है। परोपकार के द्वारा उसे समाज में सम्मान तथा स्थायी यश की प्राप्ति हो सकती है। महर्षि दधीचि, महाराज शिबि, हरिश्चन्द्र, राजा रन्तिदेव जैसे पौराणिक चरित्र आज भी अपने परोपकार के कारण ही याद किए जाते हैं।

परोपकार से राष्ट्र का चरित्र जाना जाता है। जिस समाज में जितने अधिक परोपकारी व्यक्ति होंगे, वह उतना ही सुखी होगा। समाज में सुख-शान्ति के विकास के लिए परोपकार की भावना के विकास की परम आवश्यकता है। इस दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में यह कहना भी उपयुक्त ही होगा

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

अर्थात् परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है और परपीड़ा के समान कोई पाप नहीं है।

8. मन के हारे हार है मन के जीते जीत

अन्य सम्बन्धित शीर्षक- मन की शक्ति का महत्त्व,

  • मन ही सफलता की कुंजी है,
  • इच्छा-शक्ति के चमत्कार,
  • साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई [2016]

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. उक्ति का आशय,
  3. मन की दृढ़ता के कुछ उदाहरण,
  4. कर्म के सम्पादन में मन की शक्ति,
  5. सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म,
  6. मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए?
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-संस्कृत की एक कहावत है–’मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। तात्पर्य यह है कि मन ही मनुष्य को सांसारिक बन्धनों में बाँधता है और मन ही बन्धनों से छुटकारा दिलाता है। यदि मन न चाहे तो व्यक्ति बड़े-से-बड़े बन्धनों की भी उपेक्षा कर सकता है। शंकराचार्य ने कहा है कि “जिसने मन को जीत लिया, उसने जगत् को जीत लिया।” मन ही मनुष्य को स्वर्ग या नरक में बिठा देता है। स्वर्ग या नरक में जाने की कुंजी भगवान् ने हमारे हाथों में ही दे रखी

उक्ति का आशय-मन के महत्त्व पर विचार करने के उपरान्त प्रकरण सम्बन्धी उक्ति के आशय पर विचार किया जाना आवश्यक है। यह उक्ति अपने पूर्ण रूप में इस प्रकार है

दुःख-सुख सब कहँ परत है, पौरुष तजहु न मीत।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत॥

अर्थात् दुःख और सुख तो सभी पर पड़ा करते हैं, इसलिए अपना पौरुष मत छोड़ो; क्योंकि हार और जीत तो केवल मन के मानने अथवा न मानने पर ही निर्भर है, अर्थात् मन के द्वारा हार स्वीकार किए जाने पर व्यक्ति की हार सुनिश्चित है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति का मन हार स्वीकार नहीं करता तो विपरीत परिस्थितियों में भी विजयश्री उसके चरण चूमती है। जय-पराजय, हानि-लाभ, यश-अपयश और दुःख-सुख सब मन के ही कारण हैं; इसलिए व्यक्ति जैसा अनुभव करेगा वैसा ही वह बनेगा।

मन की दृढ़ता के कुछ उदाहरण-हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें मन की संकल्प-शक्ति के द्वारा व्यक्तियों ने अपनी हार को विजयश्री में परिवर्तित कर दिया। महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की जीत का कारण यही था कि श्रीकृष्ण ने उनके मनोबल को दृढ़ कर दिया था। नचिकेता ने न केवल मृत्यु को पराजित किया, अपितु यमराज से अपनी इच्छानुसार वरदान भी प्राप्त किए। सावित्री के मन ने यमराज के सामने भी हार नहीं मानी और अन्त में अपने पति को मृत्यु के मुख से निकाल लाने में सफलता प्राप्त की। अल्प साधनोंवाले महाराणा प्रताप ने अपने मन में दृढ़-संकल्प करके मुगल सम्राट अकबर से युद्ध किया। शिवाजी ने बहुत थोड़ी सेना लेकर ही औरंगजेब के दाँत खट्टे कर दिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा किए गए अणुबम के विस्फोट ने जापान को पूरी तरह बरबाद कर दिया था, किन्तु अपने मनोबल की दृढ़ता के कारण आज वही जापान विश्व के गिने-चुने शक्तिसम्पन्न देशों में से एक है। दुबले-पतले गांधीजी ने अपने दृढ़ संकल्प से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया था। इस प्रकार के कितने ही उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हार-जीत मन की दृढ़ता पर ही निर्भर है।

कर्म के सम्पादन में मन की शक्ति–प्रायः देखा गया है कि जिस काम के प्रति व्यक्ति का रुझान अधिक होता है, उस कार्य को वह कष्ट सहन करते हुए भी पूरा करता है। जैसे ही किसी कार्य के प्रति मन की आसक्ति कम हो जाती है, वैसे-वैसे ही उसे सम्पन्न करने के प्रयत्न भी शिथिल हो जाते हैं। हिमाच्छादित पर्वतों पर चढ़ाई करनेवाले पर्वतारोहियों के मन में अपने कर्म के प्रति आसक्ति रहती है। आसक्ति की यह भावना उन्हें निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती है।

सफलता की कुंजी : मन की स्थिरता, धैर्य एवं सतत कर्म-वस्तुत: मन सफलता की कुंजी है। जब तक हमारे मन में किसी कार्य को करने की तीव्र इच्छा रहेगी, तब तक असफल होते हुए भी उस काम को करने की आशा बनी रहेगी। एक प्रसिद्ध कहानी है कि एक राजा ने कई बार अपने शत्रु से युद्ध किया और पराजित हुआ। पराजित होने पर वह एकान्त कक्ष में बैठ गया। वहाँ उसने एक मकड़ी को ऊपर चढ़ते देखा। मकड़ी कई बार ऊपर चढ़ी, किन्तु वह बार-बार गिरती रही। अन्ततः वह ऊपर चढ़ ही गई। इससे राजा को अपार प्रेरणा मिली। उसने पुनः शक्ति का संचय किया और अपने शत्रु को पराजित करके अपना राज्य वापस ले लिया। इस छोटी-सी कथा में यही सार निहित है कि मन के न हारने पर एक-न-एक दिन सफलता मिल ही जाती है।

मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए?–प्रश्न यह उठता है कि मन को शक्तिसम्पन्न कैसे किया जाए? मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए सबसे पहले उसे अपने वश में रखना होगा।

अर्थात् जिसने अपने मन को वश में कर लिया, उसने संसार को वश में कर लिया, किन्तु जो मनुष्य मन को न जीतकर स्वयं उसके वश में हो जाता है, उसने मानो सारे संसार की अधीनता स्वीकार कर ली।

मन को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए हीनता की भावना को दूर करना भी आवश्यक है। जब व्यक्ति यह सोचता है कि मैं अशक्त हूँ, दीन-हीन हूँ, शक्ति और साधनों से रहित हूँ तो उसका मन कमजोर हो जाता है। इसीलिए इस हीनता की भावना से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मन को शक्तिसम्पन्न बनाना आवश्यक है।

उपसंहार–मन परम शक्तिसम्पन्न है। यह अनन्त शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को पहचानकर ऋग्वेद में यह संकल्प अनेक बार दुहराया गया है-“अहमिन्द्रो न पराजिग्ये” अर्थात् मैं शक्ति का केन्द्र हूँ और जीवनपर्यन्त मेरी पराजय नहीं हो सकती है। यदि मन की इस अपरिमित शक्ति को भूलकर हमने उसे दुर्बल बना लिया तो सबकुछ होते हुए भी हम अपने को असन्तुष्ट और परमजित ही अनुभव करेंगे और यदि मन को शक्तिसम्पन्न बनाकर रखेंगे तो जीवन में पराजय और असफलता का अनुभव कभी न होगा।

9. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • देश हमारा, प्राणों से प्यारा,
  • जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. भारत की सीमाएँ,
  3. विभिन्न धर्मों का संगम,
  4. भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य,
  5. महापुरुषों की धरती,
  6. भारत के आदर्श,
  7. उपसंहार।

प्रस्तावना-स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि “यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है, जिसे हम पुण्यभूमि कह सकते हैं; यदि कोई ऐसा स्थान है, जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है; यदि कोई ऐसा स्थान है, जहाँ भगवान् को प्राप्त करने की आकांक्षा रखनेवाले जीवमात्र को आना होगा; यदि कोई ऐसा देश है, जहाँ मानव-जाति के भीतर क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का अपेक्षाकृत अधिक विकास हुआ है तो मैं निश्चित रूप से कहूँगा कि वह हमारी मातृभूमि भारतवर्ष ही है।”

भारत देश हमारे लिए स्वर्ग के समान सुन्दर है। इसने हमें जन्म दिया है। इसकी गोद में पलकर हम बड़े हुए हैं। इसके अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण हुआ है। इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि हम इसे प्यार करें, इसे अपना समझें तथा इस पर सर्वस्व न्योछावर कर दें।

भारत की सीमाएँ-आधुनिक भारत उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। उत्तर में भारतमाता के सिर पर हिममुकुट के समान हिमालय सुशोभित है तथा दक्षिण में हिन्द महासागर इसके चरणों को निरन्तर धोता रहता है।

विभिन्न धर्मों का संगम- मेरा प्यारा भारत संसार के बड़े राष्ट्रों में से एक है और यह संसार का सबसे बड़ा प्रजातान्त्रिक राष्ट्र है। जनसंख्या की दृष्टि से इसका विश्व में दूसरा स्थान है। यहाँ पर प्राय: सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। यद्यपि यहाँ हिन्दुओं की संख्या सबसे अधिक है। फिर भी मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी, बौद्ध, जैन आदि भी इस देश के निवासी हैं और उन्हें न केवल समान अधिकार प्राप्त हैं, वरन् सरकार द्वारा उन्हें विशेष संरक्षण भी प्रदान किया जाता है। सभी धर्मों के माननेवालों को यहाँ अपनी-अपनी उपासना-पद्धति को अपनाने की पूरी स्वतन्त्रता है। यहाँ सभी अपनी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। इस प्रकार भारत देश एक कुटुम्ब के समान है। इसे समस्त धर्मों का संगम-स्थल भी कह सकते हैं।

भारत का प्राकृतिक सौन्दर्य-भारत में प्रकृति-सुन्दरी ने अनुपम रूप प्रदर्शित किया है। चारों ओर फैली हुई प्राकृतिक सुन्दरता यहाँ बाहर से आनेवालों को मोहित करती रही है। यहाँ हिमालय का पर्वतीय प्रदेश है, गंगा-यमुना का समतल मैदान है, पर्वत और समतल मिश्रित दक्षिण का पठार है और इसके साथ ही राजस्थान का रेगिस्तान भी है। यह वह देश है, जहाँ पर छह ऋतुएँ समय-समय पर आती हैं और इस देश की धरती की गोद विविध प्रकार के अनाज, फलों एवं फूलों से भर देती हैं।

भारत के पर्वत, निर्झर, नदियाँ, वन-उपवन, हरे-भरे मैदान, रेगिस्तान एवं समुद्र-तट इस देश की शोभा के अंग हैं। एक ओर कश्मीर में धरती का स्वर्ग दिखाई देता है तो दूसरी ओर केरल की हरियाली मन को स्वर्गिक आनन्द से भर देती है। यहाँ अनेक नदियाँ हैं, जिनमें गंगा, यमुना, कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, रावी, व्यास आदि प्रसिद्ध हैं। ये नदियाँ वर्षभर इस देश की धरती को सींचती हैं, उसे हरा-भरा बनाती हैं और अन्न-उत्पादन में निरन्तर सहयोग करती हैं।

महापुरुषों की धरती-भारत अत्यन्त प्राचीन देश है। यहाँ पर अनेक ऐसे महापुरुषों का जन्म हुआ है, जिन्होंने मानव को संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाया। यहाँ पर अनेक ऋषि-मुनियों ने जन्म लिया, जिन्होंने वेदों का गान किया तथा उपनिषद् और पुराणों की रचना की। यहाँ राम जन्मे, जिन्होंने न्यायपूर्ण शासन का आदर्श स्थापित किया। यहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, जिन्होंने गीता का ज्ञान देकर कर्म का पाठ पढ़ाया, यहाँ पर बुद्ध और महावीर ने अवतार लिया, जिन्होंने मानव को अहिंसा की शिक्षा दी। यहाँ पर बड़े-बड़े प्रतापी सम्राट भी हो चुके हैं। विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, अकबर आदि के नाम सारे संसार में प्रसिद्ध हैं। आधुनिककाल में गरीबों के मसीहा महात्मा गांधी, विश्व-मानवता के प्रचारक रवीन्द्रनाथ टैगोर और शान्तिदूत पं० जवाहरलाल नेहरू का जन्म भी इसी महान् देश में हुआ है।

भारत के आदर्श-भारत त्याग और तपस्या की भूमि है। प्राचीनकाल से आज तक कितने ही महापुरुषों ने इस पवित्र भूमि की गरिमा बढ़ाते हुए अपनी इच्छाओं और विषय-वासनाओं का त्याग कर दिया। अपनी परतन्त्रता के लम्बे समय में भारत ने अपनी गरिमा और महानता को कुछ काल के लिए विस्मृत कर दिया था, किन्तु आस्था और संकल्प, विश्वास और कर्म, सत्य और धर्म इस धरती से मिटाए न जा सके।

अनेक व्यक्तियों को भारतीय विचार, भारतीय आचार-व्यवहार तथा भारतीय दर्शन और साहित्य पहली दृष्टि में तो कुछ अनुपयुक्त से प्रतीत होते हैं, किन्तु यदि धीरतापूर्वक मन लगाकर भारतीय ग्रन्थों का अध्ययन करें और इनके मूल गुणों का परिचय प्राप्त करें तो अधिकांश व्यक्ति भारत के विचार-सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाएँगे।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि “हमारी मातृभूमि दर्शन, धर्म, नीति, विज्ञान, मधुरता, कोमलता अथवा मानव-जाति के प्रति अकपट प्रेमरूपी सद्गुणों को जन्म देनेवाली है। ये सभी चीजें अभी भी भारत में विद्यमान हैं। मुझे पृथ्वी के सम्बन्ध में जो जानकारी है, उसके बल पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि इन चीजों में पृथ्वी के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा भारत श्रेष्ठ है।”

उपसंहार-इस प्रकार धर्म, संस्कृति, दर्शन का संगम, संसार को शान्ति और अहिंसा का सन्देश देनेवाला, मानवता का पोषक तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का नारा देनेवाला भारत भला किसको प्रिय न होगा! इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण महान् शायर इकबाल ने कहा था-

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा॥

(ग) शिक्षा जगत् एवं विद्यार्थी जीवन से सम्बन्धित निबन्ध

10. शिक्षा का गिरता मूल्यगत स्तर

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • शिक्षा का गिरता स्तर और उसका समाधान [2018]।

“तुम्हारी शिक्षा सर्वथा बेकार है, यदि उसका निर्माण सत्य एवं पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है। यदि तुम अपने जीवन की पवित्रता के बारे में सजग नहीं हुए तो सब व्यर्थ है। भले ही तुम महान् विद्वान् ही क्यों न हो जाओ।” (महात्मा गांधी-टू दस्टूडेण्टस्)

रूपरेखा-

  1. शिक्षा का अर्थ,
  2. शिक्षा की भूमिका,
  3. शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता,
  4. शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम,
  5. शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण-
    • (क) शिक्षा का उद्देश्य,
    • (ख) मौलिकता का अभाव,
    • (ग) साहित्य और कला का अभाव,
    • (घ) आर्थिक असुरक्षा,
    • (ङ) शारीरिक श्रम का अभाव,
    • (च) नैतिक मूल्यों का अभाव,
    • (छ) शिक्षकों की भूमिका,
    • (ज) अभिभावकों की भूमिका,
    • (झ) भौतिकता का समावेश,
  6. उपसंहार।

शिक्षा का अर्थ-शिक्षा का वास्तविक अर्थ है–मनुष्य का सर्वांगीण विकास। मात्र पुस्तकीय ज्ञान अथवा साक्षरता शिक्षा नहीं है। यह तो शिक्षारूपी महल तक पहुँचने का एक सोपानभर है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी के अनुसार- “शिक्षा हमारी अन्तःशक्तियों का विकास है।” स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में–“मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।” महात्मा गांधी का विचार है–“शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक या मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क या आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्तम विकास से है।” वास्तव में श्रेष्ठ शिक्षा वही है, जो मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के साथ-साथ उसमें जीवन-मूल्यों की भी स्थापना करे और फिर उसका सर्वांगीण उन्नयन करे।।

शिक्षा की भूमिका- शिक्षा किसी भी देश के विकास के लिए आवश्यक तत्त्वों में से एक मुख्य तत्त्व है। एक शिक्षित समाज ही देश को उन्नत और समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षाविहीन मनुष्य को साक्षात् पशु के समान बताया गया है। संस्कृत के महाकवि श्री भर्तृहरि ने कहा है “साहित्य-संगीत-कलाविहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाणहीनः।” हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी शिक्षा की भूमिका के विषय में कहा है-“सा विद्या या विमुक्तये।” अर्थात् विद्या (शिक्षा) वह है, जो मनुष्य को अज्ञान से मुक्त करती है। वैदिक मन्त्रों में भी शिक्षा की भूमिका को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है–“असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।” अर्थात् विद्या या शिक्षा सत्य, ज्ञान और अमरता प्रदान करती है। प्राचीनकाल से ही जब हमारी शिक्षा की भूमिका और उद्देश्य इतना स्पष्ट रहा है, तब क्या कारण है कि वर्तमान में शिक्षा के स्तर में गिरावट आ रही है। आज बौद्धिक स्तर पर भले ही शैक्षिक विकास हो रहा हो, परन्तु संवेदना और जीवन-मूल्यों का ह्रास आज की शिक्षा पद्धति में स्पष्ट लक्षित होता है।

शिक्षा में नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता- भारतीय संस्कृति ने सदैव नैतिक मूल्यों की अवधारणा पर बल दिया है। नैतिकता के अभाव में पशुता और मनुष्यता का भेद समाप्त हो जाता है। इसलिए वेदों, उपनिषदों एवं अन्य सभी धार्मिक ग्रन्थों में शिक्षा में नैतिकता की अनिवार्यता स्वीकार की गई है। इसलिए कहा गया है

“वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वत्ततस्तु हतो हतः।”

अर्थात् चरित्रहीन व्यक्ति मृतक समान है, इसलिए चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। अतएव शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश अवश्य होना चाहिए। अन्यत्र भी कहा गया है

“येषां न विद्या न तपो न दानम्,
ज्ञानम् न शीलं न गणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।”

अर्थात् जिसके पास विद्या, तप, दान, ज्ञान, चरित्र जैसे गुण और धर्म नहीं हैं, वह पृथ्वी पर भारस्वरूप है और मनुष्य के रूप में पशु की भाँति विचरण करता है। शिक्षा में मूल्यों की आवश्यकता के इतने स्पष्ट दृष्टिकोण के पश्चात् भी वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में मूल्यगत शिक्षा की आवश्यकता नहीं समझी जा रही है। वह शिक्षा, जो आत्म-विकास एवं जीवन और समाज में सन्तुलन बनाए रखने में उपयोगी है, उसे ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया है।

शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर से यहाँ एक आशय यह भी है कि आज हमारी शिक्षा केवल सैद्धान्तिक है, व्यावहारिक नहीं। आज शिक्षा एक छात्र को केवल डिग्री प्रदान करती है, उसे सम्मानजनक रूप से आजीविका कमाने के लिए उसका कोई मार्गदर्शन नहीं करती है। अर्थात् उसके लिए उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं होता। शिक्षा के इसी मूल्यगत स्तर के कारण आज देश में बेरोजगारी और अपराधों की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम-शिक्षा में गिरते मूल्यगत स्तर के दुष्परिणाम आज समाज में चहुँ ओर देखे जा रहे हैं। देशभर में फैले भ्रष्टाचार, लूटमार, आगजनी, राहजनी, बलात्कार एवं अन्य अपराध गिरते मूल्यगत स्तर के ही परिणाम हैं। वर्तमान में जीवन-मूल्यों की बात करनेवाले उपहास का पात्र बनते हैं। हमारी वर्तमान पीढ़ी शिक्षित होते हुए भी जिस अनैतिक मार्ग पर बढ़ रही है, उसे देखते हुए भावी पीढ़ियों के स्वरूप की कल्पना हम सहज ही कर सकते हैं।

शिक्षा के गिरते मूल्यगत स्तर के कारण-वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में गिरते मूल्यगत स्तर के अनेक कारण हैं, जिनमें से मुख्य कारण इस प्रकार हैं-
(क) शिक्षा का उद्देश्य-वस्तुत: शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास करना है, जो अब साक्षर बनाना मात्र रह गया है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करनेवाली प्रणाली बन गई है, वह व्यक्ति को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान नहीं कराती।

(ख) मौलिकता का अभाव-आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में मौलिकता का अभाव है, जिससे उसका स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। स्वतन्त्रता के सात दशकों के पश्चात् भी कोई सरकार एक उत्तम शिक्षा नीति का निर्माण नहीं कर पाई है। शिक्षा में होते अवमूल्यन को रोकने के लिए जो परिवर्तन किए गए हैं, वह शिक्षा के स्तर को सुधारने में पर्याप्त नहीं हैं। हाँ, उसमें इतना सुधार अवश्य आ गया है कि उसमें विद्यार्थियों को अच्छे अंक प्राप्त हो रहे हैं।

(ग) साहित्य और कला का अभाव-आज तकनीकी और. व्यावसायिक शिक्षा को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। हम अपने साहित्य, सभ्यता और संस्कृति को भूलकर विदेशी संस्कृति और साहित्य के पीछे दौड़ रहे हैं। इससे युवाओं का बौद्धिक और अनर्गल तार्किक स्तर तो बढ़ रहा है, परन्तु जीवन-मूल्यों का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है।

(घ) आर्थिक असुरक्षा-शिक्षा के रोजगारपरक न होने के कारण समाज के आर्थिक विकास में आई गिरावट भी शिक्षा के गिरते स्तर के लिए उत्तरदायी है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली के चलते प्रतिवर्ष लाखों युवा हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट, बी०ए०, एम०ए, बी०एड० आदि की डिग्रियाँ लेकर स्कूल-कॉलेजों से निकलते हैं, पर इन शिक्षित युवाओं का कोई सुरक्षित भविष्य नहीं है। ये स्वायत्तशासी संस्थानों में अल्पवेतन पर अकुशल श्रमिकों के रूप में कार्य करते हुए जीवनभर कुण्ठाग्रस्त रहते हैं और कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति से किसी प्रकार की नैतिकता की आशा नहीं की जा सकती।

(ङ) शारीरिक श्रम का अभाव-आधुनिक शिक्षा-प्रणाली और बढ़ती दूरसंचार सुविधाओं ने आज के विद्यार्थी को निकम्मा और परावलम्बी बना दिया है। फलतः शिक्षित वर्ग की दशा दयनीय होती जा रही है। इस सन्दर्भ में यह व्यंग्य द्रष्टव्य है

“न पढ़ते तो सौ तरह से खाते कमाते, मगर खो गए वह तालीम पाकर।
न जंगल में रेवड़ चराने के काबिल, न बाजार में बोझ ढोने के काबिल॥”

(च) नैतिक मूल्यों का अभाव-शिक्षा के गिरते स्तर में सुधार लाने हेतु नैतिक मूल्यों का समावेश होना अत्यावश्यक है; क्योंकि कोई भी कार्य बिना किसी सुस्पष्ट नीति के सम्भव नहीं है। नीति से ही नैतिक शब्द बना है जिसका अर्थ है सोच-समझकर बनाए गए नियम या सिद्धान्त। लेकिन आज की शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश न होने के कारण अशिष्टता, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार तथा अराजकता आदि निरन्तर बढ़ रही हैं।

(छ) शिक्षकों की भूमिका-शिक्षा में योग्य एवं समर्पित शिक्षक की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। इसीलिए शिक्षक सदैव पूजनीय रहा है, लेकिन आज शिक्षक अपनी भूमिका का उचित निर्वाह नहीं कर रहा है। वह शिक्षण को मात्र आजीविका का साधन मान रहा है। वह यह भूल बैठा है कि उसे देश के भविष्य का निर्माण करना है।

(ज) अभिभावकों की भूमिका-शिक्षा के मूल्यगत गिरते स्तर में अभिभावकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। पहले अभिभावक शिक्षक को भगवान् से भी अधिक सम्मान देते थे और बच्चों को भी यही शिक्षा देते थे, लेकिन आज शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को डाँट देने पर भी अभिभावक शिक्षक के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, जिससे छात्रों में उद्दण्डता आदि अनेक दुर्गुणों का विकास अनायास ही हो जाता है।

(झ) भौतिकता का समावेश आधुनिक शिक्षा प्रणाली में भौतिकता का पूरी तरह समावेश हो गया है; फलतः शिक्षा अत्यन्त खर्चीली हो गई है। साधारण परिवार महँगी शिक्षा वहन नहीं कर पाते और छात्र कुण्ठा, हताशा, बेरोजगारी, लक्ष्यहीनता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। साधन-सम्पन्न व्यक्ति अयोग्य छात्रों को भी उच्चपदों पर नियुक्त करा देते हैं, उनका उद्देश्य केवल अर्थार्जन होता है, देश और समाज का विकास नहीं।

इस प्रकार शिक्षा का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है, जिसके लिए हम सभी को अत्यन्त सजग होने की आवश्यकता है।

उपसंहार–इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा में मूल्यों का ह्रास होने के कारण देश-समाज में असन्तोष का वातावरण व्याप्त हो रहा है। समाज और देश के लिए ज्ञान का अत्यधिक महत्त्व है; क्योंकि शिक्षित राष्ट्र ही अपने भविष्य को सँवारने में सक्षम हो सकता है। राष्ट्र की भौतिक दशा सुधारने के लिए जीवन-मूल्यों का उपयोग कर हम उन्नति की सही राह चुन सकते हैं। इसके लिए शिक्षकों को भी अपनी भूमिका को कबीर के निम्न दोहे के अनुसार निभाना होगा, तभी शिक्षा का मूल्यगत गिरता स्तर ऊँचा उठ सकेगा-

“गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काट्टै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहिर बाहै चोट॥”

11. विद्यार्थी और अनुशासन

अन्य सम्बन्धित शीर्षक

  • छात्रों में अनुशासन की समस्या,
  • छात्रों में अनुशासनहीनता : कारण और निदान,
  • विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्त्व [2016]।

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. छात्र-असन्तोष के कारण-
    • (क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य,
    • (ख) दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली,
    • (ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या,
    • (घ) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अभाव,
    • (ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण,
    • (च) दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली,
    • (छ) छात्र-गुट,
    • (ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर,
    • (झ) आर्थिक समस्याएँ,
    • (ब) निर्देशन का अभाव,
  3. छात्र-असन्तोष के निराकरण के उपाय–
    • (क) शिक्षा-व्यवस्था में सुधार,
    • (ख) सीमित प्रवेश,
    • (ग) आर्थिक समस्याओं का निदान,
    • (घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य,
    • (ङ) छात्रों में जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना,
    • (च) सामाजिक स्थिति में सुधार,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-मानव-स्वभाव में विद्रोह की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है, जो आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर ज्वालामुखी के समान फूट पड़ती है। छात्र-असन्तोष के कारण हमारे देश में, विशेषकर युवा-पीढ़ी में प्रबल असन्तोष की भावना विद्यमान है। छात्रों में व्याप्त असन्तोष की इस प्रबल भावना के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण इस प्रकार हैं

(क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य-आज छात्रों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में तेजी से होनेवाली वृद्धि से छात्र-असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक है। एक बार सन्त विनोबाजी से किसी विद्यार्थी ने अनुशासनहीनता की शिकायत की। विनोबाजी ने कहा, “हाँ, मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी निकम्मी शिक्षा और उस पर इतना कम असन्तोष!”

(ख) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली-हमारी शिक्षा-प्रणाली दोषपूर्ण है। वह न तो अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करती है और न ही छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान देती है। परिणामत: छात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। छात्रों का उद्देश्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करके डिग्री प्राप्त करना ही रह गया है। ऐसी शिक्षा-व्यवस्था के परिणामस्वरूप असन्तोष बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जो कि इस सीमा तक पहुँच गई है कि कॉलेजों के पास कक्षाओं तक के लिए पर्याप्त स्थान नहीं रह गए हैं। अन्य साधनों; यथा–प्रयोगशाला, पुस्तकालयों आदि का तो कहना ही क्या। जब कक्षा में छात्र अधिक संख्या में रहेंगे और अध्यापक उन पर उचित रूप से ध्यान नहीं देंगे तो उनमें असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(घ) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अभाव-पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ छात्रों को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करती हैं। इन कार्यों के अभाव में छात्र मनोरंजन के अप्रचलित और अनुचित साधनों को अपनाते हैं; अतः छात्र-असन्तोष का एक कारण पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का अभाव भी है।

(ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण-कुछ परिवारों में माता-पिता बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते और वे उन्हें समुचित स्नेह से वंचित भी रखते हैं, आजकल विद्यालयों में भी उनकी शिक्षा-दीक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दूषित पारिवारिक और विद्यालयीय वातावरण में बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे बच्चों में असन्तोष की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

(च) दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली-हमारी परीक्षा-प्रणाली छात्र के वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं है। कुछ छात्र तो रटकर उत्तीर्ण हो जाते हैं और कुछ को उत्तीर्ण करा दिया जाता है। इससे छात्रों में असन्तोष उत्पन्न होता है।

(छ) छात्र गुट-राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण कुछ छात्रों ने अपने गुट बना लिए हैं। वे अपनी बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं को फलीभूत न होते देखकर अपने मन के आक्रोश और विद्रोह को तोड़-फोड़, चोरी, लूटमार आदि करके शान्त करते हैं।

(ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर–आज समाज में मानव-मूल्यों का ह्रास हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति मानव-आदर्शों को हेय समझता है। उनमें भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ मची है। नैतिकता और आध्यात्मिकता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में छात्रों में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है।

(झ) आर्थिक समस्याएँ आज स्थिति यह है कि अधिकांश अभिभावकों के पास छात्रों की शिक्षा आदि पर व्यय करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। बढ़ती हुई महँगाई के कारण अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति भी उदासीन होते जा रहे हैं, परिणामस्वरूप छात्रों में असन्तोष बढ़ रहा है।

(ञ) निर्देशन का अभाव-छात्रों को कुमार्ग पर जाने से रोकने के लिए समुचित निर्देशन का अभाव भी हमारे देश में व्याप्त छात्र-असन्तोष का प्रमुख कारण है। यदि छात्र कोई अनुचित कार्य करते हैं तो कहीं-कहीं उन्हें इसके लिए और बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

छात्र-असन्तोष के निराकरण- के उपाय-छात्र-असन्तोष की समस्या के निदान के लिए निम्नलिखित मुख्य सुझाव दिए जा सकते हैं
(क) शिक्षा-व्यवस्था में सुधार हमारी शिक्षा-व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो छात्रों को जीवन के लक्ष्यों को समझने और आदर्शों को पहचानने की प्रेरणा दे सके। रटकर मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने को ही छात्र अपना वास्तविक ध्येय न समझें

(ख) सीमित प्रवेश-विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निश्चित की जानी चाहिए; जिससे अध्यापक प्रत्येक छात्र के ऊपर अधिक-से-अधिक ध्यान दे सके; क्योंकि अध्यापक ही छात्रों को जीवन के सही मार्ग की ओर अग्रसर कर सकता है। ऐसा होने से छात्र-असन्तोष स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।

(ग) आर्थिक समस्याओं का निदान-छात्रों की आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए निम्नलिखित मुख्य उपाय करने चाहिए-

  1. निर्धन छात्रों को ज्ञानार्जन के साथ-साथ धनार्जन के अवसर भी दिए जाएँ।
  2. शिक्षण संस्थाएँ छात्रों के वित्तीय भार को कम करने में उनकी सहायता करें।
  3. छात्रों को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए।
  4. छात्रों को व्यावसायिक मार्गदर्शन प्रदान किया जाए।
  5. शिक्षण संस्थाओं को सामाजिक केन्द्र बनाया जाए।

(घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य-छात्र-असन्तोष को दूर करने के लिए आवश्यक है कि छात्रों को उनकी रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य प्रदान किए जाएँ। किशोरावस्था में छात्रों को समय-समय पर समाज-सेवा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सामाजिक कार्यों के माध्यम से उन्हें अवकाश का सदुपयोग करना सिखाया जाए तथा उनकी अवस्था के अनुसार उन्हें रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जाना चाहिए।

(ङ) छात्रों में जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना–छात्र-असन्तोष दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों में सार्वभौम जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाए।

(च) सामाजिक स्थिति में सुधार–युवा-असन्तोष की समाप्ति के लिए सामाजिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आवश्यक हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने भौतिक स्तर को ऊँचा उठाने की आकांक्षा छोड़कर । अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर अधिक ध्यान दें तथा समाज में पनप रही कुरीतियों एवं भ्रष्टाचार आदि को मिलकर समाप्त करें।

यदि पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ इन सुझावों को अपनाया जाएगा तो राष्ट्र-निर्माण की दिशा में युवा-शक्ति का सदुपयोग किया जा सकेगा।

उपसंहार-इस प्रकार हम देखते हैं कि छात्र-असन्तोष के लिए सम्पूर्ण रूप से छात्रों को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। युवा समुदाय में इस असन्तोष को उत्पन्न करने के लिए भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की विसंगतियाँ (अव्यवस्था) अधिक उत्तरदायी हैं; फिर भी शालीनता के साथ अपने असन्तोष को व्यक्त करने में ही सज्जनों की पहचान होती है। तोड़-फोड़ और विध्वंसकारी प्रवृत्ति किसी के लिए भी कल्याणकारी नहीं होती।

12. शिक्षा में खेल-कूद का स्थान

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • स्वास्थ्य शिक्षा की उपादेयता,
  • व्यक्तित्व के विकास में खेलों का महत्त्व,
  • स्वस्थ तन, स्वस्थ मन,
  • जीवन में खेल-कूद की आवश्यकता और स्वरूप,
  • स्वास्थ्य शिक्षा : आवश्यकता एवं महत्त्व,
  • स्वास्थ्य शिक्षा एवं योगासन,
  • विद्यालयों में स्वास्थ्य-शिक्षा का वर्तमान स्वरूप,
  • विद्यालयों में स्वास्थ्य शिक्षा का महत्त्व (2016, 18),
  • विद्यालय में क्रीडा-शिक्षा का महत्त्व [2016]

“अपने विगत जीवन पर दृष्टि डालते हुए मुझे सोचना पड़ता है कि खेल-कूद के प्रति लापरवाही नहीं दिखानी चाहिए थी। ऐसा करके मैंने शायद असमय प्रौढ़ता की भावना विकसित कर ली।”

-सुभाषचन्द्र बोस

रूपरेखा–

  1. जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व,
  2. शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध,
  3. शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व–
    • (क) शारीरिक विकास,
    • (ख) मानसिक विकास,
    • (ग) नैतिक विकास,
    • (घ) आध्यात्मिक विकास,
    • (ङ) शिक्षा-प्राप्ति में रुचि,
  4. उपसंहार।

जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व-स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भली-भाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है;

अतः कहा गया है-‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’। इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई हैं; जैसे-‘पहला सुख नीरोगी काया’, ‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है’, ‘जान है तो जहान है’ आदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। भारतेन्दुजी ने कहा था

दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम।
हिम्मत से कारज करो, पूरेंगे सब राम॥

यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेल-कूद से प्राप्त होता है।

शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध–यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग है-शारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेल-कूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेल-कूद या क्रीडा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है। अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथ-साथ खेल-कूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है। विद्यालयों में व्यायाम शिक्षक, स्काउट मास्टर, एन०डी०एस०आई० आदि शिक्षकों की नियुक्ति इसीलिए की जाती है कि प्रत्येक बालक उनके निरीक्षण में अपनी रुचि के अनुसार खेल-कूद में भाग ले सके और अपने स्वास्थ्य को सबल एवं पुष्ट बना सके।

शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्वं-संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है। सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेल-कूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेल-कूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है

(क) शारीरिक विकास-शारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेल-कूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्रायः बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेल-कूद में ही व्यतीत होती. है। खेल-कूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्त-संचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेल-कूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।

(ख) मानसिक विकास-मानसिक विकास की दृष्टि से भी खेल-कूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कि ‘तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ’ (Healthy mind in a healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़ता–लिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अत: वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेल-कूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथ-साथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।

(ग) नैतिक विकास-बालक के नैतिक विकास में भी खेल-कूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेल-कूद से शारीरिक एवं मानसिक सहन-शक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेल-भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षा-प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसते-हँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।

(घ) आध्यात्मिक विकास-खेल-कूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन-निर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुख-दुःख, हानि-लाभ अथवा जय-पराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है।

खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछ-न-कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(ङ) शिक्षा-प्राप्ति में रुचि-शिक्षा में खेल-कूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेल-पद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अत: खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है। इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षण-पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। इसे ‘खेल पद्धति द्वारा शिक्षा’ (Education by play way) कहा जाता है; अत: यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।

उपसंहार-व्यायाम और खेल-कूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षा-जगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटे-छोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेल-कूद की समुचित व्यवस्था की गई है। हमारी सरकार ने इस कार्य के लिए अलग से ‘खेल मन्त्रालय’ भी बनाया है। फिर भी जैसी खेल-कूद और व्यायाम की व्यवस्था माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होनी चाहिए, वैसी अभी नहीं है। इस स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेल-कूद की उपेक्षा न करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।

13. राष्ट्र-निर्माण में शिक्षक की भूमिका

“शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में परिवर्तित करते हैं। राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं।”

– महर्षि अरविन्द

रूपरेखा-

  1. शिक्षक की भूमिका और दायित्व,
  2. राष्ट्र-निर्माण में शिक्षक की भूमिका-
    • (क) बालक की अन्तःशक्तियों का विकास करना,
    • (ख) व्यक्तित्व का विकास करना,
    • (ग) सामाजिकता की भावना जाग्रत करना,
    • (घ) मूलप्रवृत्तियों का नियन्त्रण,
    • (ङ) भावी-जीवन के लिए तैयार करना,
    • (च) चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास करना,
    • (छ) आदर्श नागरिक के गुणों को विकसित करना,
    • (ज) राष्ट्रीय भावना का संचार करना,
    • (झ) भारतीय संस्कृति और राष्ट्र-गौरव से परिचित कराना,
    • (ब) उचित दिशा-निर्देश देना,
  3. उद्देश्यपूर्ण शिक्षा द्वारा सुन्दर-सभ्य समाज का निर्माण,
  4. उपसंहार।

शिक्षक की भूमिका और दायित्व-शिक्षा का प्रमुख आधार शिक्षक ही होता है। शिक्षक न केवल विद्यार्थी के व्यक्तित्व का निर्माता, बल्कि राष्ट्र का निर्माता भी होता है। किसी राष्ट्र का मूर्तरूप उसके नागरिकों में ही निहित होता है। किसी राष्ट्र के विकास में उसके भावी नागरिकों को गढ़नेवाले शिक्षकों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। अनादिकाल से शिक्षक की महत्ता का गुणगान उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के कारण ही होता आया है। ऐसे ज्ञानी गुरुओं के बल पर ही हमारे राष्ट्र को जगद्गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज भी शिक्षक उसी निष्ठा से विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण करके देश के भविष्य को संवार सकते हैं। शिक्षक की भूमिका केवल छात्रों को पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है। छात्रों को पढ़ाई के अलावा उन्हें सामाजिक जीवन से सम्बन्धित दायित्वों का बोध कराना तथा उन्हें समाज के निर्माण के योग्य बनाना भी शिक्षक का ही दायित्व है। भविष्य में ऐसे ही छात्र समाज के विकास का आधार बनते हैं। शिक्षक की भूमिका के विषय में ग० वि० अकोलकर का कथन है–“शिक्षा व्यवस्था में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण घटक ‘शिक्षक’ है। शिक्षा से समाज ने जिन इच्छा, आकांक्षा और उद्देश्यों की पूर्ति की कामना की है, वह शिक्षक पर निर्भर करती है।’ शिक्षकों का दायित्व यही है कि वे समाज और राष्ट्र की इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति करें। डॉ० ईश्वरदयाल गुप्त के अनुसार–“शिक्षा-प्रणाली कोई भी या कैसी भी हो, उसकी प्रभावशीलता और सफलता उस प्रणाली के शिक्षकों के कार्य पर निर्भर करती है; क्योंकि भावी पीढ़ी को शिक्षित करना समाज की आकांक्षाओं का प्रतिफलन करना है।”

राष्ट्र-निर्माण में शिक्षक की भूमिका-विद्यार्थियों के मानसिक विकास में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक निपुण शिक्षक अपनी शिक्षण-शैली से विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर सकता है। राष्ट्रीयता का भाव जहाँ एक ओर विद्यार्थियों को राष्ट्रभक्त और आदर्श नागरिक बनाता है, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थियों में राष्ट्रीय एकता का विकास भी करता है। कोठारी आयोग के अनुसार–“भारत के भविष्य का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है।” यह तथ्य परोक्षरूप से शिक्षक की भूमिका को भी निश्चित कर रहा है। राष्ट्र के विकास और निर्माण में शिक्षक की भूमिका को इन प्रमुख बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता

(क) बालक की अन्तःशक्तियों का विकास करना-प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल के अनुसार “शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो बालक के आन्तरिक गुणों और शक्तियों को प्रकाशित करती है।” एक कुशल शिक्षक ही बालक के आन्तरिक गुणों को पहचानकर उनको विकसित कर सकता है। बिना शिक्षक के यह कार्य सम्भव नहीं है।

(ख) व्यक्तित्व का विकास करना-वुडवर्थ के अनुसार- “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की व्यापक विशेषता का नाम है।” आधुनिक युग में बालकों की केवल अन्तःशक्तियों का विकास होना ही पर्याप्त नहीं है, उनके बाह्य व्यक्तित्व का विकास भी बहुत आवश्यक है। शिक्षक बालकों के अन्त:-बाह्य व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।

(ग) सामाजिकता की भावना जाग्रत करना-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज के अनुकूल बनाने का दायित्व शिक्षक का है। शिक्षक ही व्यक्ति को समाज के आदर्शों, मूल्यों और मानवताओं से परिचित कराता है। समाज के प्रति व्यक्ति के क्या कर्त्तव्य और अधिकार हैं और इनका सदुपयोग कैसे किया जाए, इन सभी बातों की जानकारी शिक्षक द्वारा ही प्राप्त होती है।

(घ) मूल-प्रवृत्तियों का नियन्त्रण बालकों में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ जन्मगत होती हैं। एक शिक्षक उन मूल प्रवृत्तियों को शुद्ध करता है, उनका मार्ग निर्देशन करता है, तथा उन्हें नियन्त्रित करने का कार्य भी करता है। इससे बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है। शिक्षक का कार्य है कि वह बालक की मूल प्रवृत्तियों में सुधार करके उसे समाज तथा राष्ट्र की सेवा के लिए प्रेरित करे।

(ङ) भावी जीवन के लिए तैयार करना–शिक्षक छात्रों को भिन्न-भिन्न विषयों और व्यवसायों की शिक्षा प्रदान करता है। वह अपने विद्यार्थी को इस योग्य बनाता है, जो शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् परिवार, समाज तथा देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन भली-भाँति कर सके। देश का युवा आत्मनिर्भर होगा तो राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में सदैव सहायक होगा।

(च) चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास करना–शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बालकों का चरित्र-निर्माण और उनका नैतिक विकास करना। अच्छी शिक्षा द्वारा ही बालक सत्यं, शिवं, सुन्दरं को साक्षात्कार करता है और उसे अपने आचरण में लाने का प्रयास करता है। गांधीजी का भी कथन है–“यदि शिक्षा को अपने नाम को सार्थक बनाना है, तो उसका प्रमुख कार्य नैतिक शिक्षा प्रदान करना होना चाहिए।”

(छ) आदर्श नागरिक के गणों को विकसित करना–शिक्षक का परम कर्त्तव्य है कि वह अपनी शिक्षा के द्वारा छात्रों में आदर्श नागरिक के गुणों को विकसित करे, जिससे छात्र अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों को भली प्रकार समझ सके और जीवन में उनका समुचित उपयोग कर सके। आदर्श नागरिक ही आदर्श राष्ट्र के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

(ज) राष्ट्रीय भावना का संचार करना–एक आदर्श शिक्षक ही अपनी शिक्षा द्वारा छात्रों में राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति का संचार करता है। किसी राष्ट्र का स्वतन्त्र अस्तित्व उसके आदर्श नागरिकों पर ही निर्भर करता है। उनके सहयोग से.ही राष्ट्र उन्नत और सशक्त बनता है। प्रत्येक अच्छा नागरिक राष्ट्र-निर्माण में
सहायक होता है और एक शिक्षक अपने पुरुषार्थ से अबोध बालकों को अच्छा नागरिक बनाकर अपने राष्ट्र-निर्माण के दायित्वों का निर्वाह करना है।

(झ) भारतीय संस्कृति और राष्ट्र-गौरव से परिचित कराना-एक अच्छा शिक्षक छात्रों को अपनी संस्कृति और राष्ट्र-गौरव से परिचित कराता है। शिक्षक अपने मन, वचन और व्यवहार से एक
आदर्श प्रस्तुत करके समस्त छात्रों में राष्ट्र भक्ति उत्पन्न करता है। ऐसे शिक्षकों से बालकों को नवीन दिशा मिलती है और वे राष्ट्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करते हैं।

(ञ) उचित दिशा-निर्देश देना-जीवन में प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उचित दिशा-निर्देश की आवश्यकता पड़ती है। यह निर्देशन कई प्रकार का होता है; जैसे–व्यक्तिगत निर्देशन, शैक्षिक निर्देशन तथा व्यावसायिक निर्देशन। व्यक्तिगत निर्देशन द्वारा व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है, शैक्षिक निर्देशन द्वारा बौद्धिक योग्यता के आधार पर छात्रों को शिक्षा-सम्बन्धी परामर्श दिया जाता है। व्यावसायिक निर्देशन द्वारा व्यक्ति की रुचि, योग्यता और क्षमता की जाँचकर उसी के अनुरूप उसे व्यवसाय चुनने का परामर्श दिया जाता है। एक शिक्षक अपने छात्रों को इन सभी विषयों में उचित दिशा-निर्देश देकर देश का सफल नागरिक बनने में उनकी सहायता करता है।

उद्देश्यपूर्ण शिक्षा द्वारा सुन्दर-सभ्य समाज का निर्माण-एक कुशल शिक्षक ही प्रत्येक छात्र को सभी विषयों की सर्वोत्तम शिक्षा देकर उन्हें एक अच्छा डॉक्टर, इंजीनियर, न्यायिक एवं प्रशासनिक अधिकारी बनाने के साथ-साथ उसे एक अच्छा इन्सान भी बनाता है। सामाजिक ज्ञान के अभाव में जहाँ एक ओर छात्र समाज को सही दिशा देने में असमर्थ रहता है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में वह गलत निर्णय लेकर अपने साथ ही अपने परिवार, समाज, देश तथा विश्व को भी विनाश की ओर ले जाने का कारण बन सकता है। इसलिए शिक्षक का कर्तव्य है कि वह आरम्भ से ही विद्यार्थियों की नींव मजबूत करके सुन्दर-सभ्य समाज का निर्माण करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करे।

उपसंहार-इस प्रकार शिक्षक एक सुसभ्य एवं शान्तिपूर्ण राष्ट्र और विश्व का निर्माता है। एक शिक्षक को अपने सभी छात्रों को एक सुन्दर एवं सुरक्षित भविष्य देने के लिए तथा सारे विश्व में शान्ति एवं एकता की स्थापना के लिए उनके कोमल मन-मस्तिष्क में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के रूप में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विचाररूपी बीज बोने चाहिए।

14. राष्ट्र-निर्माण में युवाशक्ति का योगदान

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • युवाशक्ति एवं राष्ट्र-निर्माण,
  • राष्ट्रीय विकास एवं युवाशक्ति,
  • वर्तमान युवा : दशा और दिशा [2016]

रूपरेखा-

  1. युवा-वर्ग और उसकी शक्ति,
  2. छात्र-असन्तोष के कारण,
  3. राष्ट्र-निर्माण में छात्रों का योगदान–
    • (क) अनुसन्धान के क्षेत्र में,
    • (ख) परिपक्व ज्ञान की प्राप्ति एवं विकासोन्मुख कार्यों में उसका प्रयोग,
    • (ग) स्वयं सचेत रहते हुए सजगता का वातावरण उत्पन्न करना.
    • (घ) नैतिकता पर आधारित गुणों का विकास,
    • (ङ) कर्तव्यों का निर्वाह,
    • (च) अनुशासन की भावना को महत्त्व प्रदान करना,
    • (छ) समाज-सेवा,
  4. उपसंहार

युवा-वर्ग और उसकी शक्ति-आज का छात्र कल का नागरिक होगा। उसी के सबल कन्धों पर देश के निर्माण और विकास का भार होगा। किसी भी देश के युवक-युवतियाँ उसकी शक्ति का अथाह सागर होते हैं और उनमें उत्साह का अजस्र स्रोत होता है। आवश्यकता इस बात की है कि उनकी शक्ति का उपयोग सृजनात्मक रूप में किया जाए; अन्यथा वह अपनी शक्ति को तोड़-फोड़ और विध्वंसकारी कार्यों में लगा सकते हैं। प्रतिदिन समाचार-पत्रों में ऐसी घटनाओं के समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। आवश्यक और अनावश्यक माँगों को लेकर उनका आक्रोश बढ़ता ही रहता है। यदि छात्रों की इस शक्ति को सृजनात्मक कार्य में लगा दिया जाए तो देश का कायापलट हो सकता है।

छात्र-असन्तोष के कारण-छात्रों के इस असन्तोष के क्या कारण हैं? वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग क्यों और किसके लिए कर रहे हैं-ये कुछ विचारणीय प्रश्न हैं। इसका प्रथम कारण है-आधुनिक शिक्षा-प्रणाली का दोषयुक्त होना। इस शिक्षा प्रणाली से विद्यार्थी का बौद्धिक विकास नहीं होता तथा यह विद्यार्थियों को व्यावहारिक ज्ञान नहीं कराती; परिणामतः देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। जब छात्र को यह पता ही है कि अन्तत: उसे बेरोजगार ही भटकना है तो वह अपने अध्ययन के प्रति लापरवाही प्रदर्शित करने लगता है।

विद्यार्थियों पर राजनैतिक दलों के प्रभाव के कारण भी छात्र-असन्तोष पनपता है। कुछ स्वार्थी तथा अवसरवादी राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों के लिए विद्यार्थियों का प्रयोग करते हैं। आज का विद्यार्थी निरुद्यमी तथा आलसी भी हो गया है। वह परिश्रम से कतराता है और येन-केन-प्रकारेण डिग्री प्राप्त करने को उसने अपना लक्ष्य बना लिया है। इसके अतिरिक्त समाज के प्रत्येक वर्ग में फैला हुआ असन्तोष भी विद्यार्थियों के असन्तोष को उभारने का मुख्य कारण है।

राष्ट्र-निर्माण में छात्रों का योगदान-आज का विद्यार्थी कल का नागरिक होगा और पूरे देश का भार उसके कन्धों पर ही होगा। इसलिए आज का विद्यार्थी जितना प्रबुद्ध, कुशल, सक्षम और प्रतिभासम्पन्न होगा; देश का भविष्य भी उतना ही उज्ज्वल होगा। इस दृष्टि से विद्यार्थी के कन्धों पर अनेक दायित्व आ जाते हैं, जिनका निर्वाह करते हुए वह राष्ट्र-निर्माण की दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। राष्ट्र-निर्माण में विद्यार्थियों के योगदान की चर्चा इन मुख्य बिन्दुओं के अन्तर्गत की जा सकती है

(क) अनुसन्धान के क्षेत्र में आधुनिक युग विज्ञान का युग है। जिस देश का विकास जितनी शीघ्रता से होगा, वह राष्ट्र उतना ही महान् होगा; अत: विद्यार्थियों के लिए यह आवश्यक है कि वे नवीनतम अनुसन्धानों के द्वार खोलें। चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययनरत विद्यार्थी औषध और सर्जरी के क्षेत्र में नवीन अनुसन्धान कर सकते हैं। वे मानवजीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बनाने का प्रयास कर सकते हैं। इसी प्रकार इंजीनियरिंग में अध्ययनरत विद्यार्थी विविध प्रकार के कल-कारखानों और पुों आदि के विकास की दिशा में भी अपना योगदान दे सकते हैं।

(ख) परिपक्व ज्ञान की प्राप्ति एवं विकासोन्मुख कार्यों में उसका प्रयोग-जीवन के लिए परिपक्व ज्ञान परम आवश्यक है। अधकचरे ज्ञान से गम्भीरता नहीं आ सकती, उससे भटकाव की स्थिति पैदा हो जाती है। इसीलिए यह आवश्यक है कि विद्यार्थी अपने ज्ञान को परिपक्व बनाएँ तथा अपने परिवार के सदस्यों को ज्ञान-सम्पन्न करने, देश की सांस्कृतिक सम्पदा का विकास करने आदि विभिन्न दृष्टियों से अपने इस परिपक्व ज्ञान का सदुपयोग करें।

(ग) स्वयं सचेत रहते हुए सजगता का वातावरण उत्पन्न करना-विद्यार्थी अपने सम-सामयिक परिवेश के प्रति सजग और सचेत रहकर ही राष्ट्र-निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं। विश्व तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है। इसलिए अब प्रगति के प्रत्येक क्षेत्र में भारी प्रतिस्पर्धाओं का सामना करना पड़ता है। इन प्रतिस्पर्धाओं में सम्मिलित होने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यार्थी सामाजिक गतिविधियों के प्रति सचेत रहें और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें।

(घ) नैतिकता पर आधारित गुणों का विकास–मनुष्य का विकास स्वस्थ बुद्धि और चिन्तन के द्वारा ही होता है। इन गुणों का विकास उसके नैतिक विकास पर निर्भर है। इसलिए अपने और राष्ट्र-जीवन को समृद्ध बनाने के लिए विद्यार्थियों को अपना नैतिक बल बढ़ाना चाहिए तथा समाज में नैतिक-जीवन के आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए।

(ङ) कर्तव्यों का निर्वाह-आज का विद्यार्थी समाज में रहकर ही अपनी शिक्षा प्राप्त करता है। पहले की तरह वह गुरुकुल में जाकर नहीं रहता। इसलिए उस पर अपने राष्ट्र, परिवार और समाज आदि के अनेक उत्तरदायित्व आ गए हैं। जो विद्यार्थी अपने इन उत्तरदायित्वों अथवा कर्तव्यों का निर्वाह करता है, उसे ही हम सच्चा विद्यार्थी कह सकते हैं। इस प्रकार राष्ट्र-निर्माण के लिए विद्यार्थियों में कर्त्तव्य-परायणता की भावना का विकास होना परम आवश्यक है।

(च) अनुशासन की भावना को महत्त्व प्रदान करना-अनुशासन के बिना कोई भी कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो सकता। राष्ट्र-निर्माण का तो मुख्य आधार ही अनुशासन है। इसलिए विद्यार्थियों का दायित्व है कि वे अनुशासन में रहकर देश के विकास का चिन्तन करें। जिस प्रकार कमजोर नींववाला मकान अधिक दिनों तक स्थायी नहीं रह सकता, उसी प्रकार अनुशासनहीन राष्ट्र अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। विद्यार्थियों को अनुशासित सैनिकों के समान अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, तभी वे राष्ट्र-निर्माण में योग दे सकते हैं।

(छ) समाज-सेवा-हमारा पालन-पोषण, विकास, ज्ञानार्जन आदि समाज में रहकर ही सम्भव होता है; अतः हमारे लिए यह भी आवश्यक है कि हम अपने समाज के उत्थान की दिशा में चिन्तन और मनन करें। विद्यार्थी समाज-सेवा द्वारा अपने देश के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, वे शिक्षा का प्रचार कर सकते हैं और अशिक्षितों को शिक्षित बना सकते हैं। इसी प्रकार छुआछूत की कुरीति को समाप्त करके भी विद्यार्थी समाज के उस पिछड़े वर्ग को देश की मुख्यधारा से जोड़कर अपने कर्त्तव्य का पालन करने की प्रेरणा दे सकते हैं।

उपसंहार-विद्याध्ययन से विद्यार्थियों में चिन्तन और मनन की शक्ति का विकास होना स्वाभाविक है, किन्तु कुछ विपरीत परिस्थितियों के फलस्वरूप अनेक छात्र समाज-विरोधी कार्यों में लग जाते हैं। इससे देश और समाज की हानि होती है। भविष्य में देश का उत्तरदायित्व विद्यार्थियों को ही सँभालना है, इसलिए यह आवश्यक है कि वे राष्ट्रहित के विषय में विचार करें और ऐसे कार्य करें, जिनसे हमारा राष्ट्र प्रगति के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता रहे। जब विद्यार्थी समाज-सेवा का लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ेंगे, तभी वे सच्चे राष्ट्र-निर्माता हो सकेंगे। इसलिए यह आवश्यक है कि विद्यार्थी अपनी शक्ति का सही मूल्यांकन करते हुए उसे सृजनात्मक कार्यों में लगाएँ।

15. वर्तमान शिक्षा प्रणाली के गुण एवं दोष

अन्य सम्बन्धित शीर्षक–

  • हमारी शिक्षा कैसी हो?,
  • दोहरी शिक्षा पद्धति,
  • शिक्षा का उद्देश्य,
  • नई शिक्षा नीति,
  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली : गुण-दोष [2016]।

“नयी शिक्षा-नीति, एक गतिशील और ओजस्वी राष्ट्र के रूप में 21 वीं शताब्दी में प्रवेश करने की हमारी आवश्यकताओं के अनुकूल है। आशा है कि इसके कार्यान्वयन के लिए राजनैतिक-सामाजिक आर्थिक इच्छाशक्ति उपलब्ध हो सकेगी।”
-डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल

रूपरेखा-

  1. नई शिक्षा-नीति की आवश्यकता,
  2. राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था,
  3. विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन-
    • (क) प्रारम्भिक शिक्षा,
    • (ख) माध्यमिक शिक्षा,
    • (ग) गति-निर्धारक स्कूल,
    • (घ) शिक्षा का व्यवसायीकरण,
    • (ङ) उच्च शिक्षा,
    • (च) खुला विश्वविद्यालय,
    • (छ) डिग्रियों का नौकरियों से पृथक्करण,
    • (ज) ग्रामीण विश्वविद्यालय,
  4. उपसंहार।

नई शिक्षा-नीति की आवश्यकता- भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसमें परम्परागत आदर्श समाप्त होते प्रतीत हो रहे हैं और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतन्त्र तथा कर्मशीलता के लक्ष्यों की प्राप्ति में निरन्तर बाधाएँ आ रही हैं। गाँवों की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण पढ़े-लिखे युवक शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जनसंख्या-सन्तुलन के लिए महिलाओं को शिक्षित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। नई पीढ़ी के लिए यह भी आवश्यक है कि वह नए विचारों को ग्रहण कर नव-निर्माण की दिशा में अपना योगदान दे; अतः नई चुनौतियों और सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए देश में नई शिक्षा-नीति को लागू करना नितान्त आवश्यक है।

राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था-नवीन राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था के अनुसार सम्पूर्ण देश में एक प्रकार की शैक्षिक संरचना के अन्तर्गत 10 + 2 + 3 के ढाँचे को स्वीकार कर लिया गया है। इस ढाँचे के पहले दस वर्षों का विभाजन इस प्रकार है-पाँच वर्ष का प्राथमिक स्तर, तीन वर्ष का उच्च प्राथमिक स्तर तथा दो वर्ष का हाईस्कूल। प्रत्येक स्तर पर दी जानेवाली शिक्षा का न्यूनतम स्तर तय किया गया है तथा ऐसे उपाय भी किए गए हैं कि छात्र देश के विभिन्न भागों में रहनेवाले लोगों की संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था को समझ सकें।

विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन-नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21-ए और तदनुसार बना बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 पूरे देश में 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी हुआ। यह अधिनियम 6 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों को सार्वभौमिक अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में गारण्टी प्रदान करता है। नई शिक्षा नीति के अनुसार पाठ्यक्रम का विभिन्न स्तरों पर पुनर्गठन किया गया है, जिसका विवरण इस प्रकार है

(क) प्रारम्भिक शिक्षा-प्रारम्भिक शिक्षा की पहली आवश्यकता है कि बच्चों को सहज और स्वाभाविक ढंग से ज्ञान प्रदान किया जाए। जैसे-जैसे बच्चे की अवस्था में वृद्धि हो, उसे प्रारम्भिक स्तर के लिए अपेक्षित ज्ञान की बातें बताई जाएँ और नई जानकारी की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जाए, जिससे अभ्यास के साथ उसकी दक्षता भी बढ़ती जाए। स्कूल का समय और यहाँ तक कि छुट्टियाँ भी बच्चों की सुविधा के अनुसार तय की जानी चाहिए। बच्चों को स्कूलों तक लाने के लिए सरकार ने मध्याह्न भोजन योजना आरम्भ की है। इस योजना के अन्तर्गत सभी सरकारी सहायता प्राप्त, स्थानीय निकायों के स्कूलों और सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत समर्थित मदरसों, मखतबों आदि के कक्षा 1 से आठ तक के बच्चों को सम्मिलित किया गया है। इस योजना के लागू होने से प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश लेनेवाले बच्चों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है।

(ख)माध्यमिक शिक्षा–यह वह मंजिल है जहाँ पर छात्रों को विज्ञान, मानविकी और सामाजिक विज्ञानों की आधारभूत जानकारियों से परिचित कराया जाना चाहिए। माध्यमिक अथवा सेकण्ड्री स्तर के छात्रों को राष्ट्रीय परिवेश और इतिहास की जानकारी भी होनी चाहिए। उन्हें संवैधानिक कर्त्तव्यों और नागरिक अधिकारों का समुचित ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए। नवीन शिक्षा-नीति के अन्तर्गत इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक अधिकाधिक सेकण्ड्री स्कूल उन क्षेत्रों में खोले जाएँगे, जहाँ अभी तक ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो सकी हैं।

माध्यमिक शिक्षा की उचित व्यवस्था के लिए मार्च 2009 से राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की शुरूआत की गई है। इस अभियान का उद्देश्य वर्ष 2017 तक माध्यमिक स्तर की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना तथा वर्ष 2020 तक सभी बच्चों को स्कूल में भर्ती करने का लक्ष्य प्राप्त करना है।

(ग) गति-निर्धारक स्कूल-कुछ बच्चे अपनी अवस्था की अपेक्षा अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। उन्हें अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराकर तेजी से आगे बढ़ने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। इस उद्देश्य से देश के विभिन्न भागों में गति-निर्धारक स्कूलों की स्थापना की जाएगी।

(घ) शिक्षा का व्यवसायीकरण-व्यावसायिक शिक्षा का आशय छात्रों को विभिन्न व्यवसायों के लिए तैयार करना है। ये पाठ्यक्रम सामान्यतः माध्यमिक स्तर के बाद उपलब्ध किए जाएंगे। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों से सम्बन्धित स्नातकों को पूर्वनिर्धारित शर्तों के अन्तर्गत व्यावसायिक विकास, वृत्ति.का सुधार और बाद में समुचित सेतु-पाठ्यक्रमों के माध्यम से सामान्य, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जाएगा।

(ङ) उच्च शिक्षा-शिक्षा लोगों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक समस्याओं के सम्बन्ध में चिन्तन करने का अवसर प्रदान करती है। शिक्षा के माध्यम से प्राप्त विशिष्ट ज्ञान और दक्षता के विकास द्वारा राष्ट्रीय प्रगति की सम्भावनाएँ बलवती होती हैं।

आज भारत में लगभग 700 विश्वविद्यालय और लगभग 35,500 कॉलेज हैं। सम्बद्ध कॉलेजों के साथ-साथ स्वायत्त कॉलेजों को भी विकसित किया जा रहा है तथा विश्वविद्यालयों में भी स्वायत्त विभागों के सृजन को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त उच्च शिक्षा-परिषदों के माध्यम से उच्च शिक्षा का राज्यस्तरीय आयोजन और समन्वय किया जाएगा। शैक्षिक स्तरों पर निगरानी रखने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अन्य परिषदें समन्वय पद्धतियाँ विकसित करेंगी।

(च) खुला विश्वविद्यालय-नई शिक्षा-नीति के अन्तर्गत खुला विश्वविद्यालय प्रणाली शुरू की गई है, जिससे उन व्यक्तियों को भी उच्चशिक्षा प्राप्त करने के अधिक-से-अधिक अवसर मिल सकें, जो किन्हीं कारणों से औपचारिक शिक्षा से वंचित रह गए हैं। इस प्रकार शिक्षा को लोकतान्त्रिक साधनों से सम्पन्न बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

(छ) डिग्रियों का नौकरियों से पृथक्करण-कुछ चुने हुए क्षेत्रों में डिग्रियों को नौकरियों से अलग करने के उद्देश्य से अपेक्षित कार्यवाही आरम्भ की जाएगी। उन सेवाओं में डिग्री के महत्त्व को कम किया जाएगा, जिनके लिए विश्वविद्यालय की डिग्री अपेक्षित योग्यता के रूप में आवश्यक नहीं है। इस प्रकार उन उम्मीदवारों को अधिक न्याय मिल सकेगा, जो निर्धारित नौकरी के योग्य होने पर भी मात्र डिग्री न होने के कारण नौकरी प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। डिग्रियों की आवश्यकता को कम करने के लिए राष्ट्रीय परीक्षण सेवा जैसी उपयुक्त व्यवस्था कुछ चरणों में लागू की जाएगी। इस प्रकार नौकरियाँ डिग्री के आधार पर नहीं, वरन् राष्ट्रीय परीक्षण के आधार पर प्रदान की जा सकेंगी।

(ज) ग्रामीण विश्वविद्यालय-महात्मा गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों के आधार पर ग्रामीण विश्वविद्यालयों को विकसित किया जाएगा, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में भी परिवर्तन के लिए आवश्यक नवीन चुनौतियों का सामना किया जा सके।

उपसंहार-नई शिक्षा-नीति के अन्तर्गत यह निश्चय किया गया है कि शिक्षकों को बेहतर सुविधाएँ दी जाएँ और साथ ही उनके उत्तरदायित्वों में भी वृद्धि की जाए। इसके साथ ही छात्र-सेवाओं को उत्तम बनाया जाए तथा थोड़े-थोड़े समय बाद संस्थाओं की कार्यशैली की समीक्षा भी की जाए।

भारत में शिक्षा का भावी स्वरूप इतना जटिल है कि उसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना सम्भव नहीं है। फिर भी यह निश्चित है कि हम निकट भविष्य में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होंगे।

16. मेरा प्रिय खेल और खिलाड़ी

”मैं क्रिकेट के बारे में नहीं जानता, पर फिर भी मैं सचिन को खेलते हुए देखने के लिए क्रिकेट देखता हूँ। इसलिए नहीं कि मुझे उसका खेल पसन्द है, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं जानना चाहता हूँ कि आखिर जब वो बैटिंग करता है तो मेरे देश का प्रोडक्शन 5% गिर क्यों जाता है।”

-बराक ओबामा

रूपरेखा–

  1. मेरा प्रिय खेल और खिलाड़ी,
  2. क्रिकेट : संक्षिप्त परिचय,
  3. महेन्द्र सिंह धोनी का संक्षिप्त परिचय,
  4. धोनी की खेल-शैली,
  5. धोनी की उपलब्धियाँ,
  6. सम्मान एवं पुरस्कार,
  7. उपसंहार।

मेरा प्रिय खेल और खिलाड़ी-आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक खेल खेले जा रहे हैं। फुटबॉल टेनिस, बैडमिंटन, हॉकी, क्रिकेट आदि खेलों को पसन्द करनेवालों की कमी नहीं है, परन्तु क्रिकेट सबसे अधिक लोकप्रिय खेल है। मेरा प्रिय खेल भी यही क्रिकेट है। आधुनिक युग में इस खेल को अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त है। भारत में यह सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ इस खेल के प्रति दीवानगी की हद तक लोगों का लगाव है। आज बच्चे, बूढ़े, युवा आदि सभी क्रिकेट के दीवाने हैं।

‘क्रिकेट का भगवान्’ कहे जानेवाले भारतीय क्रिकेट-खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर विश्व के क्रिकेट-प्रेमियों के सबसे प्रिय खिलाड़ी रहे हैं। निस्सन्देह मैं भी उनका बड़ा प्रशंसक रहा हूँ, किन्तु अब इन्होंने इस खेल से संन्यास ले लिया है; अत: आज महेन्द्र सिंह धोनी मुझे सबसे अधिक प्रिय है।

क्रिकेट : संक्षिप्त परिचय–क्रिकेट का जन्म इंग्लैण्ड में हुआ था। फिर अन्य देशों में इसका प्रसार हुआ। आरम्भ में क्रिकेट को भारत में राजा-महाराजाओं तथा धनाढ्य लोगों का खेल कहा जाता था। वे अपने मन-बहलाव के लिए क्रिकेट का खेल खेला करते थे। भारत ने अपना पहला टेस्ट मैच इंग्लैण्ड के विरुद्ध वर्ष 1932 ई० में खेला था। इसके पश्चात् चार-दिवसीय, तीन-दिवसीय और एकदिवसीय खेल को बढ़ावा मिला।

आजकल एक-दिवसीय क्रिकेट मैच तथा T-20 मैच अत्यधिक लोकप्रिय हो रहे हैं। क्रिकेट का खेल 11.11 खिलाड़ियों की दो टीमों के मध्य खेला जाता है। यह एक बड़े-से गोल, चौकोर या अण्डाकार मैदान में खेला जाता है। मैदान के मध्य में स्थित पिच या विकेट स्थल इस खेल का केन्द्रबिन्दु होता है जिसके दोनों छोरों पर तीन-तीन स्टम्प गड़े होते हैं। दोनों ओर के स्टम्पों के बीच की दूरी 22 गज रखी जाती है, जिसे पिच की लम्बाई भी कहते हैं। खेल आरम्भ करने से पहले टॉस किया जाता है। टॉस जीतनेवाली टीम के कप्तान की इच्छानुसार ही उसकी टीम पहले बल्लेबाजी या गेंदबाजी करती है। जीत-हार का निर्णय बनाए गए रनों के आधार पर होता है। खेल के निर्णायकों को अम्पायर कहा जाता है। खेल के समय मैदान में दो अम्पायर खड़े होते हैं, जिनका निर्णय दोनों टीमों को अनिवार्य रूप से मान्य होता है। अब एक अम्पायर मैदान के बाहर कैमरों की सहायता से खेल पर नजर रखता है। इसे थर्ड अम्पायर कहते हैं। थर्ड अम्पायर तभी अपना निर्णय देता है, जब मैदान में खड़े अम्पायर कोई निर्णय नहीं ले पाते और वे थर्ड अम्पायर से निर्णय देने की अपील करते हैं।

महेन्द्र सिंह धोनी का संक्षिप्त परिचय-क्रिकेट में मेरे प्रिय खिलाड़ी महेन्द्र सिंह धोनी हैं जो भारतीय टीम के कप्तान भी हैं। इन्हें क्रिकेट जगत् में एम०एस० धोनी, माही अथवा धोनी के नाम से जाना जाता है। इनका जन्म 7 जुलाई, 1981 ई० में झारखण्ड के राँची नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम पान सिंह व माता का नाम देवकी देवी है। इनके पिता मूलरूप से उत्तराखण्ड के निवासी हैं, जो आजीविका के लिए राँची आ गए थे। वे मेकोन कम्पनी के जूनियर मेनेजमेंट वर्ग में काम करते थे। धोनी की एक बहन जयन्ती और एक भाई नरेन्द्र है। धोनी की पत्नी का नाम साक्षी है। धोनी बाल्यावस्था से ही क्रिकेट खेलने के शौकीन रहे। पहले वह फुटबॉल भी खेलते थे। स्कूल की फुटबॉल टीम में उन्होंने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। वे अपनी टीम के गोलकीपर रहे। एक बार उनके फुटबॉल कोच ने लोकल क्रिकेट क्लब में क्रिकेट खेलने भेजा, जहाँ उन्होंने विकेट-कीपिंग में अपने कौशल से सबको प्रभावित कर दिया। उनके अच्छे प्रदर्शन के कारण उन्हें 1997-98 सीजन के वीनू मनकड़ ट्रॉफी अण्डर सिक्सटीन चैम्पियनशिप के लिए चुना गया। यह धोनी के क्रिकेट-जगत् में प्रवेश का प्रवेश-द्वार सिद्ध हुआ।

धोनी की खेल-शैली-धोनी आक्रामक, दायें हाथ के बल्लेबाज और विकेट-कीपर हैं। धोनी अधिकतर बैक फुट में खेलने और मजबूत बॉटम हैण्ड ग्रिप के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत तेजगति से खेलते हैं, जिसके कारण गेंद अक्सर मैदान से बाहर चली जाती है। धोनी को आक्रामक बल्लेबाज कहा जाता है। क्षेत्र-रक्षण में भी वह पर्याप्त सफल हैं। धोनी की गणना भारत के श्रेष्ठ क्रिकेटरों में होती है।

धोनी की उपलब्धियाँ-वर्ष 2007 ई० में महेन्द्र सिंह धोनी को भारतीय क्रिकेट दल का कप्तान चुना गया। उनकी कप्तानी में देश को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गौरव प्राप्त हुआ। उनकी उपलब्धियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है G ‘टी-20 क्रिकेट विश्वकप 2007’ जीता। C सर्वप्रथम ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के साथ खेली गई त्रिपक्षीय एक-दिवसीय श्रृंखला 2007-08 जीती। 6 अगस्त 2008 में आइडिया कप में जीत। 6 बॉर्डर गावस्कर ट्रॉफी 2008 में जीत। C आर वी एस कप 2008 में जीता 6 आई०डी०बी०आई० फोर्टिस वेल्थसुरांस कप ओ०डी०आई० सीरीज 2009 श्रीलंका को दूसरी बार हराकर जीती। 6 14/11/2008 और 05/02/2009 के बीच खेले गए नौ वनडे मैचों में लगातार जीत का रिकॉर्ड भी धोनी के नाम है। 6 धोनी की कप्तानी में भारत ने 28 वर्ष पश्चात् एक दिवसीय क्रिकेट वर्ल्ड कप दोबारा जीता। 6 वर्ष 2013 ई० में धोनी की कप्तानी में भारत पहली बार चैम्पियन ट्रॉफी का विजेता बना। 6 वर्ष 2014 ई० में धोनी ने भारत को 24 वर्ष बाद इंग्लैण्ड वनडे सीरीज में जीत दिलाई। 6 वर्ष 2015 ई० में धोनी ने लगातार दूसरी बार आई०सी०सी० वर्ल्ड कप का नेतृत्व किया। 6 धोनी भारत के ऐसे कप्तान हैं, जिन्हें 100 वनडे मैच जिताने का श्रेय जाता है।

सम्मान एवं पुरस्कार-धोनी की उपलब्धियों के फलस्वरूप भारत सरकार तथा खेल जगत् की ओर से उन्हें समय-समय पर विभिन्न सम्मान और पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया जाता रहा है। उन्हें मिले मुख्य पुरस्कारों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है 6 वर्ष 2009 ई० में पद्मश्री पुरस्कार। C राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार। 6 वर्ष 2009 ई० में विस्डन की ड्रीम टीम में कप्तान और विकेट-कीपर का सम्मान। ७ वर्ष 2008 ई० में आई०सी०सी० वनडे प्लेयर पुरस्कार। . G एमटीवी यूथ आइकोन अवार्ड। 6 बीसीसीआई द्वारा सम्मानित। 6 धोनी को उनके कॉलेज तथा सेंट जेवियर कॉलेज, राँची द्वारा यूथ आइकोन सम्मान द्वारा सम्मानित किया गया। 6 भारतीय समाचार चैनल ‘समय’ द्वारा वर्ष 2008 ई० का ‘प्लेयर ऑफ द इयर’ सम्मान।

धोनी की तुलना स्टीव वॉ (ऑस्ट्रेलियन कप्तान) से की जाती है। इस प्रकार अपने क्रिकेट-कौशल द्वारा भारत को गौरवान्वित करने के लिए धोनी को सदा सम्मानित और पुरस्कृत किया जाता रहेगा। धोनी अपनी शैली के कारण भारत तथा विश्व के क्रिकेट-प्रेमियों के प्रिय खिलाड़ी हैं।

उपसंहार-आज क्रिकेट को लेकर लोग मानसिक रूप से जुनून की हदें पार करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि क्रिकेट लोगों का धर्म बन गया है। क्रिकेट में मिली एक छोटी-सी हार भी लोगों को निराश और आक्रामक बना देती है। यहाँ तक कि लोग आत्महत्या या तोड़-फोड़ पर भी उतारू हो जाते हैं। यह ठीक नहीं है। क्रिकेट में मिली जीत उन्हें हर्षित कर देती है। लोग सड़कों पर उतर आते हैं, प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं। यह खेल धन, प्रसिद्धि और आनन्द का संगम है। यह केवल मेरा ही नहीं, मेरी तरह करोड़ों भारतीयों का सबसे प्रिय खेल है और महेन्द्र सिंह धोनी प्रिय खिलाड़ी।

17. यदि मैं प्रधानमन्त्री होता

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. देश के शासन में प्रधानमन्त्री का महत्त्व,
  3. प्रधानमन्त्री के रूप में मैं क्या करता
    • (क) राजनैतिक स्थिरता,
    • (ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में,
    • (ग) राष्ट्रीय सुरक्षा और मेरी नीति,
    • (घ) देश के लिए उचित शिक्षा-नीति,
    • (ङ) आर्थिक सुधार और मेरी नीतियाँ,
    • (च) बेरोजगारी की समस्या का समाधान,
    • (छ) खाद्य समस्या का निदान,
    • (ज) सामाजिक सुधार,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-मैं स्वतन्त्र भारत का नागरिक हूँ और मेरे देश की शासन-व्यवस्था का स्वरूप जनतन्त्रीय है। यहाँ का प्रत्येक नागरिक, संविधान के नियमों के अनुसार, देश की सर्वोच्च सत्ता को सँभालने का अधिकारी है। मानव-मन स्वभाव से ही महत्त्वाकांक्षी है। मेरे मन में भी एक महत्त्वाकांक्षा है और उसकी पूर्ति के लिए मैं निरन्तर प्रयासरत भी हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं भारतीय गणराज्य का प्रधानमन्त्री बनें।

देश के शासन में प्रधानमन्त्री का महत्त्व-मैं इस बात को भली प्रकार जानता हूँ कि संसदात्मक शासन-व्यवस्था में, जहाँ वास्तविक कार्यकारी शक्ति मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है, देश के शासन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व प्रधानमन्त्री पर ही होता है। वह केन्द्रीय मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष और नेता होता है। वह मन्त्रिपरिषद् की बैठकों की अध्यक्षता तथा उसकी कार्यवाही का संचालन करता है। मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णय उसकी इच्छा से प्रभावित होते हैं। अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति तथा उनके विभागों का वितरण प्रधानमन्त्री की इच्छा के अनुसार ही किया जाता है। मन्त्रिपरिषद् यदि देश की नौका है तो प्रधानमन्त्री इसका नाविक।

प्रधानमन्त्री के रूप में मैं क्या करता?– आप मुझसे पूछ सकते हैं कि प्रधानमन्त्री बनने के बाद तुम क्या करोगे? मैं यही कहना चाहूँगा कि प्रधानमन्त्री बनने के बाद मैं राष्ट्र के विकास के लिए निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करूंगा-

(क) राजनैतिक स्थिरता आज सारा देश विभिन्न आन्दोलनों से घिरा है। जिधर देखिए, उधर आन्दोलन हो रहे हैं। कभी असम का आन्दोलन तो कभी पंजाब में अकालियों का आन्दोलन। कभी हिन्दी-विरोधी आन्दोलन तो कभी वेतन-वृद्धि के लिए आन्दोलन। ऐसा लगता है कि अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रत्येक दल और प्रत्येक वर्ग आन्दोलन का मार्ग अपनाए हुए है। विरोधी दल सत्तारूढ़ दल पर पक्षपात का आरोप लगाता है तो सत्तारूढ़ दल विरोधी दलों पर तोड़-फोड़ का आरोप लगाता रहता है। मैं विरोधी दलों के महत्त्वपूर्ण नेताओं से बातचीत करके उनकी उचित माँगों को मानकर देश में राजनैतिक स्थिरता स्थापित करने का प्रयास करूंगा। मैं प्रेम और नैतिकता पर आधारित आचरण करते हुए राजनीति को स्थिर बनाऊँगा।

(ख) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में हमारा देश शान्तिप्रिय देश है-हमने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया पर किसी भी आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब अवश्य दिया है। चीन और पाकिस्तान हमारे पड़ोसी देश हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों ही देश पारस्परिक सम्बन्धों में निरन्तर विष घोलते रहते हैं। अपनी परराष्ट्र नीति की प्राचीन परम्परा को निभाते हुए मैं इस बात का प्रयास करूंगा कि पड़ोसी देशों से हमारे सम्बन्ध निरन्तर मधुर बने रहें। हम पूज्य महात्मा गांधी और पं० जवाहरलाल नेहरू के बताए मार्ग पर चलते रहेंगे, किन्तु यदि किसी देश ने हमें अहिंसक समझकर हम पर आक्रमण किया तो हम उसका मुंहतोड़ जवाब देंगे। ‘गीता’ ने भी हमें यही शिक्षा दी है–’हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्।’

(ग) राष्ट्रीय सुरक्षा और मेरी नीति-देश की सुरक्षा दो स्तरों पर करनी पड़ती है–देश की सीमाओं की सुरक्षा; अर्थात् बाह्य आक्रमण से सुरक्षा तथा आन्तरिक सुरक्षा। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा प्रत्येक स्तर पर आवश्यक प्रबन्ध करता है। प्रधानमन्त्री के महत्त्वपूर्ण पद पर रहते हुए मैं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सदैव प्रयत्नशील रहूँगा और देश पर किसी भी प्रकार की आँच न आने दूंगा।।

बाह्य सुरक्षा के लिए मैं अपने देश की सैनिक-शक्ति को सुदृढ़ बनाने का पूरा प्रयत्न करूँगा तथा आन्तरिक सुरक्षा के लिए पुलिस एवं गुप्तचर विभाग को प्रभावशाली बनाऊँगा। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम का कड़ाई से पालन किया जाएगा और ऐसे व्यक्तियों को कड़ी सजा दी जाएगी, जो राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा को खण्डित करने का दुष्प्रयास करेंगे।

(घ) देश के लिए उचित शिक्षा-नीति-मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि शिक्षा ही हमारे उत्थान का सही मार्ग बता सकती है। दुर्भाग्य से हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। मैं इस प्रकार की शिक्षा-नीति बनाऊँगा; जो विद्यार्थियों को चरित्रवान्, कर्तव्यनिष्ठ और कुशल नागरिक बनाने में सहायता प्रदान करे तथा उन्हें श्रम की महत्ता का बोध कराए। इस प्रकार हमारे देश में देशभक्त नागरिकों का निर्माण होगा और देश से बेरोजगारी के अभिशाप को भी मिटाया जा सकेगा। मैं शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करके गुरु-शिष्य-परम्परा की प्राचीन परिपाटी को पुनः प्रारम्भ करूँगा।

(ङ) आर्थिक सुधार और मेरी नीतियाँ-हमारे देश में अथाह प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से हम इनका भरपूर उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसीलिए सम्पन्न देशों की तुलना में हम एक निर्धन देश के वासी कहलाते हैं। मैं इस प्रकार का प्रयास करूंगा कि हमारे देश की प्राकृतिक सम्पदा का अधिक-से-अधिक और सही उपयोग किया जा सके। कृषि के क्षेत्र में अधिक उत्पादन हेतु वैज्ञानिक तकनीकें प्रयुक्त की जाएंगी। मैं किसानों को पर्याप्त आर्थिक सुविधाएँ प्रदान करूँगा तथा उत्पादन, उपभोग और विनिमय में सन्तुलन स्थापित करूँगा। बैंकिंग प्रणाली को अधिक उदार और सक्षम बनाने का प्रयास करूँगा, जिससे जरूरतमन्द लोगों को समय पर आर्थिक सहायता प्राप्त हो सके।

कृषि के विकास के साथ-साथ मैं देश के औद्योगीकरण का भी पूरा प्रयास करूँगा, जिससे प्रगति की दौड़ में मेरा देश किसी से भी पीछे न रह जाए। नए-नए उद्योग स्थापित करके देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना भी मेरी आर्थिक नीति का प्रमुख उद्देश्य होगा।

(च) बेरोजगारी की समस्या का समाधान देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। सर्वप्रथम मैं लोगों को जनसंख्या नियोजन के लिए प्रेरित करूँगा। मेरे शासन में देश का कोई नवयुवक बेरोजगार नहीं घूमेगा। शिक्षित युवकों को उनकी योग्यता के अनुरूप कार्य दिलाना मेरी सरकार का दायित्व होगा। साथ-साथ नवयुवकों को स्व-रोजगार के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाएगी। भिक्षावृत्ति पर पूरी तरह रोक लगा दी जाएगी।

(छ) खाद्य-समस्या का निदान हमारा देश कृषिप्रधान है। इस देश की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि-कार्य पर निर्भर है; फिर भी यहाँ खाद्य-समस्या निरन्तर अपना मुँह खोले खड़ी रहती है और हमें विदेशों से खाद्य-सामग्री मँगानी पड़ती है। इस समस्या के निदान के लिए मैं वैज्ञानिक खेती की ओर विशेष ध्यान दूंगा। नवीन कृषि-यन्त्रों और रासायनिक खादों का प्रयोग किया जाएगा तथा सिंचाई के आधुनिक साधनों का जाल बिछा दिया जाएगा, जिससे देश की थोड़ी-सी भूमि भी बंजर या सूखी न पड़ी रहे। किसानों के लिए उत्तम और अधिक उपज देने वाले बीजों की व्यवस्था की जाएगी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात होगी-कृषि-उत्पादन का सही वितरण और संचयन। इसके लिए सहकारी संस्थाएँ और समितियाँ किसानों की भरपूर सहायता करेंगी।

(ज)सामाजिक सुधार-किसी भी देश की वास्तविक प्रगति उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक उसके नागरिक चरित्रवान्, ईमानदार और राष्ट्रभक्त न हों। हमारा देश इस समय सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक आदि विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त है। यहाँ मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी, जमाखोरी तथा भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी जम चुकी हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए मैं स्वयं को पूर्णत: समर्पित कर दूंगा।

मेरे शासन में प्रत्येक वस्तु का मूल्य निर्धारित कर दिया जाएगा। सहकारी बाजारों की स्थापना की जाएगी, जिससे जमाखोरी और मुनाफाखोरी की समस्या दूर हो सके। मुनाफाखोर बिचौलियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा।

रिश्वत का कीड़ा हमारे देश की नींव को निरन्तर खोखला कर रहा है। रिश्वतखोरों को इतनी कड़ी सजा दी जाएगी कि वे भविष्य में इस विषय में सोच भी न सकेंगे। इसके लिए न्याय और दण्ड-प्रक्रिया में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए जाएंगे।

उपसंहार-मैं केवल स्वप्न ही नहीं देखता, वरन् संकल्प और विश्वास के बल पर अपने देश को पूर्ण कल्याणकारी गणराज्य बनाने की योग्यता भी रखता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे देश के कमजोर, निर्धन, पीड़ित, शोषित और असहाय वर्ग के लोग चैन की साँस ले सकें और सुख की नींद सो सकें। मेरे शासन में प्रत्येक व्यक्ति के पास रहने को मकान, करने को काम, पेट के लिए रोटी और पहनने के लिए वस्त्रों की व्यवस्था होगी। इस रूप में हमारा देश सही अर्थों में महान् और विकसित बन सकेगा।

(घ) विज्ञान सम्बन्धी निबन्ध

18. विज्ञान : वरदान या अभिशाप

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • विज्ञान का सदुपयोग,
  • विज्ञान के लाभ और हानियाँ,
  • विज्ञान और मानव-कल्याण [2016],
  • विज्ञान के वरदान,
  • विज्ञान वरदान भी, अभिशाप भी,
  • विज्ञान और आधुनिकता,
  • विज्ञान के बढ़ते कदम।

“वास्तव में विज्ञान ने जितनी समस्याएँ हल की हैं, उतनी ही नई समस्याएँ खड़ी भी कर दी हैं।”

–श्रीमती इन्दिरा गांधी

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. विज्ञान : वरदान के रूप में-
    • (क) परिवहन के क्षेत्र में,
    • (ख) संचार के क्षेत्र में,
    • (ग) चिकित्सा के क्षेत्र में,
    • (घ) खाद्यान्न के क्षेत्र में,
    • (ङ) उद्योगों के क्षेत्र में,
    • (च) दैनिक जीवन में,
  3. विज्ञान : एक अभिशाप के रूप में,
  4. उपसंहार

प्रस्तावना-विज्ञान ने हमें अनेक सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, किन्तु साथ ही विनाश के विविध साधन भी जुटा दिए हैं। इस स्थिति में यह प्रश्न विचारणीय हो गया है कि विज्ञान मानव कल्याण के लिए कितना उपयोगी है? वह समाज के लिए वरदान है या अभिशाप?

विज्ञान : वरदान के रूप में-आधुनिक विज्ञान ने मानव-सेवा के लिए अनेक प्रकार के साधन जुटा दिए हैं। पुरानी कहानियों में वर्णित अलादीन के चिराग का दैत्य जो काम करता था, उन्हें विज्ञानं बड़ी सरलता से कर देता है। रातो-रात महल बनाकर खड़ा कर देना, आकाश-मार्ग से उड़कर दूसरे स्थान पर चले जाना, शत्रु के नगरों को मिनटों में बरबाद कर देना आदि विज्ञान के द्वारा सम्भव किए गए ऐसे ही कार्य हैं। विज्ञान मानव-जीवन के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। उसकी वरदायिनी शक्ति ने मानव को अपरिमित सुख-समृद्धि प्रदान की है; यथा

(क) परिवहन के क्षेत्र में पहले लम्बी यात्राएँ दुरूह स्वप्न-सी लगती थीं, किन्तु आज रेल, मोटर और वायुयानों ने लम्बी यात्राओं को अत्यन्त सुगम व सुलभ कर दिया है। पृथ्वी पर ही नहीं, आज के वैज्ञानिक साधनों के द्वारा मनुष्य ने चन्द्रमा पर भी अपने कदमों के निशान बना दिए हैं।

(ख) संचार के क्षेत्र में टेलीफोन, टेलीग्राम, टेलीप्रिण्टर, टैलेक्स, फैक्स, ई-मेल आदि के द्वारा क्षणभर में एक स्थान से दूसरे स्थान को सन्देश पहुँचाए जा सकते हैं। रेडियो और टेलीविजन द्वारा कुछ ही क्षणों में किसी समाचार को विश्वभर में प्रसारित किया जा सकता है।

(ग)चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा के क्षेत्र में तो विज्ञान वास्तव में वरदान सिद्ध हुआ है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति इतनी विकसित हो गई है कि अन्धे को आँखें और विकलांगों को अंग मिलना अब असम्भव नहीं है। कैंसर, टी०बी०, हृदयरोग जैसे भयंकर और प्राणघातक रोगों पर विजय पाना विज्ञान के माध्यम से ही सम्भव हो सका है।

(घ) खाद्यान्न के क्षेत्र में आज हम अन्न उत्पादन एवं उसके संरक्षण के मामले में आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं। इसका श्रेय आधुनिक विज्ञान को ही है। विभिन्न प्रकार के उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं, खेती के आधुनिक साधनों तथा सिंचाई सम्बन्धी कृत्रिम व्यवस्था ने खेती को अत्यन्त सरल व लाभदायक बना दिया है।

(ङ) उद्योगों के क्षेत्र में उद्योगों के क्षेत्र में विज्ञान ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किए हैं। विभिन्न प्रकार की मशीनों ने उत्पादन की मात्रा में कई गुना वृद्धि की है।

(च) दैनिक जीवन में हमारे दैनिक जीवन का प्रत्येक कार्य अब विज्ञान पर ही आधारित है। विद्युत् हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गई है। बिजली के पंखे, कुकिंग गैस स्टोव, फ्रिज आदि के निर्माण ने मानव को सुविधापूर्ण जीवन का वरदान दिया है। इन आविष्कारों से समय, शक्ति और धन की पर्याप्त बचत विज्ञान ने हमारे जीवन को इतना अधिक परिवर्तित कर दिया है कि यदि दो-सौ वर्ष पूर्व का कोई व्यक्ति हमें देखे तो वह यही समझेगा कि हम स्वर्ग में रह रहे हैं। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि भविष्य का विज्ञान मृत व्यक्ति को भी जीवन दे सकेगा। इसलिए विज्ञान को वरदान न कहा जाए तो और क्या कहा जाए?

विज्ञान : एक अभिशाप के रूप में- विज्ञान का एक दूसरा पहलू भी है। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में बहुत अधिक शक्ति दे दी है, किन्तु उसके प्रयोग पर कोई बन्धन नहीं लगाया है। स्वार्थी मानव इस शक्ति का प्रयोग जितना रचनात्मक कार्यों के लिए कर रहा है, उससे अधिक प्रयोग विनाशकारी कार्यों के लिए भी कर रहा है।

सुविधा प्रदान करनेवाले उपकरणों ने मनुष्य को आलसी बना दिया है। यन्त्रों के अत्यधिक उपयोग ने देश में बेरोजगारी को जन्म दिया है। परमाणु-अस्त्रों के परीक्षणों ने मानव को भयाक्रान्त कर दिया है। जापान के नागासाकी और हिरोशिमा नगरों का विनाश विज्ञान की ही देन माना गया है। मनुष्य अपनी पुरानी परम्पराएँ और आस्थाएँ भूलकर भौतिकवादी होता जा रहा है। भौतिकता को अत्यधिक महत्त्व देने के कारण उसमें विश्वबन्धुत्व की भावना लुप्त होती जा रही है। परमाणु तथा हाइड्रोजन बम नि:सन्देह विश्व-शान्ति के लिए खतरा बन गए हैं। इनके प्रयोग से किसी भी क्षण सम्पूर्ण विश्व तथा विश्व-संस्कृति का विनाश पलभर में ही सम्भव है।

उपसंहार-विज्ञान का वास्तविक लक्ष्य है-~मानव-हित और मानव-कल्याण। यदि विज्ञान अपने इस उद्देश्य की दिशा में पिछड़ जाता है तो विज्ञान को त्याग देना ही हितकर होगा। राष्ट्रकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने अपनी इस धारणा को इन शब्दों में व्यक्त किया है-

सावधान, मनुष्य, यदि विज्ञान है तलवार, तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार। हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी अज्ञान, फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान। खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार, काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार।

19. कम्प्यूटर : आधुनिक यन्त्र-पुरुष [2016]

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • कम्प्यूटर की उपयोगिता,
  • कम्प्यूटर एवं उसका महत्त्व,
  • भारत में कम्प्यूटर का प्रयोग [2018],
  • विद्यालय में कम्प्यूटर की शैक्षिक उपयोगिता [2018]

“प्रगति के इस दौर में कम्प्यूटर एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है। कम्प्यूटर का आविष्कार मानव-बुद्धि की कुशाग्रता का परिणाम है। जाहिर है कि इसकी कार्यकुशलता हमारे हाथों में ही है।”

-सत्यजीत मजूमदार

रूपरेखा–

  1. प्रस्तावना,
  2. कम्प्यूटर और उसके उपयोग–
    • (क) बैंकिंग के क्षेत्र में,
    • (ख) प्रकाशन के क्षेत्र में,
    • (ग) सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में,
    • (घ) डिजाइनिंग के क्षेत्र में,
    • (ङ) कला के क्षेत्र में,
    • (च) वैज्ञानिक अनुसन्धान के क्षेत्र में,
    • (छ) औद्योगिक क्षेत्र में,
    • (ज) युद्ध के क्षेत्र में,
    • (झ) अन्य क्षेत्रों में,
  3. कम्प्यूटर और मानव-मस्तिष्क,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-आज कम्प्यूटर के प्रयोग से सभी क्षेत्रों में क्रान्ति आ गई है। अनेक क्षेत्रों का तो पूरी तरह कम्प्यूटरीकरण हो गया है। एक प्रकार से आज का जीवन कम्प्यूटर के बिना अधूरा हो गया है। जीवन को भली प्रकार से चलाने के लिए आज प्रत्येक व्यक्ति के लिए कम्प्यूटर का ज्ञान जरूरी हो गया है।

कम्प्यूटर और उसके उपयोग-आज जीवन के कितने ही क्षेत्रों में कम्प्यूटर के व्यापक प्रयोग हो रहे हैं। बड़े-बड़े व्यवसाय, तकनीकी संस्थान और महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठान कम्प्यूटर के यन्त्र-मस्तिष्क का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। अब तो कम्प्यूटर केवल कार्यालयों के वातानुकूलित कक्षों तक ही सीमित नहीं रह गए हैं, वरन् वह हजारों किलोमीटर दूर रखे हुए दूसरे कम्प्यूटर के साथ बातचीत कर सकते हैं, उससे सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं और उसे सूचनाएँ भेज भी सकते हैं।

कम्प्यूटर का व्यापक प्रयोग जिन क्षेत्रों में हो रहा है, उनका विवरण इस प्रकार है

(क) बैंकिंग के क्षेत्र में भारतीय बैंकों में खातों के संचालन और हिसाब-किताब रखने के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग किया जाने लगा है। अब सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने चुम्बकीय संख्याओंवाली नई चैक बुक जारी की हैं। यूरोप के कई देशों सहित अपने देश में भी ऐसी व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आ गई हैं कि घर के निजी कम्प्यूटर को बैंकों के कम्प्यूटरों के साथ जोड़कर घर बैठे ही लेन-देन का व्यवहार किया जा सकता है।

(ख) प्रकाशन के क्षेत्र में समाचार-पत्र और पुस्तकों के प्रकाशन के क्षेत्र में भी कम्प्यूटर विशेष योग दे रहे हैं। अब कम्प्यूटर पर टंकित होनेवाली सामग्री को कम्प्यूटर के परदे (स्क्रीन) पर देखकर उसमें संशोधन भी किया जा सकता है। कम्प्यूटर में संचित होने के बाद सम्पूर्ण सामग्री एक छोटी चुम्बकीय डिस्क पर अंकित हो जाती है। इससे कभी भी टंकित सामग्री को प्रिण्टर की सहायता से मुद्रित किया जा सकता है। आज सभी बड़े प्रकाशन संस्थानों और समाचार-पत्रों के सम्पादकीय विभाग में एक ओर कम्प्यूटरों पर लेखन सामग्री टंकित की जाती है और दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक प्रिण्टर तेज रफ्तार से टंकित सामग्री के प्रिण्ट निकाल देते हैं।

(ग) सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में-दूरसंचार की दृष्टि से कम्प्यूटर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अब तो ‘कम्प्यूटर नेटवर्क’ और इण्टरनेट के माध्यम से देश तथा विश्व के सभी प्रमुख नगरों को एक-दूसरे से जोड़ दिया गया है।

(घ) डिजाइनिंग के क्षेत्र में प्राय: यह समझा जाता है कि कम्प्यूटर अंकों और अक्षरों को ही प्रकट कर सकते हैं। वस्तुतः आधुनिक कम्प्यूटर के माध्यम से भवनों, मोटरगाड़ियों एवं हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने के लिए भी ‘कम्प्यूटर ग्राफिक’ के व्यापक प्रयोग हो रहे हैं। वास्तुशिल्पी अपने डिजाइन कम्प्यूटर के स्क्रीन पर तैयार करते हैं और संलग्न प्रिण्टर से इनके प्रिण्ट भी तुरन्त प्राप्त कर लेते हैं।

(ङ) कला के क्षेत्र में–कम्प्यूटर अब कलाकार अथवा चित्रकार की भूमिका भी निभा रहे हैं। अब कलाकार को न तो कैनवास की आवश्यकता है, न रंग और कूचियों की। कम्प्यूटर के सामने बैठा हुआ कलाकार अपने ‘नियोजित प्रोग्राम’ के अनुसार स्क्रीन पर चित्र निर्मित करता है और यह चित्र प्रिण्ट की ‘कुंजी’ दबाते ही प्रिण्टर द्वारा कागज पर अपने उन्हीं वास्तविक रंगों के साथ छाप दिया जाता है।

(च) वैज्ञानिक अनुसन्धान के क्षेत्र में-कम्प्यूटरों के माध्यम से वैज्ञानिक अनुसन्धान का स्वरूप ही बदलता जा रहा है। अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में तो कम्प्यूटर ने क्रान्ति ही उत्पन्न कर दी है। इनके माध्यम से अन्तरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं और इन चित्रों का विश्लेषण कम्प्यूटरों के माध्यम से हो रहा है। आधुनिक वेधशालाओं के लिए कम्प्यूटर सर्वाधिक आवश्यक हो गए हैं।

(छ) औद्योगिक क्षेत्र में–बड़े-बड़े कारखानों में मशीनों के संचालन का कार्य अब कम्प्यूटर सँभाल रहे हैं। कम्प्यूटरों से जुड़कर रोबोट ऐसी मशीनों का नियन्त्रण कर रहे हैं, जिनका संचालन मानव के लिए अत्यधिक कठिन था। भयंकर शीत और जला देनेवाली गर्मी का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(ज) युद्ध के क्षेत्र में वस्तुतः कम्प्यूटर का आविष्कार युद्ध के एक साधन के रूप में ही हुआ था। अमेरिका में जो पहला इलेक्ट्रॉनिक कम्प्यूटर बना था, उसका उपयोग अणुबम से सम्बन्धित गणनाओं के लिए ही हुआ था। जर्मन सेना के गुप्त सन्देशों को जानने के लिए अंग्रेजों ने ‘कोलोसम’ नामक कम्प्यूटर का प्रयोग किया था। आज भी नवीन तकनीकों पर आधारित शक्तिशाली कम्प्यूटरों का विकास किया जा रहा है। अमेरिका की ‘स्टार-वार्स’ योजना कम्प्यूटरों के नियन्त्रण पर ही आधारित है।

(झ) अन्य क्षेत्रों में सम्भवतः जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसमें कम्प्यूटर का प्रयोग न हो रहा हो अथवा न हो सकता हो। कम्प्यूटरों के माध्यम से संगीत का स्वरांकन किया जा रहा है तथा वायुयान एवं रेलयात्रा के आरक्षण की व्यवस्था हो रही है। कम्प्यूटर में संचित विवरण के आधार पर विवाह-सम्बन्ध जोड़नेवाले अनेक संगठन हमारे देश में कार्यरत हैं. यहाँ तक कि ‘कम्प्यूटर-ज्योतिष’ का व्यवसाय भी आरम्भ हो गया है।

इसके साथ ही परीक्षाफल के निर्माण. अन्तरिक्ष-यात्रा, मोसम सम्बन्धी जानकारी, चिकित्सा क्षेत्र, चुनाव-कार्य आदि में भी कम्प्यूटर प्रणाली सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो रही है। कम्प्यूटर की सहायता से एक भाषा का अनुवाद दूसरी भाषा में किया जा सकता है तथा शतरंज जेसा खेल भी खेला जा सकता है।

कम्प्यूटर और मानव-मस्तिष्क-यह प्रश्न भी बहुत स्वाभाविक है कि क्या कम्प्यूटर और मानव-मस्तिष्क की तुलना की जा सकती है और इनमें कोन श्रेष्ठ हैं; क्योकि कम्प्यूटर के मस्तिष्क का निर्माण भी मानव-बुद्धि के आधार पर ही सम्भव हुआ है। यह बात नितान्त सत्य है कि मानव मस्तिष्क की अपेक्षा कम्प्यूटर समस्याओं को बहुत कम समय में हल कर सकता है; किन्तु वह मानवीय संवेदनाओं, अभिरुचियों, भावनाओं और चित्त से रहित मात्र एक यन्त्र-पुरुष है। कम्प्यूटर केवल वही काम कर सकता है, जिसके लिए उसे निर्देशित (programmed) किया गया हो। वह कोई निर्णय स्वयं नहीं ले सकता है और न ही कोई नवीन बात सोच सकता है।

उपसंहार-हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कम्प्यूटर पर आश्रित हो गए हैं। यह सही है कि कम्प्यूटर में जो कुछ भी एकत्र किया गया है, वह आज के असाधारण बुद्धिजीवियों की देन है, लेकिन हम यह प्रश्न भी पूछने के लिए विवश हैं कि जो बुद्धि या जो स्मरण-शक्ति कम्प्यूटरों को दी गई है, क्या उससे पृथक् हमारा कोई अस्तित्व नहीं है? हो भी, तो क्या यह बात अपने-आपमें कुछ कम दुःखदायी नहीं है कि हम अपने प्रत्येक भावी कदम को कम्प्यूटर के माध्यम से प्रमाणित करना चाहें और उसके परिणामस्वरूप अपने-आपको निरन्तर कमजोर, हीन एवं अयोग्य बनाते रहें।

20. दूर-संचार में क्रान्ति [2016]

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • इण्टरनेट की शैक्षिक उपयोगिता [2016],
  • आधुनिक जीवन में संचार माध्यमों की उपयोगिता [2016],
  • शिक्षा के उन्नयन में संचार माध्यमों की उपयोगिता [2018],
  • इण्टरनेट से लाभ और हानि [2018]।

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. दूर-संचार का मानव जीवन में महत्त्व,
  3. उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में दूर-संचार का योगदान,
  4. भारत में दूर-संचार का विकास,
  5. प्राथमिक सेवा,
  6. सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा,
  7. इण्टरनेट सेवा,
  8. उपसंहार।

प्रस्तावना-दूर-संचार के क्षेत्र में उन्नति से मानवजीवन की गुणवत्ता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। यह सर्वविदित है कि आज हम ‘सम्पर्क’ युग में रह रहे हैं। दूर-संचार के विकास ने मानवजीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपने दायरे में ले लिया है। प्राचीनकाल में सन्देशों के आदान-प्रदान में बहुत अधिक समय तथा धन लग जाया करता था, परन्तु आज समय और धन दोनों की बड़े पैमाने पर बचत हुई है। दूर-संचार के क्षेत्र में नई तकनीक से अब टेलीफोन, सेल्यूलर फोन, फैक्स और ई-मेल द्वारा क्षणभर में ही किसी भी प्रकार के सन्देश एवं विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। आज चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहों से सम्प्रेषित सन्देश पृथ्वी पर पलभर में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। दूरसंचार ने पृथ्वी और आकाश की सम्पूर्ण दूरी को समेट लिया है।

दूर-संचार का मानव-जीवन में महत्त्व-मानव-जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में दूर-संचार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सूचनाओं के आदान-प्रदान करने में समय की दूरी घट गई है। अब क्षणभर में सन्देश व विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन तथा उद्योग आदि के क्षेत्र में दूर-संचार का महत्त्व बढ़ गया है। अपराधों पर नियन्त्रण करने तथा शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में दूर-संचार का विशेष योगदान है। दूर-संचार के अभाव में देश में शान्ति और सुव्यवस्था करना कठिन कार्य है। व्यावसायिक क्षेत्र में भी सही समय पर सही सूचनाओं का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है; अत: कहा जा सकता है कि किसी भी राष्ट्र के लिए वहाँ की दूर-संचार व्यवस्था का विकसित होना अत्यावश्यक है।

उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में दूर-संचार का योगदान–किसी भी देश का विकास उसकी सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है। उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाता है, लेकिन सफल व्यवसाय और उद्योगों के विकास के लिए दूर-संचार की अत्यधिक आवश्यकता होती है। भूमण्डलीकरण के इस काल में तो व्यवसायी एवं उद्योगपति सूचनाओं के माध्यम में व्यवसाय एवं उद्योग में नई ऊँचाइयों को छूने के लिए लालायित हैं। सूचनाएँ व्यवसाय का जीवन-रक्त है। व्यवसाय के अन्तर्गत माल के उत्पादन से पूर्व, उत्पादन से वितरण तक और विक्रयोपरान्त सेवाएँ प्रदान करने के लिए दूरसंचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास परिषद् की रिपोर्ट के अनुसार दूर-संचार एवं सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विदेशी निवेश प्राप्त करने के मामले में भारत अग्रणी देश बनता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 में दक्षिण एशिया में हुए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारत का हिस्सा 76 प्रतिशत था। चीन में भारत से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, लेकिन इण्टरनेट के क्षेत्र में व्यावसायिक गतिविधियों का लाभ उठाने के लिए भारत का माहौल चीन से कहीं बेहतर है, दूर-संचार में क्रान्ति ने आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की नई सम्भावना को जन्म दिया है, जिसका लाभ विकसित और विकासशील देश दोनों ही उठा रहे हैं।

भारत में दूर-संचार का विकास–भारत ने दूर-संचार के क्षेत्र में असीमित उन्नति की है। भारत का दूर-संचार नेटवर्क एशिया के विशालतम दूर-संचार नेटवर्कों में गिना जाता है। जून 2013 के अन्त तक 903.10 मिलियन टेलीफोन कनेक्शनों के साथ भारतीय दूरसंचार नेटवर्क चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। जून 2013 के अन्त तक 873.37 मिलियन टेलीफोन कनेक्शनों के साथ भारतीय वायरलैस टेलीफोन नेटवर्क भी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। आज लगभग सभी देशों के लिए इण्टरनेशनल सबस्क्राइबर डायलिंग सेवा उपलब्ध है। इण्टरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 7 करोड़ 34 लाख है। अन्तर्राष्ट्रीय संचार-क्षेत्र में उपग्रह संचार और जल के नीचे से स्थापित संचार सम्बन्धों द्वारा अपार प्रगति हुई है। ध्वनिवाली और ध्वनिरहित दूर-संचार सेवाएँ, जिनमें आँकड़ा प्रेषण, फैसीपाइल, मोबाइल रेडियो, रेडियो पेनिंग और लीज्ड लाइन सेवाएँ शामिल हैं। 31 मार्च, 2013 ई० की स्थिति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 357.74 मिलियन फोन हैं।

प्राथमिक सेवा- भारतीय दूर-संचार विनियामक प्राधिकरण की सिफारिशों के अनुरूप सरकार ने 25 जनवरी, 2001 ई० को लाइसेंस देने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए, जिनके अनुसार नए प्राथमिक सेवा उपलब्ध करानेवाले बिना किसी प्रतिबन्ध के सभी सेवा क्षेत्रों में खुला प्रवेश कर सकते हैं। इन दिशा-निर्देशों के अनुसार स्थानीय क्षेत्रों में प्राथमिक टेलीफोन सेवा के उपभोक्ताओं के लिए वायरलेस सबस्क्राइबर एक्सेस प्रणालियों के अन्तर्गत भी हाथवाले टेलीफोन सेट प्रयोग करने की छूट है।

वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए दूर-संचार शुल्क संरचना के युक्तीकरण के कई प्रयास किए गए हैं। सर्वप्रथम शुल्क संरचना में सुधार 1 मई, 1999 ई० में किया गया, जिसके अन्तर्गत लम्बी दूरी के एस० टी० डी० और आई० एस० डी० शुल्कों में कमी की गई है। इसके दूसरे चरण का क्रियान्वयन अक्टूबर 2000 ई० में किया, जिसके अन्तर्गत एस० टी० डी० और आई० एस० डी० के शुल्कों में पुन: कमी की गई। जनवरी 2001 ई० में 200 किमी तक की दूरी तक किए जानेवाले कालों को एस० टी० डी० की अपेक्षा लोकल काल की श्रेणी में डाल दिया गया। 14 जनवरी, 2002 ई० को बी० एस० एन० एल० और एम० टी० एन० एल० ने विभिन्न दूरियों के लिए .एस० टी० डी० दरों को घटा दिया और सेल्यूलर मोबाइल फोन की शुल्क दरों में लगभग आधे की कमी कर दी गई।

सेल्युलर मोबाइल टेलीफोन सेवा-सभी महानगरों और 29 राज्यों के लगभग सभी शहरों के लिए सेवाएँ शुरू हो चुकी हैं। 31 मई, 2013 ई० तक देश में 873.37 मिलियन सेल्यूलर उपभोक्ता थे। नई दूर-संचार नीति के अन्तर्गत सेल्यूलर सेवा के मौजूदा लाइसेंस-धारकों को 1 अगस्त, 1999 ई० से राजस्व भागीदारी प्रणाली अपनाने की अनुमति मिल गई। देश के विभिन्न भागों में सेल्यूलर मोबाइल टेलीफोन सेवा चलाने के लिए एम०टी०एन०एल० और बी०एस०एन०एल० को लाइसेंस जारी किए गए। नई नीति के अनुसार सेल्यूलर ऑपरेटरों को यह छूट दी गई है कि वे अपने कार्यक्षेत्र में सभी प्रकार की मोबाइल सेवा, जिसमें ध्वनि और गैर-ध्वनि सन्देश शामिल हैं, डेटा सेवा और पी०सी०ओ० उपलब्ध करा सकते हैं।

इण्टरनेट सेवा-नवम्बर 1998 ई० से इण्टरनेट सेवा निजी भागीदारी के लिए खोल दी गई। अब इसके लाइसेंस को पहले पाँच साल तक के लिए शुल्क-मुक्त किया जा चुका है और अगले दस सालों के लिए 1 रुपया प्रतिवर्ष शुल्क निर्धारित किया गया है। भारत में पंजीकृत कोई भी कम्पनी लाइसेंस प्राप्त कर सकती है और इसके लिए पहले से भी किसी अनुभव की आवश्यकता नहीं होगी। अब तक 506 आई०एस०पी० (इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर) लाइसेंस जारी किए गए हैं।

मार्च 2013 तक भारत में लगभग 20.04 मिलियन लोग इण्टरनेट से जुड़ी ब्रॉडबैण्ड सेवाओं का उपयोग कर रहे हैं। सरकार ने देश की प्रत्येक पंचायत में वर्ष 2012 से ब्रॉडबैण्ड की शुरूआत करने का निर्णय लिया है। व्यावसायिक साइटों को इण्टरनेट पर लाँच किया जा चुका है। ई-मेल के द्वारा मास कैम्पेन चलाना अब एक सामान्य प्रचलन हो चुका है। ‘चैट’ एक ऐसी उपलब्ध सेवा है, जिसके द्वारा इण्टरनेटधारक एक-दूसरे के साथ आपस में ऑनलाइन वार्तालाप कर सकते हैं। ई-गर्वनेंस सरकार की पहली प्राथमिकता है।

उपसंहार-वास्तव में दूर-संचार प्रणाली ने विश्व की दूरियों को समेटते हुए मानव जीवन को एक नया मोड़ दिया है। आज हमारा देश दूर-संचार टेक्नोलॉजी की दौड़ में निरन्तर आगे बढ़ रहा है। विभिन्न निजी कम्पनियों का भी इसमें विशेष योगदान रहा है, जिसके कारण देश के कोने-कोने से जोड़ने में सफल हुए हैं। इस प्रकार दूर-संचार के प्रसार ने शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, व्यवसाय तथा उद्योग के विकास के साथ-साथ मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति को गति प्रदान की है।

21. सूचना-प्रौद्योगिकी और मानव कल्याण

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. सूचना-प्रौद्योगिकी का मानव-जीवन में महत्त्व,
  3. सूचना-प्रौद्योगिकी के लाभ,
  4. सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभाव-
    • (क) शिक्षा के क्षेत्र में,
    • (ख) व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में,
    • (ग) डिजिटल इण्डिया मिशन और सूचना-प्रौद्योगिकी,
    • (घ) अन्य क्षेत्रों में,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-सूचनाओं के आदान-प्रदान का मनुष्य-जीवन में बड़ा महत्त्व है, इसलिए सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए दिन-प्रतिदिन नई-नई तकनीकों का विकास हो रहा है। मोबाइल ओर इण्टरनेट इसके दो महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। सूचनाओं के आदान-प्रदान की यही तकनीक सूचना-प्रौद्योगिकी के नाम से जानी जाती है। आज सूचना-प्रौद्योगिकी ने ज्ञान और विकास के द्वारों को एक साथ खोल दिया है। हमारे आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक तथा अन्य सभी क्षेत्रों पर सूचना-प्रौद्योगिकी के कारण हुए विकास की स्पष्ट छाप लक्षित होती है। सूचना-प्रौद्योगिकी ने हमें विकास की एक नई दुनिया की ओर अग्रसर किया है। वर्तमान में कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टेलीफोन, मोबाइल फोन, फैक्स, ई-मेल, ई-कॉमर्स, स्मार्ट कार्ड, क्रेडिट कार्ड तथा एटीएम कार्ड आदि सूचना-प्रौद्योगिकी के सशक्त माध्यम हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी का मानव-जीवन में महत्त्व-देश के विकास की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में आज सूचना-प्रौद्योगिकी का विशेष महत्त्व है। सूचना-प्रौद्योगिकी के कारण आज समस्त विश्व की दूरियाँ सिमट गई हैं। अब पलक झपकते ही सूचनाओं और सन्देशों का आदान-प्रदान हो जाता है, जिससे शिक्षा, चिकित्सा-परिवहन तथा उद्योग आदि सभी के महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में जाना जा सकता है सूचना-प्रौद्योगिकी पिछड़े देशों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए जरूरी और उपयुक्त तकनीक है। सूचना-प्रौद्योगिकी सेवा और आर्थिक क्षेत्र का प्रमुख आधार बन गई है। सूचना-प्रौद्योगिकी की सहायता से प्राप्त सूचनाओं से समाज का सशक्तीकरण होता है। सूचना-प्रौद्योगिकी द्वारा प्रशासन और सरकार के कार्यों में पारदर्शिता आती है, यह भ्रष्टाचार नियन्त्रण में अत्यन्त प्रभावी है। सूचना-प्रौद्योगिकी के माध्यम से गरीब जनता को सूचना-सम्पन्न बनाकर ही गरीबी का उन्मूलन किया जा सकता है। 6 सूचना-प्रौद्योगिकी का सर्वाधिक प्रयोग योजनाएँ बनाने, नीति-निर्धारण करने तथा निर्णय लेने में होता है।

सूचना-प्रौद्योगिकी नवीन रोजगारों का सृजन करती है। G आज सूचना-प्रौद्योगिकी वाणिज्य और व्यापार का जरूरी अंग है। इस प्रकार सूचना-प्रौद्योगिकी मानव-जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गई है।

सूचना-प्रौद्योगिकी के लाभ-सूचना-प्रौद्योगिक का लक्ष्य समाज को अधिक-से-अधिक लाभ पहुँचाने का रहा है। इसके माध्यम से हमें निम्नलिखित सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं

C कम्प्यूटर और मोबाइल द्वारा रेलवे टिकट एवं आरक्षण। C बैंकों का कम्प्यूटरीकरण एवं एटीएम की सुविधा। 6 ई-बैंकिंग एवं मोबाइल बैंकिंग से आर्थिक लेन-देन और सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा। 6 ऑनलाइन क्रय-विक्रय (सेल्स-पर्चेजिंग) की सुविधा। 6 इण्टरनेट द्वारा रेल टिकट एवं हवाई टिकट का आरक्षण। C इण्टरनेट द्वारा एफ० आई० आर० दर्ज कराना। C न्यायालयों के निर्णय भी ऑनलाइन उपलब्ध होना।

किसानों के भूमि रिकॉर्डों का कम्प्यूटरीकरण। c ऑनलाइन रिजल्ट की सुविधा। C राशनकार्ड, आधारकार्ड, मतदाता पहचान-पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस आदि के लिए ऑनलाइन आवेदन _ करने की सुविधा। G शिकायतें भी ऑनलाइन की जा सकती हैं।

C सभी विभागों की पर्याप्त जानकारी ऑनलाइन उपलब्ध है। 6 आयकर की फाइलिंग भी ऑनलाइन की जा सकती है।

इस प्रकार सूचना-प्रौद्योगिकी से मानव के धन, श्रम और समय की पर्याप्त बचत हो रही है तथा मानव विकास और समृद्धि की दिशा में तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है।

सूचना-प्रौद्योगिकी के साधन-सूचना-प्रौद्योगिकी को व्यापक बनाने में कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टेलीफोन, मोबाइल फोन का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है। इन संसाधनों के माध्यम से ई-कॉमर्स, ई-मेल, ऑनलाइन सरकारी काम-काज हेतु ई-प्रशासन, ई-गवर्नेस, ई-बैंकिंग, ई-एज्यूकेशन, ई-मेडिसन, ई-शॉपिंग आदि से विकास की गति को बढ़ाया जा रहा है। कम्प्यूटर युग के इन संचार माध्यमों से हमने सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना एक स्थान बनाया है।

सूचना-प्रौद्योगिकी का प्रभाव-सूचना-प्रौद्योगिकी ने आज विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को जोड़कर एक नई अर्थव्यवस्था को जन्म दिया, जिससे समाज का प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित हुआ है। सूचना-प्रौद्योगिकी का सबसे अधिक प्रभाव निम्नलिखित क्षेत्रों पर अधिक पड़ा है-

(क) शिक्षा के क्षेत्र में सूचना-प्रौद्योगिकी शिक्षा के क्षेत्र में सूचना-प्रौद्योगिकी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। सूचना-प्रौद्योगिकी की सहायता से विद्यार्थी अब ई-पुस्तकें, परीक्षा के लिए प्रतिदर्श प्रश्न-पत्र, पिछले वर्ष के प्रश्न-पत्र आदि देखने के साथ-साथ विषय-विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और अपने जैसे प्रतियोगियों से दुनिया के किसी भी कोने से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। ऑनलाइन पाठ्य-सामग्री से भी अध्ययन किया जा सकता है। ऑनलाइन प्रवेश-प्रक्रिया द्वारा विद्यार्थियों को निरर्थक भाग-दौड़ से छुटकारा मिल गया है। आज विभिन्न पाठ्यक्रमों; जैसे–बी०ई०, बी०-आर्क, एम०बी०ए०, एम०बी०बी०एस०, बी० एड० आदि की प्रवेश परीक्षाओं में सम्मिलित होना सरल हो गया है। सारी सूचनाएँ ऑनलाइन होने से दूरस्थ शिक्षा में भी सूचना-प्रौद्योगिकी महत्त्वपूर्ण साधन बन चुकी है।

(ख) व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में सूचना-प्रौद्योगिकी-व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में सूचना-प्रौद्योगिकी अत्यन्त प्रभावी सिद्ध हो रही है। वित्त रिकॉर्ड कीपिंग, लेन-देन का विश्लेषण और उनके विवरण तैयार करने में सूचना-प्रौद्योगिकी पर्याप्त सहायक हुई है। ई-कॉमर्स द्वारा उत्पाद की ऑनलाइन सूची और ऑनलाइन भुगतान प्रणाली काफी प्रभावी है। बड़े-बड़े संस्थानों में जहाँ अनेक व्यक्ति काम करते हैं, वहाँ उनके, वेतन, भत्तों, मासिक देनदारियों के विवरण तैयार करने, छुट्टी निर्धारण और आयोजना को लागू करने में सूचना-प्रौद्योगिकी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस प्रकार उत्पादन-प्रणालियों और भण्डारण-व्यवस्था के संचालन में सुविधा हो गई है। अब किसी कम्पनी का कोई भी अधिकृत व्यक्ति एक बटन दबाकर पूरे माल का रिकॉर्ड देख सकता है। वह अपनी योजनाओं में भी सुधार कर सकता है। इस प्रकार पूरे व्यवसाय के ऑनलाइन होने से व्यापार करना सुगम हो गया है।

(ग) डिजिटल इण्डिया मिशन और सचना-प्रौद्योगिकी सचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी राष्ट्रों में से एक है। भारत सरकार द्वारा शासन और प्रशासन में नागरिक सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए माई गवर्नमेंट जैसी वेबसाइटों का सृजन किया गया है, जिनको भारी जन समर्थन मिला है। डिजिटल इण्डिया में ब्रॉडबेण्ड हाई-वे और मोबाइल कनेक्टिविटी के माध्यम से ई-गवर्नेस के अन्तर्गत सरकारी कार्यों और योजनाओं में सुधार, सभी के लिए सूचनाओं की उपलब्धता, नौकरियों में पारदर्शिता, तकनीकी शिक्षा के विकास द्वारा उत्पादन में वृद्धि आदि योजनाएँ सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत सभी मन्त्रालयों एवं सरकारी विभाग आपस में जुड़े हैं। इस मिशन का उद्देश्य लोगों की भागीदारी के माध्यम से गुणात्मक परिवर्तन लाना, भारत को तकनीकी दृष्टि से उन्नत बनाना तथा समाज और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना है।

(घ) अन्य क्षेत्रों में सूचना-प्रौद्योगिकी-शिक्षा, व्यापार, उद्योग, नौकरी, कृषि, प्रशासन के अतिरिक्त सूचना-प्रौद्योगिकी जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के साथ ही अपशिष्ट-संग्रह और निष्पादन उद्योग में भी कारगर सिद्ध हुई है। अपशिष्ट-प्रबन्धन के क्षेत्र में तेजी से हो रहे विस्तार के पीछे सक्षम प्रौद्योगिकी समाधान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

उपसंहार-इस प्रकार कहा जा सकता है कि सूचना-प्रौद्योगिकी ने लोगों को अपने अधिकारों, कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति जागरूक बनाकर एक प्रगतिशील समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। एक विश्व की संकल्पना को एक रचनात्मक बल मिला है। निश्चय ही सूचना-प्रौद्योगिकी एक दिन सम्पूर्ण विश्व को समृद्ध बनाकर सर्वत्र सुख और शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने में सफल होगी।

22. जीवन में विज्ञान का महत्त्व

अन्य सम्बन्धित शीर्षक- विज्ञान के लाभ,

  • विज्ञान की उपयोगिता,
  • विज्ञान के चमत्कार,
  • विज्ञान की उपलब्धियाँ,
  • विज्ञान के बढ़ते चरण,
  • विज्ञान : एक वरदान,
  • भारत में वैज्ञानिक प्रगति, विज्ञान का रचनात्मक स्वरूप [2018]।

“विज्ञान सामाजिक परिवर्तन का एक महान् उपकरण है-आधुनिक सभ्यता के विकास में सहयोगी सभी क्रान्तियों में सबसे अधिक शक्तिशाली।”

–आर्थर बाल्फोर

रूपरेखा-

  1. विविध क्षेत्रों में विज्ञान के चमत्कार–
    • (क) संचार के क्षेत्र में,
    • (ख) यातायात एवं परिवहन के क्षेत्र में,
    • (ग) चिकित्सा के क्षेत्र में,
    • (घ) शिक्षा के क्षेत्र में,
    • (ङ) कृषि के क्षेत्र में,
    • (च) मनोरंजन के क्षेत्र में,
    • (छ) दैनिक जीवन में,
    • (ज) उद्योग के क्षेत्र में,
    • (झ) परमाणु-शक्ति के क्षेत्र में,
  2. विज्ञान के चमत्कारों से लाभ एवं हानि,
  3. उपसंहार।

विविध क्षेत्रों में विज्ञान के चमत्कार-विज्ञान मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। वह विश्व के संचालन का मूल आधार है। विज्ञान की असीमित शक्ति का पता उसके चमत्कारपूर्ण आविष्कारों से लगता है। इसके चामत्कारिक आविष्कारों का सहारा लेकर मानव ने बड़ी-बड़ी समस्याओं के समाधान खोज निकाले हैं। उसकी वरदायिनी शक्ति मानव को अपरिमित सुख-समृद्धि प्रदान कर रही है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वैज्ञानिक आविष्कारों ने प्रभुत्व स्थापित कर लिया है; यथा

(क) संचार के क्षेत्र में प्राचीनकाल में सन्देशों के आदान-प्रदान में बहुत अधिक समय लग जाया करता था; परन्तु आज समय की दूरी घट गई है। अब फैक्स और ई-मेल द्वारा क्षणभर में ही किसी भी प्रकार के सन्देश एवं विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है। रेडियो और टेलीविजन द्वारा कोई समाचार अब कुछ ही क्षणों में विश्व भर में प्रसारित किया जा सकता है। आज चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहों से सम्प्रेषित सन्देश पृथ्वी पर पलभर में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। विज्ञान ने पृथ्वी और आकाश की दूरी समेट ली है।

(ख) यातायात एवं परिवहन के क्षेत्र में पहले व्यक्ति थोड़ी-सी दूरी तय करने में ही पर्याप्त समय लगा देता था। लम्बी यात्राएँ उसे दुरूह स्वप्न-सी लगती थीं। आज रेल, मोटर तथा वायुयानों ने लम्बी यात्राएँ अत्यन्त सुगम व सुलभ कर दी हैं। अब विविध वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर सुगमतापूर्वक भेजी जा सकती हैं। पृथ्वी ही नहीं, आज इन वैज्ञानिक साधनों के द्वारा मनुष्य ने चन्द्रमा पर भी अपने कदमों के निशान बना दिए हैं।

(ग) चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को समृद्ध किया है। अनेक असाध्य बीमारियों का इलाज विज्ञान द्वारा ही सम्भव हुआ है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति इतनी विकसित हो गई है कि नेत्रहीन को आँखें और विकलांग को अंग मिलना अब असम्भव नहीं लगता। शल्य चिकित्सा, कृत्रिम श्वास एवं विविध प्रकार की जीवनरक्षक ओषधियों द्वारा अब मनुष्य को नया जीवन प्रदान किया जा सकता है। कैंसर, टी०बी० तथा हृदयरोग जैसे भयंकर प्राणघातक रोगों पर विजय पाना भी विज्ञान के माध्यम से ही सम्भव हुआ है। विज्ञान ने चिकित्सा की नवीन पद्धतियों के सहारे मनुष्य को दीर्घजीवी बनाया है।

(घ) शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान के प्रसार एवं प्रचार में विज्ञान ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। विज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत कार्य किए हैं। टेलीविजन, रेडियो एवं सिनेमा ने शिक्षा को सरल बना दिया है। छापेखाने तथा अखबारों ने ज्ञान-वृद्धि में सहयोग दिया है। मुद्रण यन्त्रों के आविष्कार ने पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी है।

(ङ) कृषि के क्षेत्र में-जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में भारत का दूसरा स्थान है। पहले इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए अन्नपूर्ति करना असम्भव ही प्रतीत होता था, परन्तु आज हम अन्न के मामले में आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं। इसका श्रेय आधुनिक विज्ञान को ही है। विभिन्न प्रकार के उर्वरकों, बुआई-कटाई के आधुनिक साधनों, कीटनाशक दवाओं तथा सिंचाई के कृत्रिम साधनों ने खेती को अत्यन्त सुविधापूर्ण एवं सरल बना दिया है। अन्न को सुरक्षित रखने के लिए भी अनेक नवीन उपकरणों का आविष्कार किया गया है।

(च) मनोरंजन के क्षेत्र में–मनोरंजन के आधुनिक साधन विज्ञान की ही देन हैं। सिनेमा, रेडियो तथा टेलीविजन के आविष्कार ने मानव को उच्चकोटि के सरल एवं सुलभ मनोरंजन के साधन प्रदान कर दिए हैं।

(छ) दैनिक जीवन में-हमारे दैनिक जीवन का प्रत्येक कार्य विज्ञान पर ही निर्भर हो गया है। विद्युत् हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन गई है। बिजली के पंखे, प्रेस, कुकिंग गैस, स्टोव, फ्रिज, सिलाई-मशीन आदि के निर्माण ने मानव को सुविधापूर्ण जीवन दिया है। इन आविष्कारों से समय, शक्ति व धन की पर्याप्त बचत हुई है।

(ज) उद्योग के क्षेत्र में औद्योगिक क्षेत्र में विज्ञान ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किए हैं। भाँति-भाँति की मशीनों ने उत्पादन को बढ़ाया है। विभिन्न प्रकार के वस्त्र, खाद्य पदार्थ एवं दैनिक उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन हेतु विज्ञान ने सरलतम साधनों का आविष्कार किया है। हमारे देश में अनेक छोटे-बड़े कल-कारखानों का संचालन हो रहा है। इस प्रकार विज्ञान ने उद्योगों को प्रगति की ओर अग्रसर कर दिया है।

(झ) परमाणु-शक्ति के क्षेत्र में आधुनिक युग को परमाणु-युग कहा जाता है। जब वैज्ञानिक उपकरणों का विकास नहीं हुआ था तो मनुष्य को छोटे-से-छोटा कार्य करने में भी कठिनाई का अनुभव होता था। आज अणुशक्ति द्वारा कृत्रिम बादलों के माध्यम से वर्षा भी की जा सकती है। अणुशक्ति द्वारा मानव कल्याण सम्बन्धी अनेक कार्य किए जा रहे हैं। शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए अणुशक्ति का विकास किया जा रहा है। इस शक्ति के माध्यम से पृथ्वी और समुद्र से मूल्यवान् गैस व खनिज प्राप्त किए जा रहे हैं।

विज्ञान के चमत्कारों से लाभ एवं हानि-विज्ञान ने मानव को वरदायिनी शक्तियाँ प्रदान की हैं तथा मानव के कठिन जीवन को सरल बना दिया है। उसने मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं तथा उसे बाढ़, अकाल और महामारी से बचाया है। इसके अतिरिक्त मनुष्य को नीरोग बनाने में सहायता करके उसे दीर्घायु बनाया है, रहन-सहन सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करके उसके जीवन को सुखमय किया है तथा अपराधों को कम करने में भी सहायता की है। अब तो ‘लाई डिटेक्टर’ मशीन की सहायता से व्यक्ति के अपराध का पता लगाना और भी अधिक सरल हो गया है।

जहाँ विज्ञान ने मनुष्य को अनेक दृष्टियों से लाभान्वित किया है, वहीं उसे भयंकर हानियाँ भी पहुँचाई हैं। वैज्ञानिक उपकरणों ने मनुष्य को कामचोर बना दिया है। यन्त्रों के अत्यधिक उपयोग ने देश में बेकारी को जन्म दिया है। नवीन प्रयोगों ने वातावरण को दूषित कर दिया है। परमाणु परीक्षणों ने मानव को भयाक्रान्त कर दिया है। जापान के नागासाकी और हिरोशिमा नगरों का विनाश विज्ञान की ही देन है। मनुष्य अपनी पुरानी परम्पराएँ और आस्थाएँ भूलकर भौतिकवादी होता जा रहा है। वह स्वार्थी हो रहा है तथा उसमें विश्वबन्धुत्व की भावना लुप्त हो रही है। वैज्ञानिक आविष्कारों की निरन्तर स्पर्धा आज विश्व को खतरनाक मोड़ पर ले जा रही है। परमाणु तथा हाइड्रोजन बम निःसन्देह विश्व-शान्ति के लिए खतरा बन गए हैं। इनके प्रयोग से किसी भी क्षण सम्पूर्ण विश्व और उसकी संस्कृति पलभर में नष्ट हो सकती है।

उपसंहार–वास्तव में विज्ञान मानव के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। हमारा जीवन विज्ञान का ऋणी है। विज्ञान के आविष्कारों से धरती को स्वर्ग बनाया जा सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम वैज्ञानिक चमत्कारों के ऋणी हैं। सत्य तो यह है कि विज्ञान स्वयं में एक चमत्कार है।

23. दूरदर्शन की उपयोगिता

अन्य सम्बन्धित शीर्षक-

  • जन-शिक्षा में दूरदर्शन की भूमिका,
  • शिक्षा और दूरदर्शन,
  • दूरदर्शन (टेलीविजन),
  • दूरदर्शन : लाभ-हानि,
  • दूरदर्शन : गुण एवं दोष,
  • दूरदर्शन और समाज।

रूपरेखा-

  1. दूरदर्शन का आविष्कार,
  2. दूरदर्शन यन्त्र की तकनीक,
  3. दूरदर्शन के लाभ
    • (क) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग,
    • (ख) चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग,
    • (ग) उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग,
  4. भारत में दूरदर्शन,
  5. उपसंहार।

दूरदर्शन का आविष्कार-25 जनवरी, 1926 ई० को इंग्लैण्ड में एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने रॉयल . इंस्टीट्यूट के सदस्यों के सामने टेलीविजन का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया था। उसने रेडियो तरंगों की सहायता से बगलवाले कमरे में बैठे हुए वैज्ञानिकों के सामने कठपुतली के चेहरे का चित्र निर्मित किया था। विज्ञान के लिए यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना थी। सैकड़ों-हजारों वर्ष के स्वप्न को जॉन बेयर्ड ने सत्य कर दिखाया था।

दूरदर्शन यन्त्र की तकनीक-दूरदर्शन यन्त्र बहुत-कुछ उसी सिद्धान्त पर काम करता है जिस पर रेडियो। अन्तर केवल इतना है कि रेडियो तो किसी ध्वनि को विद्युत्-तरंगों में बदलकर उन्हें दूर-दूर तक प्रसारित कर देता है और इसी प्रकार प्रसारित की जा रही विद्युत्-तरंगों को फिर ध्वनि में बदल लेता है, परन्तु दूरदर्शन-यन्त्र प्रकाश को विद्युत्-तरंगों में बदलकर प्रसारित करता है। रेडियो द्वारा प्रसारित की जा रही ध्वनि को हम सुन सकते हैं और दूरदर्शन द्वारा प्रसारित किए जा रहे कार्यक्रम को देख सकते हैं।

दूरदर्शन के प्रसारण-यन्त्र के लिए एक विशेष प्रकार का कैमरा होता है। इस कैमरे के सामने का दृश्य जिस पर्दे पर प्रतिबिम्बित होता है, उसे ‘मोज़ेक’ कहते हैं। इस मोज़ेक में 405 क्षैतिज (पड़ी) रेखाएँ होती हैं। इस मोज़ेक पर एक ऐसे रासायनिक पदार्थ का लेप रहता है; जो प्रकाश के लिए अत्यधिक संवेदनशील होता है। इलेक्ट्रॉनों द्वारा प्रकाश की किरणें मोज़ेक पर इस ढंग से फेंकी जाती हैं कि वे मोज़ेक की 405 लाइनों पर बारी-बारी से एक सेकण्ड में 25 बार गुजर जाती हैं। मोज़ेक पर लगा लेप इस पर पड़ने वाले प्रकाश से प्रभावित होता है।

किसी वस्तु या दृश्य के उज्ज्वल अंशों से आने वाला प्रकाश तेज और काले अंशों से आनेवाला प्रकाश मन्द होता है। यह प्रकाश एक ‘कैथोड रेज ट्यूब’ (CRT) पर पड़ता है। इस ट्यूब में प्रकाश की तीव्रता या मन्दता के अनुसार बिजली की तेज या मन्द तरंगें उत्पन्न होती हैं। इन तरंगों को रेडियो की तरंगों की भाँति प्रसारित किया जाता है और ग्रहण-यन्त्र के द्वारा फिर प्रकाश में बदल लिया जाता है।

उपग्रहों की सहायता से अब सारी पृथ्वी के मौसम के चित्र दूरदर्शन पर देखे जा सकते हैं। अब तो विश्व में टेलीविजन चैनलों का जाल-सा बिछ गया है। भारतीय दूरदर्शन के साथ-साथ इस समय हम अपने ही देश में स्टार टी०वी०, जी०टी०वी०, सी०एन०एन०, बी०बी०सी०, एम०टी०वी०, स्टार प्लस आदि 50 से भी अधिक टेलीविजन-कम्पनियों के द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों को देख सकते हैं, अपना मनोरंजन कर सकते हैं तथा विश्व की घटनाओं से क्षणभर में परिचित हो सकते हैं।

दूरदर्शन के लाभ-दूरदर्शन अनेक दृष्टियों से लाभकारी सिद्ध हो रहा है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में दूरदर्शन के लाभ, महत्त्व अथवा उपयोगिताओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

(क) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग-दूरदर्शन का प्रयोग केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए भी किया गया है। चन्द्रमा पर भेजे गए अन्तरिक्ष यानों में दूरदर्शन-यन्त्र लगाए गए थे और उन्होंने वहाँ से चन्द्रमा के बहुत सुन्दर चित्र पृथ्वी पर भेजे। जो अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्री चन्द्रमा पर गए थे, उनके पास भी दूरदर्शन-कैमरे थे और उन्होंने पृथ्वी पर स्थित लोगों को भी चन्द्रमा के तल का ऐसा दर्शन करा दिया, मानो वे भी चन्द्रमा पर ही घूम-फिर रहे हों। मंगल तथा शुक्र ग्रहों की ओर भेजे गए
अन्तरिक्ष यानों में लगे दूरदर्शन-यन्त्रों ने उन ग्रहों के सबसे अच्छे तथा विश्वसनीय चित्र पृथ्वी पर भेजे हैं।

(ख) चिकित्सा व शिक्षा के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग–अन्य क्षेत्रों में भी टेलीविजन की उपयोगिता को वैज्ञानिकों ने पहचाना है। उदाहरण के लिए यदि कोई अनुभवी सर्जन एक कमरे में हृदय का ऑपरेशन कर रहा है तो उस कमरे में अधिक-से-अधिक पाँच या छह विद्यार्थी ही ऑपरेशन की क्रिया को देखकर ऑपरेशन का सही तरीका सीख सकते हैं, किन्तु टेलीविजन की सहायता से एक बड़े हॉल में परदे पर ऑपरेशन की सम्पूर्ण क्रिया तीन-चार-सौ विद्यार्थियों को सुगमता से दिखाई जा सकती है। अमेरिका के कुछ बड़े अस्पतालों के ऑपरेशन थिएटरों में स्थायी रूप से टेलीविजन के यन्त्र लगा दिए गए हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण ऑपरेशन की क्रियाएँ टेलीविजन द्वारा परदे पर विद्यार्थियों को दिखाई जा सकें।

(ग) उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में दूरदर्शन के प्रयोग उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में टेलीविजन महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। कुछ ही दिन हुए, अमेरिका की एक औद्योगिक प्रदर्शनी में यह दिखाया गया था कि किस प्रकार टेलीविजन की सहायता से दूर से ही इंजीनियर भारी बोझ उठानेवाली क्रेन का परिचालन कर सकता है। यद्यपि क्रेन इंजीनियर की दृष्टि से परे रहता है, परन्तु क्रेन का चित्र टेलीविजन के परदे पर हर क्षण रहता है; अत: दूर बैठा हुआ इंजीनियर कल-पुों की सहायता से क्रेन का समुचित रूप से परिचालन करने में समर्थ होता है।

भारत में दूरदर्शन-भारत में दूरदर्शन का पहला केन्द्र नई दिल्ली में 15 सितम्बर, 1959 ई० में प्रारम्भ हुआ था। प्रायोगिक रूप में तब इसके प्रसारण को केवल दिल्ली और उसके निकट के क्षेत्रों में ही देखा जा सकता था। प्रारम्भ में दूरदर्शन के प्रसारण की अवधि मात्र साठ मिनट की थी तथा इसके प्रसारण को सप्ताह में दो बार ही देखा जा सकता था।

धीरे-धीरे सन् 1963 ई० में दूरदर्शन के कार्यक्रमों में नियमितता आई। वर्ष 1975-76 में ‘साइट’ कार्यक्रम के अन्तर्गत उपग्रह-प्रसारण का सफल परीक्षण किया गया। सन् 1983 ई० में इनसेट- 1बी का सफल प्रक्षेपण हुआ। वास्तव में यह दूरदर्शन के लिए वरदान सिद्ध हुआ। इसी वर्ष देश में 45 ट्रांसमीटरों तथा 7 केन्द्रों की स्थापना हुई। देश की 28 प्रतिशत जनसंख्या तक दूरदर्शन की सीधी पहुँच बनी। सन् 1982 ई० का वर्ष भारतीय दूरदर्शन का स्वर्णिम वर्ष था। अभी तक दूरदर्शन के कार्यक्रम श्वेत-श्याम (ब्लैक एण्ड ह्वाइट) थे। 15 अगस्त, 1982 ई० से टेलीविजन पर रंगीन कार्यक्रमों का प्रसारण आरम्भ हुआ और इसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों की नींव डाली गई। सन् 1984 ई० में 172 ट्रांसमीटरों की स्थापना की गई और दूरदर्शन देश की आधी जनसंख्या तक पहुँच गया।

17 सितम्बर, 1984 ई० को दिल्ली में तथा 1 मई, 1985 ई० को मुम्बई में दूसरे चैनल का आरम्भ हुआ। अप्रैल 1984 ई० में कार्यक्रमों का समय बढ़ाया गया और इसकी अवधि 60 से 90 मिनट कर दी गई। एक सरकारी सूचना के अनुसार अब दूरदर्शन कार्यक्रमों की पहुँच देश की 76 करोड़ जनसंख्या तक हो गई है। दूरदर्शन के 553 ट्रांसमीटरों के माध्यम से देश के 65 प्रतिशत क्षेत्र में रहनेवाली 84 प्रतिशत जनसंख्या को दूरदर्शन के कार्यक्रम उपलब्ध हैं। सभी केन्द्रों को मिलाकर दूरदर्शन द्वारा प्रति सप्ताह लगभग 488 घण्टे का प्रसारण किया जा रहा है।

टी०वी० के सरकारी चैनल-दूरदर्शन के अपने लगभग 30 चैनल कार्यरत हैं, जिनमें से कुछ की सेवाएँ विदेशों को भी प्रदान की जा रही हैं। विशेष रूप से 12 अरब राष्ट्रों में से अधिकांश की भूमि पर इनके प्रसारण को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। डी०डी० न्यूज नामक दूरदर्शन चैनल पर चौबीस घण्टे समाचार का प्रसारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त ए०बी०पी०, स्टार न्यूज, एन०डी०टी०वी०, आज तक, जी० न्यूज, सहारा उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड जैसे चैनल भी निरन्तर समाचार प्रसारित करने में संलग्न हैं।

इन चैनेलों के माध्यम से मनोरंजन, खेल-कूद, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा व्यापारिक कार्यक्रमों को गति मिलेगी और देश का अधिकांश क्षेत्र दूरदर्शन के कार्यक्रमों से जुड़ सकेगा।

उपसंहार–इस प्रकार टेलीविजन हमारे मनोरंजन का सशक्त माध्यम है। भीड़-भरे स्थलों पर, विशिष्ट समारोहों में, क्रीडा-प्रतियोगिताओं में तथा जहाँ हम सरलता से नहीं पहुँच सकते, टेलीविजन के माध्यम से वहाँ पर उपस्थित रहने जैसा सुख प्राप्त करते हैं।

24. मोबाइल फोन : वरदान या अभिशाप

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. मोबाइल फोन क्या है?
  3. मोबाइल फोन का आविष्कार,
  4. मोबाइल फोन और उसके उपयोग–
    • (क) बैंकिंग के क्षेत्र में,
    • (ख) नोकरी के क्षेत्र में,
    • (ग) सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में,
    • (घ) दैनिक जीवन में,
    • (ङ) कला के क्षेत्र में, (चअन्य क्षेत्रों में,
  5. मोबाइल फोन की हानियाँ–
    • (क) मानवीय सुरक्षा एवं स्वास्थ्य के प्रति घातक,
    • (ख) पर्यावरण के लिए घातक,
    • (ग) भावी पीढ़ी के लिए घातक,
  6. उपसंहार (मोबाइल फोन : वरदान या अभिशाप।)

प्रस्तावना-मोबाइल फोन आज की व्यस्ततम दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण अंग बन चुका है; क्योंकि मोबाइल फोन के आविष्कार ने मानव के बीच की दूरी को समाप्त करके उसके कार्यक्षेत्र को बढ़ा दिया है। इससे उसकी व्यस्तता अत्यधिक बढ़ गई है। प्राचीनकाल में सन्देशों के आदान-प्रदान में बहुत समय और धन लग जाया करता था, परन्तु आज मोबाइल के कारण समय और धन की बड़े पैमाने पर बचत हुई है। हम इसके माध्यम से कुछ ही क्षणों में विश्व के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति या आत्मीयजन से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। आज मोबाइल फोन की सुविधा समाज के सभी वर्गों तक पहुंच चुकी है।

मोबाइल फोन क्या है?– मोबाइल एक छोटा-सा इलेक्ट्रॉनिक उपकण है, जिसके द्वारा हम अपने सन्देशों को बोलकर.या लिखकर दूसरे लोगों तक पहुँच सकते हैं। आधुनिक मोबाइल फोनों के द्वारा हम किसी भी रंगीन फोटो या वीडियो को भी दूसरों तक सरलता से पहुँचा सकते हैं। वीडियो कॉलिंग के द्वारा मोबाइल फोन से दो लोग ऐसे ही बात कर लेते हैं, जैसे लोग आमने-सामने बैठकर बात करते हैं।

मोबाइल फोन का आविष्कार–प्रथम व्यावहारिक मोबाइल फोन के आविष्कार का श्रेय मार्टिन कूपर को जाता है। 17 अक्टूबर, 1973 ई० को रेडियो टेलीफोन प्रणाली’ में अमेरिका के पेटेंट कार्यालय द्वारा मार्टिन कूपर को मोबाइल फोन का आविष्कारक घोषित किया गया। श्री कूपर ने ‘बैल’ प्रयोगशाला के अपने एक प्रतिद्वन्द्वी डॉ० एस० एंजेल को 3 अप्रैल, 1973 ई० को मोबाइल फोन पर पहली कॉल की। मोबाइल फोन का प्रारम्भिक रूप वर्तमान मोबाइल फोन की तुलना में पर्याप्त भिन्न था। उसका आकार और वजन कहीं अधिक था, धीरे-धीरे मोबाइल फोन के रूप और गुणवत्ता में पर्याप्त परिवर्तन हुआ। आज बाजार में उच्च गुणवत्ता से युक्त अनेक प्रकार के मोबाइल फोन उपलब्ध हैं, जिनमें अनेक फीचर शामिल किए गए हैं।

मोबाइल फोन और उसके उपयोग-आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मोबाइल फोन का व्यापक प्रयोग हो रहा है। बड़े-बड़े व्यवसाय, तकनीकी-संस्थान और महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इसका प्रयोग कर रहा है। वास्तव में आज मोबाइल फोन छाया के समान हर समय व्यक्ति के साथ-साथ रहता है। मोबाइल फोन का आविष्कार आज के व्यस्त जीवन में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो रहा है। आज मोबाइल का प्रयोग परस्पर सम्पर्क, वार्तालाप, पाठ-सन्देश (SMS), चित्र-सन्देश (MMS), रेडियो, अलार्म, वीडियो कॉलिंग, कैमरा, वीडियो रिकॉर्डिंग, गेम आदि अनेक व्यक्तिगत कार्यों में हो रहा है। इसके अतिरिक्त मोबाइल का जिन क्षेत्रों में व्यापक प्रयोग हो रहा है, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

(क) बैंकिंग के क्षेत्र में मोबाइल फोन द्वारा आज अपने बैंक खाते का पूरा हिसाब-किताब घर बैठे ही रखा जा सकता है। बैंक एक कोड के जरिए अपने ग्राहकों को यह सुविधा प्रदान करते हैं, जिसके माध्यम से खाते में जमा की गई और निकाली गई धनराशि की सूचना तुरन्त एक सन्देश द्वारा ग्राहक के मोबाइल फोन पर प्रसारित हो जाती है। इससे ग्राहक को अपनी बैंक खाते में जमा पूँजी की जानकारी हो जाती है। आज मोबाइल फोन को बैंकों के कम्प्यूटरों से जोड़कर घर बैठे ही लेन-देन का व्यवहार किया जा सकता है।

(ख) नौकरी के क्षेत्र में वर्तमान में अनेक कम्पनियों ने नौकरी की खोज और कैरियर पर सलाह के लिए मोबाइल सेवा प्रदान करना आरम्भ कर दिया है, जिसका उपयोग कर उपभोक्ता अपने मनचाहे क्षेत्र में नौकरी पाने की दिशा में अग्रसर हो सकता है।

(ग) सूचना और समाचार-प्रेषण के क्षेत्र में दूरसंचार की दृष्टि से मोबाइल फोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। किसी भी घटना, दुर्घटना, सहायता, असहायता की सूचना मोबाइल पर किसी भी स्थान से किसी भी स्थान पर सचित्र या बिना चित्र के वार्तालाप या सन्देश द्वारा भेजी जा सकती है। इण्टरनेट के माध्यम से चलने वाली व्हाट्सअप, फेसबुक आदि सुविधाओं द्वारा किसी भी अप्रिय-प्रिय घटना की वीडियो बनाकर एक-साथ अनेक व्यक्तियों को भेजी जा सकती है। शोषण, भ्रष्टाचार, अमानवीयता आदि की गुप्त वीडियो या ओडियो बनाकर उसे साक्ष्य के रूप में न्यायालय में भी प्रस्तुत किया जा सकता है।

(घ) दैनिक जीवन में दैनिक जीवन के कार्यों को व्यवस्थित रूप से करने में भी मोबाइल फोन उपयोगी सिद्ध हो रहा है। दिनभर के कार्यों के लिए समय निर्धारित कर इसमें अलार्म लगा दिया जाता है, जो हमें समय पर सचेत कर देता है। मोबाइल-कैलेंडर में मुख्य दिनों और महत्त्वपूर्ण तिथियों को याद रखा जा सकता है।

(ङ) कला के क्षेत्र में मोबाइल फोन पर उपलब्ध एप्स के माध्यम से हम कला के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर सकते हैं। अब कलाकार को रंग व कैनवास की आवश्यकता नहीं रही है। मोबाइल पर ही वह चित्र बनाकर और उसमें रंग-भरकर वह विश्व के किसी भी स्थान पर अपनी कलाकृति को पलभर में भेज सकता है।

(च) अन्य क्षेत्रों में सम्भवतः जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसमें मोबाइल फोन का प्रयोग न हो रहा हो अथवा न हो सकता हो। मोबाइल फोन द्वारा घर बैठे ही बस टिकट, रेल टिकट तथा रेल और वायुयान में भी आरक्षण कराया जा सकता है। समाचार, ज्योतिष, मौसम सम्बन्धी जानकारी, चिकित्सा क्षेत्र, चुनाव-सूचना, परीक्षाफल आदि सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित जानकारियाँ मोबाइल फोन द्वारा सुलभ हो रही हैं। मोबाइल पर उपलब्ध अनेक मनोरंजक तथा ज्ञानवर्द्धक खेलों द्वारा मस्तिष्क का विकास किया जा सकता है। इस प्रकार आज की आपा-धापीवाली जिन्दगी में मोबाइल फोन एक अच्छा साथी सिद्ध हो रहा है।

मोबाइल फोन की हानियाँ-आज छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े सभी व्यक्ति मोबाइल फोन से जुड़ चुके हैं। विश्व की दूरियाँ जैसे समाप्त हो गई हैं; लेकिन जिस प्रकार मोबाइल फोन लोगों के जीवन में शामिल हुआ है, उससे अनेक गम्भीर समस्याएं पैदा हो गई हैं। मोबाइल फोन से उत्पन्न समस्याएँ अथवा उससे होनेवाली प्रमुख हानियाँ इस प्रकार हैं

(क) मानवीय सुरक्षा एवं स्वास्थ्य के प्रति घातक-मोबाइल फोन का अत्यधिक प्रयोग मानवीय सुरक्षा और स्वास्थ्य के प्रति घातक सिद्ध हो रहा है। प्रत्यक्ष पारस्परिक वार्तालाप के अभाव में जीवन में नकारात्मकता बढ़ रही है, रिश्तों में तनाव उत्पन्न हो रहा है। लगातार फोन अलर्ट और अनुस्मारक आने से उपभोक्ता के मन की शान्ति भंग होती है, जिससे तनाव और अवसाद जन्म लेते हैं। व्यक्ति को नींद ठीक से नहीं आती, उसकी याददाश्त पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। मोबाइल फोन का अत्यधिक प्रयोग युवा पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है। बार-बार मोबाइल छूने से रोगाणु फोन पर लगे रह जाते हैं और बीमारियों को जन्म देते हैं। मोबाइल फोन के टॉवरों से होनेवाला विकिरण कैंसर जैसी घातक बीमारियों को जन्म देता है। अनेक प्रकार के मानसिक रोग भी इसके द्वारा होते हैं।

(ख) पर्यावरण के लिए घातक–मोबाइल निर्माण में अनेक हानिकारक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है; जैसे-कैडमियम, लिथियम, ताँबा, सीसा, जस्ता और पारा आदि। ये द्रव्य अत्यन्त विषाक्त माने जाते हैं। इन पदार्थों के घुलने और उनके मिट्टी में जाने से मिट्टी प्रदूषित होती है। मोबाइल फोन के उत्पादन से पर्यावरण प्रदूषित होता है। मोबाइल फोन और इसके टॉवर मानव जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इनसे निकलने वाले विकिरण के कारण थकान, चक्कर आना, पाचन-तन्त्र में गड़बड़ी और रक्तचाप की समस्याएँ पनप रही हैं।

(ग) भावी पीढ़ी के लिए घातक-मोबाइल फोन के दुष्प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर अधिक पड़ते हैं, जिससे उत्पन्न होनेवाले बच्चे में अनेक भावनात्मक समस्याएँ जन्म लेती हैं। यह भावी पीढ़ी के लिए एक बड़ा खतरा है।

उपसंहार ( मोबाइल फोन : वरदान या अभिशाप)-मोबाइल फोन के विषय में उक्त दोनों दृष्टियों से विचार करने के पश्चात् यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि मोबाइल फोन अपने आपमें न वरदान है और न अभिशाप बल्कि यह तो एक संसाधन है, जिसका अभिशाप अथवा वरदान होना हमारे प्रयोग के ऊपर निर्भर करता है। हमें इसके अत्यधिक उपयोग से बचना चाहिए। कहा भी गया है-“अति सर्वत्र वर्जयेत्’। यदि मनुष्य मोबाइल फोन का प्रयोग आवश्यकतानुसार और सीमित रूप से करे तो यह उसके लिए वरदान ही है।

25. अक्षय ऊर्जा के स्रोत और हमारा राष्ट्र रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. अक्षय ऊर्जा के स्रोत–
    • (क) सौर ऊर्जा,
    • (ख) पवन ऊर्जा,
    • (ग) जल ऊर्जा,
    • (घ) भू-तापीय ऊर्जा,
    • (ङ) बायोमास एवं जैव ईंधन,
  3. अक्षय ऊर्जा के स्रोत और हमारा राष्ट्र,
  4. उपसंहार।

प्रस्तावना-पेट्रोल, डीजल, कोयला, गैस आदि की दिनोदिन घटती मात्रा ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि हमें अपनी कल की ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए ऐसे संसाधनों को खोजना होगा, जो कभी समाप्त न हों और हमारा जीवन सुचारु रूप से बिना किसी ऊर्जा संकट के चलता रहे। ऊर्जा के कभी न समाप्त होनेवाले संसाधनों को ही हम अक्षय ऊर्जा के स्रोत के रूप में जानते हैं।

अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत-मानव एक विकासशील प्राणी है। उसने ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों की खोज की, जो आधुनिक जीवन शैली का अभिन्न अंग बन गए हैं। सबसे पहले मानव ने ऊर्जा के परम्परागत साधनों-कोयला, गैस, पेट्रोलियम आदि का प्रयोग किया, जो सीमित मात्रा में होने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए हानिकारक भी हैं। अक्षय ऊर्जा के स्रोत न केवल ऊर्जा के संकट मिटाने में सक्षम हैं, पर्यावरण के अनुकूल भी हैं। भारत में अक्षय ऊर्जा के अनेक स्रोत उपलब्ध हैं; जैसे-सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा, बायोमास एवं जैव ईंधन आदि। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

(क) सौर ऊर्जा–भारत में सौर ऊर्जा की काफी सम्भावनाएँ हैं; क्योंकि देश के अधिकतर भागों में वर्ष में 250-300 दिन सूर्य अपनी किरणें बिखेरता है। सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए फोटोवोल्टेइक सेल प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। फोटोवोल्टेइक सेल सूर्य से प्राप्त होनेवाली किरणों को ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है। हमारे देश में सौर ऊर्जा के रूप में प्रतिवर्ष लगभग 5 हजार खरब यूनिट बिजली बनाने की सम्भावना मौजूद है, जिसके लिए पर्याप्त तीव्रगति से कार्य किए जाने की आवश्यकता है। भारत में विगत 25-30 वर्षों से सौर ऊर्जा पर कार्य हो रहा है। वर्ष 2010 ई० में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन की शुरूआत की थी, जिसका उद्देश्य वर्ष 2022 तक सौर ऊर्जा के माध्यम से देश को ऊर्जा के संकट से मुक्ति दिलाना है। आज देश के टेलीकॉम टॉवर प्रतिवर्ष 5 हजार करोड़ लीटर डीजल का प्रयोग कर रहे हैं, सौर ऊर्जा के प्रयोग द्वारा इस डीजल को बचाया जा सकता है। सौर ऊर्जा अभी महँगी है, इसलिए इसकी उपयोगिता का ज्ञान होते हुए भी लोग इसका प्रयोग करने से बचते हैं। अब सोलर कुकर, सोलर बैटरी चालित वाहन और मोबाइल फोन भी प्रयोग में लाए जा रहे हैं। लोग धीरे-धीरे इसकी महत्ता समझ रहे हैं। कर्नाटक के लगभग एक हजार गाँवों में सौर ऊर्जा के प्रयोग का अभियान चल रहा है। आनेवाले समय में सौर ऊर्जा निश्चित ही भारत को प्रगति के मार्ग पर ले जाने में सहायक होगी।

(ख) पवन ऊर्जा-पवन या वायु ऊर्जा अक्षय ऊर्जा का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन काल में पवन ऊर्जा का प्रयोग नाव चलाने में किया जाता था। लगभग 2 हजार वर्ष पूर्व सिंचाई और अनाज कूटने आदि में पवन ऊर्जा के प्रयोग का प्रणाम मिलता है। चीन, अफगानिस्तान, पर्शिया, डेनमार्क, कैलिफोर्निया में पवन ऊर्जा का उपयोग बिजली बनाने में किया जा रहा है। भारत में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान आदि प्रदेशों में पवन ऊर्जा के विद्युत् उत्पादन का कार्य चल रहा है। भारत में पवन ऊर्जा की काफी सम्भावनाएँ हैं। इस समय भारत में पवन ऊर्जा का नवीन और ऊर्जा मन्त्रालय के अनुसार भारत में वायु द्वारा 48,500 मेगावॉट विद्युत् उत्पादन की क्षमता है, अभी तक 12,800 मेगावॉट की क्षमता ही प्राप्त की जा सकी है।

पिछले दो दशकों में विद्युत् उत्पादक पवनचक्कियों (टरबाइनों) की रूपरेखा, स्थल का चयन, स्थापना, कार्यकलाप और रख-रखाव में तकनीकी रूप से भारी प्रगति हुई है और विद्युत् उत्पादन की लागत कम हुई है। पवन ऊर्जा द्वारा पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता; क्योंकि इसमे अपशिष्ट का उत्पादन नहीं के बराबर होता है विकिरण की समस्या भी नहीं होती है। आनेवाले समय में पवन ऊर्जा के सशक्त माध्यम बनने की पूरी सम्भावनाएँ हैं।

(ग) जल ऊर्जा–जल अक्षय ऊर्जा के प्रमुख स्रोतों में से एक है। इसमें नदियों पर बाँध बनाकर उनके जल से टरबाइनों द्वारा विद्युत् उत्पादन किया जाता है। भारत में बाँध बनाकर जल विद्युत् का उत्पादन दीर्घकाल से हो रहा है। इसके अलावा समुद्र में उत्पन्न होनेवाले ज्वार-भाटा की लहरों से भी विद्युत्-उत्पादन किया जा सकता है। भारत की सीमाएँ तीन-तीन ओर से समुद्रों से घिरी हैं; अत: अक्षय ऊर्जा स्रोत का प्रयोग बड़े पैमाने पर कर सकता है।

(घ) भू-तापीय ऊर्जा-यह पृथ्वी से प्राप्त होनेवाली ऊर्जा है। भू-तापीय ऊर्जा का जन्म पृथ्वी की गहराई में गर्म, पिघली चट्टानों से होता है। इस स्रोत से ऐसे स्थानों पर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पृथ्वी के गर्म क्षेत्र तक एक सुरंग खोदी जाती है, जिनके द्वारा पानी को वहाँ पहुँचाकर उसकी भाप बनाकर टरबाइन चलाकर बिजली बनाई जाती है। भारत में लगभग 113 संकेत मिले हैं, जिनसे लगभग 10 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन होने की सम्भावना है। भू-तापीय ऊर्जा से विद्युत् उत्पादन लागत जल ऊर्जा से उत्पन्न विद्युत् जितनी ही है। भारत को भू-तापीय ऊर्जा को प्रयोग में लाने के लिए बड़ी मात्रा में आवश्यक संसाधन जुटाने पड़ेंगे, तभी इस ऊर्जा का लाभ उठाया जा सकेगा।

(5) बायोमास एवं जैव ईंधन- कृषि एवं वानिकी अवशेषों (बायोमास / जैव पदार्थों) का प्रयोग भी ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है। भारत की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या जैव पदार्थों का प्रयोग खाना बनाने के लिए ईंधन के रूप में करती है। लकड़ी, गोबर और खरपतवार प्रमुख जैव-पदार्थ हैं, जिनसे बायोगैस उत्पन्न की जाती है। गन्ने, महुए, आलू, चावल, जौं, मकई और चुकन्दर जैसे शर्करायुक्त पदार्थों से एथेनॉल बनाया जाता है। इसे पेट्रोल में मिलाकर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। भारत सरकार इसका 10 प्रतिशत तक पेट्रोल में मिश्रण करना चाहती है, जिसके लिए प्रतिवर्ष 266 करोड़ लीटर एथेनॉल की जरूरत होगी, किन्तु एथेनॉल बनानेवाली चीनी मिलों ने अभी 140 करोड़ लीटर एथेनॉल की आपूर्ति की पेशकश ही सरकार से की है। इसके अतिरिक्त कृषि से निकलनेवाले व्यर्थ पदार्थों; जैसे खाली भुट्टे, फसलों के डंठल, भूसी आदि और शहरों एवं उद्योगों के ठोस कचरे से भी बिजली बनाई जा सकती है। भारतवर्ष में उनसे लगभग 23,700 मेगावॉट बिजली प्रतिवर्ष बन सकती है, परन्तु अभी इनसे 2,500 मेगावॉट बिजली का ही उत्पादन हो रहा है।

(च) परमाणु ऊर्जा–भारत के डॉ. होमी भाभा को भारत में परमाणु ऊर्जा के विकास का जनक माना जाता है। भारत में पाँच परमाणु ऊर्जा केन्द्रों पर 10 परमाणु रिएक्टर हैं, जो देश की कुल दो प्रतिशत बिजली का उत्पादन करते हैं। यद्यपि परमाणु ऊर्जा पर्यावरण के लिए घातक नहीं है, लेकिन इससे सम्बन्धित कोई भी दुर्घटना अवश्य ही मानव-जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है। इसका सबसे अधिक खतरा उत्पादन के पश्चात् निकलनेवाला रेडियोधर्मी अपशिष्ट कचरा है, जिसे समाप्त करना दुष्कर होता जा रहा है; अत: यह अक्षय ऊर्जा का स्रोत होते हुए भी इसका प्रयोग दीर्घकाल तक नहीं किया जा सकता है।

अक्षय ऊर्जा और हमारा राष्ट्र–अक्षय ऊर्जा वैश्विक जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए श्रेष्ठ साधन है; क्योंकि इससे हमारा पर्यावरण स्वच्छता के साथ बड़ी मात्रा में ऊर्जा भी प्राप्त होती है। इसी कारण विभिन्न देशों में अपने-अपने अक्षय ऊर्जा स्रोत बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा दिखाई देने लगी है। वैश्विक रुझानों को देखते हुए भारत अक्षय की प्रतिस्पर्धा का सक्रिय भागीदार है। वह निरन्तर अक्षय ऊर्जा स्रोतों की अपनी श्रेणियाँ विस्तृत करने के प्रयास में जुटा है। भारत ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा क्षमता 74 गीगावॉट तक बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसमें 2020 तक सौर ऊर्जा क्षमता बढ़ाकर 20 GW करने और बिजली की कुल खपत का 15 प्रतिशत हिस्सा अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है।

वर्तमान में भारत की संस्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता लगभग 30 गीगावॉट है और भारत इस क्षेत्र में अग्रणी है। भारत की अक्षय ऊर्जा विकास योजना में घरेलू ऊर्जा सुरक्षा प्राप्त करना भी शामिल है। इस योजना से जहाँ क्षेत्रीय विकास होगा, वहीं रोजगार के अवसर भी उत्पन्न होंगे। पर्यावरण सुरक्षा भी इसके माध्यम से हो सके और ग्लोबल वार्मिंग के अन्तर्गत अधिक कार्बन डाइ-ऑक्साइड उत्सर्जन के अन्तरराष्ट्रीय दबाव से भी हम मुक्त हो सकेंगे।

उपसंहार–अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा जो योजनाएँ चलाई जा रही हैं; उनसे यह आशा बँधती है कि हम निकट भविष्य में अपनी ऊर्जा-प्राप्ति और पर्यावरण-सुरक्षा की समस्या का समाधान खोजने में अवश्य ही सफल होंगे। हम इस क्षेत्र में अन्य विकासशील देशों को सहयोग करके न केवल विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेंगे, वरन् विश्व-समुदाय के मध्य स्वयं को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में भी सफल होंगे।